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सुसन्तति उत्पादन व निर्माण ।।

नारी का जननी रूप सर्वविदित है। नारी का गौरव मातृत्व में है। सृष्टा ने संसार की निरन्तरता को बनाए रखने के लिए पृथ्वी पर अपनी जगह नारी की रचना की है, इसलिए उसकी जिम्मेदारी है कि वह ईश्वर की प्रतिनिधि बनकर समाज में अपनी कोख से, चरित्र से, व्यवहार से, ज्ञान से देवता गढ़े और देवत्व का संचार करे। इस क्रम में सन्तान उत्पादन उसकी बड़ी जिम्मेदारी है, लेकिन इस जिम्मेदारी की गम्भीरता को न समझने के कारण आज समाज में उद्भिजों की तरह एक्सीडेंटल बच्चे पैदा हो रहे हैं। इसी वजह से व्यसनी, व्यभिचारी, हिंसक, कामुक, विलासी, आलसी बच्चों से समाज भरा पड़ा है। नारी समाज को श्रेष्ठ, संस्कारवान पीढ़ी, श्रेष्ठ नस्ल की सन्तान देने में समर्थ हो सकें इस क्रम में ध्यान देने योग्य बिन्दु है कि कन्या-

1. स्वयं संस्कारवान, चरित्रनिष्ठ बने, ब्रह्मचर्य शिक्षा को जीवन में उतारने का सतत अभ्यास करे।
2. उपासना, स्वाध्याय, संयम और सेवा के अभ्यास से तपी हुई नारी का व्यक्तित्व देवताओं को भी आकर्षित करती है, अतः वह ऐसे अभ्यास से नर रत्न गढ़ने वाली सांख बने।
3. सतोगुणी प्रवृत्ति प्रधान पवित्र गर्भ को, देवात्माएँ, पवित्र आत्माएँ तलाश कर रही हैं, ताकि पृथ्वी पर अवतरित हो सकें। परन्तु उपयुक्त गर्भ के अभाव में वापस चली जाती हैं। पवित्र चिन्तन, चरित्रवाली एवं आदर्श लक्ष्य वाली कन्या ही ऐसी आत्माओं का जन्म देने योग्य होती हैं। उसके गर्भ में सन्त, शहीद, सूर, आविष्कारक, विचारक अवतरित हो सकेंगे।
4. श्रेष्ठ संतान ही पैदा करने का संकल्प करें और श्रेष्ठ परिवार व श्रेष्ठ समाज के निर्माण में सहयोग करें।

श्रेष्ठ संतान कैसे पाएँ

प्रकृति से ऊपर उठना संस्कृति है तथा प्रकृति से नीचे गिर जाना विकृति है। मनुष्य यदि गिरना चाहे तो वह पशु और दानव से भी नीचे गिर सकता है और उठना चाहे तो देव व उससे भी श्रेष्ठ बन सकता है। इसके लिए भारतीय संस्कृति में संस्कार परम्परा के अन्तर्गत 16 संस्कारों का आविष्कार किया गया है।

संस्कार एवं स्वास्थ्य की दृष्टि से प्रथम संस्कार गर्भाधान संस्कार है। जिसका आज लोप हो गया है। आज कामज विवाहों की बाढ़ है तथा बिना किसी योजना के सन्तानें पैदा हो जाती है जिससे परिवार व समाज का स्वरूप अपाहिज जैसा हो गया है।

विकलांग, मंदबुद्धि, नीचबुद्धि, हिंसक, पशुतुल्य सन्तान न हो, इस हेतु आवश्यक है कि गर्भाधान संस्कार ठीक से हो। गर्भाधान संस्कार अर्थात् वर- वधू शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, आध्यात्मिक सभी दृष्टि से उन्नत सन्तुष्ट होकर भलीभाँति सोच विचार कर, श्रेष्ठ सन्तान प्राप्ति की इच्छा से, गुरुजन, ईश्वर व माता- पिता से आशीष लेकर श्रेष्ठ तिथि में सन्तानोत्पादन हेतु श्रेष्ठ, श्रद्धापर्ण (कामवासना रहित) मनोभाव के साथ प्रवृत्त होते हैं।

