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ह्रीं कार कल्प ।।

सवर्णा पार्श्व लय मध्य सिद्धि मधिश्वरं भास्वर रूप भासम।  
खन्डेन्दु बिन्दु स्फदु नाद शोभं त्वां शक्ति बीजं प्रमना प्रणौमि ॥
         तीनों भुवनों का निर्माण कार्य शुरु हुआ एवं अंतरिक्ष में सूर्य इत्यादि प्रतिष्ठित हुए प्रारम्भिक अवस्था में यह सारी प्रक्रियाएं षोडशी के अधीन थीं। जब तीनों भुवन बनकर तैयार हो गये तब षोडशी ही भुवनेश्वरी के रूप में तीनों लोकों में राज करने लगीं एवं यही राज राजेश्वरी कहलाने लगीं। शक्तियाँ पहले भी थीं, महाकाली का अस्तित्व सूर्य से पहले महा तिमिर रूप में था फिर वही षोडशी के रूप में भुवनों के निर्माण कार्य में सहायक हुईं, वही भुवनेश्वरी बनकर, राज राजेश्वरी बनकर, ब्रह्माण्ड नायिका बनकर तीनों लोकों की संचालिका बन गईं। 

          यदि भुवनों का निर्माण न होता तो शक्ति उन्मुक्त विचरण करती किन्तु त्रिभुवन के आते ही शक्ति विभिन्न स्वरूपों में आकर तीनों लोकों के कल्याण में जुट गईं। शक्ति के तीन प्रचण्ड और प्रलयंकारी रूप हैं जबकि भुवनेश्वरी के रूप में यह विनम्र और जीवन दायिनी बन गईं। इस समस्त ब्रह्माण्ड में चौरासी लाख योनियों में जो भी जीव उत्पन्न होते हैं, उनका भरण-पोषण, पालन-पोषण का कार्य भुवनेश्वरी करती हैं और सबकी भूख का शमन भी भुवनेश्वरी ही करती हैं। सृष्टि के प्रारम्भ में केवल जल ही जल था तब सूर्य का ताप ग्रहण कर भुवनेश्वरी ने अपना विस्तार किया तभी इस धरा पर जीवन और वनस्पति का प्रादुर्भाव सम्भव हो सका। भुवनेश्वरी को वरदा, गोपाल सुन्दरी एवं स्मेरमुखी भी कहा जाता है। वरदा का अर्थ है, सबको आशय देने वाली जबकि स्मेर मुखी सब पर करुणा और दया बरसाती हैं, उनके होंठो पर हमेशा मुस्कुराहट रहती है इसलिए इन्हें स्मेर मुखी कहते हैं। 

      भुवनेश्वरी के दोनों हाथों में अंकुश और पाश हैं। अंकुश का अर्थ है नियंत्रण करना, अंकुश इस बात का सूचक है कि उनकी मर्जी के बिना तीनों लोकों में पत्ता भी नहीं हिल सकता। उनके दूसरे हाथ में पाश है यह दुष्टों को दण्ड देने के लिए है। तीसरा हाथ ज्ञान मुद्रा दर्शा रहा है यही महासरस्वती हैं, यही ब्रह्माण्डीय ज्ञान प्रदान करती हैं, तत्व ज्ञान इनकी कृपा से ही प्राप्त होता है इसलिए इन्हें श्री तत्व विद्या भी कहते हैं, इन्हें पराम्बा भी कहते हैं ब्रह्माण्ड का कोई भी ज्ञान इनकी कृपा से ही प्राप्त होता है।

          चौथा हाथ अभय मुद्रा में स्थित है इन्हें यज्ञ नायिका भी कहते हैं, जब सूर्य उत्पत्ति काल में सोम आहुतियों के द्वारा यज्ञ सम्पन्न हुआ तथा तीनों लोकों का निर्माण हुआ तब यही शक्ति षोडशी के रूप में थीं, महात्रिपुर सुन्दरी के रूप में और बाद में भी यही शक्ति राज राजेश्वरी कहलाने लगीं। यह ह्रीं स्वरूपा हैं। यह करोड़ों सूर्य के समान परम प्रकाश वाली कोटी चन्द्र के समान सुशीतल एवं मूलाधार से ब्रह्मरन्ध्र तक कुण्डली रूप में व्याप्त हैं, इनका मंत्र ह्रीं है एवं यह करोड़ों अरबों परमाणु बमों से भी ज्यादा महाशक्तिशाली है। भुवनेश्वरी मणिद्वीप की अधिष्ठात्री देवी हैं, हृल्लेखा, ह्रीं मंत्र स्वरूपा, सृष्टि क्रम में महालक्ष्मी स्वरूपा हैं। आदि शक्ति भगवती भुवनेश्वरी शिव के समस्त लीला विलास की साथी हैं, निखिल प्रपंचों के कारण सभी जीवों का पालन पोषण करने वाली जगदम्बा भुवनेश्वरी की अरुण कांति सौम्य है।

