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महाकाल संहिता ।।

             आज आप जो उज्जयिनी देख रहे हैं वह तो वास्तविक उज्जयिनी का एक खण्ड है। वास्तव में उज्जयिनी त्रिकोणात्मक है अर्थात महाकाली का क्षेत्र । वास्तविक उज्जयिनी आज के निमाड़ अंचल तक फैली हुई थी । उज्जयिनी की सीमा रेखा एक तरफ नर्मदा भी तय करती हैं। शिव ने घोर तपस्या की और इस तप के प्रभाव से श्वेत-स्वेद शिव के शरीर से बह निकला और इस प्रकार शिव पुत्री नर्मदा का प्राकट्य हो गया । पुत्र तो गणेश और कार्तिकेय हैं ही, ये घोषित पुत्र हैं परन्तु इनके अलावा मंगल भी शिव पुत्र हैं। शिव जब सति वियोग में दग्ध थे तब उनके पसीने की कुछ बूंदें पृथ्वी ने धारण कर ली और वह स्थान था उज्जयिनी, पृथ्वी और शिव के मिलन से शिव पुत्र मंगल का उदय हुआ। मंगल नाथ भी शिव के समान अति सुन्दर हैं और शिवलिङ्ग रूप में ही उज्जयिनी में विराजमान हैं एवं इन्हें सिन्दूर चढ़ता है। मांगलिक दोषों का निवारण इसी मंदिर में होता है। 

               उज्जयिनी की विशेषता यह है कि सब यहाँ पिण्डी रूप में हैं। काली भी पिण्डी रूप में, महाकाल भी पिण्ड हैं, गणेश भी पिण्ड हैं ग्रह भी पिण्ड हैं, देवी भी पिण्ड हैं, भैरव भी पिण्डी रूप में हैं और पिण्ड स्वरूपों में से आकृतियाँ निकल रही हैं। महाकाल के गर्भ ग्रह में भस्म आरती के पश्चात शिव मुख उकेरा जाता है। महादेव मुखाकृति ग्रहण करते हैं एवं इसी के पश्चात् अन्य पिण्डी रूपी देवताओं और देवियों को भी श्रंगारित किया जाता है। वे भी मुखाकृति ग्रहण करते हैं। यह सृष्टि का प्रजनन केन्द्र है जो कुछ होता है सर्वप्रथम यहाँ होता है और कालान्तर कई कल्पों से विश्व के विभिन्न हिस्सों में वह स्थानांतरित या रोपित होता है। पूजा की कोई पद्धति नहीं है। विशेषकर शिव किसी पूजन पद्धति के अधीन नहीं है ।

            बाणासुर रोज एक प्राकृतिक शिवलिङ्ग नर्मदा में फेंक देता और डुबकी लगाकर उसे निकालता और फिर उसके सामने गाल बजा-बजाकर, नाच-नाच कर उसे तरह तरह से श्रंगारित कर पूजा अर्चना करता । नर्मदा भीषण उफान पर थी फिर भी बाणासुर पहुँच गया, नर्मदा में शिवलिङ्ग को फेंका और उफनती नदी में कूद गया जान की परवाह किए बिना। सारा दिन शिवलिङ्ग ढूंढता रहा पर मिल ही नहीं रहा था, आखिरी बार रात्रि में कूद पड़ा और शिवलिङ्ग निकाल ही लाया। शंकर चटक गये बाणासुर को वरदान दे बैठे। बाणासुर अजेय हो गया एवं कृष्ण भी उसे नहीं मार पाये । कृष्ण ने आखिरकार बाणासुर से पारिवारिक सम्बन्ध बनाये क्योंकि शिव ने उसे महाकाल तत्व दे दिया था, वह महत्वपूर्ण हो गया था, वह महान हो गया था । वरदान शिव देते हैं, औघड़ दानी ही देता है, दक्षिणामूर्ति गुरु ही देता है। कितनी बड़ी बात है यह उद्घोष करना कि जो चाहे वह मांग लो। बाणासुर के वरदान के कारण ही शिव परिवार समेत उसकी नगरी की रक्षा करते थे।

