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मनुष्य जीवन का लक्ष्य क्या होना चाहिए ?

ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते ।
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥

क्रोधाद्‍भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥

रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्‌ ।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥

विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध से अत्यन्त मूढ़ भाव उत्पन्न हो जाता है, मूढ़ भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है, स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अर्थात ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश हो जाने से यह पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता है॥ परंन्तु अपने अधीन किए हुए अन्तःकरण वाला साधक अपने वश में की हुई, राग-द्वेष रहित इन्द्रियों द्वारा विषयों में विचरण करता हुआ अन्तःकरण की प्रसन्नता को प्राप्त होता है॥ इसीलिए विषयो का चिंता भी धर्मानुसार ही करना चाहिये, मतलब संपत्ति में आसक्ति न रहे। किसी ने सही कहा है " खाली हाथ आये थे, खाली हाथ जायेंगे, जो आज तुम्हारा है, काल किसी और का था, परसों किसी और का होगा। हम इसीको अपना समझकर गढ़ुड में जीते है और ये ही हामारा दुखो का कारण है। " इस दुनिया में जो भी हमने कामाया है, स्थावर या अस्थाबर ये सभी अपने काबिलियत न समझे, ये मालिक का ही देन समझे क्युकी वो मालिक को जैसे देने में कोई देर नहीं लगता और वापस लेने भी कोई देर नहीं लगता। इसका प्रमाण हमने पिछले दिनों में कई बार देख चुके है।

इसीलिए सबसे पहेला हमें धर्म के बारे में जानना होगा, समझना होगा उसके बाद सद्गुरु से शिक्षा प्राप्त करने के बाद धर्म को अपना के आचरण में लाना पड़ेगा। इसीलिए छात्रावस्था में ७ साल के उम्र से २४ साल तक माता पिता से ज्ञान प्राप्त करने के बाद गुरु के पास जाके शिक्षा ग्रहण करना जरुरी है। गुरु गृह में गुरु की बताये हुये मार्ग पर चलते चलते १७ साल में धर्म हमारा जीवन में उतर आता है। इसमें गुरु सिर्फ अध्यात्मिक विकाश ही नहीं करते वल्कि सांसारिक और भौतिक विकाश भी करवाते है। ऐसा ही जीवन चर्या भगवान श्री राम और भगवान श्री कृष्ण के जीवन में भी देखा गया है। जब धर्म हमारा व्यवहार में उतर जाएगा उसके बाद सब आसान हो जाएगा। वे हमें कर्त्तव्य क्या है दायित्व क्या है शिखते है। इन वचनों के स्रोत के बारे में जिज्ञासा होने पर मैंने उननिषदों के पन्ने पलटना आरंभ किए तो पाया कि ये तैत्तिरीय उपनिषद् में समाहित हैं ।

वेदमनूच्याचार्योऽन्तेवासिनमनुशास्ति ।
सत्यं वद ।
धर्मं चर । 
स्वाध्यायान्मा प्रमदः । 
आचार्याय प्रियं धनमाहृत्य प्रजानन्तुं मा व्यवच्छेसीः । 
सत्यान्न प्रमदितव्यम् । 
धर्मान्न प्रमदितव्यम् । 
कुशलान्न प्रमदितव्यम् । 
भूत्यै न प्रमदितव्यम् । 
स्वाध्यायप्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम् ।।
देवपितृकार्याभ्यां न प्रमदितव्यम् । 
मातृदेवो भव । 
पितृदेवो भव । 
आचार्यदेवो भव । 
अतिथिदेवो भव । 
यान्यनवद्यानि कर्माणि । 
तानि सेवितव्यानि । 
नो इतराणि । 
यान्यस्माकं सुचरितानि । 
तानि त्वयोपास्यानि ।।  
(तैत्तिरीय उपनिषद्, शिक्षावल्ली, अनुवाक ११, मंत्र १ एबं २)

