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आसन को सिद्ध करने की विधि ।।

      इसके लिए, आप एक नया रंगबिरंगा ऊनी कम्बल ले सकते हैं और इसे सिद्ध करने के पश्चात, इसके ऊपर आप, अपने वांछित रंग का रेशमी या ऊनी वस्त्र भी , बिछा सकते हैं |
मैथुन चक्र
      मंगलवार की प्रातः, पूर्ण स्नान कर, लाल वस्त्र धारण कर, लाल आसन पर बैठकर, भूमि पर तीन मैथुन चक्र का निर्माण क्रम से , कुमकुम के द्वारा कर ले । 1 और 3 चक्र छोटे होंगे और मध्य वाला आकार में , थोडा बड़ा होगा । मध्य वाले चक्र के मध्य में , बिंदु का अंकन किया जायेगा। बाकी के , दोनों चक्र में , ये अंकन नहीं होगा । मध्य वाले चक्र में , आप उस कम्बल को मोड़कर रख दे । अपने बाएं तरफ वाले , चक्र के मध्य में , तिल के तेल का दीपक, प्रज्वलित कर ले। और, दाहिने तरफ वाले चक्र में, गौघृत का दीपक प्रज्वलित कर ले। हां, दोनों दीपक, चार चार बत्तियों वाले होने चाहिए । अब, गुरु पूजन और गणपति पूजन के पश्चात, पंचोपचार विधि से , उन दोनों दीपकों का भी पूजन करे। नैवेद्य की जगह कोई भी , मौसमी फल अर्पित करें ।

      इसके बाद, उस कम्बल का पंचोपचार पूजन करें | तत्पश्चात कुमकुम मिले 108-108 अक्षत को, निम्न मंत्र क्रम से बोलते हुए, उस कम्बल पर डालें –

" ऐं ज्ञान शक्ति स्थापयामि नमः। 

ह्रीं इच्छाशक्ति स्थापयामि नमः।

क्लीं क्रियाशक्ति स्थापयामि नमः।। "

तत्पश्चात, निम्न ध्यान मंत्र का 7 बार उच्चारण करे। और ध्यान के बाद, जल के छींटे , उस वस्त्र पर छिडके ।

" ॐ पृथ्वी त्वया धृता लोका देवी त्वं विष्णुना धृता । त्वं च धारय माम देवी: पवित्रं कुरु च आसनं ।।

ॐ सिद्धासनाय नमः ॐ कमलासनाय नमः ॐ सिद्ध सिद्धासनाय नमः।। "

      इसके बाद, निम्न मंत्र का, उच्चारण करते हुए, पुष्प मिश्रित अक्षत को, उस कम्बल या वस्त्र पर 324 बार अर्पित करें ।

" ॐ ह्रीं क्लीं ऐं श्रीं सप्तलोकं धात्रि अमुकं आसने सिद्धिं भू: देव्यै नमः ।। "

      ये क्रम गुरूवार तक, नित्य संपन्न करें । मात्र 3 दिन में ही , आप इस सामान्य (किंतु दुर्लभ) प्रक्रिया के माध्यम से , अपने आसन को सिद्ध कर सकते हैं । ये 3 दिन की मेहनत, आपके जीवन भर काम आयेगी ।

      जहां पर अमुक लिखा हुआ है , वहां अपना नाम उच्चारित करना है ।अंतिम दिवस, क्रिया पूर्ण होने के बाद, किसी भी देवी के मंदिर में , कुछ दक्षिणा और भोजन सामग्री अर्पित कर दें तथा कुछ धन राशि, जो आपके सामर्थ्यानुसार हो , अपने गुरु के चरणों में, अर्पित कर दें या गुरु धाम में, भेज दें तथा सदगुरुदेव से , इस क्रिया में पूर्ण सफलता का आशीर्वाद लें । अद्भुत बात ये है कि , आप इस कम्बल को जब भी बिछाकर, इस पर बैठेंगे , तो ना सिर्फ सहजता का अनुभव करेंगे ।अपितु , समय कैसे बीत जाएगा, आपको ज्ञात भी नहीं होगा।

      दीर्घ कालीन साधना , कहीं ज्यादा सरलता से, ऐसे सिद्ध आसन पर, संपन्न की जा सकती है। आप इसके तेज की जांच करवा कर देख सकते हैं कि, कितना अंतर है , सामान्य आसन में और इस पद्धति से सिद्ध आसन में । आप ऐसे दो आसन, सिद्ध कर लीजिए; एक आसन आप अपने , गुरु के बैठने के निमित्त, प्रयोग कर सकते हैं । आपको दो बातों का , ध्यान रखना होगा ।

1. इन आसनों को , धोया नहीं जाता है ।

2. इन पर, हमारे अतिरिक्त कोई और नहीं बैठ सकता है। अन्यथा, उसकी मानसिक स्थिति व्यथित हो सकती है ।

      अतः , यदि किसी और के निमित्त आसन तैयार करना हो तो , अमुक की जगह, उसका नाम उच्चारित कर आसन सिद्ध करना होगा । स्वयं के अतिरिक्त, जो हम गुरु सत्ता या सिद्धों के , आवाहन हेतु , जो आसन प्रयोग करेंगे। उसे सिद्ध करने के लिए, अमुक की स्थान पर, ज्ञानशक्तिं का उच्चारण होगा। .

“पूर्णम पूर्णै सपरिपूर्ण: आसन: दिव्यताम सिद्धि:”

       अर्थात, आसन मात्र आसन न हो । अपितु , उसमे पूर्ण दिव्यता का संचार हो और वो दिव्यता से , युक्त हो ।तभी, उसके प्रयोग से, साधक की देह, दिव्य भाव युक्त होती है । यदि, उसका भाव या साधना पक्ष, उसे पूर्णत्व के मार्ग पर, सहजता से, गतिशील करा देता है और, साधक को पूर्णता प्राप्त होती ही है । यहां पूर्णम का अर्थ भी यही है कि , माध्यम पूर्णत्व गुण युक्त हो , तभी तो पूर्णत्व प्राप्त होगा ।

       ये ज्ञात नहीं है कि , आसन। यदि , पूर्ण प्रतिष्ठा से युक्त ना हो तो, हम चाहे कितने भी गुदगुदे आसन पर या गद्दे पर बैठ जाएं, हम हिलते-डुलते रहेंगे और हमारे चित्त में बैचेनी की तीव्रता बनी रहेगी । इसका कारण, हमारे शरीर का मजबूत होना नहीं है । अपितु , भूमि के भीतर रहने वाली नकारात्मक शक्तियां , सुरक्षा आवरण विहीन हमारी , इस भौतिक देह से , सरलता से संपर्क कर लेती हैं । तब, उनके दुष्प्रभाव से , हमारा चित्त भी बैचेन हो जाता है और शरीर भी टूटने लगता है। वे सतत हमें , साधना से, विमुख होने के भाव से, प्रभावित करते रहते हैं । जब ऐसी स्थिति होगी, आप व्याकुल मन और अस्थिर शरीर से, कैसे साधना करोगे और कैसे आपको सफलता मिलेगी । यदि, आप आसन से अलग हो जाते हो तो, पुनःना सिर्फ, आपका शरीर स्वस्थ हो जाता है ।बल्कि, आपका चित्त भी प्रसन्न हो जाता है । .

