मानस पूजन एक ऐसा साधन है जो साधक को ईष्ट के निकट ले जाता है साधक का जितना समय मानस पूजन में बीतता है उतने समय वह इस जगत की सभी समस्याओं से विमुख हो ईश्वर के सम्पर्क में रहता है। वैदिक ग्रंथों में मानस पूजन का विशेष महत्व बताया गया है इस पूजन से सामान्य उपासना से हजार गुना अधिक फल मिलता है । वैसे भी भगवान को फूल, फल, नैवेद्य, पकवान,रत्न, द्रव्य, दक्षिणा आदि की कोई आवश्यकता नहीं है वे तो बस भाव की अपेक्षा रखते हैं। वस्तुतः विभिन्न वस्तुयें अर्पित कर साधक अपना भाव ही प्रदर्शित करता है। शास्त्रों में कहा गया है कि यदि अर्न्तमन से कल्पित एक भी पुष्प चढ़ा दिया जाय तो वह करोड़ों बाहरी फूल चढ़ाने के बराबर होता है। इसी प्रकार मन: कल्पित अर्थात मानसिक रूप से, चन्दन, धूप, दीप, नैवेद्य आदि भगवान को करोड़ों गुना अधिक संतोष देंगे । वैसे भी इस संसार में जो कुछ भी है उसी ईश्वरीय सत्ता की देन है संसार में ऐसा कोई दिव्य पदार्थ उपलब्ध नहीं है जिससे भगवान का पूजन किया जा सके इसीलिये वैदिक ग्रंथ मानस पूजन पर जोर देते हैं। मानस पूजन में साधक साम्बसदाशिव को सुधा सिन्धु से आप्लावित कैलाश शिखर पर कल्पवृक्षों से आवृत कदम्ब वृक्षों से युक्त मुक्तामणि मण्डित भवन में चिंतामणि से निर्मित सिंहासन पर विराजमान कर स्वर्ग लोक की मन्दाकिनी गङ्गाजल से स्नान कराता है, कामधेनु गाय के दुग्ध से पञ्चामृत कानिर्माण करता है । वस्त्राभूषण भी दिव्य अलौकिक होते हैं । पृथिवीरूपी गन्ध का अनुलेपन करता है। अपने आराध्य के लिये कुबेर की पुष्पवाटिका से स्वर्ण कमल पुष्पों का चयन करता है । भावना से वायुरूपी धूप, अग्नि रूपी दीपक तथा अमृत रूपी नेवैद्य भगवान को अर्पण करने की विधि है। इसके साथ ही त्रिलोक की सम्पूर्ण वस्तु, सभी उपचार सच्चिदानन्दघन परमात्मप्रभु के चरणों में भावना से भक्त अर्पण करता है। यह है मानस-पूजा का स्वरूप । इसकी एक संक्षिप्त विधि भी पुराणों में वर्णित है । जो इस प्रकार है
ॐ लं पृथिव्यात्मकं गन्धं परिकल्पयामि । ..( प्रभो ! मैं पृथिवीरूप पुष्प गन्ध ( चन्दन) आपको अर्पित करता हूँ । )
ॐ हं आकाशात्मकं पुष्पं परिकल्पयामि । (प्रभो ! मैं आकाशरूप पुष्प आपको अर्पित करता हूँ।)
ॐ यं वाय्वात्मकं धूपं परिकल्पयामि । (प्रभो ! मैं वायुदेव के रूप में धूप आपको प्रदान करता हूँ । )
ॐ रं वह्नयात्मकं दीपं दर्शयामि । (प्रभो ! मैं अग्निदेव के रूप में दीपक आपको प्रदान करता हूँ ।)
ॐ वं अमृतात्मकं नैवेद्यं निवेदयामि । (प्रभो ! मैं अमृत के समान नैवेद्य आपको निवेदन करता हूँ ।)
ॐ सौं सर्वात्मकं सर्वोपचारं समर्पयामि ।( प्रभो ! मैं सर्वात्मा के रूप में संसार के सभी उपचारों को आपके चरणों में समर्पित करता हूँ ।)
