शिव से उत्पन्न होकर शिव में विलीन हो जाना ही समस्त ब्रह्माण्डों, ग्रहों, नक्षत्रों, दैव शक्तियों, विभिन्न तत्वों, मनुष्यों एवं वनस्पतियों की नियति है। यही शिव चक्र है। वास्तव में शिव चक्र के अलावा कुछ भी नहीं है। समस्त क्रियायें, लीलायें, अवतरण, ज्ञान-विज्ञान सब कुछ शिव चक्र के ही अंश हैं। तुझमें भी शिव, मुझमें भी शिव और हम सबमें भी शिव । सर्वस्त्र विद्यमान है वह। एक क्षण भी उसके बिना बिताना सम्भव नहीं है। शिव के बिना न तो अद्वैत है और न ही द्वैत । द्वैत और अद्वैत के परे भी अगर कुछ है। तो उसमें भी शिव है। कृष्ण अगर गीता में कह रहे हैं कि ब्रह्माण्ड मुझमें समाया और मैं ब्रह्माण्ड में समाया तो उनका तात्पर्य शिवत्व की ओर ही है न कि स्वयं के शरीर की ओर। उनसे बड़ा शिव भक्त कौन है सभी पूजन पद्धतियों का चरम बिंदु शिव ही है ले देकर पूजन की सूक्ष्म आवृत्तियाँ शिव के चरणों में जाकर ही रुकती हैं।
भारतवर्ष तो क्या इस पृथ्वी के समस्त धर्मों का निचोड़ शिव आराधना ही है। यह समझने के लिये सभी लाग लपेटों और पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर अंतर्दृष्टि से सब कुछ देखना होगा। सत्य आपके सामने आ जायेगा। शिव ही परम तत्व है। वहीं गुरुओं का सृजनकर्ता है, गुरु तक आपको पहुँचाता है और पुन: गुरु के माध्यम से शिवत्व के दर्शन कराता है। पृथ्वीलोक तो देव लोक, ब्रह्मलोक, नागलोक, पाताल लोक स्वर्ग, नर्क, पितृ लोक इत्यादि सभी लोकों में शिव पूजन और शिव अराधना ही सर्वोपरि रूप से की जाती है। हो सकता है विधियां अलग हो, सोचने का ढंग अलग हो परन्तु पूजन तो शिव का हो होता है। नाम तो मस्तिष्क की क्रिया है। इसका वास्तविकतासे कोई लेना देना नहीं है। शिव सदृश्य भी है और अदृश्य भी। जिस रूप में चाहो उस रूप में शिवत्व के दर्शन हो जायेगे । मनुष्य के रूप में व्यक्ति की निरंतर खोज शिवत्व को प्राप्त करने में ही लगी रहती है। जब वह अपने अंदर बैठे शिव को पहचान लेता है, उसके करीब होता है तो दूरी जैसे भ्रम समाप्त हो जाते हैं तब इस ब्रह्माण्ड के प्रत्येक कण में वह शिव को देखने में सक्षम हो जाता है। यही पवित्र शिव दृष्टि है।
ऐसे मानव ही ऋषि कहलाते हैं, सद्गुरु कहलाते हैं, युग पुरुष और ब्रह्मण्ड नायक भी कहलाते हैं। इन्हीं के अंदर बैठा शिवत्व उनके मुख से ज्ञान की वर्षा करता है, उनके स्पर्श को पवित्र एवं परिवर्तनकारी बनाता है, उनके दर्शन आनंददायी होते हैं। बाद में मनुष्य इन्हीं महापुरुषों को पूजता है और जाने-अनजाने में शिव के नजदीक आ जाता है परन्तु वास्तव में शिव ही सब कुछ है वही मूल है ऋषियों का महापुरुषों द्वारा मैं अर्थात शिव का ही उच्चारण है। सद्गुरु तो हमेशा ककर से शंकर बनने या बनाने की प्रक्रिया में लीन रहते हैं जिस प्रकार प्राण निकल जाने पर मात्र कंकाल बचता है उसी प्रकार शिवत्व की अनुपस्थिति में मनुष्य कंकर है। जैसे-जैसे शिव सानिध्य मिलता जायेगा कंकर से शंकर बनने में देर नहीं लगेगी और शंकर से शंकराचार्य भी बन जाओगे। बस यहीं पर परीक्षा शुरू होगी कि तुम सुर हो या असुर असुर राज रावण भी शिव के परम भक्त थे और दूसरी तरफ भगवान श्री राम की शिव उपासना भी अनुपम है। उन्होंने ही रामेश्वर में ज्योतिर्लिङ्ग की स्थापना की