संसार रोग हरणम् ।।

              संसार रोग से ग्रसित हिमालय ने अपनी पुत्री पार्वती का विवाह विष्णु से तय करने की ठानी। हिमालय की नजर में शिव रोगी थे, यही तो विडम्बना है, इस संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है ? इस संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य यह है कि रोगी रोग नहीं पहचान पाता। रोग को पहचान ले तो फिर शिव नहीं हो जायेगा। स्व उपचार,स्व आरोग्यता,स्व रोगविहीनता ही अध्यात्म है। कहीं तुम्हें आत्म प्रशंसा का रोग तो नहीं लग गया,कहीं तुम्हें सुरक्षा का रोग तो नहीं लग गया,कहीं तुम्हें पंथ या किसी महापुरुष के आकर्षण का रोग तो नहीं लग गया,लग गया हो तो बता देना । चिकित्सकों की जरूरत हर स्तर पर जीव को इस संसार में पड़ती है। आध्यात्मिक रोगों के लिए आध्यात्मिक चिकित्सक,समझने समझाने के रोग से मुक्ति के लिए समझने और समझाने वाले प्रवचनबाज चिकित्सकों की जरूरत । आध्यात्मिक धरातल पर विपन्न हुए लोगों को तथाकथित गुरुओं और वंश से चिकित्सा की जरूरत महसूस होती है। चिकित्सकों की जरूरत स्वयं अपने आपमें महारोग है इसलिए आजकल जिधर देखो उधर आध्यात्मिक चिकित्सक मिल जायेंगे। वास्तु रोग चिकित्सक मिल जायेंगे। वास्तु रोग चिकित्सक,पिरामिड चिकित्सक,हस्तरेखा चिकित्सक चलो बंद करता हूँ ज्यादा समय खराब न हों। 

               परन्तु मजेदार बात यह है, गूढ़ तत्व यह है कि चिकित्सक स्वयं रोगी हैं और उनके चिकित्सक हैं उनके रोगी। अर्थात रोगी चिकित्सक हैं और चिकित्सक रोगी। समझ समझ के भी जो न समझे मेरी समझ में वह ना समझ है। हाथ जोड़कर विनती है "शिव शरणम गच्छामि " शिवाय नमः शिवंलिंगाय नमः, भवाय नमः, भव लिंगाय नमः, शर्वाय नमः, शर्वलिंगाय नमः, भीमाय नमः भीमलिंगाय नमः, बलाय नमः, बलनाथाय नमः, यही मूलभूत औषधि है इसके ऊपर की परम औषधि है हराय नमः, हर नाथाय नमः और इससे भी ऊपर के सूक्ष्मातीत औषधि है ॐ नमः शम्भवाय च मयोभयाव च नमः शंकराय च मयस्कराय च, नमः शिवाय च शिवतराय च । अंत मे आरोग्यता का महामंत्र है शिवोऽहम् शिवोऽहम्।

        परम प्रतापी अंगिरा ऋषि के महातेजस्वी पुत्र थे अंगीरस । शिव के प्रेम में ओत- प्रोत बस पहुँच गये काशी,निर्मित किया शिवलिङ्ग और घुस गये गुफा के अंदर वृहद तपस्या हेतु पता नहीं कितने वर्ष बीत गये,आ गये शिव जी बोले अंगीरस तेरी तपस्या तो अत्यंत वृहद है अतः मैं तुझे वृहद् बना देता हूँ आज से तू वृहस्पति और तेरे शिवलिङ्ग का नाम वृहदेश्वर। आज से तू देवताओं का गुरु और जो भी तेरे शिवलिङ्ग का पूजन करेगा वह इस संसार में जगद्गुरु के नाम से विख्यात् होगा। शिव का आदेश आदि शंकर ने भी जगत्गुरु की पदवी प्राप्त करने के लिए वृहदेश्वर का अर्चन किया,कृष्ण ने भी यही किया। शिव, शिवलिङ्गों को गोपनीय कर देते है, शिव शिवलिङ्गों को दुर्गम कर देते है, शिव शिवलिङ्गों तक साधकों को पहुँचने नहीं देते क्योंकि अगर पहुँच गया तो वह प्राप्त हो जायेगा जो शायद विधाता ने उसकी किस्मत में न लिखा हो शिव विष्णु का मान रखते हैं,महामाया का सम्मान रखते हैं क्योंकि शिव व्यवस्था में पाप और पुण्यों का लेखा जोखा नहीं है। 

              चित्रगुप्त की किताब का महत्व शून्य है, ब्रह्मा की लेखनी की शिव को कभी परवाह नहीं रही। जीव कह उठता है। देवी लोक में देवी ने डाँट कर भगा दिया कहा जा मुझे फुर्सत नहीं है अभी मैं असुरों के विनाश में लगी हुई हूँ,नियम बड़े कड़े हैं, पृथ्वी तो सामाजिक और बेतुके नियम से शासित है मनुष्य तो मनुष्य को भगाता ही है,मनुष्य,मनुष्य को क्या शरण देगा ? पशु तो हिंसक हैं भक्षण कर जायेंगे,देवता कदापि जीव का सानिध्य पसंद नहीं करते एवं उसे हेय दृष्टि से देखते हैं,बैकुण्ठ में तो सात्विकता है विष्णु आसानी से प्रविष्ठी नहीं देते,कर्मों की बात करते हैं। कर्म आधारित गीता सुनाते हैं,यमराज तो पाप और पुण्यों का सांख्य योग लगाते हैं अतः अंत में थक हारकर सब तरफ से निष्कासित,अल्प बुद्धि,निरीह जीव को केवल शिव ही शरण देते हैं। शिव लोक का नियम ही यही है कि सब लोकों से निष्कासित,सब लोकों से तिरस्कृत,सब लोकों के अयोग्य जीव को केवल एकमात्र शिव ही शरण देते हैं, वे ही गले लगाते हैं, वे ही सानिध्य देते हैं क्योंकि शिव को ही जीव से प्रेम है। यह है शिव लोक की विहंगमता,इसी कारणवश दुर्लभ शिवलिङ्ग गोपनीय हो गये हैं।

                 शिव नित्य प्रतिनित्य कर्मों में हस्तक्षेप नहीं करते, लोकान्तर की व्यवस्था नहीं बिगाड़ते। ब्रह्मा की लेखनी को सामान्यतः मिथ्या साबित नहीं करते परन्तु शिव शिव हैं। स्वयं कालकूट विष पिया,विष को कण्ठ से नीचे उतरने नहीं दिया क्योंकि उदरस्थ प्राणियों से प्रेम था और नील कण्ठेश्वर हो गये। जिन देवताओं को अमृत दिया उनके पद बदलते हैं, इन्द्र का पद बदलता है, ब्रह्मा का पद बदलता है, विष्णु के भी अवतार होते रहते हैं अतः शिव अमृत से ऊपर की स्थिति हैं,शिवत्व के

आगे अमृत्व हीन है। शक्ति तो शिथिल होती है, रोगग्रस्त होती है अतः पुनः ऊर्जावान होने के लिए, पुनः स्वस्थ होने के लिए शिव सानिध्य में विराजती है। यही भैरवी रहस्यम् है । काली के चरणों में शिव लेट जाते हैं जिससे कि काली पवित्र बनी रहे । राजराजेश्वरी लेटे हुए सदाशिव के ऊपर विराजती हैं, राज राजेश्वरी राजाओं की अधिष्ठात्री हैं एवं शिव नीचे से देखते रहते हैं, त्रिशूल लिए हुए सतर्क रहते हैं ।

         सभी देवियों के साथ धीरें से शिव जाकर विराजमान हो जाते हैं, वे शक्ति को अकेला नहीं छोड़ते। सिंह के ऊपर सदाशिव लेट गये और उनके नाभिकमल पर कामाख्या विराजमान हो गईं, आधार शिव ही देते हैं। जगत जननी पार्वती रत्न जड़ित सिंहासन पर बैठी हुई हैं अभी शिव से विवाह होने वाला था बस छः वर्ष के बालक का रूप धर शिव आ गये और पार्वती के सामने नृत्य करने लगे। पार्वती की दृष्टि शिव पर अटक गई। नाचते-नाचते पार्वती की गोद में चढ़कर बैठ गये शिव। सब देवताओं ने जोर लगा लिया पर शिव को पार्वती की गोद से नहीं उतार पाये, भैरव आ गये, यह है भैरव रहस्यम् । शक्ति के पीछे-पीछे चलते है भैरव, शक्ति की गोद में खेलते है भैरव मातृत्व की सृष्टि हो गई, माँ की गोद से बच्चे को अलग करके दिखाओ। सर्वप्रथम यह सृष्टी जीवन विहीन थी बस चारों तरफ जड़ पिण्ड घूम रहे थे अचानक विराट पुरुष ने असंख्य जीवों का निर्माण कर सब के अंदर अपने आपको स्थित कर लिया और इस प्रकार सृष्टि जीवमय हो उठी। 

          शिव का एक कार्य है सब जगह जाकर बैठ जाऊं चाहे किसी भी रूप में क्यों न बैठना पड़े। विष्णु के हृदय में बैठ गये, योगमाया की गोद में बैठ गये, राम के पास हनुमान के रूप में बैठ गये, कृष्ण के पास राधा के रूप में बैठ गये, अर्जुन के पास भील के रूप में जाखड़े हुए, उमा तपस्या कर रही थीं वृद्ध ब्राह्मण के रूप में पहुँच गये। संसार रोग का वर्णन करने लगे, कहने लगे शिव के पास कुछ नहीं है नग्न हैं, दरिद्र हैं, महल भी नहीं है, सिंहासन भी नहीं है, मुकुट भी नहीं है इत्यादि इत्यादि कहाँ पड़ी है चक्कर में, विष्णु से विवाह कर ले। परख रहे थे पार्वती की आरोग्यता, कहीं रोगिणी को गले न लगा लूं परन्तु पार्वती आरोग्यता का कुण्ड निकलीं। शिव भी उन्हें संसार रोग से ग्रसित नहीं कर पाये। शिव परम वैभव स्वरूपाय हैं। शिव की बारात जा रही थी लोगों ने विष्णु के वैभव को देखा सोचने बैठे यही शिव हैं विष्णु बोले नहीं भाई हम तो शिव के उपासक हैं फिर इन्द्र के वैभव को देखा तो लोग उन्हें शिव समझकर उनकी तरफ दौड़ पड़े, इन्द्र ने विनम्रता से कहा हम तो शिव के उपासकों के भी उपासक हैं। प्रजापति का वैभव देखा तो लोगों ने सोचा शायद यही शिव हैं परन्तु प्रजापति बोल उठे नहीं हम तो पृथ्वी पर शिव के सकाम लिंग के पूजक हैं, हम कैसे शिव हो सकते हैं? 