गर्भाधानकाल से सम्बन्धित कुछ बातें विशेष महत्व के हैं-

1. यदि पत्नी के हृदय में पति के प्रति श्रद्धा का अभाव होगा तो अश्रद्धा की स्थिति में गर्भाधान होने पर श्रेष्ठ सन्तान की उत्पत्ति सम्भव नहीं। अतः पत्नी के हृदय में पति के प्रति प्रेम व श्रद्धा हो।

उदा.- महाभारत में वर्णन आता है कि जब रानी सत्यवती के दोनों पुत्र चित्रांगद और विचित्रवीर्य निःसंतान मर गए, तब माता सत्यवती ने ऋषि वेदव्यास को नियोग परम्परा द्वारा पुत्रवधू अम्बिका व अम्बालिका से एक- एक पुत्र उत्पन्न करने को कहा। गर्भाधान के समय अम्बिका ने ऋषि की जटा, दाढ़ी व तप से काले हुए चेहरे को देखकर घृणा से आँखें बंद कर ली, इसलिए उसका अन्धा पुत्र धृतराष्ट्र हुआ और ऋषि अम्बालिका के पास गए तो वह भय से पीली पड़ गई इसलिए उससे पीले रंग व कमजोर शरीर वाला पाण्डु हुआ। जब इनकी दासी ऋषि के पास गई तब उसने एक ऋषि की सन्तान की माँ बनना अपना अहोभाग्य माना इसलिए उसकी विदुर जैसी श्रेष्ठ संतान हुई।

गर्भाधान शास्त्र में समस्त तिथियों में हो तथा गर्भाधान की अवधि में पति- पत्नी का मनोभाव, प्रेम समर्पण, श्रद्धा, भक्तिपूर्ण हो तथा समाज को श्रेष्ठ सुसंस्कृत, संत, शहीद, सूर, आविष्कारक, बुद्धिमान संतान देने का हो।

2. पुरुष के एक बार के वीर्य में 2 करोड़ से 5 करोड़ शुक्राणु होते हैं। प्रत्येक शुक्राणु में एक जीवात्मा होती है, जो मानव देह धारण करने के लिए आतुर होती है। इनमें अधिकांश जीवात्माएँ सामान्य श्रेणी की होती है, जबकि कुछ तो बहुत ही श्रेष्ठ या पुष्ट होती हैं। गर्भाधान के समय जिस शुक्राणु को सबसे अनुकूल वातावरण मिलता है, वह तेजी से आगे बढ़ता चला जाता है, अन्य मरते व पिछड़ते चले जाते है। श्रद्धा, प्रेम, समर्पण, विवशता, उदासीनता, झुँझलाहट, क्रोध, घृणा, भय, वासना, लोभ, छल आदि भावों के समय शरीर में अलग- अलग प्रकार के हार्मोनों का स्राव होता है। गर्भाधान काल में जिस प्रकार का भाव होगा, उसी प्रकार के हार्मोन्स की प्रधानता होगी और उस वातावरण में जो शुक्राणु सर्वाधिक सक्षम होगा वही डिम्ब का निषेचन करने में सफल होगा।

पाश्चात्य विज्ञान के अनुसार कौन सा शुक्राणु निषेचन करेगा और सन्तान किस प्रकार की होगी यह मात्र संयोग पर आधारित है। उनके अनुसार जानवर और मनुष्य की गर्भाधान क्रिया में कोई अन्तर नहीं है इसलिए पाश्चात्य देशों में गर्भाधान संस्कार नहीं होता। भारतीय ऋषियों ने मनुष्य की नस्ल सुधार के विज्ञान का आविष्कार किया। इस विज्ञान के अनुसार यह पति- पत्नी के हाथ में है कि वे किस प्रकार की सन्तान उत्पन्न करे।