              महाकाल को समझना है तो फिर चटकने के महत्व को समझ लें, आकाश में जब विद्युत चटकती है, कहीं कुछ घर्षण होता है तो ही हैमवती उमा के रूप में शक्ति प्रकट होती हैं। अध्यात्म तो चटके दिमाग वालों का क्षेत्र है। जीवन में महान चटके दिमाग वाले ही बनते हैं। एक कमरे में अपने आपको बंद कर लेना एवं नहाना धोना, खाना-पीना भूल जाना, दुनिया से अपने आपको काट लेना और फिर कुछ अविष्कृत कर लेना, कोई खोज कर लेना बस यही कहानी है सभी वैज्ञानिकों की, अविष्कार कर्ताओं की, लेखकों की,दार्शनिकों की, खोजियों की ये सबके सब चटके होते हैं। चटककर बात करते हैं, समाज से निष्कासित तो होते ही हैं। हिटलर क्या था ? नेपोलियन, आइंस्टाइन, कालिदास, रविन्द्रनाथ, माऊंट ऐवरेस्ट पर चढ़ने वाला, गैलिलियो, रावण इत्यादि से लेकर प्रत्येक आध्यात्मिक या किसी अन्य क्षेत्र में मह तत्व प्राप्त कर लेने वाले, महत्वपूर्ण बन जाने वाले महान व्यक्ति की जीवनी उठाकर देख लें सब आपको चटके मिलेंगे। 

             वर्धमान से महावीर अर्थात मह शब्द प्राप्त किया, कैसे ? क्योंकि उज्जयिनी के श्मशान में बैठकर तप किया। रुद्र से बुद्ध की यात्रा को समझना होगा, बुद्ध के अविष्कार को समझना होगा तभी मह का महत्व समझ में आयेगा रुद्र का तात्पर्य है रूंदन, अंदर कुछ रो रहा है, अंदर कुछ व्यथा चल रही है, अंदर द्वंद है, अंदर कहीं व्याकुलता है। यह सब जीवों की कहानी है। जब यह रुदन असहज कर देगा तो सिद्धार्थ घर से भागेगा, महाकाल की शरण में मह को ढूंढेगा और सीधे उज्जयिनी पहुँचेगा। नहीं तो वहीं बैठकर विलाप करेगा या तो विलाप में दम होगा, रूदन में शक्ति होगी, छाती में तड़फ होगी तो महाकाल खिंचा चला आयेगा, हाथ में त्रिशूल और डमरू लिए हुए भस्म से विभूषित भस्म करने हेतु और इस प्रकार रुद्र बुद्ध में परिवर्तित हो जायेगा हमेशा के लिए। रोता हुआ बालक माता के स्तन से पान कर बुद्ध ही बन जाता है बुद्ध द के समान ही मुस्कुरा और खिलखिला उठता है।

         जैविक माता (बायोलोजीकल मदर) सिर्फ आदि माता की नकल करती है एवं वह कुछ क्षण के लिए रुद्र से बुद्ध में परिवर्तित कर सकती है जीव को परन्तु आदि माता अर्थात महाकाली के स्तनों से जब जीव लिपटकर दुग्धपान करता है उसके आंचल में सिमट जाता है तभी वह बुद्ध बन पाता है, वह नाथ बन पाता है, वह महाअवधूत बनता है, वह सदैव मुस्कुराता है, सदैव प्रसन्न रहता है, सदैव बलिष्ट रहता है। काली का श्रंगार । नागनाथ उज्जयिनी में घूम रहे थे। सिर फिरे तो थे, चटके हुए तो थे लकड़ी के गट्ठे को साँप की रस्सी बनाकर बांधते थे, सांप बेचारा क्या कर लेता चुपचाप रस्सी बन जाता था। नाम ही उनका नागनाथ था जो काम लेना है सांप से लेंगे, अजगर को वृक्ष की डाली पर बांधकर झूला झूलते थे । अचानक महाकाल वन में महाकाली के मंदिर में पहुँच गये। आ गई लहर नागनाथ के मन में, माँ का सौन्दर्य देख पगला उठे, एक सांप पाँव में बांध दिया, दूसरा दूसरे पाँव में, कमर में भी एक सर्प बांध दिया गले में भी सर्प लटका दिया। एक सर्प का मुकुट बनाकर जैसे ही महाकाली के मस्तक पर रखने लगे कालिका प्रसन्न । सर्पों के श्रंगार से युक्त कालिका की विशाल प्रतिमा में कालि का प्राकट्य हो गया । नागनाथ के बाल्य भाव से महाकाली का ममत्व उमड़ पड़ा उसके विशाल उन्नत स्तनों से दुग्ध धारा बह निकली और नागनाथ का सम्पूर्ण शरीर दुग्धमय हो गया, वह सिद्ध हो गये एवं नाथ से नारायण बन गये।कालिका की जंघा पर बैठ गये पुत्र के समान। 

