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सीखने की कला ।।

         आपको मैं अगर एक शहनाई, तबला या कुम्हार का बर्तन बनाने का यंत्र दे दूँ तो इससे क्या होगा? शहनाई से या तबले से पारंगतता के अभाव में इतनी बेसुरी आवाज उत्पन्न होगी कि लोग भाग जायेंगे। मिट्टी के बर्तन पारंगतता के अभाव में आड़े-तिरछे बनेंगे। इस देश का या विश्व का सर्वश्रेष्ठ शहनाई वादक, तबला वादक, कुशल नर्तक इत्यादि में से किसी ने भी किसी विद्यालय या व्यावसायिक शिक्षण संस्थान से कोई भी डिग्री हासिल नहीं की है। साधना के मार्ग में, सीखने के मार्ग में डिग्रियों का मूल्य शून्य है । यह साधना के नकारात्मक पक्ष का प्रमाणीकरण करती है। डिग्रीधारी अगर पारंगत हों तो इस विश्व की सभी भौतिक समस्याऐं सुलझ जाय । यह पाश्चात्य प्रणाली है एवं भारतवर्ष में यह कदापि सफल नहीं हुई है और न होगी क्योंकि इसमें व्यवसाय है । व्यवसाय से साधना पक्ष में अध्यात्म समाप्त हो जाता है। और व्यवस्था यंत्रवत हो जाती है। 

           कुछ नया उत्पन्न न कर पाने की अपूर्णता का नाम ही यंत्र है। यंत्रों में उत्पत्तिकरणकी प्रक्रिया नहीं है। यह तो मात्र शाश्वत अध्यात्म का विषय है। जैसे-जैसे मनुष्य यंत्र की भांति ढलता जायेगा उसमें संतान उत्पत्तिकरण अल्प होता जायेगा यही कारण है कि पाश्चात्य देशों में अधिकांशत: स्त्री-पुरुष नपुंसक होते जा रहे हैं और अब यह इस देश में भी भी फैलता जा रहा है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समझाता हूँ, इस ब्रह्माण्ड में दो ही शक्तियाँ हैं धनात्मक और ऋणात्मक दोनों की प्रवृत्तियाँ बिल्कुल भिन्न हैं इसी प्रकार प्रत्येक जैविक व्यवस्था में नर और मादा हैं। कभी-कभी एक ही जैविक व्यवस्था में नर मादा दोनों के गुण देखने को मिलते हैं पर अधिकांशत: दोनों विपरीत धाराऐं हैं। इन दोनों धाराओं के मिलन से कुछ नया उत्पन्न होता है । सृजन की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। इसे आप क्रिया योग भी कह सकते हैं। धनात्मक और ऋणात्मक शक्तियों का योग, मिलन, सुसंयोग, कुसंयोग इत्यादि इत्यादि क्षणिक एवं अल्पकालीन हैं। कुछ समय पश्चात सृजन के समाप्त होते ही यह शक्तियाँ अलग हो जाती हैं। इनके मिलनका चर्मोत्कर्ष क्षणिक ही होगा एवं मिलन के पश्चात यह पुनः शक्तिकृत या एकीकृत होने की प्रक्रिया में जुट जाती हैं जिससे कि आने वाले समय में पुनः सृजन की प्रक्रिया सम्पन्न की जा सके।

