दो अक्षरों वाला यह "राम" नाम, तारक मंत्र है। यह अपने आप में पूर्ण है। इसके आगे या पीछे कुछ भी लगाने की आवश्यकता नहीं है। इसका जप मूर्धा में करें। इसके जप में देश-काल और शौच-अशौच का कोई निषेध नहीं है। दिन में चौबीस घंटे निरंतर किसी भी स्थान पर कहीं भी किसी भी समय इसका जप कर सकते है। एक ही आवश्यकता है कि इसका जप श्रद्धा-विश्वास और भक्ति से करें, अन्यथा नहीं। इसका निरंतर जप, भवसागर से तार देगा; यह भी एक कारण है कि इसे तारक मंत्र कहते हैं।
तत्व रूप से और संस्कृत व्याकरण की दृष्टि से "राम" नाम और प्रणव "ॐ" में कोई अंतर नहीं है।दोनों का फल एक है। गीता में और उपनिषदों में ॐ की महिमा भरी पड़ी है। जब हम ध्यान करते हैं, तब सुषुम्ना नाड़ी चैतन्य हो जाती है, और हमें सुषुम्ना में प्राण-प्रवाह की अनुभूति होने लगती है। सुषुम्ना नाड़ी में प्रवाहित हो रहा प्राण जब नाभि के पीछे मणिपुर-चक्र से टकराता है तब वहाँ "रं" की सूक्ष्म ध्वनि उत्पन्न होती है। यही प्राण जब आज्ञा-चक्र से टकराता है तब "ओम्" की सूक्ष्म ध्वनि सुनाई देती है। यह "रं" और "ओम्" दोनों मिलकर "राम" बन जाते हैं। सहस्त्रार-चक्र में प्राण का स्पंदन और आवृति तीब्र और दीर्घ हो जाती हैं। तब वहाँ सिर्फ "ॐ" की ध्वनि ही सुनाई देती है। आज्ञाचक्र का भेदन कई जन्मों की साधना के बाद होता है। यह इतना आसान नहीं है।
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इसको तारक मंत्र इसलिए भी कहते हैं कि इसका ध्यान करते-करते कूटस्थ में एक तीब्र सफ़ेद ज्योति के दर्शन होने लगते हैं जो एक पंचकोणीय तारे के रूप में बदल जाती है। इसे ज्योतिर्मय ब्रह्म भी कहते हैं और पञ्चमुखी महादेव भी। इसमें से नाद रूप में ओंकार की ध्वनि निःसृत होती है। योग साधक उस नाद को सुनते-सुनते, और ज्योतिर्मय-ब्रह्म को देखते-देखते, उन में स्वयं का लय कर देते हैं। इस नाद और ज्योति को कूटस्थ कहते हैं। इस नक्षत्र का भेदन करना पड़ता है। इसके पीछे पराक्षेत्र है जहाँ प्रत्यक्ष परमात्मा का निवास है।
कूटस्थ में ओंकार भी तारक मंत्र है, जिस का अंत समय में स्मरण करते-करते प्राण त्यागने हेतु भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं।
"प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव,
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैतिदिव्यं।८:१०।
अर्थात भक्तियुक्त पुरुष अंतकाल में योगबल से भृकुटी के मध्य में प्राण को अच्छी प्रकार स्थापित कर के, फिर निश्छल मन से स्मरण करता हुआ उस दिव्य रूप परम पुरुष को ही प्राप्त होता है।
आगे भगवान कहते हैं।
"सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्।८:१२।"
"ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्।८:१३।"
अर्थात सब इन्द्रियों के द्वारों को रोककर तथा मन को हृदय में स्थिर कर के फिर उस जीते हुए मन के द्वारा प्राण को मस्तक में स्थापित कर के, योग धारणा में स्थित होकर जो पुरुष 'ॐ' एक अक्षर रूप ब्रह्म को उच्चारण करता हुआ और उसके अर्थस्वरूप मुझ ब्रह्म का चिंतन करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह पुरुष परम गति को प्राप्त होता है।
यह अति गुरुगम्य कठिन विषय है।

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