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ब्रह्म विद्या ।।


            विश्वामित्र एक अति तेजस्वी एवं प्रतापी राजा थे आर्यों के इस महान शासक ने सम्पूर्ण पृथ्वी पर एकाधिकार करने के लिए अश्वमेघ यज्ञ सम्पन्न किया परन्तु जैसे ही यह ब्रह्मऋषि वशिष्ठ के सम्मुख पहुँचे इनका सारा तेज जाता रहा। इनके सारे यत्न असफल हो गये, सारे शस्त्र निष्फल हो गये। कल तक जो विश्वामित्र राज्य, सत्ता, शक्ति, सेना के दम्भ पर अपने आपको दिग्विजयी समझ रहा था उसने ब्रह्मत्व धारण किए हुए निःशस्त्र ब्रह्मऋषि वशिष्ठ के सामने पराजित, लज्जित एवं अपमानित स्थिति में अपने आपको खड़ा हुआ पाया। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है भारत भूमि पर सिकन्दर ने भी अपने आपको इसी भाव में लाचार खड़े पाया है। उसकी बुद्धि के द्वार भी भारत वर्ष में ही खुले हैं। मुगल सम्राट अकबर भी ब्रह्मज्ञानियों के चरणों में झुका है। तुलसीदास जी और मीरा दोनों के चरणों में ही अकबर का सर झुका है। उसने भी थक हारकर एक ईश्वर वाद के इस्लामी सिद्धांत को छोड़ ब्रह्म ज्ञानियों की महत्ता स्वीकार की है एवं दीन-ए-इलाही जैसे नये पंथ का भी उसे अनुसरण करना पड़ा है। निराकार को पूजने से कुछ नहीं होता है। निराकार भी कोई पूजने की वस्तु है दिल को बहलाने वाला यह तथाकथित सिद्धांत तो कृष्ण ने गीता में स्वयं ही खण्डित कर दिया है। इस सिद्धांत पर चलकर दस पीढ़ियों में से एकाध को ही साक्षात्कार सम्भव हो पायेगा। इस प्रकार की आध्यात्मिक धारा सामान्य जन को क्या लाभ पहुँचायेगी? क्यों सामान्य जन इसे अपनायेगा? यही कारण है कि सद्गुरुओं, ब्रह्मऋषियों के सानिध्य में अध्यात्म फलता-फूलता है।

            परमेष्ठि गुरु अपनी जगह है और वर्तमान का गुरु अत्यधिक महत्व लिए हुए है। जिन देश में उपासकों को प्रतिबंधित कर दिया जाता है, जिस घरों में अभिभावक पूजा पद्धति या गुरु की अवमानना करते हैं वहाँ पर राक्षसी एवं ताण्डवी शक्ति का वास होता है। अगर घर में बिजली के तार खींचे ही नहीं जायेंगे तो फिर मोमबत्ती या चिमनी की आवश्यकता होगी फिर भी अंधेरा पूरी तरह नहीं मिट पायेगा। ब्रह्मऋषि का तात्पर्य ही वह व्यक्तित्व है जो कि स्वच्छ, निर्मल, निर्विकार एवं निखिल प्रकाश का ऊर्जा केन्द्र है। जिसके अमृतमयी प्रकाश में मनुष्य के सभी तलों पर से अंधेरा गायब हो सके, हृदय भी प्रकाश युक्त हो सके मन भी निर्मल प्रकाशमय हो जगमगा उठे, विचारों एवं बुद्धिपक्ष में भी इतना प्रकाश भर जायें कि अंधेरे में बिलबिलाने वाले कीड़े-मकोड़े और निशाचर शक्तियाँ स्वयं ही भाग खड़े हों। निशाचरों को शक्तिहीन बनाता है प्रकाश। आप सूक्ष्मता से अध्ययन करेंगे तो पायेंगे कि उन जगहों पर ही नकारात्मक पैशाचिक एवं प्रेत शक्तियाँ क्रियाशील होती हैं जहाँ पर कि अंधेरा घोरतम होता है। प्रकाश युक्त सद्गुणी वातावरण में पैशाचिक शक्तियाँ भाग जाती हैं।

