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आत्मा - जन्मयात्रा - पूर्णब्रह्म = गूढ़ रहस्य

   आत्मा एक प्रकाश पुंज है जो की परम्प्रकाश पुंज का अंश है. पुरे ब्रह्मांड ब्रह्म उर्जा से चालित है. जिसमे यह पूरी सृष्टि निहित है. इस ब्रह्म उर्जा का न कोई आदि न अंत है. इस अनंत उर्जा को हम परमात्मा कहते हैं. आत्मा इसी परमात्मा से निकली हुयी एक प्रकाश पुंज है.
परमब्रह्म उर्जा जब एक प्रकाश पुंज के रूप में निकल कर एक शरीर को धारण करती है तो वह आत्मा कहलाती है. जिस पल उर्जा एक आत्मा के रूप में शरीर को धारण करती है वही से उसकी अध्यात्मिक यात्रा शुरू हो जाती है. जब यह आत्मा परमात्मा रूपी उर्जा से निकल कर कई शरीरो से होते हुए वापिस परमात्मा से जाकर मिलती है तो आत्मा को मोक्ष की उपलब्धि होती है और उसकी अध्यात्मिक यात्रा का अंत हो जाता है.

      मनुष्य योनि उभय योनि अर्थात् कर्म व भोग योनि दोनों है और अन्य पशु, पक्षी, कीट व पतंग आदि योनियां केवल भोग योनि है। परमात्मा ने मनुष्य को अन्य इन्द्रियों व सामर्थ्य के साथ एक बुद्धि जैसी सत्यासत्य का विवेचन करने वाली शक्ति बुद्धि दी है। इस बुद्धि से मनुष्य अपने जीवन के उद्देश्य को जान सकता है। वेद, दर्शन, उपनिषद व सत्यार्थपकाश आदि ग्रन्थ बतातें हैं कि जीवात्मा को मनुष्य जन्म पाप व पुण्यों के समान वा पुण्य कर्मों के अधिक होने पर मिलता है। मनुष्य योनि में जहां वह अपने पूर्व कर्मों के सुख-दुःख रूपी फल भोगता है वहीं नये शुभ व अशुभ कर्मों को करता भी है। यदि मनुष्य वेदों व वैदिक विचारधारा के सम्पर्क में आ जाये तो उसे अपने जीवन का उद्देश्य आसानी से समझ में आ जाता है और साथ ही उद्देश्य, जो कि मोक्ष व मुक्ति है, को प्राप्त करने के साधनों का ज्ञान भी हो जाता है। मनुष्य जन्म का उद्देश्य बुरे कर्मों का त्याग व शुभ कर्मों का अनुष्ठान है। मनुष्य जीवन का उद्देश्य ईश्वर व जीवात्मा आदि पदार्थों के स्वरूप व संसार को अच्छी प्रकार से जानकर ईश्वर का ध्यान, स्तुति, प्रार्थना और उपासना आदि करते हुए तथा यज्ञादि शुभकर्मों को करते हुए ईश्वर साक्षात्कार करना है जिससे मनुष्य बुरी वासनाओं व बुरे कर्मों में प्रवृत्ति से बच जाता है और ईश्वर को प्राप्त होता है। समाधि ही मोक्ष का द्वार है जिससे मनुष्य जन्म व मरण के चक्र से लम्बी अवधि तक के लिए मुक्त हो जाता है। यह मुक्ति योगी, ऋषि मुनि व विद्वानों को ही प्राप्त होती है। असत् कर्म करने वालों को, चाहे वह किसी भी मत को मानते हों, मोक्ष की प्राप्ति कभी सम्भव नहीं है। वैदिक धर्म की शरण में आकर ही जीवन के स्वरूप को यथार्थ रूप में जानकर ही मनुष्य अपने उद्देश्य को प्राप्त कर सकता है।

   परम तत्व को दो भागों में बांटा गया है: एक भाग है भगवान् और दूसरा है आत्मा। आत्मा को भी दो भागों में विभाजित किया गया है -- पुरुष और स्त्री। इस से यह निश्चित हो जाता है कि हर स्त्री आत्मा अथवा पुरुष आत्मा का एक संगत भाग अर्थात निर्धारित अंश होता है । ये निर्धारित अंश ही मिलकर एक दूसरे को सम्पूर्ण बनाते है। आत्मा के दोनों विभाजित अंशो में एक दुसरे से मिलने के लिए आकर्षण और व्याकुलता होती है । ऐसा इसलिए होता है क्योकि हर आत्मा का लक्ष्य पुनः परमात्मा से मिलना होता है किन्तु इसके पहले एक ही आत्मा के विभाजित अंशो को आपस में मिलना होता है। समय के चलते यह दोनों अंश एक दूसरे से अलग हो गए हैं. ये अलग हुए अंश पूर्णता के लिए एक दूसरे से मिलने को आतुर होते हैं। पुरुष और स्त्री के बीच मिलने के लिए ये घबराहट और उत्तेजना इस सहज आकर्षण के कारण ही है। हम शरीर का रूप बार बार तब तक धारण करते हैं जब तक हमें हमारा खोया हुआ अंश मिल नहीं जाता। जब आत्मा पूर्ण होती है तभी परमात्मा से मिलने की यात्रा शुरू होती है।
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हर आत्मा का उर्जा स्तर भिन्न होता है । किन्तु एक ही आत्मा के विभाजित अंशो में उर्जा का स्तर सामान होता है। सम्पूर्णता के लिए दोनों समान उर्जा वाले ध्रुवों का मिलन आवश्यक है। सही ध्रुवों के मिलन से एक सर्किट/ चक्र पूरा हो जाता है जिससे एक बहुत शक्तिशाली चुम्बकीय ऊर्जा उत्त्पन्न होती है जो थिरकन तथा तीव्र गर्मी पैदा करती है। इस ऊर्जा का अगर सही प्रयोग किया जाए तो यह शरीर के चक्रों का विच्छेदन करके कुण्डलिनी जागरूक करने में सहायक होती है। जैसे जैसे यह ऊर्जा ऊपर की ओर बढती है तो मनुष्य शांत होता जाता है। ऊर्जा के ऊपर बढ़ने का उपोत्पाद शांति होती है तथा नीचे जाने का उपोत्पाद तनाव होता है।

