अध्यात्म का एकमात्र लक्ष्य ऊर्जा को अर्ध्वगामी बनाना एवं मनुष्य को संकीर्ण और खण्ड-खण्ड वाली सोच के प्रवृत्ति चक्र से मुक्ति दिलाना है। वेद दृष्टाओं ने कभी भी व्यक्ति पूजा को महत्व नहीं दिया है। किसी भी वेद में व्यक्ति विशेष को पूजने के लिये नहीं कहा गया है, बस कहा गया है तो उस व्यक्ति को नमन करने के लिए और उसके प्रति श्रद्धा रखने के लिये जो कि वास्तव में सद्गुरु हो । यहाँ पर भी सद्गुरु के सद्गुरु रूपी उस शिवत्व के प्रति साधक को सदैव ऋणी रहने के लिये कहा गया है जो कि उसका परिचय ईष्ट अर्थात ब्रह्माण्डीय दिव्य ऊर्जाओं से करवाता है। इसके साथ ही वेद एक मार्गीय नहीं है। एकांगी पूजन सदैव साधक को पथ भ्रष्ट एवं अंत में योनियों के चक्कर में ही भटकाता है। एकांगी प्रक्रिया नाम की कोई चीज नहीं होती है, यह तो मानव निर्मित धर्म और अधकचरी पूजा प्रवृत्ति का द्योतक है।
वेदों में आदि मातृ शक्ति को भी पूजा गया है तो वहीं ब्रह्मा की भी उपासना, शिव की भी उपासना है एवं इनके साथ जगत पालक विष्णु और महालक्ष्मी के साथ-साथ अन्य दिव्य देवताओं इत्यादि की भी पूजा अर्चना है। वेदोक्त पूजन में सभी देवता स्थापित किये जाते हैं, समस्त शक्तियों का आह्वान किया जाता है। सभी को समान आदर प्रदान किया जाता है। मानव निर्मित धर्म एवं अध्यात्म में बस यही मूल फर्क है। ऐसा कोई भी महामंत्र नहीं है जिसके मात्र जाप से जीवन के सभी आयाम पूर्ण होते हैं । आप स्त्री को माँ स्वरूप में भी देखते हैं तो वही बहन के स्वरूप में भी, उससे प्रेम करते हैं एवं पत्नी स्वरूप मे जीवन भर के सहयोगी बनते हैं वहीं पुत्री स्वरूप में स्वयं कन्यादान भी करते हैं। एक स्त्री पुत्री भी होती है, बहन भी होती है, पत्नी भी होती है, तो वहीं माता या परदादी, दादी इत्यादि भी हो सकती है। इसके अलावा और अनेकों या फिर असंख्य स्वरूप में ही व्यक्ति विशेष का जीवन सम्पन्न होता है। प्रत्येक सम्बन्ध में व्यवहार भी सम्बन्धों के अनुकूल ही होता है।
वेद जब महापूजा की बात करते हैं तब मंत्र दृष्टा और हमारे ऋषि मुनि आदि शक्ति भवानी अनेकों स्वरूप में दृष्टा बनकर उसके दिव्य दृष्टांत को निहारते हुए परमानंद में खो जाते हैं। शिव की पूजा शक्ति पूजा के बिना अधूरी है। वास्तव में जो शिवत्व का पिपासु होगा उस पर तो आदि शक्ति की कृपा स्वयं ही बरसेगी। वेदोक्त पूजन में कहीं भी खण्डता दिखाई नहीं पड़ती। यह ब्रह्माण्डीय या फिर परब्रह्मण्डीय पूजन है पूजन का अर्थ नमन एवं दुर्लभ प्रेममयी अमृत कोष की स्थापना करना है जिस प्रकार शिशु अबोध अवस्था में सर्वप्रथम 'माँ' शब्द पुकारता है और उसके मुख से निकले माँ महामंत्र के कारण ही के वक्षस्थल से अमृतरूपी दुग्ध की धारा निकल पड़ती है। ठीक इसी प्रकार साधक जब अपने समस्त अधकचरे ज्ञान, व्यर्थ दम्भ और अहम के साथ-साथ अन्य तथाकथित मानवीय बुद्धि और तर्क इत्यादि को त्यागकर पूर्ण श्रद्धा के साथ आदि शक्ति भवानी से पूजन, स्तुति इत्यादि के द्वारा सम्बन्ध स्थापित करता है तो फिर आदि शक्ति भवानी जो कि समस्त जग की निर्मात्री है, जिसकी कोख से असंख्य देवियाँ एवं ब्रह्मा, विष्णु और महेश का भी जन्म हुआ है भक्त को इतना वात्सल्य देती कि वह इस पृथ्वी लोक के समस्त कष्टों और दुखों से मुक्त जाता है।