           आदि गुरु शंकराचार्य जी एक बार वन में एक वृक्ष के नीचे बैठे थे। उस पेड़ पर दो प्रेत निवास करते थे शंकराचार्य जी को देख प्रेत ताण्डव करने लगे उन्होंने दूसरे ही क्षण अपने कमण्डल से अभिमंत्रित जल निकालकर वृक्ष पर छिड़क दिया देखते ही देखते वे प्रेत योनि से मुक्त हो वहाँ से सदा के लिए चले गये। इस प्रकार वो अभिशप्त जगह पुनः पवित्र हो पूजन स्थल में परिवर्तित हो एवं बाद में वहाँ पर देवालय का भी निर्माण हुआ। बुद्ध जब बोधि वृक्ष के नीचे बैठे निर्वाण प्राप्ति की अंतिम अवस्था में थे तब उस वन में उपस्थित सभी नकारात्मक शक्तियों ने भीषण ताण्डव उत्पन्न कर दिया उनके इर्द-गिर्द । वे सब भयभीत हो गये थे ब्रह्मत्व के प्रकाश से ब्रह्मत्व क्या है ? ब्रह्मत्व वह शक्ति है जिसे धारण कर व्यक्ति ब्रह्मण बनाता है एवं उसके मन, वचन, कर्म इत्यादि सभी कुछ सत्य, निष्ठा से ही क्रियाशील होते हैं ब्रह्मण का तात्पर्य है सत्य को पहचानना । अभेदात्मक सोच शालीनता, निर्लिप्तता एवं कर्तव्य परायणता । जीवन की क्षण भंगुरता से सत्य का कोई भी लेना देना नहीं है।

            ब्राह्मण का तात्पर्य है विराटता। विश्वामित्र ने अपने आपको वशिष्ठ के सामने बौना पाया। ब्रह्मऋषि इतने पारदर्शी होते हैं कि उनके सामने खड़े होते ही व्यक्ति चाहे कितने नकाब ओढ़े हो, कितना भी बनने की कोशिश करे अपने आपको नग्न पाता है, स्वयं वह क्या है उसे समझ में आ जाता है। हम स्वयं क्या हैं? बस इतनी सी बात समझ में आ जाये तो फिर ब्रह्मऋषि बनने में देर नहीं लगेगी। इस दुनिया की विडम्बना यह है कि यहाँ पर शासन करने वाले शक्ति से सम्पुट होते हैं। युवा होते हैं। वे जीवन की कोमलता, बाल्यावस्था को पूरी तरह दर किनार कर देते हैं अपने मस्तिष्क के उन्माद से व्यवस्था रचते हैं। उन्हें इस बात की फिक्र नहीं होती है कि इस दुनिया में बालक, शिशु, शांतिप्रिय सात्विकता लिए हुए उपासक, मनोहारी स्त्रियाँ इत्यादि भी समान रूप से वास करते हैं। 

उनके द्वारा रचे गये ताण्डवी युद्ध, ताण्डवी वातावरण, ऊट पटांग योजनाओं इत्यादि से असंख्य प्राणियों के हृदय हाहाकार कर उठते हैं, चीत्कार कर उठते हैं। वे स्वयं जीना चाहते हैं और दूसरों की परवाह नहीं करते। अनंतकाल से ऐसा ही होता आ रहा है इसलिए इन सबका पतन हो जाता है। समय तो लगता ही है।

         एक बात ध्यान से समझ लें हृदय पक्ष मस्तिष्क से अनंत गुना ज्यादा शक्तिशाली है। आज तक मस्तिष्क ही परास्त होता आया है और होता रहेगा। मस्तिष्क ब्रह्म ज्ञानियों का शासक नहीं है वह तो मात्र विनम्र दास या सेवक की भांति उनकी सेवा में सदैव तत्पर रहता है। मस्तिष्क से निर्मित समाजवाद कम्युनिष्ट व्यवस्था तानाशाही व्यवस्था, राजशाही व्यवस्था नौकरशाही इत्यादि पिछले पचास वर्षों में आपके समक्ष पूरी तरह ध्वस्थ हो गई है। बचा है तो सिर्फ लोकतंत्र, जनतंत्र इसमें भी सुधार की आवश्यकता है क्योंकि मस्तिष्क कहीं-कहीं इसमें भी विकृति डालने से नहीं चूकता है। ब्रह्मऋषि बनना है या फिर ब्रह्मत्व से आत्म साक्षात्कार करना है तो फिर हृदय पक्ष को जागृत करना होगा अन्यथा कुछ भी नहीं होगा जोर जबरदस्ती से तो विश्वामित्र भी कामधेनु को वशिष्ठ के आश्रम से नहीं ले जा सके। कामधेनु वहीं पर निवास करेगी जहाँ पर ब्रह्मत्व का स्थापत्य होगा। कामधेनु का तात्पर्य गौ वंश की उस दिव्य शक्ति से है जो कि साक्षात् लक्ष्मी स्वरूपा है एवं जिसका प्रत्येक कर्म लक्ष्मी का आनंदमयी स्वरूप ही प्रदान करता है। जितना चाहो, जब चाहो, जैसा चाहो वैसा दुग्ध वह आपको अमृतमय स्वरूप में प्रदान कर देगी। उसे देखते ही मन के सारे विकार धुल जाते हैं उसके सानिध्य में अलौकिक शांति या अनुभव होता है।