         उनकी अंग कांति अरुण (लाल) है ये अत्यंत सौम्य हैं, स्मेर मुखी हैं। मैं अपनी भाषा में उनके रूप, सौन्दर्य का क्या वर्णन करूं? स्वयं आदि गुरु शंकराचार्य जी ने अपनी भाषा में उनके रूप सौन्दर्य का वर्णन किया है। शंकराचार्य जी ने सौन्दर्य लहरी जैसे महाकाव्य की रचना की है, जिसमें सिर्फ उनके रूप सौन्दर्य का ही वर्णन है। जो लोग सोचते हैं कि सिर्फ संस्कृत ही देव वाणी है तो फिर बुद्ध और महावीर ने तो कभी संस्कृत में बोले और न लिखे, वे तो सिर्फ उस समय की लोक भाषा "पाली" में संवाद करते थे, अगर हम सोचे कि सिर्फ अरबी ही देव भाषा है तो फिर अरबी ग्रंथों के अलावा और कोई ग्रंथ मान्य ही नहीं रह जायेंगे, अगर हम अंग्रेजी को देव भाषा कहेंगे तो फिर बाईबिल के अलावा अन्य ग्रंथ मान्य ही नहीं रह जायेंगे। ह्रीं साधना किसी भाषा, देश, योनि एवं लिंग से परे है। 

कुण्डली स्वरूप ह्रीं के ध्यान का स्वरूप
आधार कन्दोद्गत तन्तु सूक्ष्म लक्ष्यद्भवं ब्रह्म सरोज वासम् । 
योध्यायति त्वां स्व बिन्दु बिम्बा मृतं स च स्यात् कवि सर्व भौमः ॥ 
फल श्रुति षड् दर्शनि स्व स्व मतावलैपैः, स्वे दैवते त ( त्व) न्मय बीज मेव।
 व्यात्वा तदाराधन वैभवेन, भवेद जेयः परिवारि वृन्दैः ॥ 
किं मन्त्रयन्त्रैविविधागमोक्तैःदुःसाध्यसं शीतिफला ल्पतगभै। सुसेव्यःवः(सद्यसुसेव्य )फलचिन्तितार्थाधिकप्रदश्चसिचेत्वमेकः॥ 
चौरारि मारि ग्रह रोग लूता भूतादि दोषा नल बन्ध नोत्थाः। 
भियः प्रभावात् तव दूर मेव, नश्यन्ति पारीन्द्ररवारि वेभा ॥ 
प्राप्नोत्यपुत्रः सुतमर्थहीनः श्री दायते पतिरपीतवीह। 
दुःखी सुखी चाऽथ भवेन्न किं किं, त (त्त ) द्रुपचिन्ता मणिचिंतनेन॥ 
पुष्पादि जापामृतहोम पूजा, क्रिया धिकारः सकलोऽस्तुदूरे । य केवल ध्यायति बीज मेव सौभाग्य लक्ष्मी वृर्णुत स्वयंतम् ॥ 
त्वतोऽपि लोकः सुकृतार्थ काम मोक्षान पुमर्थाश्चतुरो लभन्ते । 
यास्यन्ति याता अथ यान्तिये ते श्रेय परं त्वमहिमा लवः सः ॥ 
विधामयः प्राक प्रणवं नमाऽन्ते मध्येक (च) बीजननु जग्नपोति । 
तस्यैक वर्णा वितन्योतया बंध्या, कामार्जुनी कामित केव विद्या ॥ 
मालामिमा स्तुतिमयीं सुगुणां त्रिलोकी । 
बीजस्य यः स्वहृदये निधयेत् क्रमात् सः ॥ 
अङ्केऽष्ट सिद्धिर वशा लुठतीह तस्य नित्यं महोत्सव पदं लभते क्रमात् सः ॥

