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गायत्री की त्रिविधि साधना ।।

गायत्री के तीन रूप हैं।

 ह्रीं,श्रीं,क्रीं - सरस्वती, लक्ष्मी, दुर्गा - सतोगुणी, रजोगुणी, तमोगुणी यह तीनों ही रूप अपने अपने स्थान पर एक समान उपयोगी हैं। एक ही मनुष्य समय-समय पर विविध प्रकार के पार्ट अदा करता है। पिता के सामने पुत्र जैसा, गुरु के सामने शिष्य जैसा, पत्नी के सामने पति जैसा, सन्तान के सामने पिता जैसा, नौकरों के सामने मालिक जैसा, ईश्वर के सामने भक्त जैसा, दुष्टों के साथ में कसाई जैसा आचरण करता है। इतने घोर अन्तर भरे हुए अभिनय करने पर भी उसकी मूल स्थिति में न तो भिन्नता होती है और न अन्तर आता है। इसी प्रकार आद्यशक्ति गायत्री भी विविध प्रयोजनों के लिए विविध रूपों में प्रकट होती है।

एक ही नारी को विविध प्रयोजन वाले व्यक्ति विविध रूपों से देखते हैं। पिता उसे वात्सल्य की प्रतिमा समझ कर उस पर अपना दुलार ढुलकाता है और उससे वैसी ही इच्छा तथा आशा रखता है जैसी कि एक पुत्री से रखनी चाहिए। उसी नारी का पति उसे भिन्न दृष्टि से देखता है, उसे रति सी सुन्दरी काम-क्रीड़ा की पुतली तथा अर्धांगिनी, जीवन संगिनी समझता है, उसके समझ इन्हीं भावनाओं से संमिश्रित व्यवहार करता है और इन भावनाओं के अनुरूप ही पत्नी का आचरण, प्रत्युत्तर प्राप्त होने की आशा करता है। अब उसी नारी के पुत्र का नम्बर आता है, वह शिशु उसे स्नेहमयी, दयामयी, परोपकार की मूर्ति, सुरगौ सी मनोरथ दायिनी अन्नपूर्णा समझता है, वैसा ही उससे व्यवहार करता है वैसी ही माँगें पेश करता है और वैसे ही फल प्राप्त करता है।

एक ही नारी के प्रति रखे जाने वाले इन तीन दृष्टि कोणों की तुलना कीजिए, यह तीनों ही एक दूसरे से बिल्कुल नहीं मिलते, तीनों में जमीन-आसमान का अन्तर है, पुत्र जिस रूप में उस नारी को देखता है उस दृष्टिकोण से पति देखना कदापि पसन्द न करेगा और जो पति की दृष्टि है वह पिता के लिए सर्वथा अग्राह्य है। इतना अन्तर होते हुए भी एक ही नारी विविध अवसरों पर विविध पात्रों के सामने, इन जमीन आसमान जैसे अन्तरों वाले दृष्टिकोणों का अभिनय करती है। इतनी भिन्नताएं धारण करने पर भी उसका मूल स्वरूप एकरस ही रहता है।

गायत्री माता के तीन स्वरूपों का रहस्य भी यही है। वे हंसारूढ़ सरस्वती का सतोगुणी रूप धारण करके ज्ञान और विवेक की मधुर वीणा, भक्त के हृदयाकाश में झंकृत करती हैं। वे रजोगुणी रूप धारण करके गजवाहिनी लक्ष्मी बनती हैं और भक्त के अभाव को समृद्धियों की सम्पदा से पूरा कर देती हैं। वे तमोगुणी रूप में सिंहारुढ़ दुर्गा बनकर आती हैं और शत्रुओं के मस्तक का अपने खड्ग से छेदन करती हुई, उनके रक्त से खप्पर भरती हैं, मुण्डों की माला गले में डालती हैं। हमें विविध अवसरों पर विविध प्रयोजनों के लिए आद्यशक्ति के इन तीनों ही रूपों की आवश्यकता पड़ती है।

