प्रायः पाठको के मानस में यह प्रश्न उठता हैं -"गुरु तत्व " क्या हैं ?
ऐसी कौन सी शक्ति निहित हैं ,इन "गुरु-तत्व " में जिसके लिए कहां गया हैं कि "प्रथमे गुरु की वंदना ?
प्रश्न गूढ़ हैं - गूढ़ इसलिए हैं कि सामान्य मानव के धरातल पर गुरु को परिभाषित करना अत्यंत दुष्कर हैं ,कठिन हैं ,पर अगर सीधे-साधे शब्दों में कहें तो ज्ञान ही गुरु हैं I
ज्ञान भी कौन सा ,जो तन्द्रा अवस्था को तोड़ दे ,नींद से जगा दे हमें ,यह बोध करा सके कि अभी तक जो जीवन समझा था ,वह वास्तविक जीवन हैं ही नहीं ,बस एक गहरी नींद थी वह ,जिसमें आकंठ डूबे हैं सभी I
-सद्गुरु की इस सम्पूर्ण प्रक्रिया को ,अगर एक शब्द में कहें तो वह हैं अप्रमाद (अवेरनेस ) अर्थात जाग कर जीना ,जब व्यक्ति को अपने अस्तित्व का भान हो जाय I
-अभी तक की यात्रा में स्वयं से ही अनभिज्ञ हैं आदमी ,स्वयं से ही परिचित नहीं हैं ,निकटतम ही नहीं पहुंच पाया हैं वह ,और निकटतम तक पहुंचना ही सदगुरुदेव का ध्येय हैं ,तभी दूरतम तक मंजिल तय हो सकती हैं ,क्योकि दूर भी निकट का ही प्रसारण हैं I
-पर मानव अपनी तन्द्रा को सहेज कर रखे हुए हैं ,प्रमाद जाल में जकड़ा हुआ हैं ....... और प्रतिपल उसे मृत्यु की ओर अग्रसर कर रहा हैं ....... और सदगुरु ले चलता हैं उसे मुक्ति के पथ पर ,अमृत की राह पर ,क्योकि जागते ही शिष्य को ज्ञान हो जाता हैं उस अमृत कुंड का जो भीतर ही प्रसुप्त हैं ,जो मिट नहीं सकता ,एक ऐसी सम्पदा ,जो छीनी नहीं जा सकती ,जो शाश्वत हैं ,समयातीत हैं I
-अतः यह स्पष्ट हैं कि गुरु कोई शरीर या नाम नहीं ,किसी व्यक्तित्व या चमक-दमक युक्त आश्रम के अधिष्ठाता को भी गुरु नहीं कहते ,प्रवचन करने वाले ,या शिष्यों की फौज चलने वाले सन्यासी को भी गुरु नाम से सम्बोधित नहीं किया जाता I
- जो कुछ वास्तविक ज्ञान हैं वह गुरु हैं ,इसलिए गुरु को तत्व कहा गया हैं ,जो समस्त ब्रम्हांड में फैला हुआ हैं I यह अलग तथ्य हैं कि यह ज्ञान किसी शरीर में भी विध्यमान रह सकता हैं ,और इसलिए वह शरीर भी पवित्र और पूज्य बन जाता हैं ,फिर ऐसे उच्च कोटि के ज्ञान को धारण करने वाले व्यक्तित्व को गुरु कह सकते हैं I
-और यह भी सत्य हैं ,जहाँ परम सत्य को पाने के लिए ,पीड़ा और अभीप्सा हैं ,अस्तित्व किसी न किसी के माध्यम से उपस्थित हो ही जाता हैं ,यही अस्तित्व "सदगुरु " होता हैं ,जिसके पास बैठते -बैठते ,जिसके रस में निमग्न होते-होते सत्य एक दिन उपज उठता हैं I
गुरु ही मृत्यु हैं
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शास्त्रों में गुरु को मृत्यु भी कहा गया हैं ,क्योकि वह शिष्य की त्वरित मृत्यु का कारण बनता हैं ,नष्ट करता हैं उसके अब तक के संचित कर्मो (प्रारब्ध) की झूठी सम्पदा को ,संस्कारों को I शिष्य के पाखंड ,उसकी सन्देहशीलता ,उसकी न्यूनता ,उसका ओछापन ,और उसकी निर्लज्जता को मृत्यु देता हैं I
-वह मृत्यु देता हैं जिससे शिष्य के चित्त पर ,ह्रदय पर जो स्याह हैं कालापन हैं ,वह समाप्त हो जाय , जो कुछ व्यर्थ हैं ,निस्सार हैं ,वह मर जाय ..... तब वह नए सिरे से निर्माण कर सके ,देवदूत की तरह अद्वितीय मानव की तरह I शिष्य की आस्था को ही बदल देना चाहता हैं वह ,ताकि शिष्य पूरी तरह मिट जाय I
-और मृत्यु ही महाजीवन का प्रारम्भ होती हैं ,शिष्य मिटा नहीं की उसके भीतर का परमात्मा दृष्टव्य हो जाता हैं I
-बड़ा विचित्र खेल हैं ,यह ठीक वैसा ही हैं ,जैसा बीज का माटी में खो कर अंकुरित होना ...खोना जरुरी हैं ,मिटना अनिवार्य हैं I और जब तक शिष्य बीज के आवरण को ही अपना प्राण समझता हैं ,उसे खोने से डरता हैं ,तभी तक वह अंधकार में डूबा हैं
- गुरु उसे स्पष्ट करता हैं कि यह तो मात्र आवरण हैं ,प्राण तो इसके भीतर हैं ,आवरण हटेगा तभी प्राणों का अंकुरण होगा ,तभी वृक्ष का जन्म होगा ,तभी करोड़ो वृक्ष का अस्तित्व होगा I
-पर स्वप्न से निकलना इतना सुगम नहीं हैं ,बड़ी मीठी नींद हैं यह -कोई सम्राट बना बैठा हैं ,कोई स्वर्ग की सैर कर रहा हैं ,तो कोई स्वर्ण महल में विश्राम कर रहा हैं ....और अगर कोई इस नींद से जगाता हैं ,तो बड़ी व्याकुलता होती हैं उसे ,जब कोई इस नकली घेरे से बाहर निकालने की क्रिया करता हैं तो बड़ी पीड़ा होती हैं ,क्योकि वह उसी मृग मरीचिका में प्रसन्न हैं I
-पर सदगुरु से नजरे मिलते ही ,एक-एक कर सब लूटने लगता हैं ,वे अपने शिष्य की सभी मिथ्या आशाये ,संतोष ,सांत्वना ,आस्था और मान्यताएं सब छीन लेता हैं ,और जैसे-जैसे खोखली सम्पदा छिनेगी शिष्य घबराएगा ,अंधकार उसे घना प्रतीत होगा ,और सारी बैसाखिया हटते ही वह एक दम से गिर जायेगा I
-पर यह गिरना ही उसके अपने पैरो पर खड़े होने की प्रथम शुरुवात होगी I
प्रत्येक पूर्णिमा के पहले अमावस्या तो आएगी ही ,गहन रात्रि के बाद ही प्रभात का सूर्य उदय होगा I
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