जो मनुष्य त्रैलोक्य बीज रूपा, अच्छे गुण वाली स्तुति रूपी माला को तीनों काल अपने हृदय में धारण करता है उसकी गोद में आठों सिद्धियाँ अवश्य पुत्र बनकर नित्य ही आती हैं और अंत में मोक्ष पद की प्राप्ति कराती है।

       जो राजराजेश्वरी मणिद्वीप के शिखर पर बैठी हैं और जिसका शासन तीनों लोकों में चलता है तुम्हारी पृथ्वी तो उसका बहुत छोटा टुकड़ा है। अंदर का ह्रीं तत्व जब जागृत हो जाता है, प्रकाशवान होता है तो हर जगह वही नजर आती हैं। सौन्दर्य की एक झलक जिसने एक बार देख ली वह सारे जीवन के लिए ब्रह्मचारी हो जायेगा, जिसने रूप का इतना जलवा देख लिया फिर आगे कुछ बचता ही नहीं। शंकराचार्य जी ने अपने महाकाव्य सौन्दर्य लहरी में जो वर्णन किया है तुम्हारे रूप का जो कि बाल ब्रह्मचारी थे, इतना दिव्य सौन्दर्य, इतना दिव्य स्वरूप वही देख पाए। विश्व के अधिष्ठाता त्र्यम्बक सदाशिव हैं और उनकी शक्ति भुवनेश्वरी हैं। इनके माथे पर चंद्रमा है यह अमृत से विश्व का पोषण करती हैं इसलिए भगवती ने अपनी क्रीट में चंद्रमा धारण कर रखा है। उदय होते सूर्य की कांति मृदु रस (स्मेर मुखी) शासन शक्ति की सूचक है। 

         राज राजेश्वरी अपने हाथों में अंकुश पाश धारण किए हुए है। वह ह्रींकार स्वरूपा हैं, ह्रीं उनका बीज मंत्र है पर इसकी विराटता वो ही अनुभव कर सकता है जिसकी सोच विराट हो । समस्त ब्रह्माण्ड की शक्ति इसमें समाई हुई है सबके ऊपर उनकी कृपा दृष्टि है। चौरासी लाख योनियों में जितने भी जीव जन्तु है, समस्त देव-मुनि, यक्ष, गंधर्व, भूलोक भुवः स्वाह: लोक सभी लोकों को वह तृप्त करती हैं, सभी का भरण पोषण करती है अभय प्रदान करती है उनकी शक्ति असीम है। यह सारी पृथ्वी एक है आज सबसे बड़ी समस्या यह है कि धर्म को राजनीति से बांधा गया है। अध्यात्म में विराटता चाहिए उसमें बहुत विराट सोच चाहिए। क्या देश ? क्या विदेश ? हिन्दु, मुस्लिम इत्यादि मौलिक रूप से राजनीति, कूटनीति, हिंसा, वैमनस्य इन सबको परिलक्षित करते हैं धर्म को नहीं। इस बँटवारे के कारण हमारी पृथ्वी स्वर्ग नहीं बन पाई, पृथ्वी नर्क बनकर रह गई है। हम भारत में पैदा हो गये तो हम सोचते हैं कि सिर्फ भारतीय लोग ही धार्मिक हैं, लाहौर कल तक भारत का हिस्सा था अब नहीं है। ढाका भी कल तक भारत में था अब भारत में नहीं है। जब हम भारत शब्द का उपयोग करते हैं तो कराची, ढाका, लाहौर इसमें आते थे अब नहीं आते हैं। 

       कभी अफगानिस्तान भी भारत का हिस्सा हुआ करता था, अफगानिस्तान में कई प्राचीन बौद्ध प्रतिमाएं मिली हैं। वर्मा भी भारत का हिस्सा था अब नहीं है और अभी अभी पाकिस्तान बना वो भी अब भारत का हिस्सा न रहा। अगर ह्रीं को समझना चाहते हो, भुवनेश्वरी को समझना है तो तुम्हें ब्रह्माण्डीय बनना पड़ेगा, वह ब्रह्माण्डीय शक्ति है इसलिए अध्यात्म को राजनीति से न बांधो नहीं तो राज राजेश्वरी की कृपा नहीं मिलेगी, धर्म की राजनीति से शादी मत करो। राजनीतिज्ञों का धर्म छलावा होता है। राज राजेश्वरी का तात्पर्य है सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को राज कहते हैं, जहाँ रहस्य है उसे राज कहते हैं और इस राज को जानने के लिए जिसकी साधना की जाती है उसे राजेश्वरी कहते हैं।