जिस प्रकार एक स्त्री चाहे वह किसी भी योनि की क्यों न हो अपने नवजात शिशु को समस्त ऊर्जा मात्र दुग्ध के द्वारा ही प्रदान कर देती है ठीक उसी प्रकार आदि शक्ति माँ भवानी से प्रकट हुई दिव्य एवं मनोरम प्रकाश रूपी अमृत धारा साधक को शिशु के समान मस्त एवं सभी चिंताओं से मुक्त बना देती है। जिस साधक पर माँ भगवती की कृपा होती है उस पर तो शिव का वश भी नहीं चलता तो फिर उनके गणों जैसे कि राक्षस, वेताल, भूतप्रेत, डंकनी शंकनी इत्यादियों की क्या मजाल है। इस पृथ्वी लोक में मां भगवती की सेवा साधक को समस्त सुखों एवं ऐश्वर्य, से लाद देती है। यश, प्रसिद्धि कीर्ति, सौन्दर्य, भोग इत्यादि समस्त मानवीय जरूरतें देवी का ही अंश है।
क्रमशः
शिव शासनत: शिव शासनत:
स्वयं भगवान शंकर भी पार्वती या माँ अन्नपूर्णा के द्वारा ही भोजन पाते हैं। उनकी समस्त आवश्यकताओं का ध्यान भी आदि शक्ति ही रखती है। एक बार शिव भक्त आपको भूखे पेट मिल जायेंगे, उनके आसपास दरिद्रता भी विद्यमान मिल सकती है परंतु माँ भवानी के शिष्य आपको कभी भी भूख से तड़पते हुए नहीं मिलेंगे। पिता के अभाव में भी बच्चों का लालन पालन माँ करती है परंतु माँ के अभाव में बच्चों का लालन पालन पिता के वश की बात नहीं है। प्रकृति की संरचना ही कुछ ऐसी है। अपने भक्तों पर जरा सी भी आँच आती देख आदि शक्ति सिंहनी के समान रौद्र रूप धारण कर लेती है या फिर काली स्वरूप में समस्त जगत का ही संहार होने लगता है तो फिर भगवान शिव को भी उनके चरणों में लेटकर उन्हें पुनः शांत करना पड़ता है। शिव भी शक्ति की आज्ञा में बंधे हुए हैं। माँ भवानी के मुख से निकला कोई भी शब्द चूक नहीं सकता। शिव को उसे पूरा ही करना पड़ता है। प्रेम, ममता, सुरक्षा एवं ऊर्जा का अटूट भण्डार है माँ आदि शक्ति की उपासना । स्वयं भगवान शंकर अपने गणों एवं भक्तों को जीवन यापन एवं घोर दरिद्रता मिटाने के लिए माँ की आराधना करने को प्रेरित करते हैं।
वैदिक ऋषि मार्कण्डेय जी ने एक बार मनुष्यों 'की अत्यंत ही दुर्दशा देखकर अपने पिता ब्रह्मा से पूछा कि हे पितामह आप कोई ऐसा दुर्लभ शिव रहस्य या शिव सूत्र बताइये जिससे कि पृथ्वी पर निवास करने वाले मेरे शिष्य जीवन में समस्त ऐश्वर्यों और सुख की प्राप्ति के साथ-साथ अपनी सम्पूर्ण आयु आरोग्य एवं सुरक्षापूर्वक व्यतीत कर सकें। इस पर पिता स्वरूप ब्रह्मा जी बोले हे पुत्र तुमने तो स्वयं आदि शक्ति शिव से महामृत्युंजय मंत्र प्राप्त किया है तो फिर तुम्हे अन्य किसी सुरक्षा चक्र की क्या आवश्यकता। इस पर मार्कण्डेय जी ने कहा कि प्रभु सुरक्षा चक्र तो प्राप्त कर लिया परंतु अभाव एवं ऐश्वर्य की अनुपस्थिति में जीवन पशुतुल्य हो चला है। तब ब्रह्मा जी ने उन्हें अति गोपनीय देवी कवच की विधि एवं उसके महत्वों का विस्तारपूर्वक वर्णन बताया।
दुर्गा सप्तशती में इसे देवी कवच के नाम से वर्णित किया गया है। बाद में शक्ति इस महापूजा की सरल एवं समय अनुकूल पद्धति को दीक्षा एवं ज्ञान के रूप में प्राप्त किया। अध्यात्म के पथ पर सदगुरु के अनुसार जब तक शिष्य आरोग्य, धन, सुन्दर पत्नी, सुदर्शन स्वास्थ्य, सफलता, प्रसिद्धि कीर्ति यश इत्यादि को प्राप्त नहीं करता वह पूर्णत्व भी नहीं पा सकता है। वेद दृष्टाओं ने कभी भी दरिद्रता या सब कुछ त्यागने की बात नहीं की है कोई भी ऋषि श्री विहीन नहीं था। सभी वैदिक ऋषियों ने शिव के साथ-साथ शक्ति की भी समान आराधना की और उनके कृपाबल पर ही जीवन में सभी भौतिक सुखों के साथ साथ शिवत्व का भी पान किया। जिस प्रकार शिव मात्र मृग छाल लपेटे बिना किसी सिहांसन के हिमालय पर निमग्न भाव से विराजमान रहते हैं तो वहीं आदि शक्ति स्वरूप माँ अन्नपूर्णा उनके साथ निवास करती हुई शिव के अलावा उनके सभी गणों भक्तों और यहाँ तक कि पुत्रों को भी किसी भी वस्तु की कमी नहीं होने देती हैं।
शिव शासनत: शिव शासनत:
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