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श्री प्रत्यंगिरायै नमो नम: ।।

ॐ नमो भगवती महाप्रत्यंगिरा स्वरूपिणी त्वरिता मातृका मम समस्त प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष शत्रून नाशय नाशय हुं फट् स्वाहा।

    हे महाकालिके, हे प्रथमा, हे आद्या, हे महाविपरीत प्रत्यंगिरे जब साधक के बड़े पुण्य भाग जागते हैं तब वह तेरे नाम का उच्चारण करता है। वह साधक परम सौभाग्यवान है जो तुझे भजता है, साथ ही साथ जब तू स्वयं साधक को अपना लेती है तो इस प्रकार के कालिकामय साधक के दिव्य भाग्य पर देवता भी विस्मित हो जाते हैं। हे कालिका तेरी साधना से साधक के जीवन में परा ब्रह्माण्डीय प्रत्यंगिरा शासन प्रारम्भ हो जाता है और उसकी एकमात्र शासनाध्यक्षा तू होती है। तू ही साधक के जीवन में घटने वाले प्रत्येक क्षण को प्रत्यक्ष रूप से देखती है, प्रत्यक्ष निर्णय लेती है और इस प्रकार वह साक्षात् काल और महाकाल से परे अकाल हो जाता है। इस प्रकार काल एवं महाकाल साधक के जीवन में मौजूद काल के क्षणों को प्रभावित नहीं कर पाते तो फिर औरों की क्या बिसात? ग्रह, नक्षत्र, देवी-देवता, राशियाँ, असुर, गंधर्व यहाँ तक कि शिव और ब्रह्मा, रुद्र, विष्णु, रोग, मृत्यु कोई भी साधक के जीवनकाल में प्रविष्ट हो क्रियाशील नहीं हो पाता। जो सबका प्रवेश निषेध कर दे, सबके कर्म साधक के ऊपर वर्जित कर दे, सभी प्रकार के कृत्य-कुकृत्य का निरोध कर दे, निषेध कर दे ऐसा है तेरा स्वरूप हे महाविपरीत प्रत्यंगिरे जो तुझे पूजता है, तुझे भजता है तू उसे किसी अन्य को पूजने भजने नहीं देती एवं उसके जीवन का लक्ष्य-निर्धारण, उसकी जरूरतें, उसकी इच्छाएं इत्यादि का तू स्वयं भरण-पोषण करती है। यही रहस्य है हे कालिके तेरा महाकाल के ऊपर नर्तन करने का अतः कालिका के साधक के लिए तो महाकाल भी शव स्वरूप होता है तो फिर काल की क्या बिसात?

          ऐसे साधक का जीवन घड़ी की सुइयों से निर्धारित नहीं होता। वर्ष, महीने, दिन, मुहूर्त इत्यादि महाप्रत्यंगिरा के साधक के लिए कोई मायने नहीं रखते क्योंकि इन सबका अधिनायक महाकाल तो स्वयं हे प्रत्यंगिरे तेरे चरणों में पड़ा हुआ है भला वह तेरी आज्ञा कैसे टाल सकता है ? ब्रह्माण्ड की सबसे अति विकसित युद्ध मशीन अर्थात समग्र शस्त्र प्रणाली के रूप में तू अपने साधक के अंदर और बाहर क्रियाशील हो उठती है। "ॐ क्रीं क्रीं क्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रूं ह्रूं...... हूं हूं स्वाहा" इस मंत्र का तात्पर्य है कि अगर मेरे जातक की तरफ नजर उठाकर देखी, उससे छेड़खानी की, उससे खेलने की कोशिश की, उसे परेशान करने की कोशिश की, उससे कुछ मांगने या छीनने की कोशिश की तो शव बना दिए जाओगे, मुर्दे में परिवर्तित कर दिए जाओगे और तुम्हारा स्थान होगा महाश्मशान जहाँ मेरी समस्त प्रत्यंगिरा स्वरूपिणीं काली-नित्याएं, महायोगिनियाँ तुम्हारा उसी प्रकार भक्षण करेंगी, तुम्हारा उसी प्रकार मर्दन करेंगी जिस प्रकार श्री दुर्गा सप्तशती में वर्णित युद्ध में असुरों का हुआ था।