           राजा हिमालय की प्रजा सोचने लगी जब इतने सारे वैभवशाली शिव के उपासक हैं तो फिर शिव का वैभव तो अद्भुत ही होगा परन्तु क्या देखते हैं बूढ़े नंदी पर सवार नंग-धड़ंग शिव, भूत-प्रेतो, आढ़े तिरछे, आधे अधूरे, चित्र-विचित्र, महाविकराल सेवकों और गणों के साथ चले आ रहे हैं। ये शिव हैं, ये शिव का वैभव, ये कैसा वैभव ? किसी की कुछ समझ में नहीं आया और न कभी आयेगा । वैभव देखा हो तो वैभव को पहचाने बस इतनी सी बात है। आगे कुछ नहीं कहना है। विवाह प्रारम्भ हुआ आचार्य ने पूछा शिव के पिता कौन ? ब्रह्मा बोले मैं हूँ इनका पिता, आचार्य पुनः बोला पितामह कौन ? विष्णु बोले मैं इनका पितामह, आचार्य ने पुनः पूछा शिव के पर पितामह कौन ? बस शिव बोल उठे मैं ही सबका बाप हूँ, यही मेरा परिचय है। सभा में सन्नाटा छा गया आचार्य ने जल्दी-जल्दी फेरे लगवा दिए, यही शिव का परिचय है। स्वयं के मुख से स्वयं का परिचय, अतः जो शिव ने कहा वही शाश्वत्।

               शिव ही सबके पिता हैं। 19 वीं सदी खत्म हो गई है एवं बीसवी सदी प्रारम्भ हो गई हैं। 19 वीं सदी की सबसे भयंकरतम भूल मानव समाज ने यह की कि अध्यात्म को गौण समझा, वेद एवं शैव साहित्य को एक तरह से नष्ट करने की कुचेष्ठा की। 15 वीं सदी से हम देखें या फिर हमें 1500 वर्ष का इतिहास देखना पड़ेगा तो मानव समाज पतोन्मुखी क्यों हुआ ? पहली बात पिछले 1500 वर्षों में मानव समाज में कृत्रिम आध्यात्मिक महापुरुषों का अभ्युदय हुआ, कृत्रिम धर्मों का निर्माण हुआ, शरीर धारियों की पूजा प्रारम्भ हुई जो कि मानव समाज के लिए विनाशकारी सिद्ध हुई। वैसे इसकी शुरुआत कृष्ण के जमाने से हो गई थी। गीता के कुछ श्लोकों को कृष्ण प्रेमियों ने अति में तोड़-मरोड़कर कृष्ण की गलत ढंग से उपासना प्रारम्भ की फिर देखा देखी विश्व के अनेक हिस्सों में इस तरह का प्रचलन प्रारम्भ हुआ। नई-नई, आधी-अधूरी पुस्तकों का निर्माण हुआ। जीवन दर्शन पुरंजक आधारित एवं व्यक्ति विशेष आधारित हो गया बस इसी कारणवश आपसी टकराव एवं धर्म के नाम पर भयंकर रक्तं पात हुआ, अभी भी यह चल रहा है। इन मार्गों से किसी ने भी पूर्णत्व प्राप्त नहीं किया। 

         अगर आप एक पंथ या धारा विशेष में क्रियाशील होते हैं तो इसका तात्पर्य है आप असुरक्षा के रोग से ग्रसित हैं। आप अप्राकृतिक शरण के जिज्ञासु हैं। एक सम्प्रदाय विशेष के पूजा स्थलों पर निवास करना, एक सम्प्रदाय विशेष के हाथों भोजन करना, उन्हीं में अपनी ऊर्जा नष्ट कर देना अध्यात्म नहीं है। अध्यात्म के मार्ग पर चले सरलीकरण का विधान नहीं ढूंढते। एक धारा विशेष के सिद्धातों को प्रतिपादित करना, आज से 1500 या 2000 वर्ष पूर्व किसी हाड़-मांस के व्यक्ति के कथनों को दोहराना कहाँ का अध्यात्म है ? मदर टेरेसा ने अपनी निजी डायरी में लिखा ईश्वर हैं भी कि नहीं मुझे विश्वास नहीं। दलाई लामा नें कहा मुझे भी शंका है ईश्वर के अस्तित्व पर इत्यादि ऐसे ही उद्गार एक धारा विशेष में काम करने वाले लोगों को सबसे बड़ा दण्ड है। सारा जीवन धर्म का उपदेश दिया सारा जीवन धर्म की चादर ओढ़कर बिता दी, धर्म की रोटी खाई, धर्म के नाम पर माला पहनी परन्तु मरते वक्त तक भी हृदय पर हाथ रखकर ये न कह सके कि हमें ईश्वर ने दर्शन दिया। अब क्या बचा ? इससे बड़ा दण्ड क्या हो सकता है ?

            शून्य से ऊपर उठने की कला आपने कभी सीखी ही नहीं है। पाशुपतास्त्र आपने कभी अंगीकार किया ही नहीं, अण्ड को फोड़कर निकलने की ताकत आपमें है ही नहीं आपने तो बस एक धारा में बहने का संकल्प जो ले लिया था, शिवत्व आपमें है ही नहीं। आत्म अवलोकन जरूरी है। आज आप सभी से यही बोल रहा हूं कि सनातन धर्म की धारा को मत छोड़ना । कभी पंथ, वंशवाद, व्यक्ति पूजन इत्यादि में मत पड़ना । शिव शाश्वत् है। शाश्वतता से ही प्राकृतिक का जन्म होता है, शाश्वतता का चिन्ह हैं प्राकृतिक । प्राकृतिक अर्थात मानव हाथों से सर्वथा अनिर्मित । वेद के रचयिता कौन हैं ? कोई मनुष्य नहीं हैं, वेदों के ऊपर किसी लेखक का नाम नहीं लिखा है अतः वेद शाश्वत् हुए। आप वृक्ष से फल प्राप्त कर अगर सेवन करते हैं तो उसकी गुणवता मानव निर्मित कारखाने में उपलब्ध अप्राकृतिक पेय से कई गुना ज्यादा होगी एवं वह शरीर को शिवत्व भी प्रदान करेगी। ठीक इसी प्रकार शाश्वत् ज्ञान संस्थागत मनुष्य बुद्धि निर्मित ज्ञान की अपेक्षा ज्यादा हितकर है। इसका एकमात्र उपाय है योगात्मक, साधनात्मक एवं तंत्रात्मक जीवन तंत्र साधनाओं के माध्यम से प्राप्त शक्ति अमृतमयी होगी।

             पिछले सौ वर्षों में जन मानस नास्तिक क्यों बना ? कम्युनिष्ट क्यों बने ? धर्म से विरक्त लोग क्यों हुए? क्योंकि अप्राकृतिक, शिवत्व विहीन धर्मत्व का निर्माण हुआ। लोगों ने एक झटके से धर्म को नकार दिया, अच्छा किया। विषाक्त भोजन करने से अच्छा तो उपवास करना है। अप्राकृतिक धर्म के (साइड इफेक्ट्स) भी ऐलोपैथी दवाओं के समान हैं। मानव जगत ने इसे महसूस किया इसलिए सेवन बंद कर दिया, आप सबको सोचना पड़ेगा। शिव के सामने नंदीश्वर विराजमान हैं, नंदी धर्म का प्रतीक हैं, नंदी ब्रह्मचर्य का प्रतीक है अतः नंदी खतरनाक हुआ क्योंकि धर्म में प्रचण्ड बल है, ब्रह्मचर्य से अघोर बल की उत्पत्ति होती है इसलिए शिव नंदी के ऊपर विराजमान हैं। धर्म के ऊपर आरूढ़ हैं शिव, ब्रह्मचारियों की पीठ पर बैठे हैं शिव। धर्म को नियंत्रित करना ब्रह्मचर्य को नियंत्रित