इसके लिए मुहूर्त्त का बड़ा महत्त्व है। महाभारत में एक कथा आती है। पाराशर ऋषि विद्वानों में मतभेदों से उत्पन्न मन भेद के कारण बड़े दुःखी थे। वे दुःखी मन से आकाश की ओर निहार रहे थे कि आकाश में नक्षत्रों की स्थिति देखकर उनके ध्यान में आया कि इस समय ऐसा मुहूर्त्त है, जो हजारों साल में एक बार आता है। इस समय यदि योग्य स्त्री में गर्भाधान हो तो ऐसा पुत्र पैदा होगा जो समस्त मतभेदों को मिटाकर विद्वानों को एक साथ ला सकेगा। उन्होंने अपने सम्मुख खड़ी पवित्र और निश्चल मत्स्य कन्या को देखा और अपना हेतु बताया। उसने ऋषि के उत्कृष्ट हेतु को जानकर स्वयं को ऋषि को समर्पित कर दिया, परिणाम स्वरूप वेदव्यास जी का जन्म हुआ। वेदव्यास जी ने वेदों के बिखरे ज्ञान को चार खण्डों में व्यवस्थित कर विद्वानों में व्याप्त मतभेदों को मिटाया। 18 पुराणों और महाभारत की रचना की।

इसलिए हमारे शास्त्रों में कुछ विशेष दिन वार, तिथियों में गर्भाधान की मनाही है। दिन के समय, रजोदर्शन के बाद प्रथम चार रात्रियाँ, कृष्ण तथा शुक्ल दोनों ही पक्षों की- चतुर्थी, षष्ठी, अष्टमी, नवमी, एकादशी, पूर्णिमा, अमावस्या तिथि। मंगल, शनि, रविवार, मूल, मघा व रेवती नक्षत्र, नक्षत्र की संधि, माता- पिता का श्राद्ध दिवस, स्वयं का जन्म नक्षत्र, जन्मतिथि व जन्मवार आदि में गर्भाधान से श्रेष्ठ सन्तान पैदा नहीं होती।

श्रेष्ठ पुत्र व कन्या के लिए रजोदर्शन के बाद पीछे की रात्रियाँ पहले की रात्रियों से अधिक श्रेष्ठ होती है। विवाह के पश्चात् पहले होने वाले/वाली सन्तान प्रायः वासना की प्रमुखता से होती है। बाद की सन्तानें विचार की प्रमुखता से होती है।

संयम साधना से श्रेष्ठ सन्तान पाना सम्भव है। वर- वधू पहले श्रेष्ठ आदतें, संस्कार अपने व्यक्तित्व में लाएँ तब सन्तान की इच्छा करें। माता- पिता भी शीघ्र सन्तान हेतु दबाव न डालें।

नारी स्वास्थ्य

लड़कियाँ/महिलाएँ यूँ तो सामान्य क्रम में पुरुषों की ही भाँति स्वास्थ्य की समस्याओं से ग्रस्त होती हैं, परन्तु यौवन काल में कुछ समस्याएँ चरम पर होती हैं जैसे- गर्भाशय संबंधी तकलीफें, गर्भाशय में सूजन, सफेद पानी का जाना, प्रदर रोग, मासिक धर्म की अनियमितता, मासिक धर्म से पहले या उसी अवधि में कमर, पेडू आदि में अत्यधिक दर्द होना आदि। ऐसे समय में वे एलोपैथी दवाएँ लेकर तत्काल राहत पाना चाहती हैं, जो कि बहुत खतरनाक दुष्परिणाम पैदा करती है। थोड़ी उम्र में बढ़ने के बाद गर्भाशय से अत्यधिक रक्तस्राव और उसके बाद उसका ऑपरेशन द्वारा शरीर से बाहर निकाल दिये जाने की डॉक्टरों की सलाह से आज बहुत सी महिलाओं को नई समस्या से जूझना पड़ रहा है।

बहुत सी महिलाएँ मासिक धर्म को समय से पहले या बाद में लाने या टालने हेतु दवाएँ लेती हैं, जो अत्यधिक नुकसान देह होती है। मासिक के समय वाँछित स्वच्छता सफाई न बरतना खान- पान का समय न बरतना भी नई तकलीफों को जन्म देता है।

