Follow us for Latest Update

महामृत्युंजय शिव ।।

       "शिव-शक्ति" के मूलांश का उपयोग कर ब्रह्मा ने तत्व आधारित जीवन की संरचना की। आधारविहीन, निराधार, सर्वमुक्त, जन्म, मृत्यु, क्षय इत्यादि से सर्वथा मुक्त अमृतांश अर्थात शिव और शक्ति के अंश, शिव और शक्ति के मूलांश को ही मुमुक्षजन आत्मा कहते हैं। कृष्ण ने कहा आत्मा अजर अमर है। गीता में वृहदता के साथ आत्मा रूपी इसी मूलांश पर प्रभु श्रीकृष्ण ने दिव्य आख्यान दिया है। सनातन धर्म मूलांश पर केन्द्रित है इसलिए जीवन आधारित शरीर या तत्वों को कोई विशेष महत्व नहीं दिया गया है। "आत्मा अजर अमर है शरीर नश्वर है" सनातन धर्म के मूल में यह सिद्धांत पूर्ण रूप से सुशोभित है। जियों और जीने दो, जीने का अधिकार सबसे परम, सबसे चरम शैव चिंतन है। परम देव शिव का महामृत्युंजय स्वरूप उनके सभी शैव स्वरूपों में सबसे आदी स्वरूप है। महामृत्युंजय स्वरूप को इस सृष्टि का सबसे प्रथम बिन्दु माना जा सकता है क्योंकि इसी स्वरूप में शिव शस्त्रविहीन हैं, अस्त्रविहीन हैं। एक हाथ में अक्षयमाला है, एक हाथ मृगी मुद्रा दर्शा रहा है, चार हाथ अमृत कलशों को उनके मस्तक पर प्रवाहित कर रहे हैं तो दो हाथपूर्ण सुरक्षा के साथ अमृत कुम्भों को थामे हुए हैं, अमृतेश्वरी उनकी बायीं जंघा पर विराजमान हैं पूर्ण तन्मयता के साथ अस्वविहीन शिव ग्रास विहीनता का परिचायक हैं। अस्त्रों का अमृताभिषेक नहीं हुआ भगवान शिव के त्रिशूल, चाप, बाण, गदा, परशु पर अमृत नहीं छलका, शिव के समस्त वाहन, गण, क्षेत्रपाल इत्यादि भी इस स्वरूप में उनके पास नहीं हैं। अमृतमय कोश में केवल अमृतेश्वर और अमृतेश्वरी ही मौजूद हैं अन्य सबका प्रवेश निषिद्ध है। इस चर्मोत्कर्ष स्वरूप के समय समस्त ब्रह्माण्ड शिव में शयन करता है, सृष्टि का प्रपंच शून्य होता है, समस्त सृष्टि कोलाहल विहीन होती है। अमृत सिंचन के समय सृष्टि जो कि कई कल्प कल्पांतकों तक आघात, ग्रास, ग्रहण, प्रतिघात स्व घात, मृत्यु, रोग, विष इत्यादि से पीड़ित होती है वह पुनः समग्रता के साथ शिव में शयन करती हुई शुद्धता, चैतन्यता को प्राप्त होती है। सृष्टि का प्रारम्भ अमृताभिषेक के पश्चात् ही सम्पन्न होता है कालान्तर उसमें अनियमितता, नाना प्रकार के दोष, दूषितता एवं कुरुपता कर्म के सिद्धांत के कारण उदित हो उठती है। मलग्रस्त, मलोत्पादक, मलयुक्त सृष्टि का शुद्धिकरण भगवान मृत्युंजय शिव के द्वारा हीसम्पन्न होता है। मृत्युंजय स्वरूप मल शून्यता, ताप शून्यता का परिचायक है अतः साधक इस स्वरूप की उपासना के माध्यम से अपने आपको पुनः मल शून्य बनाने में सक्षम होता है जिसमें जितना अल्प जीवन के प्रत्येक तल पर मलोत्पादन होगा वह उतना ही उच्च कोटि का अमृत ग्रहणकर्ता बनेगा। मलोत्पादन उसी में अल्प होगा जो न्यूनतम् मात्रा में मलयुक्त, मल निर्माण में संलग्न ग्रासों को ग्रहण करेगा फिर भी मलोत्पादन तो हो ही जाता है। सनातन धर्म में से दो विलक्षण शाखायें निकली जैन धर्म और बौद्ध धर्म महावीर ने कहा जियो और जीने दो, बुद्ध ने अहिंसा का प्रतिपादन किया इन दोनों से पहले भी असंख्य ऋषि-जनों ने उपरोक्त सिद्धांतों का इनसे भी अधिक ऊपर की आवृत्तियों तक अनुसंधान किया, इनसे भी प्रचण्ड तप किया, इनसे भी प्रचण्ड आंतरिक रूप से वे परम शैव मागीय थे। व्यक्तिगत तौर पर ये सब अमृत्व को प्राप्त कर गये, ग्रहण, ग्रास, ग्रसित करने और होने की स्थिति से ऊपर उठ गये, मृत्युंजयी शिव में विलीन हो गये, अमृत्यु को प्राप्त हुए। यूं तो लिंग शरीर, सूक्ष्म शरीर भी ग्रसित होते हैं। कर्म बंधनों में बंध पुनर्जन्म को प्राप्त होते हैं, स्वर्गारोहण से लेकर नर्कारोहण तक करते हैं परन्तु महामृत्युंजय साधना के द्वारा लिंग शरीर, सूक्ष्म शरीर अमृत्व को प्राप्त होता है एवं वह समस्त ब्रह्माण्ड में निर्विघ्न हो कहीं भी किसी भी लोक में क्रिया करने में सक्षम होता है। साथ ही साथ सूक्ष्म शरीर एवं स्थूल शरीर के बीच एक निश्चित आयु तक सामंजस्य, अखण्डता भी महामृत्युंजय साधना के द्वारा साधक बनाने में सक्षम होता है। मूल रूप से महामृत्युंजय तंत्रम सर्वव्यापक है इसकी शक्ति से युक्त लिंग शरीर को ब्रह्माण्ड में कहीं भी विचरण करने की पूर्ण आजादी होती है एवं इस प्रकार के दिव्य लिंग शरीर जब शिव आदेश के कारण पंचभूतीय शरीर धारण करते हैं तो उनके स्थूल शरीर की दैवीय रक्षा स्वयं भगवान शिव करते हैं।
                                 