        हे महाप्रत्यंगिरा तू महायुद्ध की नायिका है, तेरे अंदर से ही समस्त प्रकार के युद्धों का जन्म होता है, तू शस्त्र-बिन्दु है। इस ब्रह्माण्ड में जितने भी स्थूल, जैविक, सूक्ष्म, आणविक, परमाणविक, दैवीय, परादैवीय, मंत्रात्मक, तंत्रात्मक, संकलात्मक इत्यादि-इत्यादि शस्त्र हैं अस्त्र हैं वे सब तुझी में से उत्पन्न होते हैं। हे प्रत्यंगिरे तू परम काट है, तू दिव्य तोड़ है, तू परम औषधि है तू परा निदान है। संसार में ऐसा कोई रोग नहीं, ऐसा कोई शत्रु नहीं, ऐसा कोई वाक्य नहीं, ऐसा कोई मुण्ड नहीं, ऐसा कोई षडयंत्र नहीं, ऐसा कोई मारकेश नहीं, ऐसा कोई शास्त्र नहीं, ऐसा कोई मंत्र नहीं, ऐसा कोई विज्ञान नहीं इत्यादि इत्यादि जिसकी काट, जिसका तोड़ तेरे पास मौजूद न हो एवं यही श्री दुर्गा-सप्तशती में वर्णित युद्ध में तूने स्पष्ट रूप से दिखाया है। तू शिवास्त्र की भी काट रखती है उसे भी क्षण भर में बेकार कर सकती है यही तेरे अट्ठाहास और हूँ हूँ के नाद का रहस्य है।

       हमारी पृथ्वी पर जीवन की सर्वांग रक्षा मनुष्य का मूलभूत अधिकार है। प्रत्येक देश का संविधान एक तरह से प्रत्यंगिरा विद्या का ही अनुसरण करता है। प्रत्येक देश के चिकित्सक, राजनीतिज्ञ, बुद्धिजीवी, आध्यात्मिक व्यक्तित्व, प्रत्यंगिरा के मूलभूत के सिद्धांत पर चलते हैं अर्थात जीवन की रक्षा होनी चाहिए। जो जीवन में विघ्न डालते हैं, जीवन को मृत्यु के मुख में ले जाते हैं, जीवन को कष्टमय बनाते हैं, जीवन को कमजोर करते हैं वे दण्ड के पात्र हैं और यही रहस्य हैं तेरे खड्ग धारण करने का। मनुष्य एवं जीव जंतुओं को कर्म करने का नैसर्गिक अधिकार प्राप्त है, कर्म के इस नैसर्गिक अधिकार का ज्यादातर मनुष्य दुरुपयोग ही करते हैं। जाने- अनजाने में या आदत -वश कर्म करने के अधिकार का सामूहिक तौर पर, व्यक्तिगत तौर पर, गुप्त रूप से, मानसिक रूप से, आध्यात्मिक रूप से मुझे तो सिर्फ हिंसात्मक रूप में उपयोग ही दिखाई पड़ता है। कौन कहता है कि पृथ्वी सभ्य हो गई है ? पृथ्वी सुसंस्कृत हो गई है ? पृथ्वी पर हिंसा की मात्रा कम हो गई है ? यह सब पूरी तरह से बकवास हैं। भले ही स्थूल रूप में आज बड़े-बड़े हिंसक प्राणी न दिखाई देते हों पर हिंसा ने रूप बदल लिया है, चोला बदल लिया है वह और पैनी, सूक्ष्म एवं न पकड़ में आने वाली हो गई है। कौन सभ्य ? सूट बूट पहना आदमी, पढ़ा-लिखा आदमी, बुद्धिमान आदमी, पैसे वाला आदमी, राजनेता, अभिनेता, ऊंचे औहदे पर बैठा अफसर, आम मनुष्य, व्यापारी इत्यादि- इत्यादि। क्या परिभाषा है सभ्य होने की, सुसंस्कृत होने की, इन सबके कर्मों में घोर हिंसा छिपी हुई है। इन सबके कर्म अत्यधिक पीड़ादायक, मानव रक्त से सने हुए, परम शोषक एवं चरम हिंसा लिए हुए हैं।

