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सद्गुरु स्वामी निखिलेश्वरानंद जी महाराज द्वारा वर्णित महापूजनविधि ।।

        सर्वप्रथम प्रातःकाल स्नान आदि से निवृत्त होकर आदि शक्ति माँ भवानी के चित्र या मूर्ति के सामने आसन लगाकर बैठें। इसके पश्चात् पूर्ण श्रद्धा के साथ चित्र के सामने शुद्ध घी का दीपक प्रज्जवलित करें। तत्पश्चात् दोनों हाथों को जोड़ते हुए ग्यारह बार ॐ नमश्चण्डिकायै ।। (ॐ चण्डिका देवी को नमस्कार है ) मंत्र का श्रद्धा के साथ जाप करें। अगर आप आसन के ऊपर पद्मासन की स्थिति में बैठ सकते हैं तो अति उत्तम होगा अन्यथा साधारण स्थिति भी चलेगी पर ध्यान रहे रीढ़ की हड्डी एकदम सीधी हो। सिले हुए वस्त्रों को पहनकर पूजा करना सदैव वर्जित है। धोति का इस्तेमाल सर्वश्रेष्ठ होता है। आंतरिक वस्त्र स्वच्छ होने चाहिए। इसके पश्चात् लगभग पाँच बार “दुं दुर्गाये नमः " मंत्र का मानसिक जाप करते हुए नाड़ी शोधन प्राणायाम सम्पन करें । तत्पश्चात् वर्णित नीचे सम्पूर्ण कवच का पाठ करें। 