           ईश्वर भी है और ईश्वर के अलौकिक चमत्कार भी हैं। ईश्वर की अलौकिक सिद्धियाँ भी हैं। आप इस योग्य तो बनो कि वे आपके समक्ष प्रस्तुत हों। कामधेनु का दुग्ध तो क्या उसके शरीर से अष्ट गंध की सुगन्ध निरंतर फूटते रहती है। कामधेनु वहीं निवास करेगी जहाँ पर उसके कानों में प्रात:काल गायत्री जैसे ब्रह्म मंत्र का उच्चारण सुनाई देगा। उसे स्पर्श करने वाला भी पूर्ण रूप से पापरहित ब्रह्म ऋषि ही होगा। उसे चारा खिलाने वाला अपनी आँखों में असीम निर्मलता एवं ममता से युक्त होगा। हिमालय पर सभी जगह शीतलता होगी। इसे कहते हैं स्वेच्छाचारिता। कामधेनु राजऋषि के आश्रम में निवास नहीं करेगी। कृष्ण में इतना ब्रह्मत्व था कि उन्हें देखते ही वृक्ष हरे-भरे हो जाते थे। जहाँ वे खड़े होते थे वहीं पर वातावरण अमृतमय हो जाता था। उनकी एक झलक अनंत वर्षों की थकान और तपन को शांत करने के लिए काफी थी। गायत्री मंत्र भी इस पृथ्वी पर कामधेनु के समान ही कार्य करती है साधकों के लिए।

           ब्रह्मत्व का प्रतिस्फुरण होते ही बुद्ध को विरक्ति आने लगी राज-पाट, जीवन मृत्यु, वृद्धावस्था एवं दुनियादारी के अन्य तामझामों से जैसे-जैसे वे ब्रह्मत्व के करीब पहुँचते गये उनके विरक्ति भाव अत्यंत ही तीव्र हो उठे। तीव्रता के साथ-साथ वे अस्तित्व के सूक्ष्म से सूक्ष्म तल पर भी पहुँचते हुए उन्हें सत्य से परिचित कराते हुए निष्पाप करने लगे और अंत में जब पूर्ण सत्य अर्थात केवल्य ज्ञान अनुभूत हुआ तब वे परमोत्पादक बन सके। परमोत्पादन का मतलब है उन दिव्य धाराओं को प्रवाहित करना जो कि उनके द्वारा ग्रहण किए गये परम तत्व से सम्पुट हों। इन दिव्य उत्पादों को हो आप वेदों, छन्दों, ज्ञान, उपासना पद्धति, योग, नियमों अमृतकारी प्रवचनों, दीक्षा, आशीर्वाद एवं वरदान स्वरूप में अपने समक्ष मौजूद पाते हैं। यही विधान है कायाकल्प का कायाकल्प तो कर पड़ता है। सभी ने कायाकल्प किया है। विश्वामित्र भी कायाकल्पित थे। बुद्ध भी कायाकल्पित हुए हैं।