करना, शिव के ही बस में है। सर्पों की दो जीभ होती है। अतः धर्म की बातें करने वाले एक जीभ से कुछ स्पंदन करते हैं तो दूसरी जीभ से कुछ और इसलिए शिव इन्हें अपने पास रखते हैं। ब्रहचारी बहुत खतरनाक होते हैं उल्टी सीधी व्यवस्था कर सकते हैं, अध्यात्म को तोड़-मरोड़कर पेश कर सकते हैं, धारा को परिवर्तित कर सकते हैं, गंगा को उल्टी दिशा में बहा सकते हैं अतः इन पर नियंत्रण अत्यधिक आवश्यक हैं, इन्हें शिव को ढोना ही पड़ता है। शिव के सामने नंदी रखा ही जाता है नहीं तो शिव के तेज को जनमानस नहीं झेल सकता। 

           तीन बिल्व पत्र चबा लो, भीषण से भीषण नशा उतर जायेगा। शरीर कितना भी विषाक्त हो गया हो बिल्व पत्र खाना शुरु कर दो, कठिन से कठिन गुप्त रोगों का विष भी मर जायेगा। मस्तिष्क रोग से ग्रसित होने पर, बुद्धि मंद पड़ जाने पर, यौवन नष्ट होने की स्थिति में बिल्व का शर्बत पीना शुरु कर दो। 21 दिन में चमत्कार हो जायेगा और ताप नियंत्रित हो जायेंगे। रुद्राक्ष गले में धारण कर लो रक्त चाप, दुःस्वप्न, कुविचार, हिंसा इत्यादि स्वतः ही नियंत्रित हो जायेगी। दुर्भाग्य को सौभाग्य में बदल देंगे रुद्राक्ष ! अकाल मृत्यु, अपमृत्यु, ग्रहबाधा निवारणार्थ, उन्नति हेतु रुद्राक्ष तो धारण करना ही पड़ेगा। मुधमेह के रोगियों के लिए तो बिल्व पत्र अमृत तुल्य है, जो कुछ शिव को चढ़ता है वह सब अमृत मय होता है।

                     शिव शासनत: शिव शासनत:

वराह पुराण से पितृदोष ( पितृऋण ) और कालसर्प दोष उतारने का सबसे सुलभ मार्ग ।।

हमारे जीवन की लगभग समस्याओं का कारण पितृदोष ही बनता है ।। चाहे वह पारिवारिक सुख की कमी हो, या आर्थिक सुख की, अथवा अन्य किसी सुखकी ....

इस समय लगभग 90% से अधिक भारतीयों की कुंडली में पितृदोष है ही । और जब तक पितृदोष है, सफलता पाई ही नहीं जा सकती , चाहे आप कितने भी योग्य क्यों न् हो ।। पितृदोष कालसर्प दोष को लगभग एक ही जानो ......वराह पुराण में पितरो ने , स्वयं को प्रसन्न करने के कई मार्ग बताए हैं .... मैं वह लिख रहा हूँ उन्हें पढ़कर तुमको आदरपूर्वक वैसा ही आचरण करना चाहिये । 

●पितृगण कहते हैं- कुल में क्या कोई ऐसा बुद्धिमान् धन्य मनुष्य जन्म लेगा जो वित्तलोलुपता को छोड़कर हमारे निमित्त पिण्डदान करेगा ??

●सम्पत्ति होने पर जो हमारे उद्देश्य से ब्राह्मणों को रत्न , वस्त्र , यान एवं सम्पूर्ण भोग - सामग्रियों का दान करेगा??

●अथवा केवल अन्न - वस्त्रमात्र वैभव होने पर श्राद्धकाल में भक्तिविनम्र - चित्त से श्रेष्ठ ब्राह्मणों को यथाशक्ति भोजन ही करायेगा या अन्न देने में भी असमर्थ होने पर ब्राह्मण श्रेष्ठों को वन्य फल - मूल , जंगली शाक और थोड़ी - सी दक्षिणा ही देगा???

●यदि इसमें भी असमर्थ रहा तो किसी भी द्विजश्रेष्ठ को प्रणाम करके एक मुट्ठी काला तिल ही देगा ??

●अथवा हमारे उद्देश्य से पृथ्वी पर भक्ति एवं नम्रतापूर्वक सात - आठ तिलों से युक्त जलाञ्जलि ही देगा??

●यदि इसका भी अभाव होगा तो कहीं न - कहीं से एक दिन का चारा लाकर प्रीति और श्रद्धापूर्वक हमारे उद्देश्य से गौ (नंदी) को खिलायेगा ??

●इन सभी वस्तुओं का अभाव होने पर वन ( खुले स्थान का एकांत ) में जाकर अपने कक्षमूल ( बगल ) को दिखाता हुआ सूर्य आदि दिक्पालों से उच्चस्वर से यह कहेगा 

न मेऽस्ति वित्तं न धनं न चान्य 
च्छ्राद्धस्य योग्यं स्वपितृन्नतोऽस्मि । 
तृप्यन्तु भक्त्या पितरो मयैतौ 
भुजौ ततौ वर्त्मनि मारुतस्य ॥

मेरे पास श्राद्धकर्म के योग्य न धन - सम्पत्ति है और न कोई अन्य सामग्री अतः मैं अपने पितरों को प्रणाम करता हूँ । वे मेरी भक्ति से ही तृप्ति लाभ करें । मैंने अपनी दोनों बाहें आकाश में उठा रखी हैं । 

मात्र इतने से कर्म से बड़े से बड़ा पितृदोष समाप्त हो जाता है ।। आप भी कुछ महीने श्रद्धा से यही करके देखे । कुछ और नही, यह जो सड़क पर आश्रयहीन नन्दी महाराज घूमते हैं, इन्ही की सेवा करें ।। पितृदोष उसी में उतर जाएगा ।। .

                                          साभार......

ब्रह्म विद्या ।।

          आप किसी जल से भरे पात्र में एक बूंद पानी डालिए आपको तुरंत ही कुछ बुलंबुले उठते हुए दिखाई देंगे। किसी भी वस्तु को पानी में फेंकिए नीचे से एक साथ बुलबुलों का गुच्छा उठेगा। एक बुलबुले से सेकेण्ड के सौवें हिस्से में अनेकों बुलबुले उत्पन्न हो जायेंगे। बस इसी सिद्धांत को BIG-BANG सिद्धांत कहते हैं। अभी हाल में वैज्ञानिकों ने इसकी पुष्टि की है जबकि वेदान्त कई कल्प पहले ओंकार नाद के द्वारा सृष्टि के उत्पत्तिकरण की सटीक रूप से व्याख्या कर चुका है। बुलबुला प्रारम्भिक जीवन है। यह जीवन की प्रथम अवस्था है जीवन सर्वप्रथम बुलबुले के रूप में ही विकसित होगा, यही ओंकारनाद है। यही एक से अनेक होने की ब्रह्मा की प्रक्रिया है। इसे ही कहते हैं एको बहुष्याम सारे बुलबुले नष्ट नहीं हो जायेंगे कुछ एक बर्तन के तल पर चिपके हुए होंगे। कालान्तर यही बुलबुले ग्रह नक्षत्र का रूप लेंगे। इन्हीं से सूर्य का निर्माण होगा। ब्रह्माण्ड में ऐसा ही होता है। यही बुलबुले स्वरूप परिवर्तन कर अणु-परमाणु और उनके भी न्यूनतम अंशों के रूप में दिखाई देंगे। बुलबुले उठते ही रहते हैं और धीरे-चार जीव में परिवर्तित हो जाते हैं। पंचेन्द्रिय जीवों में भी सब कुछ आंतरिक रूप से बुलबुलों के समान ही होता है। हृदय की धड़कन हो, मस्तिष्क की क्रियाशीलता हो इत्यादि सब जगह बस बुलबुले ही धड़कते हैं। वे ही उठते और मिटते हैं।