        ‌पूर्व दिशा में ऐन्द्री (इन्द्रशक्ति) मेरी रक्षा

 करें अग्निकोण में अग्निशक्ति, दक्षिण दिशा में

 वाराही तथा नैऋत्य कोण में मृग पर सवारी

 करने वाली देवी मेरी रक्षा करें। उत्तर दिशा में

 कौमारी और ईशान कोण में शूल धारिणी देवी

 रक्षा करें। ब्रह्माणि ! तुम ऊपर की ओर से मेरी

 रक्षा करो और वैष्णवीदेवी नीचे की ओर से मेरी

 रक्षा करें। इसी प्रकार शव को अपना वाहन

 बनाने वाली चामुण्डा देवी दसों दिशाओं में मेरी

 रक्षा करे । जया आगे से और विजया पीछे की

 ओर से मेरी रक्षा करें। वामभाग में अजिता और

 दक्षिण भाग में अपराजिता रक्षा , करें ।

 उद्योतिनी शिखा की रक्षा करें। उमा मेरे मस्तक

 पर विराजमान होकर रक्षा करे। ललाट में

 मालाधारी रक्षा करे और यशस्विनीदेवी मेरी

 भौहों का संरक्षण करें। भौंहों के मध्य भाग में

 त्रिनेत्रा और नथुनों की यमघणटा देवी रक्षा करें।

 दोनों नेत्रों के मध्यभाग में शखिनी और कानों में

 द्वारवासिनी रक्षा करें। कालिका देवी कपोलों

 की तथा भगवती शांकरी कानों के मूल भाग की

 रक्षा करें। नासिका में सुगन्धा और ऊपर के

 ओंठ में चर्चिका देवी रक्षा करें। नीचे के ओठ में

 अमृतकला तथा जिह्वा में सरस्वती देवी रक्षा

 करें। कौमारी दाँतों की और चण्डिका

 कण्ठप्रदेश की रक्षा करें। चित्रघण्टा गले की

 घाँटी की और महामाया तालु में रहकर रक्षा

 करें। कामाक्षी ठोढ़ी की और सर्वमङ्गला मेरी

 वाणी की रक्षा करें। भद्रकाली ग्रीवा में और

 धनुर्धरी पृष्ठवंश (मेरुदण्ड) में रहकर रक्षा करें।

 कण्ठ के बाहरी भाग में नीलग्रीवा और कण्ठ

 की नली में नलकूबरी रक्षा करें। दोनों कंधों में

 खड्गिनी और मेरी दोनों भुजाओं की

 वज्रधारिणी रक्षा करें। दोनों हाथों में दण्डिनी

 और अंगुलियों में अम्बिका रक्षा करें। शूलेश्वरी

 नखों की रक्षा करें। कुलेश्वरी कुक्षि (पेट) में

 रहकर रक्षा करें। महादेवी दोनों स्तनों की और

 शोकविनाशिनी देवी मन की रक्षा करें ।ललिता

 देवी हृदय में और शूलधारिणी उदर में रहकर

 रक्षा करें। नाभि में कामिनी और गुह्यभाग की

 गुह्येश्वरी रक्षा करें। पूजना और कामिका लिंग

 की और महिषवाहिनी गुदा की रक्षा करें।

 भगवती कटिभाग में और विन्धवासिनी घुटनों

 की रक्षा करें। सम्पूर्ण कामनाओं को देनेवाली

 महाबला देवी दोनों पिण्डलियों मेरी रक्षा करे।

 नारसिंही दोनों घुट्टियों की और तैजसी देवी

 दोनों चरणों के पृष्ठ भाग की रक्षा करें। श्री देवी

 पैरों की अंगुलियों में और तलवासिनी पैरों के

 तलुओं में रहकर रक्षा करें। अपनी दाढ़ी के

 कारण भयंकर दिखायी देनेवाली दंष्ट्राकराली

 देवी नखों की और अर्ध्वकेशिनी देवी केशों की

 रक्षा करें। रोमावलियों के छिद्रों में कौबेरी और

 त्वचा की वागीश्वरी देवी रक्षा करें। पार्वती देवी

 रक्त, मज्जा, वसा, मांस, हड्डी और मेदकी रक्षा

 करें।

आँतों की कालरात्रि और पित्त की मुकुटेश्वरी

 रक्षा करें। मूलाधार आदि कमल केशों में

पद्मावती देवी और कफ में चूडामणि देवी स्थित

 होकर रक्षा करें। नख के तेज की ज्वालामुखी

 रक्षा करें। जिसका किसी भी अस्त्र से भेदन नहीं

 हो सकता, वह अभेद्या देवी शरीर की समस्त

 संधियों में रहकर रक्षा करें। ब्रह्माणि! आप मेरे

 वीर्य की रक्षा करें। छत्रेश्वरी छाया की तथा धर्म

 धारिणी देवी मेरे अहंकार, मन और बुद्धि की

 रक्षा करें। हाथ में वज्र धारण करने वाली

 वज्रहस्ता देवी मेरे प्राण, अपान, व्यान, उदान

 और समान वायु की रक्षा करें। कल्याण से

 शोभित होने वाली भगवती कल्याणशोभना मेरे

 प्राण की रक्षा करें। रस, रूप, गंध, शब्द और

 स्पर्श इन विषयों का अनुभव करते समय

 योगिनी देवी रक्षा करें तथा सत्वगुण, रजोगुण

 और तमोगुण की रक्षा सदा नारायणी देवी रक्षा

 करें। वाराही आयु की रक्षा करे। वैष्णवी धर्म की

 रक्षा करें तथा चक्रिणी (चक्र धारण करने वाली)