कोई व्यक्ति जब किसी समस्या से ग्रसित होता है तो वह पूजा-पाठ की तरफ देखता है और यथामति उपाय करता भी है बहुतों को लाभ होता है तथा कई को लाभ नहीं भी होता है तो वो परेशान होते है कि आखिर ऐसा क्यों है? तो इस सम्बन्ध में कई कारण हो सकते हैं-

1- समस्या के अनुकूल उपाय न होना 
2-संयम और श्रद्धा से न करना 
3- मन्त्र अथवा स्तोत्र का अशुद्ध उच्चारण 
4- उत्कट कोटि का प्रारब्ध, जो आपको भोगना ही है ।
5-गुरु अथवा मन्त्र पर संशय 
6-समस्या के अनुरूप मन्त्र जप की बहुत कम संख्या 
7-पितृदोष या कुलदेवता की तटस्थता 
8-साधना की उर्जा का आपके पास संचय न हो पाना 
9-गुरु अथवा साधक से छल द्वारा साधना प्राप्त करना 
10-मनमाना साधना करना         
             
       यदि आपको भी लगता है कि आपकी साधना से आपको लाभ नहीं हो रहा तो स्वयं के प्रति ईमानदारी से निष्पक्ष निर्णय कीजिए कि गलती कहाँ है और उसको सुधार कर साधना का लाभ प्राप्त करें ।

मन्त्र के बार-बार जपने से उसका प्रभाव होता है। मन्त्र शब्द के कम्पन से प्रकम्पित होकर मनुष्य के कोष उसके अनुकूल हो जाते हैं। जो कोष अनुकूल होते हैं, उनसे सम्बंधित विषय का बोध मनुष्य को स्वयं अपने आप होने लगता है।
 
मन्त्र का कार्य श्रद्धा पर आधारित है। मन्त्रों की क्रिया उनके उच्चारण पर निर्भर है। मंत्रोच्चारण उनके अर्थ पर निर्भर होते हैं।

मन्त्र के उच्चारण से जो कम्पन पैदा होता है, पहले कुछ समय तक वह वायु में रह कर धीरे-धीरे उसी में विलीन हो जाता है। लेकिन मन्त्र-जप की संख्या जब अधिक हो जाती है तो उसके कम्पन वायु की पर्तों का भेदन कर सूक्ष्मतम वायु मंडल में चले जाते हैं और वहां से उस देवता का आकार-प्रकार बनाने लग जाते हैं जिस देवता का वह मन्त्र होता है। इसीलिए मन्त्र-जप की संख्या निश्चित होती है। 

उस संख्या से जब अधिक जप होती है तभी सूक्ष्मतम वायुमंडल में देवता का आकार-प्रकार बनता है। जब वह पूर्णरूप से बन जाता है तो देवता अपने लोक से आकर उसमें स्वयं प्रतिष्ठित होते हैं। आकार-प्रकार का बनना मन्त्र-चैतन्य का लक्षण है। देवता का अपने आकार-प्रकार में प्रतिष्ठित होना ही मन्त्र-सिद्धि है। मन्त्र सिद्ध होने पर सम्बंधित देवता मन्त्र जपने वाले को उसका फल प्रदान करते हैं। 

    अगर विषयको ध्यानपूर्वक समज लिया जाय तो अध्यात्म क्षेत्रमें आगे बढ़ने , पूजा , उपासना ओर जीवन का मार्ग निर्धारण करनेमे कोई गुंच नही रहती । हरेक जीव का यही लक्ष्य होता है । पूर्णब्रह्म के महतत्व अंश हरेक आत्मा पूर्ण बनकर फिरसे ब्रह्म में ही विलीन हो जाती है । परमपिता महादेव आप सभी धर्मप्रेमी जनो पर सदैव कृपा करें यही प्रार्थना .. अस्तु ..श्री मात्रेय नमः

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