इस विषय में ध्यान देने योग्य कुछ बिन्दु है-

1. मासिक धर्म काई छूत का रोग नहीं है। प्रकृतिगत स्वाभाविक क्रिया है, जिससे शरीर की सफाई होती है। अतः मासिक धर्म को लेकर लड़कियाँ हीनता ही भाव न लाएँ और न ही परिवार में अन्य सदस्य उनसे हीनतापूर्ण छुआछूत का व्यवहार करें।

2. इस अवधि में शरीर को आराम चाहिए अतः अतिश्रम से बचें। सर्दी गर्मी से बचें। पूजा पाठ सम्बन्धी नियमों का पालन के क्रम में इतना ही पर्याप्त है कि स्थूल पूजा सामग्री को न छुए। मानसिक जप, ध्यान, मन्त्रलेखन से कोई परहेज करने की आवश्यकता नहीं है।

3. मासिक धर्म की अवधि में दर्द होने पर एलोपैथी दवा न लें। योग्य विशेषज्ञ से सलाह लेकर आयुर्वेदिक या होमियोपैथी दवा ले सकते हैं। पेडू व पेट में गरम पानी की थैली या बाटल से सेंक करें ठंडी खट्टी चींजे न खाएँ। गरम पेय, गरम भोजन लें। मिर्च मसालेदार भोजन न लें।

4. मासिक धर्म की अवधि में वस्त्रों की सफाई का पर्याप्त ध्यान रखें। मेडिकल के पैड इस्तेमाल करें। यदि कॉटन कपड़ा इस्तेमाल करते हों तो एक कपड़े को (छः बार) अधिक इस्तेमाल न करें। कपड़े को अच्छी तरह साबुन से धोकर धूप में सुखाएँ तथा कीटाणु रहित स्वच्छ स्थान में रखें। ग्रामीण क्षेत्रों की बहनें विशेष रूप से ध्यान रखें।

5. पूजा- पाठ अनुष्ठान के कारण कभी भी मासिक धर्म के समय को आगे बढ़ाने तथा उसके लिए दवाएँ लेने की गलती न करें। प्रकृति की स्वाभाविक क्रिया में दखल न दें।

6. विवाहित बहनें अपने दाम्पत्य जीवन में संयम बरतें असंयमित (ब्रह्मचर्य का अभाव) मर्यादाहीन यौन संबंधों के कारण यौन रोग, गर्भाशय संबंधी तकलीफें, अत्यधिक रक्तस्राव की स्थिति आती है।

7. उत्तेजक खान- पान, माँसाहार, टी.वी. के उत्तेजक दृश्य, अश्लील साहित्य तथा अश्लील यौन संबंधी चर्चा से मासिक धर्म संबंधी तकलीफें अधिक बढ़ जाती है।

8. मासिक धर्म संबंधी तकलीफों व अनियमितताओं के लिए मेंहदी बीज (सूखी) का पाउडर बना लें। एक- एक चम्मच सबेरे शाम आधा कप पानी में 6- 8 घण्टे के लिए भिगा दें। सबेरे भिगाया हुआ शाम को एवं शाम को भिगाया हुआ सबेरे के समय खाली पेट लें। ऐसा दो- तीन महीने लगातार देते रह सकते हैं।

9. काले तिल एक पाव, पानी 3 लीटर पानी में मिलाकर उबालें। डेढ़ गिलास बच जाए तो 3 खुराक बनाकर खाली पेट में सबेरे शाम ले लें। यह क्रिया माह में एक बार करें। सीता अशोक की छाल का काढ़ा भी फायदेमन्द होता है।

10. गायनिक समस्या हेतु नियमित रूप से चक्की आसन, तितली आसन, पश्चिमोत्तासन, प्रज्ञायोग तथा कपालभाति प्राणायाम करें।

11. विवाहिताएँ इस अवधि में ब्रह्मचर्य का सख्ती से पालन करें।

संदर्भ पुस्तकें:-

1. ब्रह्मचर्य जीवन की अनिवार्य आवश्यकता।
2. काम तत्त्व ज्ञान विज्ञान।
3. अपने डॉ. स्वयं बनें- डॉ. गौरीशंकर माहेश्वरी, मुम्बई।
4. स्वस्थ एवं सुन्दर बनने की विद्या।
5. ब्रह्मचर्य साधना- स्वामी शिवानन्द।

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