वेद के शिक्षण के पश्चात् आचार्य आश्रमस्थ शिष्यों को अनुशासन सिखाता है । सत्य बोलो । धर्मसम्मत कर्म करो । स्वाध्याय के प्रति प्रमाद मत करो । आचार्य को जो अभीष्ट हो वह धन (भिक्षा से) लाओ और संतान-परंपरा का छेदन न करो (यानी गृहस्थ बनकर संतानोत्पत्ति कर पितृऋण से मुक्त होओ) । सत्य के प्रति प्रमाद (भूल) न होवे, अर्थात् सत्य से मुख न मोड़ो । धर्म से विमुख नहीं होना चाहिए । अपनी कुशल बनी रहे ऐसे कार्यों की अवहेलना न की जाए । ऐश्वर्य प्रदान करने वाले मंगल कर्मों से विरत नहीं होना चाहिए । स्वाध्याय तथा प्रवचन कार्य की अवहेलना न होवे । देवकार्य तथा पितृकार्य से प्रमाद नहीं किया जाना चाहिए । (कदाचित् इस कथन का आशय देवों की उपासना और माता-पिता आदि के प्रति श्रद्धा तथा कर्तव्य से है ।) माता को देव तुल्य मानने वाला बनो (मातृदेव = माता है देवता तुल्य जिसके लिए) । पिता को देव तुल्य मानने वाला बनो । आचार्य को देव तुल्य मानने वाला बनो । अतिथि को देव तुल्य मानने वाला बनो । अर्थात् इन सभी के प्रति देवता के समान श्रद्धा, सम्मान और सेवाभाव का आचरण करे । जो अनिन्द्य कर्म हैं उन्हीं का सेवन किया जाना चाहिए, अन्य का नहीं । हमारे जो-जो कर्म अच्छे आचरण के द्योतक हों केवल उन्हीं की उपासना की जानी चाहिए; उन्हीं को संपन्न किया जाना चाहिए । (अवद्य = जिसका कथन न किया जा सके, जो गर्हित हो, प्रशंसा योग्य न हो ।)संकेत है कि गुरुजनों का आचरण सदैव अनुकरणीय हो ऐसा नहीं है ।

अपने आप के द्वारा व्यक्ति क्या करणीय है और क्या नहीं इसका निर्णय करे और तदनुसार व्यवहा हामारे सनातन ग्रंथों में नित्य पांच देवता का पूजा करने विधान है, और गुरु पूजन का विधान बताया है। राम चरित मानस में भी इस बात का जीकर है। आईये देखते है क्या कहते है। कहते है नित्य गणपति, दुर्गा, सूर्य, विष्णु और महादेव शंकर भगवान का पूजा और बाद में गुरु पूजा का विधान है। 

इस पूजा का क्या विशेषता है ? जब हम गणपति का पूजा करते है तो हमें प्रसन्नता, विवेक, सुबुद्धि और सुमति प्राप्त होता है, 

उसके बाद दुर्गा माता जिनसे हमें शक्ति, श्रद्धा और भक्ति प्राप्त होता है, 

सूर्य भगवान से उर्जा और प्रकाश मतलब ज्ञान का प्रकाश हमेशा हामारे ह्रदय में हो। 

विष्णु भगवान विशालता प्रदान करते है, मतलब जो प्रसन्नता भक्ति ज्ञान का प्रकाश हमने उपलब्धि किया है उसको सिर्फ परिवार में ही सिमित न रखे उस फिर बांटे। 

भगवान महादेव जो करुनामय है प्रेम के प्रगाड़ मूर्ति है और विश्वास के प्रतीक है उसको भी दुनिया में बांटे। गुरु पूजन से आयुष्य बृद्धि होता है बुद्धि सुबुद्धि होता है। सद्गुरु समस्त दोषों को सोक लेता है, तथा ग्रह दोषों को हर लेता है। सद्गुरु से बढ़िया बैध कोई नहीं है। वे हमें सब भव रोगों से मुक्ति दिलाता है। भव रोग से मुक्ति होने से आत्म ज्ञान होता है आत्म साक्षात्कार होता है। वो ही चरम शांति और आनंद का दाता है। 

असल में सद्गुरु ही सब कुछ दिलाते है, बस्तुतः सद्गुरु है तो जीवन है। बिना सद्गुरु के भगवद प्राप्ति असम्भव है। तो मतलब क्या हुआ जरा नज़र लगा के सोचिये एक मनुष्य को एक अच्छी जीवन जीने के लिये सबसे पहले प्रसन्नता, सुबुद्धि, सुमति, विवेक चाहिए, उसके साथ ज्ञान और उर्जा चाहिए, उसके साथ श्रद्धा भक्ति और विश्वास मिलके विशाल रूप धारण करे तो अवतारी मनुष्य बन सकते है।

इसीमे भगवद प्राप्ति हो पायेगा, मतलब मनुष्य जीवन का लक्ष्य और उद्द्येश्य। जिसको संतो ने परम सुख शांति और और परम आनन्द बताया है। और इसीको मोक्ष भी कहत है।

गुरु चरणों में कोटि कोटि प्रणाम करके उन्हीके दिए हुए प्रेरणा को हमने लीपिबद्ध करने की कोशिश किया है। गलती को क्षमा कीजीये

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