          कुछ लोग न्यास, विनियोग, तांत्रोक्त पूजन, मंत्र जप, ये माला, वो माला, ये यंत्र तो वो यंत्र के चक्कर में पड़े रहते हैं। ठीक है तकनीक होनी चाहिए, विधान होना चाहिए परन्तु सिर्फ विधानों से ही काम नहीं चलेगा। विधानों से ऊपर हैं महाकाली और महाकाल किस ग्रंथ में लिखा है कि सर्पों से कालिका का श्रंगार करो, बाणासुर की पूजा पद्धति, रावण की पूजा पद्धति, दत्तात्रेय की पूजन पद्धति किसी वेद में वर्णित नहीं है। शिव को दक्षिणामूर्ति इसलिए कहा, काली को दक्षिण की महारानी इसलिए कहा कि वे वेद वर्णित पूजन के अधीन नहीं है। उनकी कोई पूजन पद्धति नहीं है इसलिए वे महादेव कहलाते हैं। बड़े-बड़े ज्ञानी धरे रह गये, बड़े-बड़े प्रवचनकर्ता बकवास करते रह गये पर एक अनाड़ी ने महाकाल और महाकाली की प्राप्त कर लिया।

             कोई नहीं समझ सकता इनके खेल को विक्रमादित्य क्या थे? ग्वाले के यहाँ पले थे। थे तो क्षत्रीय पर ग्वालों के यहाँ । भर्तृहरि क्या थे? ये तो कुम्हार के घर पले बड़े थे, गधे पर बैठते थे परन्तु थे सूर्य पुत्र सूर्य उर्वशी नामक अप्सरा पर मोहित हो गये, उर्वशी सूर्य से बचकर भागी परन्तु सूर्य का वीर्य स्खलित हो गया। उस वीर्य के एक हिस्से से भर्तृहरि का जन्म हुआ और पालन पोषण हुआ कुम्हार के घर । भर्तृहरि पशु-पक्षियों की बोली समझते थे विक्रमादित्य को बता दिया कि सियारों के इस वक्त चिल्लाने का मतलब है शत्रु आक्रमण करने वाला है। विक्रमादित्य उनकी इस अद्भुत क्षमता से प्रसन्न हो गये उन्हें अपना मित्र बना लिया। भर्तृहरि का विवाह महाकाल के सानिध्य में पिंगला से हो गया। विक्रमादित्य को पहचान दी महाकाल ने भर्तृहरि को पहचान दी महाकाल ने । पिंगला के प्रेम में भर्तृहरि पागल हो गये बोले अगर मैं मर गया तो तुम क्या करोगी? पिंगला बोली मैं सती हो जाऊंगी। महाकाल ने देखा कि भर्तृहरि भक्ष्य भक्ष्य के मार्ग पर दौड़ रहा है। उन्होंने दत्तात्रेय को आदेश दिया कि शिष्य बनाकर उसका कल्याण करो।

              दत्तात्रेय ने महाकाल वन में माया रच दी। गुरु बनकर बैठ गये। शिकार खेलते-खेलते भर्तृहरि को जोर से प्यास लगी। पानी का भक्षण भर्तृहरि को व्याकुल कर बैठा, प्यासा भर्तृहरि दत्तात्रेय के आश्रम पहुँच गया और पानी मांगने लगा दत्तात्रेय बोले तू दीक्षित है मैं केवल दीक्षितों की ही पानी देता हूँ। तेरा कोई गुरु है भर्तृहरि बोला मैं क्या जानूं गुरु, मुझे प्यास लगी है अतः आप ही मेरे गुरु बन जाओ और पानी पिलाकर जान बचा लो। दत्तात्रेय बोले मैं उन्हीं को दीक्षा देता हूँ जिन्होंने 12 वर्ष का तप किया हो। भर्तृहरि चटक गया बोला दीक्षा दे दो बाद में 12 वर्ष तप कर लूंगा। 12 वर्षों बाद आऊंगा, थोड़ा भांग और कर लेने दो दत्तात्रेय भी अवधूत ठहरे मान गये। भर्तृहरि की दीक्षा हो गई उसे पानी मिल गया। पीने के बाद भर्तृहरि बोला आप अपना नाम तो बताते जाओ। महाअवधूत बोले मैं हूँ दत्तात्रेय, आदि गुरु । खैर भर्तृहरि भूल-भाल गया। शिष्य भूल जाते हैं पर गुरु नहीं भूलता। कालान्तर पिंगला सती हो गई भर्तृहरि ने उसे परखा झूठी खबर भिजवा दी किं भर्तृहरि का महाकाल वन में सिंह ने भक्षण कर लिया है।

