एक ओर पतित पावनी मां गंगा की शांत स्निग्ध मधुर स्वर में कल-कल करती छलकती तरंगों की प्रवाहमान अजस्र धारा तो दूसरी ओर प्राकृतिक सुरम्य सुषमा से अलंकृत विराट विन्ध्य पर्वतमाला के मध्य स्थित आदि शक्ति पराम्बा विन्ध्यवासिनी का शाश्वत महापीठ, सिद्ध पीठ अनादि काल से ही ऋषियों-महर्षियों, मनीषियों, महात्माओं, योगियों, सिद्धों आदि के लिए न केवल प्रेरणा का ही अपितु अध्यात्म एवं आकर्षण का केंद्र रहा है। भूगर्भ शास्त्रियों एवं अनेक वैज्ञानिक अनुसंधानों द्वारा यह प्रमाणित हो चुका है कि विन्ध्य पर्वतमाला भारत की सर्वप्राचीन पर्वत शृंखला है।
भारत के 108 शक्तिपीठों एवं 12 महापीठों में विंध्याचल सर्वाधिक प्राचीन महत्वपूर्ण शाश्वत जागृति पीठ है जहां की अधिष्ठात्री मां विन्ध्यावासिनी ( महालक्ष्मी/वन दुर्गा) ऋषियों-महर्षियों, शाक्त साधकों की अराध्या है। उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल के मिरजापुर जनपद की नगर सीमा में स्थित यह पावन धाम सदैव से ही महाशक्ति का वासस्थल रहा है। श्रीमद्देवी भागवत की कथा के अनुसार ब्रह्मï जी के मानस पुत्र मनु ने सृष्टिï के आरंभ में देवी जगदम्बा की मृण्मूर्ति निर्मित कर जब उनकी आराधना-उपासना की तब देवी ने साक्षात् प्रकट होकर उन्हें वंशवृद्धि का वरदान दिया तथा यहीं विन्ध्य क्षेत्र में स्थित हो गयीं।
वाङ मयों के अनुसार विन्ध्याचल हिमालय का पितामह है जो कभी इतना विशाल था कि सूर्य की रश्मियां तक उसके उत्तंग शिखरों में उलझकर ठहर जाती थीं जिसे महर्षि अगस्त्य ने बौना बना दिया (श्रीमद्देवी भागवत, दशम स्कन्ध, अध्याय-1-7), इसी तपोभूमि में भगवान विष्णु को सुदर्शन चक्र की प्राप्ति हुई तथा मनु को सृष्टि सृजन का आशीर्वाद भी। इसी तपभूमि में तपलीन पार्वती ने शिव को प्राप्त करने हेतु कठोर साधना की थी।
वैसे तो विन्ध्य की शिलाएं तक अपनी ऐतिहासिकता को मुखरित करती हैं, इसके शिखर उसकी अस्थि-अंश हैं, उसका वैभव हैं, इसी के सुरम्य अंचल में त्रिमहाशक्तियों (महालक्ष्मी, महाकाली, महासरस्वती) ने अपना आवास बनाया। महाभारत-विराट पर्व के युधिष्ठिर कृत दुर्गास्रोत के अनुसार यही जगदम्बिके का शाश्वत स्थान है (विन्ध्ये चैव नग श्रेष्ठï’ तव स्थानं हि शाश्वतम्)।
शाक्तागमों में त्रिमहाशक्तियों को दुर्गा कहा गया है जिसका एक अर्थ दुर्गम स्थान वासिनी है और ये त्रिशक्तियां हैं हिमवासिनी पार्वती (शैलपुत्री), समुद्रवासिनी पद्माआसना कमला (लक्ष्मी), अरण्यवासिनी वन दुर्गा (विन्ध्यवासिनी)।
पौराणिक वाङ्मयों में विन्ध्याचल को सिद्धपीठ, महापीठ, शक्तिपीठ, संज्ञाओं से विभूषित करने के साथ-साथ इसे मणिद्वीप भी कहा गया है। श्रीमद्देवी भागवत के अनुसार वह स्थान जहां पर विन्ध्य पर्वत तथा सुरसरि गंगा का संगमन होता है और जहां गंगा विन्ध्य का पद प्रक्षालन करके पुन: वापस हो जाती है वह स्थल मणिद्वीप है तथा वहां भगवती सदैव वास करती है। ज्ञातव्य है कि विन्ध्याचल में ही गंगा उत्तर से आ विन्ध्य का पद प्रक्षालन