आत्मोन्नति के लिए- ज्ञान, विवेक, भक्ति, परमार्थ का लाभ करना प्रधान उद्देश्य हो तो भगवती के सतोगुणी रूप की उपासना करनी चाहिए। किसी साँसारिक आवश्यकता की पूर्ति के लिए, धन वैभव, पद, स्वास्थ्य, यश तथा अभीष्ट परिस्थिति प्राप्त करने के लिए गायत्री का रजोगुणी रूप उपासनीय है। किन्हीं अनिष्टों का विदारण, आपत्तियों, विघ्नों संकटों भीतरी और बाहरी शत्रुओं का विनाश करने के लिए तमोगुण स्वरूपा शक्ति उपासना की जाती है।

‘तमोगुण’ शब्द साधारणतः क्रोध के निन्दास्पद अर्थ में प्रयोग किया जाता है, पर यह अर्थ बहुत ही सीमित, संकीर्ण और अधूरा है। तमोगुण का अर्थ यहाँ ‘विरोध’ अधिक उपयुक्त होगा। अनुपयुक्त स्थिति को हटाने के लिए जो विरोध उत्पन्न होता है उसके साथ संहारक क्रिया जुड़ी हुई होती है। पर संहारक क्रिया भी उतनी ही आवश्यक होती है, जितनी कि रचनात्मक। रोग कीटाणुओं को मारने के लिए औषधि ली जाती है, यज्ञ द्वारा आकाश स्थिति हानिकारक कीटाणुओं का संहार किया जाता है। शरीर, वस्त्र, गृह, पात्र आदि की शुद्धि करने में अशुद्धि का नाश होता है, मन में छिपे हुए काम क्रोध, लोभ, मोह आदि को मार डालने, इन्द्रियों को पछाड़ने, मन को काबू में करने की संहारक क्रियाएं योगी जनों के लिए भी आवश्यक समझी जाती हैं। भगवान राम, कृष्ण, परशुराम, नृसिंह आदि अधिकाँश अवतारों ने संहारिणी नीति को भी प्रधान रूप से चरितार्थ किया है। इसलिए संहारिणी या विरोधमयी, तमोगुण शक्ति की वृद्धि को बुरा नहीं कहा जा सकता वरन् अनेक अवसरों पर तो वह अत्यन्त आवश्यक होती है। तमोगुण का-विरोध तत्व का- बढ़ना कोई बुरी बात नहीं है, बुराई तो तब है जब उसका दुरुपयोग किया जाता है।

कोई कार्य किसी प्रयोजन के लिए ही किया जाता है। गायत्री से हमारे तीन प्रयोजन सिद्ध हो सकते हैं। उसके जिस रूप की हम उपासना करते हैं वही तत्व हमारे अन्दर बढ़ता है, इस वृद्धि के फलस्वरूप साधक को ऐसे ज्ञात और अज्ञात प्रत्यक्ष और परोक्ष अवसर प्राप्त होते हैं जिनका सदुपयोग करने से अभीष्ट उद्देश्य की प्राप्ति होती है।

भूगर्भ विद्या के ज्ञाता जानते हैं कि पृथ्वी में अनेक धातुओं के परमाणु बिखरे होते हैं, इन सब परमाणुओं में एक चुम्बकत्व होता है जिनके द्वारा वह परमाणु अपनी जाति के दूसरे परमाणुओं को अपनी ओर खींचता है या उनकी ओर खिंचता है। इस आधार पर एक जाति के परमाणु दूर दूर से खिंचते हुए एक स्थान पर जमा होते जाते हैं और कालान्तर में बड़ी-बड़ी खानें बन जाती हैं। खानों की खोज करने वाले विज्ञान वेत्ता अपने अणुवीक्षण यंत्रों से पृथ्वी की विभिन्न सतहों पर यह निरीक्षण करते हैं कि किस जाति के परमाणु, किस गति से, किस दिशा में, चल रहे हैं वे उसी आधार पर अपना अनुसंधान जारी रखते हैं और अन्त में बड़ी-बड़ी खानों का पता लगा लेते हैं। हमारे भीतर भी यही परमाणुओं के चुम्बकत्व का सिद्धान्त काम करता है।