 राज राजेश्वरी त्वां पूर्णतां पूर्णता वदः सः योगः। 
एवते मुच्यते भोगः प्रथ्वियो नात्र संशय ॥
राज राजेश्वरी साधना करने से शरीर हल्का हो जाता है। शरीर उन सारे तत्वों से मुक्त हो जाता है जिन्हें आप मुक्त करना चाहते हैं। आप चाहे तो पृथ्वी तत्व अलग करके शरीर को बहुत हल्का बना सकते हैं इसे वायु गमन भी कहते हैं इसके विषय में फिर कभी विस्तृत चर्चा करेंगे। आप चाहे तो पृथ्वी तत्व रखकर अन्य तत्वों को निकाल दें तो शरीर बहुत भारी हो जाएगा जैसा कि हनुमान ने किया भीमकाय शरीर बनाकर। राज राजेश्वरी साधना के माध्यम से ही हनुमान ब्रह्माण्ड में कहीं भी आ जा सकें कभी शरीर को मच्छर के समान बनाकर तो कभी भीमकाय बनाकर।

         इस पंचतत्व के शरीर से अगर दो तत्व कम कर दिए जाये तो सिर्फ अग्नि, वायु और आकाश बचेगा जो कि अपने आप में बहुत हल्के और सूक्ष्म हैं अगर हमारा 100 किलों में से 99.9 किलो वजन कम हो जाये तो जो हमारे शरीर में बचता है वह अंगुष्ठ के आकार का हो सकता है। शरीर को अंगूठे के आकार का बनाकर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में विचरण कर सकें इसे हम राजराजेश्वरी साधना या महासरस्वती साधना कह सकते हैं। महासरस्वती का अर्थ है अपने सम्पूर्ण शरीर की रचना को समझना और उसे अपने अनुरूप ढाल लेना। अपने शारीरिक और मानसिक प्राण तत्व के द्वारा इसलिए इन्हें सिद्धौध गुरु रूपिणि, दिव्यौध गुरु रूपिणि और मानवौद्य गुरु रूपिणि भी कहते हैं क्योंकि बिना ज्ञान के गुरुत्व नहीं आ सकता। 


       जिनकी सोच तुच्छ है विराट नहीं है वो सिर्फ धर्म का आवरण ओढ़ सकते हैं एवं बिना ब्रह्माण्डीय हुए अध्यात्म की बात करना हास्यपद है। ऐसे लोग बड़े संकुचित, बड़े संकीर्ण, तर्कवादी होते हैं। मनुष्य त्रिमूर्ति है उसमें विज्ञान है, हैं काव्य है, धर्म है। धर्म इस पृथ्वी पर अपूर्व निर्माण कर सकता है धर्म में सृजन की बड़ी क्षमता है क्योंकि धर्म ही तुम्हारा स्वभाव है। धर्म कोई व्यक्ति नहीं है। मस्जिद, गिरजा, गुरुद्वारे अब तो यह अड्डे बन गये हैं जहर फैलाने के। यह जबर्दस्ती मिथ्था प्रचार-प्रसार करते हैं, लोगों को आपस में लड़वाते हैं, इनसे धर्म को बचाना जरुरी है। जो भेद करते हैं वह ब्रह्माण्डीय नहीं हो सकते। 

       राजराजेश्वरी की दृष्टि एक राजा के ऊपर भी है तो एक छोटे से कीट, जीव-जन्तु पर भी है, कहीं से भी आँख बंद नहीं की है सभी पर उन्होंने अपनी कृपा दृष्टि बरसायी है। ब्रह्माण्डीय साधना का मतलब है हम अपने शरीर को जैसा भी रूप धरना चाहें वैसा बना लें। विशुद्धानंद जी गेंदे के फूल को का रूप दे देते थे। कुछ आणविक रचनाएं परिवर्तित गुलाब के फूल करके ह्रीं समस्त ब्रह्माण्ड से तुम्हारा सम्बन्ध जोड़ती है। बहुत से लोगों ने सिर के बल खड़े हो जाना या पद्मासन लगाकर बैठ जाना इत्यादि को योग समझ लिया है। योग का तात्पर्य है एक बूंद ही पूरा समुद्र बन जाए, यह शरीर ब्रह्माण्ड बन जाए और यदि शरीर ब्रह्माण्ड नहीं बन पाता तो जीवन व्यर्थ है।
                           शिव शासनत: शिव शासनत:

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