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ह्रीं भुवनेश्वर्ये नमः ।।

        आनंद वन में चंद्रमा सम्पूर्ण था । सम्पूर्णता एवं सनातनता ही आनंदवन का लक्षण है। भगवति भ्रमराम्बिका के दिव्य मणिद्वीप के मध्य में स्थित है आनंद वन जहाँ पर वे परम् ब्रह्माण्डीय रास लीला करती हैं। इसी आनंद वन में श्री हरि का हंसावतार हंस बन भगवति पराम्बा के चरणों में पड़े प्रसाद को चुगते हैं, इसी आनंद वन में पंच-प्रेतासन सुशोभित है अर्थात ब्रह्माण्ड का सबसे जागृत, सबसे चैतन्य, सबसे क्रियाशील दिव्य सिंहासन। इसी दिव्यासन पर बैठकर भगवती भ्रमराम्बिका समस्त ब्रह्माण्ड के हित में, उनके जीवन मरण सम्बन्धित निर्णय लेती हैं। इसी पंच प्रेतासन पर बैठकर वे अनंत ब्रह्माण्डों में स्थित अति विकसित जीवों के मुख्य प्रतिनिधियों, उनके कर्ता धर्ता ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, ईश्वर, इन्द्र, कुबेर, महालक्ष्मियों, महासरस्वतियों, महाकालियों, महाभैरवों इत्यादि से भेंट करती हैं। 

       अनंत ब्रह्माण्डों में अनंत विकसित सभ्यताएं हैं, अनंत राम हैं, अनंत लक्ष्मण हैं, अनंत सूर्य हैं, अनंत चंद्रमा हैं इत्यादि-इत्यादि भगवती भुवनेश्वरी अपनी महासभा आनंद वन में ही सम्पन्न करती हैं एवं भगवति भ्रमराम्बिका के चरणों में बैठकर दिव्य दिशा निर्देश आदेश को सब प्राप्त करते हैं। भ्रमराम्बिका जब आसन पर विराजमान होती हैं तो समस्त सभाजन उनके चरणों में अपने मुकुट अर्पित कर देते हैं। आनंद वन में भ्रमराम्बिका के दिव्य दर्शन प्राप्त करने हेतु, उनकी एक झलक देखने हेतु, उनके एक शब्द ग्रहण करने हेतु, उनके श्री विग्रह के दिव्य स्पर्श प्राप्त करने हेतु, उनके श्री चरणों की धूल को मस्तक पर लगाने हेतु | चयन प्रक्रिया अत्यंत ही जटिल, कठिन एवं उच्च कोटि के अनुशासन में बंधी हुई है। जब अनंत ब्रह्माण्डों के कर्ता धर्ता अम्बिका या राज राजेश्वरी विज्ञान, भुवनेश्वरी तत्वम्, श्री चिंतन, श्री श्री यंत्रम् की उपासना के द्वारा अपने सूक्ष्मतातीत शरीर को अति उच्च कोटि में सुसंस्कारित कर लेते हैं तभी वे अनंत ब्रह्माण्डों की मूल प्रकृति, मूल जननी, मूल शासिका, मूलेच्छा, मूल साम्राज्ञी के सानिध्य को प्राप्त होते हैं अन्यथा असम्भव ।

         भगवती भ्रमराम्बिका के इर्द-गिर्द सुनहरे रंग का आभामण्डल सदैव विराजमान रहता है जिसमें से ह्रींकार नाद अत्यंत ही सौम्यता के साथ उत्सर्जित होता रहता है। इस ह्रींकार नाद से सूक्ष्मातीत से सूक्ष्मातीत तल पर भी मल का निषेचन हो जाता है। मणिद्वीप में छाया नहीं रहती, वहाँ पर उन्हीं दिव्य, सिद्ध पुरुषों एवं शक्तियों का वास है जो कि छाया विहीन हैं। सबके शरीर से केवल पद्म गंध ही प्रवाहित होती है। दिन और रात भी मणिद्वीप में नहीं होते। वह स्व प्रकाशित, स्व विकसित, सर्व स्वतंत्र, स्व पूरक, स्व सक्षम लोक है। भगवति की सेना में एक से बढ़कर एक महायौद्धा देवियाँ हैं जो कि स्वयं अकेले ही अनेकों ब्रह्माण्डों को मिटाने और बनाने की क्षमता से युक्त हैं।मणिद्वीप के सिद्ध मठ में अनंत ब्रह्माण्डों में युक्त हैं। मौजूद सिद्ध साधक कड़ी परीक्षा के पश्चात्, घोर प्रतिस्पर्धा के पश्चात्, अघोर योग्यता हासिल कर ही स्थान प्राप्त करने में सफल होते हैं। समस्त कोशों के मूल बीज अर्थात सनातन रूप जो कि सदा नित्य रहते हैं, प्रलय विहीन रहते हैं वे भगवति पराम्बरा के सानिध्य में सुशोभित होते हैं।

        सनातन ब्रह्मा, सनातन विष्णु, सनातन शिव, सनातन दुर्गा, सनातन काली, सनातन ईश्वर, सनातन सूर्य, सनातन चंद्रमा, सनातन इन्द्र इत्यादि-इत्यादि सबके सब मणिद्वीप में ही निवास करते हैं। वहीं सनातन क्षीर सागर है जिसमें श्रीहरि शेष शैय्या पर निवास करते हैं, वहीं सनातन गौ लोक है जहाँ श्रीकृष्ण गोपियों के साथ विचरण करते हैं, ब्रह्माण्ड का सबसे सुरक्षित, सबसे विकसित क्षेत्र है मणिद्वीप जहाँ भगवति पराम्बरा निवास करती हैं।
                           शिव शासनत: शिव शासनत:

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