            पौराणिक ग्रंथों के हिसाब से इन्हें आप सुर (देव) या असुर शक्ति कह सकते हैं इससे ऊपर उठकर यह शक्तियाँ भगवान और शैतान के नाम से जानी जाती हैं। अनंतकाल से भगवान शिव द्वारा ऐसी ही व्यवस्था निर्मित की गई है। भगवान या देवता किसी को दण्ड नहीं देते, किसी भी कार्य में अवरोध उत्पन्न नहीं करते हैं। देव शक्तियाँ अत्यंत ही धनात्मक प्रवृत्ति की होती है। इनका काम कल्याण और मात्र देना होता है। यह योगमयी शक्तियाँ हैं विध्वंस एवं भोग में इनका विश्वास नहीं होता है। विश्व इन्हीं शक्तियों के कारण चलायमान है। दूसरी तरफ विध्वंसक, नकारात्मक और भोगी शक्तियाँ हैं जो कि साधक के मार्ग में अवरोध, दण्ड और समस्याऐं उत्पन्न करती हैं। यह शक्तियाँ मायावी हैं प्रारम्भ में तीव्र फल देती हैं परन्तु साधक के लिए धीरे-धीरे जी का जंजाल और बोझ बन जाती हैं। इन शक्तियों को सिद्ध करने वाले साधक पतोन्मुखी होते हैं। उदाहरण के लिए कर्ण पिशाचनी साधना, इसमें साधक को पिशाचनी सिद्ध करनी पड़ती है। इस प्रकार की साधनाऐं गुरु घंटाल कराते हैं। जिस साधना से साधक का पतन हो वैसी साधनाऐं कदापि नहीं करानी चाहिए। देव मार्ग से, वेद मार्ग से इसी साधना को वाणी सिद्धि साधना कहते हैं। हमारे ऋषि-मुनियों ने त्रिकालदर्शी साधनाऐं की हैं। अर्थात भूत, भविष्य और वर्तमान को देखने की शक्ति विकसित की है जबकि कर्ण पिशाचनी साधना में मात्र भूतकाल की जानकारी ही प्राप्त हो सकती है। ऐसी साधनाऐं किस काम की जिससे व्यक्ति विक्षिप्त हो जाये। अधिकांशत: साधक ऊटपटांग से ऐसी साधनाऐं सम्पन्न करने लगते हैं और अंत में भूत-प्रेत, पिशाच, ब्रह्मराक्षस के ग्रास बन जाते हैं। लक्ष्मी कमाने के अनेकों तरीके हैं। जुऐ, सट्टे से त्वरित धन कमाया जा सकता है परन्तु अंत क्या होगा यह बताने की जरूरत नहीं है और धीरे-धीरे यह विष आपको तो क्या आपके सम्पूर्ण परिवार एवं वंश को भी अभिशप्त वंश तो दूर आने वाली कई पीढ़ियाँ विष ग्रस्त हो जायेंगी फिर किसी सदमार्ग पर चलने वाले गुरु को अत्यधिक मेहनत करनी पड़ेगी आपको सामान्य बनाने में हमारे शरीर में धनात्मक शक्तियों को जिसे मैं देव शक्ति कहता हूँ को वैज्ञानिक सुरक्षात्मक प्रणाली के नाम से पुकारते हैं। लाल रक्त कोशिकाएं श्वेत रक्त कोशिकाऐं जो कि स्थूल रूप में दिखती हैं परन्तु इनके पीछे अति सूक्ष्म, प्रज्ञावान और चैतन्य देव शक्तियाँ ही हैं। जो कि आपके शरीर की रोग, विषाद; शोक इत्यादि से रक्षा करती हैं। साधनात्मक स्थिति बनते ही शरीर की अति सूक्ष्म देव शक्तियाँजागृत हो जाती हैं। देखिए योगियों, साधु-संतों और ब्रह्मचारियों को कभी कोई बीमारी नहीं होती। दवा-दारू से वे सदैव दूर रहते हैं। यह है धनात्मक या दैव शक्तियों की उपासना का परिणाम दूसरी तरफ नकारात्मक शक्तियों की उपासना करने वाले आपको सदैव बीमार मिलेंगे। 
              साधनाऐं करना इसीलिए आवश्यक है। क्योंकि अगर आप अपने खेत में सोयाबीन नहीं बोयेंगे तो फिर गाजर घास, खरपतवार और अनुपयोगी पौधे चारों तरफ दिखाई देंगे। सकारात्मक साधनाऐं नहीं करोगे तो फिर मस्तिष्क में नकारात्मक शक्तियाँ आकर बैठ जायेंगी । जैसे ही खेत को बोओगे खरपतवार भी साथ में उगने लगेगी। यही विघ्न है तुरंत ही इन्हें उखाड़ फेंकना होगा। उखाड़ फेंकने का कार्य शिव की शक्ति से ही सम्पन्न होगा। शिव साधना इसीलिए आवश्यक है। सभी देवगण इसीलिए शिव को भजते हैं साधक को भी शिव को ही भजना चाहिये। दो चीजें होती हैं सिंहवाहिनी दीक्षा में पहली माँ भगवती शेर की सवारी करती हैं। शेर की सवारी कर "लो या फिर सिंह के द्वारा मारे जाओगे असुरों के समान। जो साधक माँ भगवती की उपासना करते हैं पुत्र रूप में वे भरत के समान सिंह से खेलते हैं। सिंह माँ भगवती के अधीन है। वह देव और असुरों को अच्छी तरहपहचानता है।
              द्वादश ज्योतिर्लिङ्ग क्या हैं? यह सब केवल स्थूल रूप में स्थित शिव के प्रारूप हैं। शिव सर्वज्ञ हैं। हमारे शरीर में भी द्वादश अंतःस्त्रावी ग्रंथियाँ हैं। यही रस विद्या है। इन्हीं से जो रस स्त्रावित होता है वही सम्पूर्ण शरीर को पोषण, स्वास्थ्य, पुष्टता और सबलता प्रदान करता है। सम्मोहन चेहरे पर उत्पन्न नहीं होता है, उसका केन्द्र तो नाभि स्थल है इसलिए श्री हनुमंत ने ब्रह्मचर्य का मार्ग अपनाया है। ब्रह्मचारी नाभि-स्थल को ही ब्रह्माण्ड का केन्द्र मान ब्रह्म साधना सम्पन्न करते हैं। यकृत शरीर में वह स्थान है जहाँ पर भगवान शिव त्र्यम्बकेश्वर के रूप में स्थित हैं | हृदय स्थल पर वह महाकाल के रूप में स्थित हैं । काल की गणना हृदय स्पंदन से भी की जाती है। ऐसे कितने ही अन्य उदाहरण हैं। सूर्य साधना के द्वारा या फिर द्वादश ज्योतिर्लिङ्ग साधना के द्वारा शरीर में स्थित सभी अंतःस्त्रावी ग्रंथियों के सूर्य केन्द्र चैतन्य हो जाते हैं ।
             यह सब बातें केवल गुरु ही बता सकता है इसलिए साधनायें सद्गुरु के सानिध्य में ही करनी चाहिए। इससे कई गुना ज्यादा प्रभाव साधक को मिल जाता है। गुरु साधक को पूर्ण रूप से कवचित कर देता है, मस्तिष्क के प्रत्येक स्तर पर बैठी नकारात्मक खरपतवार को प्रवचनों, उपदेशों, क्रियाओं और शक्तिपात के माध्यम से उखाड़ फेंकता है। गुरु का सानिध्य इसलिए आवश्यक है क्योंकि इससे सीखने की प्राकृतिक कला विकसित होती है। हलवाई के साथ रहते रहते उसका चेला भी जलेबी बनाना सीख जाता है । सिंहनी के साथ रहते-रहते सिंह के शावक भी शिकार करना सीख जाते हैं। सद्गुरु नदी के समान है। नदी में आप स्नान भी कर सकते हैं, अनेकों आध्यात्मिक क्रियायें भी सम्पन्न कर सकते हैं। उसमें स्नान करने के लिए शुल्क नहीं लगता है। वह सदैव पवित्र रहती है। नदी से आप भोजन भी प्राप्त कर सकते हैं। इस पृथ्वी पर करोड़ों व्यक्तियों का भोजन चाहे वह मछली के रूप में हो या किसी अन्य रूप में सीधे-सीधे नदी से ही प्राप्त होता है । एक ढेला भी खर्च नहीं करना पड़ता है मनुष्य को । नदी की सारी प्रक्रियायें स्वचलित हैं। अनंतकाल से वहप्रवाहमान है, उसका विकास करोड़ों वर्षों में हुआ है । प्राकृत संरचनाओं के सानिध्य से प्राण शक्ति स्फूर्तिवान होती है।