 शिव शासनत: शिव शासनत:

Maha Mrityunjay
               Using the radiance of "Shiva-Shakti", Brahma created the element based life. Baseless,baseless, all liberated, completely free from birth, death,decay etc. Amritansh i.e. parts of Shiva and Shakti,Moolansh of Shiva and Shakti is called mumukkshajan soul. Krishna said that the soul isimmortal. In the Gita, Lord Shri Krishna hasgiven a divine narration on this radiancein the form of soul with greatness.Sanatan Dharma is centered on Mulansha, so no special importance isgiven to the life based body orelements. 
          This principle is completely embellished at the core of SanatanDharma, "The soul is immortal, the body is mortal". Live and letlive, the right to live isthe ultimate, mostextreme Shaivite thought.The Mahamrityunjaya form ofthe supreme god Shiva is themost accustomed formamong allhis Shaivite forms.Mahamrityunjaya form can be considered as the first point of this creation because in this form Shiva is weaponless, weaponless. One hand is holding Akshayamala, one hand is showing mrigi mudra, four handsare pouring nectar urns on their heads and two hands.voice is holding the nectar Kumbhas with complete protection,Amriteshwari is seated on his left thigh, with perfecttautness, the impeccable Shiva is a symbol of era lessness. Amritabhishek of weapons was not done, Lord Shiva's trident, arc, arrow, mace, nectar was not spilled on Parashu, all the vehicles of Shiva, Gana, Kshetrapal etc.
         were also in this form.They don't have. Only Amriteshwar and Amriteshwariare present in Amritmay Kosh, entry of all othersis prohibited. At the time of this climax form, the entire universe sleeps in Shiva, theuniverse is devoid of noise, the whole creationis devoid of noise. At the time of nectar irrigation, the creation which has been there for many Kalpan taks of trauma, loss, eclipse, rebound, self-immolation, He who is afflicted by death,disease, poison etc., againattains purity,consciousness whilesleeping in totalityin Shiva. The beginning of the creation of Amritabhishek It is accomplished only after that, aftera time irregularity, various types of defects,contamination and ugliness arise due to the principle of karma. The purification of the excreted, excretory, excretory creation is done only by Lord Mrityunjay Shiva.
             It gets accomplished. The form of Mrityunjay is a sign of emptiness, heat emptiness, therefore,through the worship of this form, the seeker isable to make himself void again, in which the moreexcreta is produced at each level of his short life, the more he will become a recipient of nectarof a higher order. The production of excreta will beless in that which will take the least amount of feces,the wastes involved in the formation of sewage, yet the production of excreta is done. Two unique branches emerged from Sanatan Dharma, Jainism and Buddhism. Mahavira said live and let live ,Buddha propounded non-violence, even before these two innumerable sages researched the aboveprinciples to even higher frequencies, He did alot of penance even from them, even more intensethan these, internally he was the supreme Shaivite. Individually they all attained immortality, roseabove the state of being eclipsed, possessed, possessedand possessed, merged with Mrityunjayi Shiva, attainedimmortality. In this way, the linga body and the subtlebody are also affected. In the bonds of karma, the bondsare attained in rebirth, from ascension to heaven,but through the practice of Mahamrityunjaya, the linga body ,the subtle body attains immortality and it is able tofunction in any world, anywhere in the whole universe.Is. At the same time, harmony and integrity betweenthe subtle body and the gross body up toa certain age is also capable of making a seeker through Mahamrityunjaya sadhna. Basically MahamrityunjayaTantram is omnipresent, the linga body with its power has complete freedom to move anywhere in theuniverse and when such a divine linga body assumesthe Panchabhutiya body due to Shiva's order, the divine protection of his gross body itself. Lord Shiva does.

0 comments:

Post a Comment