हाय पिंगला- हाय पिंगला 12 वर्ष तक श्मशान में बैठकर चिल्लाते रहे बस हो गई 12 वर्ष की तपस्या, दत्तात्रेय पिघल गये। गोरखनाथ को भेजा कि जाओ भर्तृहरि का उद्धार करो, उसे मह तत्व प्रदान करो, उसे महान बनाओ एवं अवनति के पथ से उस मूर्ख को उठाकर उन्नति के पथ पर बढ़ाओ। गोरखनाथ ने एक मटका लिया और श्मशान में ले जाकर भर्तृहरि के सामने फोड़ दिया और चिल्लाने लगे हाथ मटका- हाय मटका भर्तृहरि बोले क्यों चिल्ला रहे हो मूर्खों के समान, क्या टूटा मटका फिर वापस आ जायेगा गोरखनाथ बोले तू क्यों चिल्ला रहा है हाय पिंगला - हाय पिंगला । भर्तृहरि की आँखें खुल गई गोरखनाथ ने एक हजार पिंगला प्रकट कर दी बोले चुन ले इसमें से एक। क्या चाहता है ? पिंगला या पिंगला के निर्माण की विधि। भर्तृहरि चरणों में लोट गये। उन्होंने पिंगलाओं के निर्माण की विधि को ही महत्व दिया और दत्तात्रेय के सानिध्य में संन्यस्थ हुए। 

           सिरफिरों का नायक है महाकाल। उन्हीं के अंदाज में बात करता है महाकाल, उन्हीं के अंदाज में तप करवाता है महाकाल । दक्षिणामूर्ति गुरु तोड़कर रख देता है, शिव प्रहार करता है, गुरु भी प्रहार करता है। छैनी उठाकर पत्थर पर हथोड़े से प्रहार करना ही पड़ता है तभी मूर्ति साकार होती है। जिसे प्रहार करना नहीं आया उसे मूर्ति गढ़ना नहीं आया। गुरु को ही शिष्य मिलते हैं अन्य किसी को नहीं शिष्य तभी मिलेगा जब सम्पूर्ण गुरुत्व विकसित हो जायेगा इससे पहले नहीं। इससे पूर्व तो भक्ष्य भक्ष्य वाले जीव ही मिलेंगे। ये हल कर दो, उस समस्या का निवारण कर दो, नौकरी दिला दो, विवाह करा दो इत्यादि इत्यादि । शिष्य तो दो चार ही होते हैं। जीवन में यात्रा तो करनी ही पड़ती है क्योंकि पाद मिले हुए हैं एक शहर से दूसरे शहर पेट भरने के लिए यात्रा, नौकरी ढूंढने के लिये यात्रा, कोई बीमार पड़ गया तो उसका इलाज करवाने के लिये देश-विदेश की यात्रा, पुलिस थाने की चरण वन्दना, राजा अगर कुपित हो गया तो उसके कोप से बचने के लिए जान बचाने के लिए यात्रा, बेटी का विवाह के लिए दर-दर की ठोकरें खाने वाली यात्रा, कितनी यात्राएं गिनाऊं ? शव यात्रा भी करनी पड़ती है, शव यात्रा में भी सम्मिलित होना पड़ता है और इसी से निर्मित होता है क्लेश, व्यथा । काल-चक्र की यही पहचान है। 