 देवी यश, कीर्ति लक्ष्मी, धन तथा विद्या की रक्षा

 करें। इन्द्राणि! आप मेरे गोत्र की रक्षा करें।

 चण्डिके मेरे पशुओं की रक्षा करो। महालक्ष्मी

 पुत्रों की रक्षा करे और भैरवी पत्नी की रक्षा

 करें। मेरे पथकी सुपथा तथा मार्ग की क्षेमकरी

 रक्षा करे राजा के दरबार में महालक्ष्मी रक्षा करें

 तथा सब ओर व्याप्त रहने वाली विजया देवी

 सम्पूर्ण भयों से मेरी रक्षा करें । हे देवि! जो

 स्थान कवच में नहीं कहा गया है, अतएव रक्षा

 से रहित है, वह सब तुम्हारे द्वारा सुरक्षित हो

 क्योंकि तुम विजयशालिनी और पापनाशिनी हो । 

           इस प्रकार पाठ सम्पन्न करने के पश्चात सम्पूर्ण वेदोक्त रीति से माँ की आरती सम्पन्न करें। पूजन के पश्चात ही अन्न को ग्रहण करना चाहिए। पूजन से पूर्व किसी भी प्रकार का भोजन वर्जित है। इस प्रकार 21 दिनों तक और विशेषकर नवरात्रि के पवित्र 9 दिनों में यह महापूजा आपके रक्त के कण-कण में आदि शक्ति माँ भवानी को स्थापित कर देगी और जो साधक अखण्ड रूप से प्रतिदिन इस कवच का पाठ करते हैं उनकी यात्राओं में दुर्घटनाऐं नहीं होती। जिस भी वस्तु का वे चिंतन करते हैं वह उन्हें निश्चित ही प्राप्त होती है। माँ के कवच से सुरक्षित मनुष्य • निर्भय होकर पृथ्वी लोक में विचरता है। देवी कला प्राप्त करने का यह एकमात्र साधन है। शतायु जीवन इसी कवच के द्वारा दे सम्भव हो पाता है। चेचक, कोढ़ इत्यादि व्याधियाँ नष्ट हो जाती हैं। इस 
           कवच से कवचित साधक पर सांप, बिच्छू एवं अन्य कृत्रिम विषों का असर नहीं होता। कुटिल तांत्रिकों द्वारा मारण, मूठ, मोहन जैसे प्रयोग उल्टे हो जाते हैं। शिव गण जैसे कि डाकिनी शाकिनी, ब्रह्म राक्षस, वेताल, यक्ष, गंधर्व, भूत पिशाच, कुष्माण्ड भैरव आदि कवचित साधक को देखकर स्वयं ही भाग जाते हैं। साधक की जिह्ना पर देवी स्वयं विद्यमान हो जाती है। उसके मुख से निकला शब्द ब्रह्म वाक्य होता है। यह कवच सौन्दर्य सम्मोहन की वृद्धि करता है एवं ग्रह कलह, स्त्री कष्ट इत्यादि से साधक को सर्वथा मुक्त रखता है। इस दुर्लभ कवच को प्राप्त करने के लिए देवता भी मानव शरीर धारण करने के लिए लालायित हो जाते हैं। स्त्रियाँ रजस्वला होने पर 5 दिन कवच का जाप कदापि न करें एवं घर में मौजूद किसी भी रजस्वला स्त्री को पूजा गृह में कदापि प्रवेश नहीं करना चाहिए। कवच का पाठ करने से पहले देवी की मूर्ति को दुग्ध स्नान या जल स्नान अवश्य करानी चाहिए एवं यथा शक्ति माँ की मूर्ति का श्रृंगार, तिलक भी करना चाहिए। 
           माँ चण्डिका की मूर्ति के पैरों में तिलक अवश्य लगाना चाहिए एवं इसके साथ ही उनके द्वारा धारण किये गये सभी अस्त्र-शस्त्रों का भी तिलक करना चाहिए। लाल पुष्प देवी को अत्यंत प्रिय हैं एवं इसके साथ ही धूप, अगरबत्ती भी अवश्य प्रज्जवलित करनी चाहिए। माँ चण्डिका का पूजन राजसिक पूजन होता है एवं राजसिक पूजन में नैवैद्य, पुष्प, अक्षत, चाँवल, कुमकुम, चन्दन इत्यादि का प्रयोग किया जाता है। देवी का पूजन करने वाले साधक को अत्यंत ही सात्विक प्रवृत्तियाँ धारण करनी चाहिए। मांस, मदिरा एवं वेश्यागमन सर्वथा वर्जित है। इस प्रकार के कृत्य देवी को अत्यंत कुपित कर देते हैं। प्रातः काल देवी का पाठ सर्वश्रेष्ठ होता है एवं साधक को समय विशेष का भी ध्यान रखना चाहिए अगर आप प्रतिदिन सात बजे कवच का पाठ करते हैं तो फिर निश्चित समय पर ही पाठ करें। पाठ करते वक्त शरीर के रोम-रोम में देवी का स्थापत्य महसूस करना चाहिए एवं मानसिक रूप से किसी भी प्रकार का चिंतन नहीं करना चाहिए। इस प्रकार आप सम्पूर्ण देह को चैतन्य, जागृत एवं मंदिर के समान पवित्र बनाने में सफल होंगे जीवन में होने वाले प्रत्येक कर्म अर्ध्वगामी और माँ आदिशक्ति के अनंत नेत्रों के समक्ष सम्पन्न होगे। आपका सम्पूर्ण जीवन मातृत्व की मधुरता के कारण मधुर एवं स्वस्थ हो जायेगा 

                 ‌‌ || ॐ श्री चण्डिकायै नमः ||

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