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महाअवधूतम् ।।

        एक तरफ वेदांत दर्शन है तो दूसरी तरफ शैव दर्शन कालांतर इन दोनों में भी सम्मिश्रण हुआ शैवालम्बियो ने विष्णु को अपनाया तो वही वेदांती होने रूद्र को अपनाया। इन दोनों के बीच एक और आध्यात्म की श्रृंखला है जो कि ब्रात्य कहलाते हैं। यह ना तो वेदांत दर्शन में लिप्त हैं और ना ही शैव दर्शन में लिप्त है। यह श्रंखला विश्व के सभी धर्मों की रीढ़ की हड्डी है । प्राचीन काल में भी इन्होंने किसी और अवतार किसी ग्रंथ किसी धार्मिक समूह या परंपरा के प्रति अपनी लिप्तता प्रदर्शन नहीं की है। यह है योग मार्ग यह सभी धर्मों को समय-समय पर सीख देते रहते हैं एवं उनका पुनरुद्धार भी करते रहते हैं और जरूरत पड़ने पर उन्हें विभक्त कर उन्हें नष्ट कर फिर से कुछ नया उदित करवा देते हैं। अवतार एक विशेष कार्य के लिए शक्ति से सम्पुट होता है। राम रावण वध के लिए अवतरित हुए और फिर शरीर त्याग दिया। कृष्णा अपनी कला दिखाकर प्रस्थान कर गए एक काल विशेष में कृष्ण अति सक्रिय रहे हैं कृष्ण द्वापर से बंधे हुए हैं राम त्रेता से बंधे हुए हैं। प्रत्येक अवतार के ऋणात्मक और धनात्मक प्रभाव निश्चित ही होते हैं और उसकी प्रासंगिकता भी काल के अधीन होती है। विष्णु के 24 अवतार हुए हैं। इनमें से अनेकों तिर्यक योनि के हैं। नरसिंह अवतार में तो वह हिरण्यकश्यप के वध के पश्चात अत्यंत उग्र हो गए थे इसलिए सृष्टि को उन्हें पटल से हटाना पड़ा। आप इसकी व्याख्या इस प्रकार से भी कर सकते हैं कि अवतारों की क्रियाशीलता एक युग के बाद कम कर दी जाती है। यह कल्प ज्ञान का विषय है। देवता युग में जब प्रभु श्री राम आए तो उन्होंने स्वयं कहा है कि यह मेरा राम अवतार के रूप में 99 बार आना हुआ है और हनुमान तुम भी मेरे साथ 99 बार आ चुके हो। जब कल्प बदलेगा पुनः वापस आएगा और फिर से राम का सशरीर अवतार होगा। उसके बाद द्वापर में या फिर कलयुग में श्री राम के अवतार की प्रासंगिकता नहीं होगी। अवतार भी यंत्रवत है एवं जिस प्रकार यंत्र परिष्कृत होते रहते हैं उसी प्रकार अवतारों के स्वरूप भी परिष्कृत होते रहते हैं। यही हाल धर्मों का भी होता है।आखिरकार कौन सी ताकत धर्म समाज अवतार, ग्रंथ, परंपराओं, मान्यताओं, देश इत्यादि को अप्रासंगिक होने पर नष्ट कर देती है। यह ताकत ही महाअवधूत शक्ति कहलाती है। महाअवधूत वही है जिसे की पहचाना ना जा सके जिसके स्थान की जानकारी ना हो जो भी पहुंच से दूर हो जिसका की स्थापत्य ना किया जा सके। अगर इनमें से एक भी क्रिया हो गई तो महा अवधूत भी अप्रासंगिक हो जाएगा। दत्तात्रेय की पूजा अत्यंत ही विलक्षण है बिना किसी तामझाम के बिना दिशा ज्ञान के बिना काल ज्ञान के कहीं भी उनका नाम लेकर धूल उड़ा दो पुष्प चढ़ा दो दीपक रख दो इत्यादि वे ग्रहण कर लेंगे क्योंकि वे महाअवधूत है। उनका रूप समझ पाना किसी के बस में नहीं है ब्रह्मांड के ताप से भी अप्रभावित रहते हैं। कालांतर इन्हीं के द्वारा दीक्षित महामानवों ने नाथ के रूप में कुछ हल्की सी पहचान बनाई। हनुमान ने कानों में कुंडल पहन लिए सभी आर्य अवतारों ने कान में कुंडल पहन लिए इसका सीधा तात्पर्य है कि वे महाअवधूत की शक्ति से संस्पर्शितत हुए हैं। कृष्ण और रुक्मणी के विवाह को तो महाअवधूत नहीं मान्यता प्रदान की है। आम जनता आध्यात्म मे जल्दी विश्वास नहीं करती। वह हर घटना को भौतिक चक्षुओं से देखना ज्यादा पसंद करती है इसलिए चमत्कार, कौतुक, इंद्रजाल एवं अलौकिक स्थितियों को निर्मित करना पड़ता है सदृश्य रूप से। आम मानव मस्तिष्क को चमत्कार दिखाने ही पढ़ते हैं। अद्वैतवाद के सिद्धांत पर चलकर धर्म की स्थापना नहीं की जा सकती। थक हार कर कृष्णचंद्र को भी अर्जुन के समक्ष विराट स्वरूप उत्पन्न ही करना पड़ा। यही सब गोरखधंधे हर गुरु को करने पड़ते हैं। परकाया प्रवेश के बारे में बात की तो शंकराचार्य को सार्वजनिक रूप से परकाया प्रवेश करके दिखाना पड़ा। प्रत्यक्षीकरण नितांत आवश्यक है।किसी से कह दिया कि तुम्हें ईस्ट दर्शन होगा तो परिणाम अवश्य देना पड़ेगा। अतः गुरुओं को योग साधना करनी पड़ती है। योग बल के द्वारा ही चमत्कार किए जा सकते हैं।जब अर्जुन ने विराट स्वरूप देखा तभी वह कृष्ण के चरणों में भगवान भगवान कहता हुआ लिपटा। चमत्कार नहीं दिखा सकते तो फिर गुरु के रूप में कभी मान्यता नहीं मिलेगी। चमत्कार कौन दिखा पाएगा? वही जिसके शब्दों को काटने की ताकत किसी में ना हो समस्त प्रकृति जिसके हस्तगत हो सर्वशक्तिमान और सर्व नियंत्रक बनने की प्रक्रिया है। जो कुछ है हम ही हैं हमसे आगे कुछ भी नहीं है।योग बल को सिद्ध करो कुछ करके दिखाओ उनके जीवन में परिणाम देकर बताओ एवं उन्हें धूल से फूल बना दो। यही दत्तात्रेय का संदेश है। चमत्कार को नमस्कार है।

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