           काल चक्र की गति बड़ी निराली है। कालचक्र की गति से ही जीव को अनेकों प्रकार की दुर्गतियां प्राप्त होती हैं। गति तो चाहिए होगी, गतिमान तो होना होगा क्योंकि आप पादप हैं, आपके पैर लगाकर भेजे गये हैं। स्पष्ट आदेश, सीधी बात इन सब यात्राओं से बचने का एकमात्र उपाय है महाकाल की यात्रा, महाकाल पूजन। गुरु पूर्णिमा पर बायें हाथ से काम करने वाले इस दक्षिणामूर्ति शिव भक्त गुरु की यात्रा और परिक्रमा समझ में आ जाये तो ठीक है नहीं समझ में आये तो अनंत काल तक कष्ट क्लेश रूपी फल प्रदान करने वाली यात्राओं में उलझे रहना। ऊपर वर्णित बेमतलब की यात्राओं से बचने के लिए आदि गुरु शंकराचार्य दक्षिण से निकल पड़े, दक्षिणामूर्ति गुरु की खोज में अर्थात उस गुरु की खोज में जिसने महाकाल तत्व को आत्मसात कर लिया हो। जो कभी न सोता हो, जो पूर्ण चैतन्य हो, जिसके सिर के ऊपर सदैव सूर्य प्रकाशवान हो । रास्ते में बालक शंकराचार्य ने एक लकड़ी उठाई और दण्ड के रूप में धारण कर ली। महाकाल दण्ड धारण करते हैं, दण्ड भी देते हैं, दण्ड देने का तरीका बड़ा निराला है। जीव के लिए दण्ड आवश्यक है, शिष्य के लिए भी दण्ड आवश्यक है पर गुरु या शिव के दण्ड में कल्याण का भाव अवश्यम्भावी है। 

          त्रिपुरासुर का वध होना था समस्त देवता विष्णु सहित महाकाल वन में निवास कर रहे महाकालेश्वर के पास पहुँचे बोले हे दक्षिणामूर्ति त्रिशूल उठाओ और हमारी रक्षा करो। शिव ने ना कह दिया, बोले वे सब मेरे भक्त हैं अगर तुम उनका वध करवाना चाहते हो तो शिवापराध करवाओ तभी पाशुपतास्त्र चलेगा। विष्णु ने माया रच दी और असुर शिव पूजन से विमुख हो गये, शिवापराध हुआ और शिव ने त्रिशूल चलाया। तीनों पर भस्म हो गये उड़ती हुई भस्म से महाकाल आच्छादित हो गये। कोई अपराध करना नहीं चाहता, कोई जीव कत्ल करना नहीं चाहता, कोई जीव दण्डित होना नहीं चाहता परन्तु यह गूढ़ रहस्य है कि अपराध शिव और काली करवाते हैं जान बूझकर जिससे कि दण्ड दे उन्हें पशु बंधनों से मुक्त किया जा सके। गलतियाँ करवाने का, अपराध करवाने का केन्द्र बिन्दु हैं महाकाल ।

         महाकाली और महाकाल जब शतरंज खेलते हैं, चौसर बिछती है तो उस पर मोहरे होते हैं जीव । अट्ठाहस करते हुए महाकाल और महाकाली जीवों की सार में चौंसर सजाते हैं । अघोरेश्वर और अघोरेश्वरी ही चाल चलते हैं और इस सृष्टि के राजा महाराजा, वजीर, हाथी, घोड़े, प्यादे बनते बिगड़ते रहते हैं। यही मैथुनी सृष्टि का रहस्य है, यही शिव और काली का अट्टाहास है।        
महाकाल क्षेत्र में ही शिव और काली क्रिया रत है, आलिंगन बद्ध हैं। जहाँ देखो युगल रूप में दिखाई पड़ जायेंगे। नाचते भैरव, मृदंग बजाते भूतगण, अट्टाहास करती योगिनियाँ, शिव की छाती से वक्ष स्थल टकराती महाकाली, चिंघाड़ते हाथी, गरजते सिंह के - कालजयी आध्यात्मिक दृश्य उज्जयिनी के वातावरण में साधक देख लेता है । भक्ष्य भक्ष्य की संस्कृति रही है । भक्ष्य भक्ष्य से मुक्त होने के लिए अघोरी ने नर मांस मांगा तो वह भी महाकाल ने श्मशान में उपलब्ध करा दिया। उज्जयिनी के इतिहास में जो दृश्य निर्मित हुए हैं वे कहीं नहीं हो सकते। समस्त विश्व के व्यापारी उज्जयिनी की स्वर्ण मयी इमारतें, वेश्याओं के नृत्य, तालाबों में खिले कमल, वेद मंत्रों से गूंजित वातावरण, हवन कुण्डों से उत्सर्जित सुगंधित वायु तो वहीं मांस भक्षण करते अघोरी, रक्तपान करते कापालिक, नृत्य करती हुए नगर वधुएं इत्यादि एक साथ उज्जयिनी में देखने को मिलता था। उज्जयिनी के आसपास का क्षेत्र महाकाल वन से आच्छादित था अरबों ने यहीं पर उद्यान बनाने की कला सीखी, भवनों में उद्यान कैसे लगाये जाते हैं यह समस्त विश्व ने उज्जयिनी से सीखा। 