है। रावण असुर है इसीलिये शिव से स्वयं के लिये वरदान मांगता है। कपट और धूर्तता उसके आभूषण हैं, शिव से भी युद्ध करने को तत्पर रहता है। स्वयं हिमालय को उठा लेने कीचेष्टा भी करता है। स्वयं को तीनों लोकों का स्वामी समझने लगता है। एक बीमार और कमजोर मानसिकता ही असुर प्रवृत्ति है। जिसकी शक्ति के कारण वह दम्भ में आ गया है उसी से शक्ति प्रदर्शन करने लगता है। दूसरी ओर श्री राम हैं जो कि साक्षात् रुद्रांश श्री हनुमंत को अपने साथ लिये हुये समस्त कष्टों को झेलते हुये मर्यादा की रक्षा के लिये धर्म युद्ध कर रहें हैं। उनके साथ सती सीता भी हैं जो कि शिव धनुष को आसानी से सहज ही एक स्थान से उठाकर दूसरे स्थान पर रख देती हैं ।
शिव शासनत: शिव शासनत
उस धनुष को जिसे राक्षम राज रावण हिला भी नहीं पाया और अंत में शिवांश धारण किये हुये अपने गुरु के आशीर्वाद से के श्री राम उसी शिव धनुष को तोड़ सीता से विवाह सम्पन्न करते हैं। राम और सीता के बीच धनुष रूपी शिव हैं तो वहीं सीता हरण के बाद श्री राम और सीता के वियोग को दूर करने वाले भी रुद्रेश्वर श्री हनुमान हो हैं। समस्त रामायण, महाभारत, वेद ग्रंथों और विश्व के अन्य धर्मग्रंथ सभी कुछ शिव के आसपास ही घूम रहे हैं। भगवान् वेद व्यास ने जितन भी ग्रंथों और पुराणों की रचना की है उन सब की रचना से पहले उन्होंने भगवान् शिव की परमशक्ति के कुछ अशों को अपनी जिह्वा पर स्थापित किया है। भगवान शिव ने ग्रंथों, पुराणों का निर्माण इसलिये करवाया कि जन साधारण कम-में-कम शब्दों, वचनों, अनुभवों, बुद्धि, जान और सामान्य चेतना के माध्यम से शिव को समझसकें । शिव को समझना ही सच कुछ समझ लेना है, स्वयं को भी समझ लेना है। वास्तव में स्वयं तो कुछ होता ही नहीं है। मनुष्य को मस्तिष्क भी शिव ने प्रदान किया है इसीलिये मस्तिष्क के माध्यम से भी शिव को समझ होगा। मस्तिष्क के माध्यम से न तो शिव की व्याख्या संभव है, न ही शिव की समग्रता और विराटता के दर्शन बस शिव कृपा ही उनके कुछ विलक्षण अंशों के दर्शन करा सकती है। शिव कृपा ही एक मनुष्य के सामने इस ब्रह्माण्ड के सूक्ष्म से सूक्ष्म रहस्य परत दर परत खोलते हुये व्यक्ति सामान्य से महापुरुष के रूप में प्रतिष्ठित करती है। ऋषि क्या है ? गुरु क्या है ? ये भी हमारी तरह दो हाथ दो पैर वाले हैं परन्तु इनकी शिव भक्ति, इन पर शिव की असीम कृपा इस जगत के सूक्ष्म से सूक्ष्म रहस्यों को समझाती है, इन्हें दुनिया भर के भौतिक जंजालों के मुक्त कर इनके मस्तिष्क को पवित्र और पावन बनाती है, इनके समस्त भारों, पापों, शोकों और तापों को स्वयं शिव हर के इन्हें दिव्य कार्यों में अग्रसर करते हैं ।
मनुष्य के रूप में, मनुष्य के बीच सम्प्रेषण अत्यंत ही आसान है। ऋषियों, गुरुओं, युगपुरुषों और अवतारों के प्राकट्य का यही रहस्य है। चेहरे बदलते रहते हैं, व्यक्ति आते जाते रहते हैं परन्तु शिव लीलायें और क्रियायें अनंत काल तक चलती ही रहती हैं। शिव का एक रूप महाकाल का भी है। वे कालों के काल हैं। जीव के रूप, प्रकृति, ढांचे, स्थान, क्रिया इत्यादि में काल के अनुसार परिवर्तन होते रहते हैं। जीव का अध्यात्म, ज्ञान, चेतना, समझ, आराधना, पद्धति इत्यादि सभी कुछ काल के अधीन है। कालानुसार भी जीव शिव की महिमा