दूसरी तरफ बड़े-बड़े शहरों में पाँच सितारा होटलों में तरण पुष्कर हैं। इनमें शुल्क भी लगता है, इनका पानी भी व्यक्ति को रोग से ग्रसित कर देता है, निरंतर इसकी सफाई करनी पड़ती है और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इनमें जीव नहीं होते। यह जीवन विहीन प्रणाली है । आपने किसी को तरण पुष्कर में मछली पकड़ते देखा है । यही फर्क है सद्गुरु और गुरु घंटालों में इस ब्रह्माण्ड में अत्यंत ही परिष्कृत शक्ति अर्जन करने की व्यवस्थायें हैं। देखिए पेड़ सूर्य के प्रकाश से भी भोजन बना लेता है। कई सौ वर्ष जीता है। पशु विशेषकर हाथी जैसा विशालकाय प्राणी मात्र वनस्पतियाँ खाकर इस पृथ्वी का सबसे ताकतवर प्राणी बना हुआ है। यह तो व्यवस्था अपनाने की कला है। योग मार्ग में साधक योग शक्ति के द्वारा ब्रह्माण्ड से ही सब कुछ खींच लेता है। जितनी सूक्ष्म व्यवस्था होगी वह उतनी ही परिष्कृत होगी। साधक का तात्पर्य ही यह है कि वह इस ब्रह्माण्ड में उपस्थित सूक्ष्म से सूक्ष्म शक्ति अर्जित करने की व्यवस्थाओं को सीखे और फिर एक से एक अद्भुत दैवीय शक्तियों को अपने आप में समाहित कर ले । जो साधक जितनी ज्यादा दैवीय शक्तियाँ स्वयं में समाहित कर लेगा वह उतना ही देव तुल्य होता जायेगा। शरीर को देव तुल्य बनाना ही साधक का परम कर्तव्य है। देव तुल्य साधक जहाँजायेगा सर्वत्र प्रतिष्ठित होगा इसीलिए दैव साधनायें सम्पन्न कीजिए आदि गुरु शंकराचार्य जी के बताये मार्ग पर चलिए । प्रभु श्री राम, माता भगवती, जगद्गुरु श्री कृष्ण, श्री हनुमंत इत्यादि सभी महाशक्तियाँ आप पर कृपा बरसायेंगी। सभी सद्गुरु आपको आशीर्वाद प्रदान करेंगे। साधनाऐं अमंगल को मंगल बनाती हैं। यही वेदान्त दर्शन हैं, वेदान्त दर्शन बैकुण्ठ का मार्ग है।
                     
     शिव शासनत: शिव शासनत:

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