           ऐसा क्या डाल दिया था परमहंस जी ने नरेन्द्र में जिससे कि वह एक सामान्य पुरुष से विवेकानंद बन बैठा ऐसी कोई दवा तो दुकान पर बिकती दिखाई नहीं देती। मेरे गुरु ने भी पता नहीं क्या डाल दिया अन्यथा मैं भी दुनियादारी में उलझकर ही प्राणांत कर बैठा होता। ब्रह्मऋषि क्या डालते हैं मालुम नहीं। उनका कोई ओर छोर नहीं होता। उनके आगे किसी का वश नहीं चलता। मीरा के आगे किसका वश चला? ब्रह्मऋषि बनने का तात्पर्य है ब्रह्माण्डीय पुरुष बनना। ब्रह्माण्डीय नायक बनना। विष्णु जब युद्ध करते-करते थक जाते हैं तब योगमाया उन्हें शांत अवस्था में सुला देती है। ऐसा ही विश्वामित्र के साथ हुआ जब वे थक गये मैं और अहम की ताकत जबाब दे गयी तब गायत्री माता के रूप में प्रकट हुई। मेरे गुरु ने सही कहा है जब तक दो हाथ वाले से मांगते रहोगे चार हाथ वाला कभी नहीं देगा। 

स्वयंभू प्रतिष्ठित नहीं हो पाओगे। अध्यात्म के क्षेत्र में लोगों से प्रतिष्ठा मत मांगों। लोग यहाँ पर प्रतिष्ठित नहीं करते हैं। लोगों के पीछे दौड़ोगे तो फिर दौड़ते ही रहना। अगर वृक्ष अपने आपको न समेटे तो फिर उचित ऋतु आने पर आप फल कदापि नहीं खा पायेंगे। ब्रह्मऋषि बनना है तो सर्वप्रथम कायाकल्प की तीव्र लालसा होनी चाहिए।

         आज हम जो कुछ हैं उसे निवृत्त करना ही होगा। जहाँ जहाँ कमजोरी, पापाचार एवं कुप्रवृत्ति हमारे अंतर्गत छिपी हुई है उसे त्यागना ही होगा। अहम और मैं को एक कोने में रख दो। ऐसे सानिध्यों को ढूंढना पड़ेगा जहाँ से आपको अमृतमयी तत्व प्राप्त हो सकें। ऐसे स्थानों पर वास करना होगा जहाँ का वातावरण अमृतमयी हो व्यर्थ में ऊर्जा नष्ट करने से या फिर टकराव की स्थिति निर्मित करने से तो घर्षण ही उत्पन्न होगा। घर्षण से अग्रि और तपन ही निकलती है। आपने सड़क के किनारे लगे वृक्षों को देखा है मैं पिछले बीस वर्षों से अपने घर के पास लगे एक आम के वृक्ष को देख रहा हूँ बेचारा नपुंसक हो गया है, दुनिया भर का प्रदूषण, शोर एवं स्पंदन इत्यादि झेल रहा है। न तो उसमें कभी आम लगते हैं और न ही वह घटता बढ़ता है। ऐसा ही होता है सड़े-गले वातावरण में रहने से ब्रह्म शक्ति वह शक्ति है जिससे कि समस्त ब्रह्माण्ड का संचालन होता है जिससे कि यथा स्थिति बनी रहती है एवं प्रत्येक सूक्ष्म से सूक्ष्म आवृत्ति तत्व और जीव की क्रियाशीलता बनी रहती है। ब्रह्मशक्ति अनैतिक व्यवस्था में विश्वास नहीं रखती इसीलिए ब्रह्मत्ता को निर्विकार निर्गुण कहा गया है।