और लीला को समझता रहता है। इस अखिल ब्रह्माण्ड में मात्र जीव ही सब कुछ नहीं है। जीव के अलावा अनेकों आकृतियाँ हैं, चैतन्य पिण्ड हैं, दिव्य आभामण्डल है, सूक्ष्म एवं पवित्र लोक हैं, अनेकों विभिन्न आयामी योनियां इत्यादि हैं। इन सब पर भी शिव ही विद्यमान हैं। अभी तो हम वैज्ञानिक दृष्टि से अर्थात बुद्धि, तर्क और ज्ञान की सीमाओं से इन लोकों को समझ ही नहीं सके तो फिर शिव की विराटता का वर्णन नितांत मूर्खतापूर्ण है। मनुष्य रूप में शिव तक पहुंचने के असंख्यों मार्ग हैं सभी के सब शिव के द्वारा ही निर्मित हैं। जिसकी जैसी प्रवृत्ति, जैसी सोच वैसी ही उसकी यात्रा शिव यात्रा ही अंतिम यात्रा है। चाहो, न चाहो, हँस के चलो, रो के चलो, चलना तो इसी मार्ग पर पड़ेगा। शिव मार्ग ही जीवन की उत्पत्ति का कारण है।
शिव शासनत: शिव शासनत
Ling Rahasyam (1)
Being born from Shiva and merging into Shiva is the destiny of all the universes, planets, constellations, divine powers, various elements, humans and plants. This is the Shiva Chakra. In reality there is nothing but Shiva Chakra. All actions, pastimes, incarnations, knowledge and science are all part of Shiva Chakra. Shiva in you too, Shiva in me and Shiva in all of us too. He is present everywhere. It is not possible to spend even a single moment without him. Without Shiva there is neither Advaita nor duality. If there is anything beyond duality and non-duality. So there is Shiva in that too. If Krishna is saying in the Gita that the universe merged into me and I merged into the universe, then he is referring to Shivatva and not to his own body. Who is a greater Shiva devotee than him, Shiva is the zenith of all worship practices, taking that subtle frequencies of worship stop only by going to the feet of Shiva.
In India, is worship of Shiva the essence of all the religions of this earth? To understand this, one has to rise above all attachments and prejudices and look at everything with insight. Truth will come before you. Shiva is the ultimate element. He is the creator of the Gurus, takes you to the Guru and again gives the vision of Shiva through the Guru. In all the worlds like Prithvilok, Dev Lok, Brahmaloka, Nagalok, Hades, Heaven, Hell, Pitru Lok etc., worship of Shiva and worship of Shiva is done above all. The methods may be different, the way of thinking may be different, but worship is done for Shiva. Naam is an action of the mind. It has nothing to do with reality. Shiva is visible as well as invisible. Shivatva can be seen in whatever form you want. As a human being, the constant search of the individual is engaged in attaining Shivatva. When he recognizes Shiva sitting inside him, is close to him, then illusions like distance disappear, then he becomes able to see Shiva in every particle of this universe. This is the holy sight of Shiva.