इन मन्त्रों से भावनापूर्वक मानस पूजन की जा सकती है । मानस पूजन से चित्त एकाग्र और सरस हो जाता है, इससे बाह्य पूजन में भी रस मिलने लगता है । यद्यपि इसका प्रचार कम है तथापि इसे अवश्य अपनाना चाहिये । यहाँ आप सभी के के लाभार्थ भगवान् शंकराचार्य विरचित 'मानस-पूजनस्तोत्र' मूल तथा हिन्दी अनुवाद के साथ दे रहा हूं।
शिवमानस पूजन --
रत्नैः कल्पितमासनं हिमजलैः स्नानं च दिव्याम्बरं नानारत्नविभूषितं मृगमदामोदाङ्कितं चन्दनम् । जातीचम्पकबिल्वपत्ररचितं पुष्पं च धूपं तथा. दीपं देव दयानिधे पशुपते हृत्कल्पितं गृह्यताम् ॥
हे दयानिधे ! हे पशुपते ! हे देव ! यह रत्ननिर्मित सिंहासन, शीतल जल से स्नान, नाना रत्नावलिविभूषित दिव्य वस्त्र, कस्तूरिकागन्धसमन्वित चन्दन, जुही, चम्पा और बिल्वपत्र रचित पुष्पाञ्जलि तथा धूप और दीप यह सब मानसिक ( पूजनोपहार ) ग्रहण कीजिये ।
सौवर्णे नवरत्नखण्डरचिते पात्रे घृतं पायसं भक्ष्यं पञ्चविधं पयोदधियुतं रम्भाफलं पानकम् ।
शाकानामयुतं जलं रुचिकरं कर्पूरखण्डोज्ज्वलं ताम्बूलं मनसा मया विरचितं भक्त्या प्रभो स्वीकुरु ॥
मैने नवीन रत्नखण्डों से रचित सुवर्णपात्र में घृतयुक्त खीर, दूध और दधिसहित पाँच प्रकार का व्यञ्जन, कदलीफल, शर्बत, अनेकों शाक, कपूर से सुवासित और स्वच्छ किया हुआ मीठा जल और ताम्बूल - ये सब मन के द्वारा ही बनाकर प्रस्तुत किये हैं, प्रभो ! कृपया इन्हें स्वीकार कीजिये ।
छत्रं चामरयोर्युग्मं व्यजनकं चादर्शकं निर्मलं वीणाभेरिमृदङ्गकाहलकला गीतं च नृत्यं तथा ।
साष्टाङ्गं प्रणतिः स्तुतिर्बहुविधा ह्येतत्समस्तं मया संकल्पेन समर्पितं तव विभो पूजनं गृहाण प्रभो ॥
छत्र, , दो चामर, पंखा, निर्मल दर्पण, वीणा, भेरी, मृदङ्ग, दुन्दुभी के वाद्य, गान और नृत्य, साष्टाङ्ग प्रणाम, नानाविध स्तुति- ये सब मैं संकल्प से ही आपको समणि करता हूँ, प्रभो ! मेरा यह पूजन ग्रहण कीजिये ।
आत्मा त्वं गिरिजा मतिः सहचरा: प्राणा: शरीरं गृहं पूजन ते विषयोपभोगरचना निद्रा समाधिस्थिति: ।
सञ्चर: पदयो: प्रदक्षिणविधिः स्तोत्राणि सर्वा गिरो यद्यत्कर्म करोमि तत्तदखिलं शम्भो तवाराधनम् ॥
हे शम्भो ! मेरी आत्मा आप हैं, बुद्धि पार्वती जी हैं, प्राण आप के गण हैं, शरीर आपका मन्दिर है, सम्पूर्ण विषय भोग की रचना आपका पूजन है, निद्रा समाधि है, मेरा चलना फिरना आपकी परिक्रमा है तथा सम्पूर्ण शब्द आपके स्तोत्र हैं, इस प्रकार मैं जो-जो भी कर्म करता हूँ, वह सब आपकी आराधना ही है ।
करचरणकृतं वाक्कायजं कर्मजं वा श्रवणनयनजं वा मानसं वापराधम् ।
विहितमविहितं वा सर्वमेतत्क्षमस्व जय जय करुणाब्धे श्रीमहादेव शम्भो ॥
प्रभो ! मैने हाथ, पैर, वाणी, शरीर, कर्म, कर्ण, नेत्र अथवा मन से जो भी अपराध किये हों, वे विहित हों अथवा अविहित, उन सबको आप क्षमा कीजिये । हे करुणासागर श्री महादेव शंकर! आपकी जय हो ।
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