        मैंने बुलबुले को जीवन कहा, उसे जीवित कहा। इस सृष्टि में जो भी एक से अनेक होगा वह जीवित है। जीवन की सबसे प्रारम्भिक अवस्था बुलबुला ही है वह आपकी आँखों के सामने एक से अनेक हुआ। इससे पहले की प्रक्रिया तो शक्ति की धारा है। वह भी किसी बुलबुले से बनी होगी। यहीं रहस्य है लिंगार्चन का अर्थात रुद्राभिषेक का शिव के ऊपर गिरती निरंतर जलधारा का जीवन के लिए जरूरी प्राण विद्युत की उत्पत्ति का बुलबुला बना अर्थात किसी एक क्रिया ने प्राण को सक्रिय किया। जलधारा गिरती है विद्युत का निर्माण होता है एवं सारा विश्व प्रकाशवान होता है। यह मनुष्य करता है एवं इससे कृत्रिम प्रकाश का निर्माण होता है परन्तु प्राकृतिक प्रकाश अर्थात प्राण का निर्माण भी ऐसी ही गिरती हुई जलधारा से होता है। प्राण ही प्राण को शक्ति प्रदान करेगा। प्राणतत्व प्राणतत्व को ही ग्रहण करेगा एवं प्राणतत्व की शिथिलता को प्राणतत्व ही दूर करेगा बस इतनी सी कहानी है ब्रह्मविद्या की। प्राणों को समझने की क्रियण, प्राणों के उत्पत्तिकरण को जानने की क्रिया प्राणों को मजबूत बनाने की विद्या ही ब्रह्म विद्या है। प्राणों को निरंतर चलायमान रखना ही ब्रह्मविद्या का कार्य है। प्राणों का स्थापन ही सीखना पड़ेगा आगे ब्रह्म विद्या के अंतर्गत इसकी व्याख्या परकाया प्रवेश के लेख में करूंगा।

              प्रत्येक पिण्ड का मूल अर्क है प्राण शक्ति। हम तो अभी तक (मैं वैज्ञानिकों की बात कर रहा हूँ) सूर्य ऊर्जा को भी संचय करने में सफल नहीं हो पाये हैं। सूर्य के द्वारा उत्सर्जित ऊर्जा अभी भी हम पूर्ण रूप से मानव निर्मित यंत्रों में संचित नहीं कर पा रहे हैं। जो प्राण तत्व सूर्य से उत्सर्जित हो रहे हैं उन्हें जिस दिन मानव अपने यंत्रों में संचित करने में सक्षम हो जायेगा तो सारी दुनिया एक क्षण में ही परिवर्तित हो जायेगी। एक क्षण में ही वर्तमान यंत्र प्रागऐतिहासिक हो जायेंगे। ऊर्जा के समस्त संसाधन व्यर्थ हो जायेंगे परन्तु जीव अनंत काल से अपने अंदर सूर्य के द्वारा उत्सर्जित प्राण शक्ति को कुछ काल सीमा के लिए संचित, स्तम्भित, कीलित और परिवर्तित करने में सक्षम हो गया है। यही जैविक यंत्रों की कहानी है। कम से कम 24 घण्टे तो साधारण से साधारण जीव भी अपने अंदर प्राण शक्ति को आवृत्ति प्रदान करने में सक्षम है। संचय कैसे होगा ? संचय तभी सम्भव है जब प्राण शक्ति आवृत्ति में गतिमान हो एक चक्र के रूप में गतिशील बनी हुई हो। ऐसा ही शरीर में होता है तभी जैविक शरीरों में बुलबुले के समान हृदय फूलता एवं पिचकता है और धमनियों के माध्यम से रक्त प्रवाह पूरे शरीर में प्राण शक्ति को चक्राकार स्थिति में घुमाता रहता है।

    आध्यात्मिक दृष्टिकोण से शरीर के अंदर प्राण शक्ति आवृत्ति बद्ध होती है और इसी आवृत्ति में से घूमते-घूमते एक और आवृत्ति जन्म ले लेती है। यह ब्रह्म कला है। एक माध्यम जब थक जाये तो अपने अंदर स्थित प्राण शक्ति को दूसरे माध्यम में स्थानांतरित कर देना या स्वयं के अंदर से एक नया शरीर उत्पन्न कर देना जो कि पुनः प्राण शक्ति को आवृत्ति में गति प्रदान करता रहे। इस प्रकार अनंत काल से जीव संरचनायें अपने आपको प्राण शक्ति से आबद्ध रखे हुए हैं। इसलिए प्रत्येक जीव में बला की इच्छा होती है स्वयं के द्वारा संरचना करने की अर्थात सृष्टि करने की। स्वयं के शरीर से स्वयं के समान संतति उत्पन्न करने की। .

इसी बह्य कला के कारण जीव भी अजर अमर है। सभी प्रारम्भिक लक्षण अजर-अमर है। सभी तत्व बस इसी आदि इच्छा के कारण आज तक अजर-अमर एवं अपने अस्तित्व को बरकरार रखे हुए हैं। शत्रुत्व को मालुम है कि वह एक समय तक एक माध्यम में क्रियाशील रह सकता है और जैसे ही माध्यम अक्रियाशील होने की तरफ बढ़ेगा शत्रुत्व दूसरा शरीर ग्रहण कर चुका होगा या कहीं और पर विकसित हो रहा होगा। नष्ट होने से पहले ही विकास प्रारम्भ हो चुका होता है। 

        16 वर्ष की उम्र में ही संतान उत्पन्न की जा सकती है। स्वयं पिता अपनी संतान को अपने अस्तित्व के साथ-साथ अपने द्वारा प्रदान किये गये तत्वों के अस्तित्व की रक्षा हेतु अस्तित्व प्रदान करता है। पिता का शरीर नष्ट हो जायेगा पर उससे पहले ही अनेकों पुत्रों के रूप में अस्तित्व पूर्ण रूप से विकसित हो चुका होगा। यहाँ तक कि पुत्र के पुत्र भी उत्पन्न हो चुके होंगे। यही ब्रह्म विद्या है। ब्रह्म विद्या मूल में स्थित है बाहर से नहीं लगाई जाती। स्वतः ही क्रियाशील होती । रहती है। स्वतः ही व्यक्ति या जीव को उत्प्रेरित करता रहती है। स्वत: ही जीव के शरीर में परिवर्तन कर देती है एवं उसे परिवर्तन की ओर अग्रसर भी करती है। ब्रह्म विद्या मुँह से बांचने की विद्या नहीं है। यह आम विद्याओं के अंतर्गत नहीं आती है। ब्रह्म विद्या हर किसी को समझाने के लिए नहीं बनी हुई है। यह ब्रह्म ज्ञानियों का विषय है। जिन्हें विराट संरचना करनी होती है वे ही ब्रह्म विद्या में निपुण हो पाते हैं।

         जीव उत्पन्न हुआ, उसने मुख खोला और भोजन को स्वतः ही ग्रहण कर लिया। किसी ने उसे भोजन ग्रहण करना नहीं सिखाया। देखने में यह बात बहुत सामान्य लगती है परन्तु यह कदापि सामान्य नहीं है अगर उसके अंदर भोजन ग्रहण करने की जानकारी नहीं होती तो फिर जीवन की कड़ी आगे नहीं बढ़ पाती। कुछ ज्ञान ऐसा होता है जिसे सीखने और सिखाने लग जाये तब तो फिर हो चुका। जब तक भोजन ग्रहण करना सिखाओगे तब तक तो प्राण उड़ चुके होंगे। सीखने सिखाने के लिए बहुत कुछ बकवास है। ये सब ब्रह्म विद्या के अंतर्गत नहीं आता। ब्रह्म विद्या का जो आवश्यक हिस्सा है वह तो सभी को प्राप्त हो जाता है। इसके पश्चात वाला भाग पुस्तकों में नहीं मिलता। यह ब्रह्म ज्ञानियों के पास होता है। ब्रह्म ज्ञानी गिने चुने होते हैं और वह यह ज्ञान केवल उन्हीं को देते हैं जो कि ब्रह्म ज्ञानी होने वाले हैं। बाकी सब पूजन पाठ, उपासना, सामान्य व्यवहार, सामान्य दक्षता इत्यादि दे दिया जाता है। ऐसा क्यों? मैंने पहले कहा एक पिता अपने जीवनकाल में पुत्र उत्पन्न कर लेता है। ठीक वैसे ही ब्रह्म ज्ञानी भी अपने जीवन काल में दूसरा ब्रह्म ज्ञानी रच लेता है। ब्रह्म ज्ञानी ब्रह्म ज्ञानी ही रचेगा भूगोल का अध्यापक "नहीं बनायेगा अगर वह ऐसा नहीं करेगा तो फिर श्रृंखला टूट जायेगी। बगलामुखी की आराधना खण्डित हो जायेगी। बगलामुखी क्रियाशील इसलिए है कि श्रृंखला न टूटने पाये।