Only such human beings are called sages, they are called Sadgurus, they are also called Yug Purush and Brahmand Nayak. Shivatva sitting inside them showers knowledge from their mouths, makes their touch pure and transformative, their darshans are blissful. Later man worships these great men and comes close to Shiva knowingly or unknowingly, but in reality Shiva is everything, that is the origin of the rishis by the great men, i.e. Shiva is pronounced by me. Sadhguru is always absorbed in the process of becoming or making Shankar out of Kakar, just as only a skeleton remains after the loss of life, similarly in the absence of Shivatva man is a kankar. As you get closer to Shiva, it will not take long to become Shankar from Kankar and you will also become Shankaracharya from Shankar. It is only here that the test will begin whether you are Sur or Asura, the demon king Ravana was also a great devotee of Shiva and on the other hand the worship of Lord Shri Ram is also unique. He has established Jyotirlinga in Rameshwar. Ravana is an asura that is why he asks Shiva for a boon for himself. Deception and cunning are his ornaments, he is ready to fight even with Shiva. He himself tries to lift the Himalayas. He considers himself to be the lord of the three worlds. A sick and weak mentality is the demonic tendency. Because of whose power he has become arrogant, he starts displaying his power. On the other hand, there is Shri Ram, who is fighting a religious war to protect the dignity of Lord Hanuman, bearing all the troubles he has taken with him. She is accompanied by Sati Sita, who easily lifts the bow of Shiva from one place and keeps it in another place.
The bow which Raksham Raj Ravana could not even move and finally with the blessings of his Guru holding Shivaansh, Shri Ram breaks the same Shiva bow and solemnizes the marriage with Sita. There is Shiva in the form of a bow between Rama and Sita, while after Sita's abduction, the one who removes the separation of Shri Ram and Sita is also Rudreshwar Shri Hanuman. All Ramayana, Mahabharata, Vedas and other scriptures of the world are all revolving around Shiva. Before the creation of all the texts and Puranas that Lord Divyas has composed, he has established some parts of Lord Shiva's supreme power on his tongue. Lord Shiva got the granthas, Puranas made so that the common man could understand Shiva through at least words, words, experiences, intellect, knowledge and common consciousness. To understand Shiva is to understand the truth, you have to understand yourself too. In fact nothing happens by itself. The brain has also been given to man by Shiva, that is why Shiva will also understand through the brain. It is not possible to explain Toshiva through the mind, nor can the vision of Shiva's totality and vastness, only Shiva's grace can make us see some unique parts of him. It is the grace of Shiva that opens the subtle secrets of this universe layer by layer in front of a human being and establishes a person from an ordinary to a great man. What is Rishi? What is Guru? They are also two hands and two legs like us, but their devotion to Shiva, Shiva's infinite grace on them explains the subtle to the subtle mysteries of this world, frees them from the material chains of the world and makes their mind pure and pure. All their burdens, sins, sorrows and heats are carried by Shiva himself in the divine works of each.
As human beings, communication between humans is very easy. This is the secret of the appearance of Rishis, Gurus, Yugpurushas and Avatars. Faces keep changing, people keep coming and going, but Shiva's pastimes and actions continue till eternity. Mahakal is also a form of Shiva. They are the ages of blacks. There are changes in the form, nature, structure, place, action etc. Spirituality, knowledge, consciousness, understanding, worship, method etc. of the soul are all subject to time. Even according to time, the soul keeps on understanding the glory and pastimes of Shiva. Jiva alone is not everything in this entire universe. Apart from the living beings, there are many forms, there are conscious bodies, there is a divine aura, there are subtle and holy worlds, there are many different dimensional vaginas etc. Shiva is present on all these too. Right now we have not been able to understand these worlds from the scientific point of view, that is, from the limits of intelligence, logic and knowledge, then the description of the vastness of Shiva is utterly foolish. There are innumerable ways to reach Shiva in human form, all of them are created by Shiva. The journey of the one who has the same tendency, the same way of thinking, the journey of Shiva is the last journey. Whether you want it, don't want it, walk with a laugh, walk with a cry, you will have to walk on this path. Shiva's path is the reason for the origin of life.
respectively
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