आदि गुरु श्री शंकराचार्य जी ने अपने गुरु श्री भगवत्पाद जी को सच्चिदानंद स्वरूप में आत्मसात किया। उन्हीं के सच्चिदानंद स्वरूप को हृदयस्थ कर वे भारतवर्ष पर पुन: वेदान्त को पुनर्जीवित करने में सक्षम हो सके। समाज से तिरष्कृत हो जाने के पश्चात् भी घोर आलोचनाओं और हिंसा के बीच सदैव आनन्दित रहे। उनके आनंदित जीवन के मूल में उनके गुरु का सच्चिदानंद स्वरूप ही है। एक आत्म आनंदित महामानव ही आनंद लहरी, कनकधारा स्त्रोत, धन्याष्टकम, सौन्दर्य लहरी, ललितापंचक्रम, देव्यपराधक्षमापनस्त्रोतम् इत्यादि इत्यादि सैकड़ों दिव्य स्त्रोतों की रचना कर सकता है।
आदि गुरु शंकराचार्य जी द्वारा रचित प्रत्येक स्त्रोत अपने अंदर सम्पूर्णता लिये हुये है। इन स्त्रोतों का पाठ अत्यंत ही त्वरित परिणाम देने वाला है। इन स्त्रोतों के पाठ में विशेष आडम्बरों की जरूरत नहीं है एक साधक चाहे वह किसी भी स्थान पर बैठा हो अंतर आत्मा से अगर इनका पाठ करता है तो दूसरे ही क्षण समस्त शक्तियाँ उसके सामने नतमस्तक हो जायेंगी। शंकर साहित्य मनुष्यों को भगवान शिव की दुर्लभ भेंट हैं। सनातन धर्म आदि गुरु शंकराचार्य जी के द्वारा रचित स्त्रोतों के अभाव में निश्चित ही अपूर्ण है। साधक चाहे किसी भी पंथ, गुरु और संस्था से जुड़ा हुआ क्यों न हो आखिरकार वह है तो सनातन धर्म की धारा में ही। अतः वर्ग, जाति, सम्प्रदाय, धर्म और संख्या से ऊपर उठकर वास्तविक अध्यात्म को आत्मसात करने के लिये यह स्त्रोत अत्यंत ही हितकारी है । सर्वप्रथम मैं आदि गुरु श्री शंकराचार्य जी द्वारा रचित परापूजा स्त्रोतम् को प्रस्तुत कर रहा हूँ इस स्त्रोत के मूल भाव में गुरु तत्व है। गुरु की स्तुति के लिये यह अत्यंत ही दुर्लभ स्त्रोत है। सुविधा के लिये इसका हिन्दी रूपान्तरण भी प्रस्तुत किया जा रहा है। अपने गुरु का ध्यान करते हुये या फिर उनके चित्र के सामने आप हृदय से इस स्त्रोत का पाठ करते हुये उनका आह्वान कर सकते हैं।
अखण्डे सच्चिदानंदे निर्विकल्पैकरूपिणि । स्थितेऽद्वितीयभावेऽस्मिन्कथं पूजा विधीयते ॥
पूर्णस्यावाहनं कुत्र सर्वाधारस्य चासनम् ।
स्वच्छस्य पाद्यमर्ध्यं च शुद्धस्याचमनं कुतः ।।
निर्मलस्य कुतः स्नानं वस्त्रं विश्वोदरस्य च ।
अगोत्रस्य त्ववर्णस्य कुतस्तस्योपवीतकम् ।।
निर्लेपस्य कुतो गन्ध: पुष्पं निर्वासनस्य च ।
निर्विशेषस्य का भूषा कोऽलङ्कारो निराकृतः ॥
निरञ्जनस्य किं धूपैर्दीपैर्वा सर्वसाक्षिण: ।
निजानन्दै कतृप्तस्य नैवेद्यं किं भवेदिह ।।
विश्वानन्दपितुस्तस्य किं ताम्बुलं प्रकल्प्यते ।
स्वयंप्रकाशचिद्रूपो योऽसावर्कादिभासकः ॥
प्रदक्षिणा ह्यनन्तस्य ह्यद्वयस्य कुतो नतिः ।
वेदवाक्यै रवेद्यस्य कुतः स्तोत्रं विधीयते ।।
स्वयं प्रकाशमानस्य कुतो नीराजनं विभोः ।
अन्तर्बहिश्च पूर्णस्य कथमुद्रासनं भवेत् ।।
एवमेव परापूजा सर्वावस्थासु सर्वदा ।
एकबुद्धया तु देवेशे विधेया ब्रह्मवित्तमैः ।।
आत्मा त्वं गिरिजा मति: सहचरा: प्राणा: शरीरं गृहं, पूजा ते विधिधोपभोगरचना निद्रा समाधिस्थितिः ।
संञ्चार: पदयो: प्रदक्षिणविधिः स्तोत्राणि सर्वा गिरो, यद्यत्कर्म करोमि तत्तदखिलं शम्भो तवाराधनम् ।
( इति श्री मच्छङ्कराचार्यकृतं परापूजास्तोत्रं सम्पूर्णम् ।)
अखण्ड, सच्चिदानन्द और निर्विकल्पैकरूप अद्वितीय भाव के स्थिर हो जाने पर किस प्रकार पूजा की जाय ?
जो पूर्ण है उसका आवाहन कहाँ किया जाय ?
जो सबका आधार है, उसे आसन किस वस्तु का दें और जो नित्य शुद्ध है, उसको आचमन की क्या अपेक्षा ?
निर्मल को स्नान कैसा ? सम्पूर्ण विश्व जिस के पेट में है, उसे वस्त्र कैसा और जो वर्ण तथा गोत्र से रहित है, उसके लिये यज्ञोपवीत कैसा ?
निर्लेप को गन्ध कैसी ? निर्वासनिक को पुष्पों से क्या ?
निर्विशेष को शोभा की क्या अपेक्षा और निराकार के लिये आभूषण क्या ? निरञ्जन को धूप से क्या ?
सर्वसाक्षी को दीप कैसा तथा जो निजानन्दरूपी अमृत से तृप्त है, उसे नैवेद्य से क्या ?
जो स्वयं प्रकाश, चित्स्वरूप, सूर्य-चन्द्रादिका भी अवभासक और विश्व को आनन्दित करने वाला है, उसे ताम्बूल क्या समर्पण किया जाय ? अनन्त की परिक्रमा कैसी ?
अद्वितीय को नमस्कार कैसा और जो वेदवाक्यों से भी जाना नहीं जा सकता, उसका स्तवन कैसे किया जाय ?
जो स्वयं प्रकाश और विभु है, उसकी आरंती कैसे की जाय तथा जो बाहर भीतर सब ओर परिपूर्ण है, उसका विसर्जन कैसे हो ?
ब्रह्मवेत्ताओं को सर्वदा, सब अवस्थाओं में इसी प्रकार एक बुद्धि से भगवान् की परापूजा करनी चाहिये । हे शम्भो ! मेरी आत्मा तुम हो, बुद्धि श्री पार्वती जी हैं, प्राण आपके गण हैं, शरीर आपकी कुटिया है, नाना प्रकार की भोग सामग्री आपका पूजोपचार हैं, निद्रा समाधि। .
शिव शासनत: शिव शासनत:
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