        देखिए दो मार्ग हैं प्राप्त करने के एक मार्ग हैं तप का मार्ग। यह मार्ग सबके लिए खुला हुआ है। तप करके, तपस्या करके पूर्ण निष्ठा के साथ सेवा करके कोई भी कुछ भी प्राप्त कर सकता है। यह तपोनिष्ठ होने की प्रवृत्ति है। इसमें खूब बाधायें आयेंगी, खूब अवरोध आयेंगे फिर भी तपोनिष्ट साधक लगा रहेगा। तप को अस्त्र बनाकर वह असुरों के समान ब्रह्मा और शिव से कुछ भी प्राप्त कर सकता है। उन्हें प्रसन्न कर सकता है। यह भी एक विधान है। तपोनिष्ठ के आगे उन्हें झुकना ही पड़ता है परन्तु यह हैं जरूरी नहीं कि तपोनिष्ठ व्यक्ति अपने आपमें एक उत्कृष्ट संरचना हो । लंकेश भी तपोनिष्ठ थे। बहुत कुछ प्राप्त लिया था। तप से सिद्धि तो प्राप्त हो ही जाती है। इसमें आदि शक्तियों की भी परीक्षा होती है। यह पूर्ण स्वतंत्रता का मार्ग है। हर जीव तप करने के लिए स्वतंत्र है परन्तु इसमें कृपा का अभाव हो जाता है। यह दुनिया तपनिष्ठों से भरी हुई है। तपानुसार, कर्मानुसार ये कुछ काल के लिए शक्तिशाली तो हो ही जाते हैं बाद में चाहे जो कुछ भी हो। दूसरा मार्ग है कृपा का मार्ग। इसमें कृपा प्राप्त होती है यह मूक मार्ग है। यह मांगने की प्रक्रिया नहीं है। कृपा मार्ग का प्रमाणीकरण भी नहीं होता है। इसमें जीव विशेष माध्यम होता है पराशक्ति की इच्छा का वह अपने कृपाचारी को जीवित देखना चाहता है, विकसित देखना चाहता है, उसे पूर्ण रूप में देखना चाहता है। 

           अब एक वृतांत देता हूँ लंकेश तपोनिष्ठ थे उनके अंदर भी क्रियाशील थी रुद्र की शक्ति, ब्रह्म ज्ञान उनके अंदर भी था। उन्होंने इसे घोर तपस्या से प्राप्त किया था, स्व अर्जित किया था। देवाधिदेव महादेव की लंकापुरी में उन्हें गद्दी पर बिठाया गया था। प्रभु श्री राम पर कृपा हुई उनके साथ रुद्रांश हनुमंत थे। .

हनुमंत के रूप में बगलामुखी क्रियाशील हुई। लांगुलास्त्र बगलामुखी की ही एक प्रक्रिया है अंत में विजय कृपा की ही हुई। इसका क्या कारण है? कृपा क्यों हर बार विजयी होती है? तप क्यों हर बार हारता है? सीधी सी बात है तप सौदा है, इसमें मांग है, इसमें वरदान होता है, इसे पूर्ण करने के लिए प्रतिब होती है। यह एक तरह से कीलन है परन्तु इसके विपरीत कृपा में स्वेच्छा चारिता होती है, गुरु की इच्छा होती है। बन्धन में गुरु किसी को भी गद्दी पर बिठा सकता है। स्थितियाँ कभी-कभी याध्य कर देती हैं। केकैयी के बंधन में भरत को राजगद्दी मिल गई थी। दशरथ कीलित थे, प्रतिबंधित थे, केकैयी को वरदान देकर। इसमें उनकी इच्छा नहीं चली। कृपा का मार्ग श्रेयस्कर है लम्बे समय में विजयी होता है। बगलामुखी ब्रह्म विद्या के अंतर्गत आती है। युद्ध सभी करते हैं। जीवन में शत्रु सभी होते हैं। यह सब जीवन का ही एक अंग है परन्तु विजय महत्वपूर्ण है। विजय की प्राप्ति ही बगलामुखी की आराधना में सफलता का द्योतक है। अतः अध्यात्म पथ के जिज्ञासुओं को साधनाओं के माध्यम से कभी भी सौदेबाजी नहीं करनी चाहिए सिर्फ कृपा प्राप्ति का ही ध्येय रखना चाहिए। विजय कृपा के अंदर ही निहित है। तपोनिष्ट तो हारता है, हार तपोनिष्ठों के लिए ही बनी है, हार तपोनिष्ठ को परिवर्तित करती है। समार्ग अपनाने के लिए। हार तपोनिष्ठ को उद्वेलित करती है यह सोचने के लिए कि कृपा प्राप्ति ही श्रेष्ठ विधान है। यही ब्रह्म वर्चस्व की कहानी है। तपोनिष्ठ विश्वामित्र से ब्रह्मऋषि में परिवर्तित होने की प्रक्रिया है।

           18 वीं शताब्दी में एक महान सिद्ध हुए उन्हें कच्चे बाबा के नाम से जाना जाता था। वो जो कुछ भी खाते थे सिर्फ कच्चा ही खाते थे अगर कोई मुट्ठी भर गेंहूँ दे आता तो उसी को कच्चा खा लेते थे। किसी ने सब्जी दे दी तो कच्ची खा ली। अद्भुत बात है। जार्ज पंचम जो कि इंग्लैण्ड के राजा थे एक बार हिन्दुस्तान आये। काशी आकर उन्होंने किसी सिद्ध संत से मिलने की इच्छा प्रकट की, लोग उन्हें कच्चे बाबा के पास ले गये, बाबा ने अपनी कुटिया में कुर्सी लगा दी साफ सफाई भी करवा दी, आखिर कार उनसे मिलने विश्व का सम्राट आ रहा था। जार्ज पंचम उस समय युवा थे फिर भी भारतीय संस्कृति से भली- भांति परिचित थे और गरिमानुकूल व्यवहार भी करते थे। वे कुर्सी पर नहीं बैठे जमीन पर ही बैठे जब सम्राट जमीन पर बैठ गया तो भारतीय नौकर चाकर और चाटुकार भी - बाबा के सामने लोटने लगे। जार्ज पंचम ने बाबा से कहा आप जो चाहे मांग लीजिए आपके सामने सम्राट बैठा हुआ है। बाबा ने कहा मैं क्या मांगू? तू चलकर मेरे पासा आया है। मैं तुझे आशीर्वाद देता हूँ कि तू राज कर मैं कहना यह चाह रहा हूँ कि ब्रह्म विद्या के धनी भिखारी नहीं होते। आज का कोई चाटुकार साधु संत होता तो तुरंत ही आश्रम के लिए जमीन मांग बैठता। मैं रोज ऐसे घटिया सांधु-संतों को देखता हूँ जो कि राजनेताओं के सामने, कुबेर पतियों के सामने सिर्फ ट्रस्ट, संस्था और मठ के लिए भिक्षा मांगते रहते हैं। जो स्वयं भिखमंगा है वह किसी को क्या देगा? जो राजदरबार में आश्रम के लिए जमीन मांगने की याचना करता है उसे कहाँ ब्रह्म विद्या सिद्ध होगी? 

       हरि गोस्वामी जी एक संत हुए हैं वे काशी में निवास करते थे, प्रतिदिन भगवान विश्वनाथ के दर्शन करते और फिर वहीं पास की झाड़ियों में जाकर छिप जाते। वे झाड़ी में रहते थे उनका एकमात्र कार्य था भगवान विश्वनाथ का दर्शन करना अचानक एक दिन काशी से गायब हो गये कहाँ गये किसी को पता ही नहीं चला। यह है ब्रह्म ज्ञानियों की पहचान उनका एकमात्र कार्य था भगवान विश्वनाथ का दर्शन करना न कि पण्डाल बांधना। ऐसे ही एक और महात्मा हुए विश्वेश्वरदास जी वे छतरी वाले बाबा के नाम से जाने जाते थे। उनके पास बस एक छतरी थी छतरी गाड़ी और उसी के नीचे बैठ गये उन्हें विष्णु का वामन अवतार सिद्ध था। अब जिसे स्वयं वामन अवतार सिद्ध हो जो कि ढाई कदम में ही समस्त ब्रह्माण्ड के छोर को लांग दे उसे क्या जरूरत पड़ी मठ बनाने की। छतरी ही बहुत है। अयोध्या में एक ब्रह्म ज्ञानी हुए रामकृपा जी महाराज वह सारा जीवन एक छटाक चना ही खाते थे। उसके अलावा जीवन में उन्होंने कुछ खाया ही नहीं प्रतिदिन बस एक छटाक चना खाते थे। जो भी आता था उसे चने के कुछ दाने दे देते थे। आज भी कुछ ऐसे लोग हैं जिन्होंने उनके द्वारा प्राप्त चने के दाने सुरक्षित रखे हुए हैं। .