जिस प्रकार की साधना हम करते हैं उसी प्रकार का चुम्बकत्व हमारे जड़ और चैतन्य परमाणुओं में बढ़ता है फलस्वरूप संसार में से उसी प्रकार के तत्व खिंचकर हमारे पास जमा होते हैं और थोड़े ही दिनों में उसी प्रकार की एक बड़ी खान हमारे पास जमा हो जाती है। इस खान को स्थूल दृष्टि वाले लोग साधना की सिद्धि कहकर पुकारते हैं। जिस प्रकार की आन्तरिक शक्तियाँ हमारे अन्दर बढ़ती हैं उस प्रकार की बाह्य सफलताएं पग-पग पर मिलना बिल्कुल स्वाभाविक है। इस स्वाभाविकता को ही लोग मंत्र बल की अद्भुत शक्ति समझते हैं। देखने में यह अद्भुत सा भले ही लगे पर वस्तुतः इसमें असाधारण कोई बात नहीं है, यह वैज्ञानिक प्रक्रिया है जिसके आधार पर सूक्ष्म सिद्धान्तों द्वारा स्थूल लाभ प्राप्त किया जाता है। विज्ञान का आधार ही सूक्ष्म तत्वों से स्थूल लाभ प्राप्त करना है, आध्यात्म विज्ञान भी उस चिर सनातन आधार पर ही अवलंबित है।

प्रयोजन के अनुरूप ही साधन भी जुटाने पड़ते हैं। लड़ाई के लिए युद्ध सामग्री जमा करनी पड़ती है और व्यापार के लिए उस तरह का सामान इकट्ठा करना होता है। भोजन बनाने वाला रसोई संबंधी वस्तुएं लाकर अपने पास रखता है और चित्रकार को अपनी आवश्यक चीज जमा करनी होती हैं। व्यायाम करने की और दफ्तर जाने की पोशाक में अन्तर रहता है। जिस प्रकार की साधना करनी होती है उसी के अनुरूप उन्हीं तत्वों वाली, उन्हीं प्राणों वाली, उन्हीं गुणों वाली सामग्री उपयोग में लानी होती है। सबसे प्रथम यह देखना चाहिए कि हमारी साधना किस उद्देश्य के लिए है, सत, रज, तम में से किस तत्व की वृद्धि के लिए है। जिस प्रकार की साधना हो उसी प्रकार की साधना सामग्री व्यवहृत करनी चाहिए। नीचे इस संबंध में एक विवरण दिया जाता है :-

सतोगुण-
माला-तुलसी। आसन-कुश। पुष्प-श्वेत। पात्र-ताँबा। वस्त्र-सूत (खादी) मुख-पूर्व को। दीपक में घृत-गौ घृत। तिलक-चन्दन। हवन में समिधा, पीपल, बड़, गूलर। हवन सामग्री-श्वेत चंदन अगर छोटी इलाइची, लौंग, शंखपुष्पी ब्राह्मी, शतावरी, खस, शीतलचीनी, आँवला, इन्द्र जौ, वंशलोचन, जावित्री, गिलोय, वच, नेत्रवाला, मुलहठी, कमल केसर, बड़ की जटाएं, नारियल, बादाम, दाख, जौ, मिश्री।

रजोगुण-
माला-चन्दन। आसन सूत। पुष्प-पीले। पात्र-काँसा। वस्त्र-रेशम। मुख उत्तर को। दीपक में घृत-भैंस का घृत। तिलक-रोली। समिधा-आम, ढाक, शीसम। हवन सामग्री-देवदारु, बड़ी इलायची, केसर, छार छबीला, पुनर्नवा, जीवन्ती, कचूर, तालीस पत्र, रास्ना, नागर मौथा उनाव, तालमखानी, मोनरस, सोंफ, चित्रक, दालचीनी, पन्नाख, छुहारा, किसमिस, चावल, खाँड़।

तमोगुण-
माला-रुद्राक्ष। आसन-ऊन। पुष्प-हलके या गहरे लाल। पात्र-लौह। वस्त्र-ऊन। मुख-पश्चिम को। दीपक में घृत-बकरी का। तिलक-भस्म का। समिधा-बेल, छोंकर, करीख। सामग्री-रक्त चंदन, तगर, असंगध, जायफल, कमलगट्ठा, नागकेसर, पीपल, बड़ी, कुटकी, चिरायता, अपामार्ग, कागड़ासिंगी, पोहकर मूल, कुलंजन, मूसली स्याह, मेंथी के बीज, काकजंघा, भारंगी, अकरकरा, पिस्ता, अखरोट, चिरौंजी, तिल, उड़द, गुड़।

गुणों के अनुसार साधना सामग्री उपयोग करने से साधक में उन्हीं गुणों की अभिवृद्धि होती है तद्नुसार सफलता का मार्ग अधिक सुगम हो जाता है।

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