           जब तक कर्म का अधिकार हम नहीं समझेंगे कृत्य जो कि कर्म से उत्पन्न होता है वह हिंसा से मुक्त नहीं होगा। वहीं सभ्य, सुसंस्कृत एवं शालीन कहलाने योग्य हैं जो प्रत्येक कर्म को हिंसा विहीन कर लें परन्तु यह सैद्धांतिक बात है अतः अति परिष्कृत, परा-आध्यात्मिक युद्ध मशीन जो कि स्वतः जीवित जागृत हो, पूर्णांग हो, सहस्वांग हो, अनताग हो, जिसमें से कि अपने आप प्रतिरोध की क्षमता, निरोध की क्षमता, शत्रु को पहुंचने की क्षमता, उसे निष्क्रिय करने की क्षमता, उसके कृत्यों को काटने की क्षमता हो ऐसी परा आध्यात्मिक सम्पूर्ण आयुध प्रणाली नितांत आवश्यक है और यह प्राप्त होती है महाप्रत्यंगिरा अराधना से। अगर आप ज्योतिषी है तो आपको कुण्डली में देखना चाहिए कि सामने की विष कन्या तो नहीं बैठी हुई है? इसको जन्म कुण्डली में विष कन्या योग तो नहीं है। सामने बैठता जातक कहीं कृत्या-पुरूष तो नहीं है, कहाँ इसकी कुण्डली में महाषडयंत्र कारी योग तो नहीं है, क्षदम् योग तो नहीं है। यह तो हुई पैथालॉजी रिपोर्ट फिर आपको चाहिए विष कन्या के विष का तोड़, पुरुष के क्षदम् योग का तोड़ ढूंढना चाहिए। ऐसा टीका जो विष कन्या के विष को निष्प्रभावी बना दे, क्षदम् पुरुष योग को तोड़-फोड़ कर रख दे तभी आप जीवन में सफल हो सकते हैं अन्यथा विष कन्या का योग लिए हुए कोई स्त्री, आपको पत्री, आपकी पत्नी, आपकी प्रेमिका, आपकी सहयोगी, आपकी मित्र इत्यादि-इत्यादि बनकर आयेगी और अपनी विष ग्रंथि से आपका काम तमाम कर देगी। पूतना कृष्ण को विषाक्त दुग्ध पिलाने आयी थी पर खुद ही स्वर्ग सिधार गई। सूर्पणखा विषकन्या थी लक्ष्मण ने उसे पहचान लिया, वह सीता का भक्षण करना चाह रही थी। श्रीविद्या का तात्पर्य है जीवन की तीन अवस्थाएं जागृत, सुषुप्त एवं स्वप्न की स्थिति में सौन्दर्य का दर्शन, परम सौन्दर्य का दर्शन। जागृत अवस्था भी सौन्दर्यवान हो, जागृत अवस्था स्थूल कर्म की अवस्था होती है। सुषुप्त अवस्था में स्थूल कर्म शून्य होते हैं ऐसी अवस्था में भी आप सौन्दर्य के दर्शन कर सकें और आपके स्वप्न भी सौन्दर्य से परिपूर्ण हों। सुन्दर सपने देखो, सुन्दर चिंतन करो, कालिका के सौन्दर्य को निहारो यही श्रीविद्या है। नमो सुन्दरिम्-नमो सुन्दरिम् श्री सुन्दरिम् नमो नमः ।
   
                        शिव शासनत: शिव शासनत:

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