अस्सी वर्ष बीत गये उन्हें शरीर त्यागे फिर भी चने के दाने ऐसे लगते हैं जैसे कि इसी वर्ष उत्पन्न हुए हों। ये अयोध्या में ही रहते थे। इनका जबर्दस्त कीलन कर रखा था प्रभु श्रीराम ने अयोध्या में ये अंत तक अवधवासी ही रहे। एक बार इन्होंने अयोध्या छोड़कर जाने की कोशिश की। रात्रि को चुपचाप अयोध्या छोड़कर जाने लगे। ये तंग आ चुके थे जनता की भीड़-भाड़ से। जैसे ही अयोध्या छोड़कर निकले एक लम्बे चौड़े सिपाही ने आकर इनका रास्ता रोक लिया और इन्हें पुनः अयोध्या में भगा दिया। सारी रात यह दसों दिशाओं से अयोध्या छोड़कर जाने की कोशिश करते रहे पर हर बार वही सिपाही इन्हें डांट डपटकर पुनः भगा देता। अंत में ये समझ गये कि प्रभु श्री राम की इच्छा ही नहीं है कि मैं अयोध्या छोडूं। इसे कहते हैं कृपा । 

        आध्यात्मिक लोगों का जबर्दस्त कीलन होता है। वे अपने गुरुओं की बगलामुखी साधना के द्वारा पूरी तरह से स्तंभित होते हैं। जब तक वे अपने कार्यों को सम्पन्न नहीं कर लेंगे गुरु उन्हें नहीं छोड़ते। वे ही सारी व्यवस्था करते हैं। चारों तरफ से कीलन करके रख देते हैं। जब आप बगलामुखी यंत्र का तांत्रोक्त पूजन करेंगे तो उसमें पायेंगे कि इस ब्रह्म विद्या के द्वारा तो ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों के मुखों को स्तम्भित कर दिया गया है। ब्रह्मास्त्र, शिवास्त्र, महासुदर्शन चक्र सब के सब महादेवी ने कीलित कर दिए हैं अपने भक्त के लिए। यमास्त्र, कुबेरास्त्र, वायुअस्त्र, आयास्त्र इत्यादि सभी कीलित हैं। इन सभी पराशक्तियों से वह अपने भक्त को कवचित कर रही हैं। अर्थात अब भक्त के ऊपर ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र भी कुपित नहीं हो सकते तो फिर अन्य किसी शक्ति की क्या औकात।

         यह सब क्यों? क्योंकि इन्हीं क्रियाओं के द्वारा अहं ब्रह्माऽस्मि का अभ्युदय होगा अर्थात मैं ही ब्रह्मा हूँ। यही बगलामुखी महाविद्या का सारांश है। जो कुछ हूँ वह मैं ही हूँ। अब कहीं भटकने की जरूरत नहीं है। यही है ब्रह्मऋषियों की पहचान देखिए ब्रह्मा, विष्णु, महेश, कुबेर, यम इत्यादि इत्यादि मानवाकृति के रूप में अत्यधिक मात्रा में क्रियाशील मिल सकते हैं। ऐसे भी मनुष्य हैं जिनके पास अकूत धन सम्पदा है साक्षात कुबेर के विग्रह ऐसे भी मनुष्य हैं जो साक्षात चाण्डाल हैं । ऐसे भी मनुष्य है जो सिर्फ निदर्यता के साथ प्राण हरने को तैयार रहते हैं। ब्रह्मा के समान मनुष्य भी हैं जो कि नवीन संरचना करने में पूर्ण रूप से सक्षम हैं। मैंने अपनी आँखों से देखा है उनमें इतना ब्रह्मत्व विकसित हो जाता है कि चालीस वर्ष में करोड़ों ऋषि पुत्र एवं ऋषि पुत्रियाँ उत्पन्न कर देते हैं। जैसे कि निखिलेश्वरानंद जी ने किया है। बस दृष्टिकोण बदलने की आवश्यकता है सब कुछ यहीं पर दिखलाई दे जायेगा। संकट मोचन मनुष्यों के जीवन में ऐसे ही क्षण आते हैं कि अगर उसके ऊपर गुरु कृपा नहीं है तो वह पतनोन्मुख हो जायेगा। मैंने अपने जीवन में ऐसे स्त्री-पुरुषों को देखा है कि जिनके जीवन में अगर निखिलेश्वरानंद जी नहीं आते तो वे पतनोन्मुख हो गये होते, नर्क की गर्त में चले गये होते, कहीं सड़ रहे होते। ऐसे ही क्षणों में रक्षा करती है बगलामुखी । सर्वदुष्टानां, सर्वशत्रुनां का कीलन, उच्चाटन, मारण एवं मोहन ब्रह्म विद्या बगलामुखी के द्वारा ही गुरु करते हैं। ब्रह्म विद्या वह है जो लाखों करोड़ों पीड़ित शोषित और कुण्ठित जीवों का पुनः उद्धार कर सके। चाहे माध्यम कुछ भी क्यों न हो? गुरु, गणेश, शिव, रुद्र, सूर्य, चन्द्र, अग्नि देव इत्यादि सभी कल्याणकारी एवं सौम्य माहेश्वरी बगलामुखी के कारण ही बने है। .

                         शिव शासनत: शिव शासनत:

महाकाल स्तोत्रम् ।।


            यह स्तोत्र महाकाल भैरव के नाम से तंत्र ग्रंथ में मिलता है। इस स्तोत्र को स्वयं भगवान महाकाल ने भगवती भैरवी के पूछने पर बतलाया था। भगवान महाकाल तथा उनके विभिन्न नामों का इसमें स्मरण करते हुए उन्हें नमन किया है। अंत में ॐ ह्रीं सच्चिदानन्दतेजसे स्वाहा । इस मंत्र का तथा सोऽहं हंसाय नमः इस मंत्र का स्वरूप भी व्यक्त किया है। इस स्तोत्र के पाठ से भगवान महाकाल के पूजन का फल प्राप्त होता है और यह साधकों को सुख प्रदान करने वाला है।

महाकाल स्तोत्रम्

ॐ महाकाल महाकाय, महाकाल जगत्पते । 
महाकाल महायोगिन्, महाकाल नमोऽस्तुते ।। 

महाकाल महादेव, महाकाल महाप्रभो । 
महाकाल महारुद्र, महाकाल नमोऽस्तुते ॥ 

महाकाल महाज्ञान, महाकाल तमोऽपहन् । 
महाकाल महाकाल, महाकाल नमोऽस्तुते ॥ 

भवाय च नमस्तुभ्यं, शर्वाय च नमो नमः । 
रुद्राय च नमस्तुभ्यं, पशूनां पतये नमः ॥ 

उग्राय च नमस्तुभ्यं, महादेवाय वै नमः । 
भीमाय च नमस्तुभ्यमीशानाय नमो नमः ॥ 

ईश्वराय नमस्तुभ्यं, तत्पुरुषाय वै नमः । 
सद्योजात नमस्तुभ्यं, शुक्लवर्ण नमो नमः ॥ 

अधः कालाग्नि रुद्राय, रुद्ररूपाय वै नमः । 
स्थित जुत्पत्ति-लयानां च हेतु-रूपाय वै नमः ॥ 

परमेश्वर-रूपस्त्वं नीलकण्ठ नमोऽस्तुते ।
पवनाय नमस्तुभ्यं, हुताशन नमोऽस्तुते ॥

सोमरूप नमस्तुभ्यं, सूर्य रूप नमोऽस्तुते ।
यजमान नमस्तुभ्यमाकाशाय नमो नमः ॥ 

सर्वरूप नमस्तुभ्यं, विश्वरूप नमोऽस्तुते । 
ब्रह्मरूप नमस्तुभ्यं, विष्णुरूप नमोऽस्तुते ॥ 