कर पुन: उत्तर की ओर वापस होती है और यहीं पर दक्षिण से आकर विन्ध्य पर्वत का गंगा से संगमन होता है और गंगा दक्षिणमुखी हो वापस लौटती है। वृहन्नील तंत्र के अनुसार विन्ध्य पर्वत तथा गंगा का संगमन विन्ध्याचल में ही होता है। विन्ध्याचल की अधिष्ठात्री मां विंध्यवासिनी अनादि काल से शबर, बर्वर, पुलिन्दों के साथ-साथ ऋषियों-महर्षियों की भी उपास्य रही है। मार्कण्डेय पुराण (दुर्गासप्तशती) में अम्बे का वचन है कि 28वें मन्वन्तर में शुम्भ-निशुम्भ दैत्यों के वध के लिये वह नंदगोप गृह में अवतरित होकर विन्ध्याचल में वास करेंगी। (वैवश्वत मन्वन्तरे प्राप्ते अष्टïविशंति तमे युगे/शुम्भो निशुम्भोश्रैवा न्यावुत्पत्सेपते महासुरौ। नंद गोप गृहे जाता यशोदा गर्भ सम्भवा/ततस्तौ नारायिण्यामि विन्ध्याचल निवासिनी॥)। विन्ध्याचल की महिमा का वर्णन करते हुए श्री विष्णु ने महालक्ष्मी से बताया कि इस क्षेत्र में साधकों के लिए कुछ भी दुर्लभ नहीं है और विन्ध्याचल के समान शक्तिमान स्थान इस ब्रह्मïण्ड में अन्यत्र कहीं नहीं है (तव प्रविशतां पुंसाम दुर्लभं नहि किंचन्। विन्ध्यक्षेत्र समं क्षेत्रंनाऽस्ति ब्रह्मïण्ड गोलके॥)।
ज्येष्ठï शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को यहां अरण्यषष्ठी मनाया जाता है क्योंकि विंध्यवासिनी को अरण्यानि वन दुर्गा भी कहा जाता है और यह पावन तिथि उनकी विशिष्ट पूजा अर्चना के लिए प्रख्यात है। अनादि काल से ही योगियों, महर्षियों, साधकों के श्रद्धा, विश्वास, आस्था की ऊर्जा से समन्वित यह केंद्र शांति, सौख्य, सुख-सम्पदा, मोक्ष प्रदायक रहा है। ऋग्वेद के अनुसार ऐसे अवसरों पर जब मानवीय भद्रता उस परम ज्योति की आराधना करता है तब उसे वांछित फल की प्राप्ति होती है।
शाक्तागमों के अनुसार यह महापीठ श्री यंत्र पर स्थित है। इतना ही नहीं, यह क्षेत्र त्रिमहाशक्तियों का वासस्थान होने से भी अति महत्वपूर्ण है। इससे त्रिकोण बनता है—उत्तर में महालक्ष्मी/ वनदुर्गा (विंध्यवासिनी), दक्षिण में महाकाली (कालीखोह), पश्चिम में महासरस्वती (अष्ट्भुजा) स्कंद पुराण (32/1) में भी इसका स्पष्ट उल्लेख मिलता है।
"महालक्ष्मी पूर्वभागे महाकाली च दक्षिणे महासरस्वती प्रत्यक कोणे यंत्रस्थ संस्थिता"
इस प्रकार त्रिमहाशक्तियों के एक साथ विराजने से यह अद्वितीय क्षेत्र तथा उपासना के लिए सर्वश्रेष्ठ कहा गया है
"विन्ध्याचल निवासिन्या: स्थानं सर्वोत्तमम्— श्रीमद्देवीभागवत"
इसी से ऐसी मान्यता है कि विन्ध्याचल यात्रा की पूर्णता इसकी त्रिकोणयात्रा से ही होती है। आस्थावानों के लिए त्रिकोण ऐसा सत्य है जिसकी व्याख्या नहीं की जा सकती। त्रिकोण यात्रा का प्रारंभ मुख्य धाम विन्ध्याचल से होता है। इसके दक्षिण कोण स्थित अरण्य परिवेश में भूतल पर ही स्थित है। महाकाली का धाम कालीखोह जहां मां काली की विस्तीर्णवदना आसीनमुद्रा में उर्ध्वमुखी प्रतिमा है। यह स्थान आध्यात्मिक ऊर्जा हेतु प्रख्यात है।
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