           सरोवरों के निर्माण की कला सर्वप्रथम उज्जयिनी में प्रारम्भ हुई। डॉ. वाकणकर जो कि पुरातत्व वेत्ता है उन्होंने कहा कि विश्व की सर्वश्रेष्ठ प्रथम सड़क उज्जयिनी में मिली विश्व की सर्वप्रथम जल निकासी व्यवस्था उज्जयिनी में निर्मित हुई । विश्व का आदि मदिरालय उज्जयिनी में विकसित हुआ, कई मंजिला इमारतों का निर्माण उस समय हो चुका था जब ईसा को जन्म लेने में 2000 वर्ष बाकी थे। विश्व की प्राचीनतम नगरी है उज्जयिनी । महाकाल मंदिर 100 गज ऊंचा था एवं इसकी 5 मंजिलें थीं, अब का महाकाल मंदिर तो उसका लघु रूप है। जो कुछ भी विश्व में फैला है वह सर्वप्रथम उज्जयिनी से ही प्रादुर्भावित हुआ है। अनेकों सरोवरों, अनेकों घाट से सुसज्जित था उज्जैन, इसे बाग बगीचों की नगरी कहा जाता था। गोमेध रत्न की खदानें उज्जयिनी के समीप थीं। गोमेध रत्न क्या होता है ? विश्व को उज्जैन ने सिखाया । महाकाल के प्रांगण में बैठकर ही नागार्जुन ने वह षोडशी ढूंढी रानी पद्मावती के रूप में जो कि पारे का मर्दन कर सकती थी अर्थात शिव वीर्य को घोट सकती थी और तभी रस प्राप्त होता है। एवं जिसके स्पर्श से तांबा स्वर्ण में परिवर्तित हो जाता है। महाकाल की स्वर्ण जड़ित प्रतिमा के सामने ही एक ऐसी स्त्री जिसमें पद्मनी नारी के समस्त गुण हो वो ही पारे का मर्दन कर सकती है। 

            खैर तंत्र क्षेत्र का यह गूढ़ रहस्य है इसे ज्यादा उद्गारित नहीं किया जा सकता। नागार्जुन ने महाकाल के प्रांगण में बैठकर कहा था कि सोने के पहाड़ बना दूंगा, स्वर्ण निर्मित कर लूंगा और कर भी लिया था। यह शिव आरक्षित क्षेत्र है यहाँ कभी कोई तथाकथित सामाजिक तंत्र नहीं चला है। उत्तर भारत ने जिन आध्यात्मिक साधकों को निष्कासित किया उन्हें शरण दी उज्जयिनी ने। भूमि के नियम हर समय बदलते रहते । भूमि के नियमों से अध्यात्म नहीं चलता, आध्यात्मिक साधक भूमि के नियमों को नकार देता है इसलिए संन्यस्थ होता है। एक संन्यस्थ का, एक अघोरी का, एक शैव मार्गीय का, एक तंत्रज्ञ का सामाजिक नियमों, व्यवस्था के नियमों, राज्य के नियमों से कोई लेना देना नहीं है। वह शिव संहिता के आचार विहार पर चलता । वह तो ब्रह्माण्डीय नियमों को भी नकार देता है। वह तो ग्रह नक्षत्रों, सूर्य अग्नि, वायु जल इत्यादि तत्वों के नियमों को भी नहीं मानता है इनसे भी परे हो जाता है। वह अपनी जन्म कुण्डली स्वयं निर्मित करता है। प्रेमत्व महाकाल का पारितोषिक है जिस पर महाकाल अति प्रसन्न उसे सदा के लिए प्रेमत्व की प्राप्ति । प्रेमत्व ही जीव को काल से विमुख करता है। प्रेम में डूबा व्यक्ति, आलिंगन बद्ध युगल को काल का भान कहाँ? इसलिए महाकाल में शिव और काली आलिंगन बद्ध हैं, सारी दुनिया से कटे हुए हैं।
                     शिव शासनत: शिव शासनत:


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