           यह निर्लिप्त शक्ति है। अत्यंत ही सूक्ष्म एवं परिष्कृत नियंत्रणात्मक एवं अत्यंत ही सूक्ष्म क्रियाशीलता का नाम ही ब्रह्म शक्ति है। अद्वैत ही ब्रह्मा है। देखिए जीवन कितना सार्वभौमिक है। नियम बद्धता कितनी कठोर एवं सुस्पष्ट है। सभी मनुष्यों को एक हृदय से काम चलाना पड़ता है। सभी मनुष्यों को ऊंचाई का एक निश्चित माप मिला हुआ है। आपने कभी ऐसा नहीं देखा है कि बीस फुट से लेकर आधे इंच तक के मनुष्य होते हैं। 99 प्रतिशत मनुष्य पांच फुट से लेकर छः फुट तक के मिलेंगे। कितनी निश्चितता है। अधिकांशत: स्त्रियाँ एक बार में और वह भी नौ महीने के अंतराल में ही एक बार बालक को जन्म देगी। 45 वर्ष की अवस्था तक पहुँचते-पहुँचते स्त्रियों में जन्म देने की क्षमता स्वयं ही समाप्त हो जाती है। 55 वर्ष की आयु में पुरुष में संतानोत्पत्ति की क्षमता खत्म हो जायेगी। शेर दस फिट का ही होगा सौ फिट का नहीं। सीमाऐं पूरी तरह निर्धारित हैं। अधिकतम सीमा तो कठोरता के साथ निर्धारित हैं। अब इसमें घट बढ़ का क्षेत्र मनुष्य के कर्मों के आधार पर छोड़ दिया ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार सम्पूर्ण भारत वर्ष में आप बिना किसी रोक-टोक के आ जा सकते हो, कहीं पर भी नौकरी कर सकते हो परन्तु बाहर जाने के लिए कुछ अन्य आवश्यकताऐं पड़ती हैं। योग्य होंगे तो जा पाओगे। आपकी मर्जी नहीं चलेगी। ऐसा नहीं हो सकता कि आप अपने पूरे परिवार का बोरिया बिस्तर बाँधे और हवाई जहाज का टिकिट लेकर अमेरिका में जा बसें।

       जब मानव निर्मित नियम इतने कठोर हैं तो फिर ब्रह्म शक्ति द्वारा निर्मित नियम कैसे होंगे खुद ही अंदाजा लगा सकते हो। बस यहीं से शुरू होता है ब्रह्म वर्चस्व का प्रादुर्भाव । जिसने अति सूक्ष्मता और गूढ़ता के साथ ब्रह्म या ब्रह्माण्डीय या परा ब्रह्माण्डीय नियमों को समझ लिया, आत्मसात कर लिया वही ब्राह्मण कहलायेगा । ब्रह्म को धारण करने का यही विधान है। ब्रह्म नियम ही सत्य है। इसको आत्मसात किया हुआ व्यक्ति ही परम ब्रह्मास्त्रों से सुसज्जित होता है। यही धर्म धारण करने की विधि है। शंकराचार्य जी ने इसीलिए हाथ में ब्रह्म दण्ड धारण किया हुआ है। ब्रह्म- दण्ड प्रतीक है समस्त देव आयुधों का एवं जिसके अंतर्गत माँ भगवती द्वारा धारण किए गये सभी आयुध भी आते हैं। ब्रह्म दण्ड के अंतर्गत ही शाप भी आता है। ब्रह्म दण्ड किनके लिए है? ब्रह्म दण्ड उन कुमार्गियों के लिए है जो कि ब्रह्म शक्ति में अविश्वास रखते हैं एवं राक्षसी प्रवृत्तियों से युक्त होते हैं। जब बह्म नियम कह रहें हैं कि साठ वर्ष की अवस्था काम लिप्तता के लिए नहीं है फिर भी राक्षसी गुणों के कारण भोगी इस ओर अग्रसर हो रहे हैं तो फिर निश्चित ही ये दण्ड के अधिकारी हैं अन्यथा ब्रह्म वर्चस्व समाप्त हो जायेगा। 

साठ वर्ष के भोगी सोलह वर्ष की कन्याओं से विवाह करने लगेंगे तो इस प्रकार समाज में कुकर्म फैल जायेगा। यही कारण है कि भोगी और कामी व्यक्ति मधुमेह, हृदय रोग एवं अन्य प्रकार के विकारों से ग्रसित हो जाते हैं। अत्यधिक कामातुर स्त्रियों के गर्भाशय जीवन के मध्य अवस्था में ही नष्ट हो जाते हैं। यह सब मनुष्य नहीं करता है कोई न कोई दिव्य शक्ति ही इस प्रकार के दण्ड निर्धारित कर देती हैं जिससे कि अंकुश लग सके कुप्रवृत्तियों पर यही है। देव और असुर शक्तियों के बीच चलने वाला निरंतर संग्राम सूर्य की किरणें अत्यंत ही घातक हैं परन्तु ब्रह्म शक्ति के चलते उनकी भी हिम्मत नहीं है कि वे पृथ्वी पर घातक रूप में पैर रख सकें। उन्हें भी माता गायत्री के अनुसार ही कोमल रूप में पृथ्वी पर उतरना पड़ता है। इस पृथ्वी पर प्रत्येक शक्ति को अमृतमयी रूप में उतरने की इजाजत है अर्थात शक्ति का वह स्वरूप जो कि जीवन के लिए उत्पादक एवं लाभप्रद हो। बस इसी मातृमयी शक्ति के कारण ही तो बालक नौ महीने स्त्री के गर्भ में रह पाता है।

          ब्रह्मऋषि सदैव मातृ शक्ति के उपासक होते हैं। प्रत्येक तत्व में, प्रत्येक जीव में माता के भाव देखते हैं इसलिए वे चारों ओर से पूर्ण सुरक्षित, कवचित और सुसज्जित होते हैं। जिस प्रकार माता अपने शिशु की हर तरफ से पूरी देखभाल करती है उसी प्रकार ब्रह्मऋषियों की प्रत्येक आवश्यकता माता बिना बताए ही स्वतः पूर्ण कर देती है। बालक के एक रूदन पर माता के स्तनों से दुग्ध की धारा फूट पड़ती है, वह स्वयं भूखी रह सकती है परन्तु बालक के लिए येन-केन-प्रकारेण भोजन उपलब्ध करा देती है। ब्रह्मत्व धारण करने का एकमात्र उपाय, अनुष्ठान एवं संकल्प है मातृ शक्ति की पूर्ण तन्मयता के साथ उपासना, आराधना एवं कृपा की प्राप्ति यही रहस्य जब विश्वामित्र ने समझा तब जाकर वह ब्रह्मऋषि बन पाये। गायत्री मंत्र क्या है? सीधी सी बात है वह परम ब्रह्माण्डीय, परम आदि माता का स्तुतिगान ही है। ब्रह्मविद्या के अंतर्गत क्या नहीं आता है? ब्रह्मज्ञानी चाहें तो बैठे-बैठे हजारों मील दूर की घटना को देख सकते हैं कहीं भी प्रकट हो सकते हैं। ब्रह्माण्ड में कहीं भी विचरण कर सकते हैं, किसी भी रोगी को दो मिनिट में स्वस्थ कर सकते हैं, मनचाहा पदार्थ अपनी इच्छानुरूप एक क्षण में प्राप्त कर सकते हैं, ब्रह्माण्ड के गूढ़ से गूढ़ रहस्यों को एक साथ देख सकते हैं, आत्मसात कर सकते हैं, किसी भी विषय पर घण्टों बोल सकते हैं, लीला भी कर सकते हैं, माया भी फैला सकते हैं, आशीर्वाद भी प्रदान कर सकते हैं, वरदान भी दे सकते हैं, दीक्षा संस्कार भी सम्पन्न कर सकते हैं। जिसने खुद कायाकल्प किया होगा वही तो कायाकल्प करायेगा। जिसके अंदर स्वयं के दुग्ध का उत्पादन होगा वही तो दुग्धपान करायेगा। वृक्ष ही आपको प्राणवान प्रदान करते हैं। जब प्राणवायु बनेगी तभी तो आपको प्राणवायु प्रदान करेंगे। प्रदान करने का खेल मातृ शक्ति का परिचायक है। मातृत्व के रस से परिपूर्ण मस्तिष्क ही मातृ शक्ति का प्रसार करेगी। जो स्वयं प्रेम विहीन होगा मातृत्व विहीन होगा, वह तो सिर्फ हिंसा, ताण्डव एवं दूसरों की आँखों में आँसू ही लायेगा। माता की गोद में बालक हँसने लगता है, मुस्कान बिखेरता है। ठीक इसी प्रकार आदि शक्ति माँ भगवती की गोद में खेल रहा बालक किस प्रकार की अमृतमयी मुस्कान बिखेरेगा इसे आप स्वयं ही समझ सकते हैं। ब्रह्मविद्या प्राप्त करने के लिए नाना प्रकार के जतन करने की जरूरत नहीं है बस सिर्फ मातृत्व की शरण में रहिए, मातृत्व तुल्य व्यक्तित्व बनिए, बालक के समान अपने आपको समेटिए और मुस्कान बिखेरिए यही है गायत्री शक्ति का रहस्य । 

                      शिव शासनत: शिव शासनत:

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