रुद्ररूप नमस्तुभ्यं, महाकाल नमोऽस्तुते ।
स्थावराय नमस्तुभ्यं, जङ्गमाय नमो नमः ॥ 

नम उभय-रूपाभ्यां, शाश्वताय नमो नमः । 
हुं हुङ्कार ! नमस्तुभ्यं, निष्कलाय नमो नमः ॥ 

अनाद्यन्त महाकाल, निर्गुणाय नमो नमः । 
सच्चिदानन्द-रूपाय, महाकालाय ते नमः ॥ 

प्रसीद मे नमो नित्यं, मेघवर्ण! नमोऽस्तुते । 
प्रसीद मे महेशान दिग्वासाय नमो नमः ॥ 

ॐ ह्रीं माया स्वरूपाय, सच्चिदानन्द- तेजसे । 
स्वाहा सम्पूर्णमन्त्राय, सोऽहं हंसाय ते नमः ॥ 

फलश्रुति --

इत्येवं देव-देवस्य, महाकालस्य भैरवि ! । 
कीर्तितं पूजनं सम्यक्, साधकानां सुखावहम् ॥

नित्य पूजन में पाठ करने योग्य गणपति व् सर्व देव स्मरण ।

इसके वाचिक पाठ करना चाहिए इससे जीवन में सकारात्मकता बढ़ता है।

इसको कंठश्थ कर लेना चाहिए ।

           ॥ गणपति स्मरण ॥

सुमुखश्चेकदंतश्च कपिलो गजकर्णक: । लम्बोदरश्च विकटो विघ्ननाशो विनायक: ॥
धुम्रकेतुर्गणाध्यक्षो भालचंद्रो गजानन: । द्वादशैतानि नामानि य: पठेच्छृणुयादपि ॥
विद्यारम्भे विवाहे च प्रवेशे निर्गमे तथा । संग्रामे संकटे चैव विघ्नस्तस्य न जायते ॥
शुक्लाम्बरधरं देवं शशिवर्णं चतुर्भुजं । प्रसन्नवदनं ध्यायेत सर्वविघ्नोपशांतये ॥
अभिप्सितार्थं सिद्धयर्थं पूजितो य: सुरासुरै: । सर्व विघ्नहरस्तस्मै: गणाधिपतये नम: ॥
सर्वमंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके । शरण्ये त्र्यम्बके गौरी नारायणी नमोSस्तु ते ॥
मंगलं भगवान विष्णु: मंगलं गरुणध्वज: । मंगलं पुण्डरीकाक्षं मंगलायतनो हरी: ॥
सर्वदा सर्व कार्येषु नास्ति तेषाममंगलं । येषां हृदिस्थो भगवान मंगलायतनो हरि: ॥
तदैव लग्नं सुदिनं तदैव ताराबलं चंद्रबलं तदैव विद्याबलं दैवबलं तदैव । तदैव लक्ष्मीपतेस्तेऽनङ्घ्रियुगस्मरामी ॥
लाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजय: । येषामिंदीवरश्यानो हृदयस्थो जनार्दन: ॥
यत्र योगेश्वर: कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धर: । तत्र श्रीर्विजयोभूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ॥
सर्वेस्वारम्भकार्येषु देवास्त्रिभुवनेश्वरा: । देवा: दिशंतु न: सिद्धिं ब्रह्मेशानमहेश्वरा: ॥
विनायकं गुरुं भानुं ब्रह्मविष्णुमहेश्वरान । सरस्वतीं प्रणौम्यादौ सर्वकार्यार्थसिद्धये ॥
विश्वेशं माधवं ढुण्डिं दण्डपाणिं च भैरवं । वंदे काशीं गुहां गंगां भवानीं मणिकर्णिकां ॥
वक्रतुण्ड महाकाय सूर्यकोटि समप्रभ: । निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्व कार्येषु सर्वदा ॥

ॐ सिद्धि बुद्धि शुभ लाभ सहिताय श्रीमन् महागणाधिपतये नम: ।
ॐ लक्ष्मी नारायणाभ्यां नम: । ॐ उमा महेश्वराभ्यां नम: ।
ॐ वाणी हिरण्यगर्भाभ्यां नम: । ॐ शचि पुरंदराभ्यां नम: ।
ॐ इष्ट देवताभ्यो नम: । ॐ कुल देवताभ्यो नम: ।
ॐ स्थान देवताभ्यो नम: । ॐ वास्तु देवताभ्यो नम: ।
ॐ ग्राम देवताभ्यो नम: । ॐ मातृपितृ चरणकमलेभ्यो नम: ।
ॐ सर्वेभ्यो देवेभ्यो नम: । ॐ सर्वेभ्यो देवे शक्तिभ्यो नम: ।
ॐ सर्वेभ्यो आदित्येभ्यो नम: । ॐ सर्वेभ्यो तिर्थेभ्यो नम: ।
ॐ सर्वेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो नम: ।  ॐ एतत्कर्म प्रधान देवताय नम: ।

सिंहासन बत्तीसी ।।

             अंग्रेजी केलेण्डर के हिसाब से समय को ईसा के जन्म से नापा जाता है अर्थात 2001 का तात्पर्य आज से 2000 वर्षे पूर्व ईसा का जन्म हुआ था। अब जिनकी बुद्धि अंग्रेजी केलेण्डर में अटक गई है उनके हिसाब से तो विश्व का इतिहास 2000 वर्ष पुराना है। कुछ थोड़े ज्यादा ज्ञानी हो गये वे ईसा के जन्म से सौ वर्ष पूर्व 200 वर्ष 500 वर्ष पूर्व के हिसाब से गणना करते हैं। वर्तमान भारतीय पद्धति के अनुसार विक्रम सम्वत् चलता है अर्थात विक्रमादित्य समय की पहचान बन गये हैं। वैसे विक्रमादित्य से पहले भी भारतीय समय अत्यंत ही विकसित रहा है विक्रमादित्य कई हुए हैं प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ राजवंश की परम्परा अनुसार विक्रमादित्य उज्जैयिनी के राजा हुए हैं उनके दरबार में सर्वप्रथम नौ रत्नों के रूप में एक से बढ़कर एक मनीषी प्रतिष्ठित रहे हैं। वे अत्यंत ही न्याय प्रिय राजा थे। महाकवि कालीदास उन्हीं के नौ रत्नों में से एक थे। राजा होना और वह भी उज्जैन का बस यही मेरे लिए महत्वपूर्ण है क्योंकि उज्जैन में साक्षात् महाकाल विराजमान हैं। 

                कालों से परे महाकाल। उज्जैन का आज भी यह रिवाज है कि अगर सिन्धिया परिवार का कोई वंशज उज्जैन आता है तो वह रात्रि में वहाँ निवास नहीं करता क्योंकि वहाँ के महाराजाधिराज सम्राट तो महाकाल ही हैं। पिछली कुछ शताब्दियों से उज्जैन सिंधिया राजवंश के अंतर्गत आता था। प्रत्येक राजवंश ने उज्जैन को पूर्ण सम्मान दिया है। किसी राजवंश में इतनी ताकत नहीं है कि वह महाकाल को चुनौती दे और जो चुनौती देगा उसका नाश तो निश्चित है, उसका निष्कासन तो निश्चित है। जो महाकाल के द्वारा शापित हो, गुरु के द्वारा निष्कासित हो वही अब गद्दी पर विराजमान है लोग उसी के चरण धोकर पीते हैं। उलट राज राजेश्वरी विद्या इस कलयुग में चल गयी है। 

          कहने का तात्पर्य यह है कि उज्जैन का शासक बनना महाकाल की कृपा के बिना सम्भव नहीं है। विक्रमादित्य उज्जैन के शासक थे। उन्हें वेताल सिद्धि थी वीरता और धर्म निरपेक्षता में उनका कोई सानी नहीं था। बचपन में वे गाय चराते थे गाय चराते चराते जब उनकी गाय एक टीले पर पहुँचती तो अचानक ही थनों से दुग्ध की धारा बहने लगती। बालक विक्रम इस टीले पर बैठ जाते और फिर राजा के समानं न्याय करने लगते। उनके हाव-भाव और भंगिमा किसी भी सम्राट से कम नहीं होती थी। इस टीले के नीचे ही गड़ा हुआ था अद्भुत सिंहासन बत्तीसी जिसमें बत्तीस प्रतिमाऐं अंकित थी। बत्तीस योगिनियों की प्रतिमाऐं। यह जादुई, चमत्कारी और पूर्ण तांत्रोक्त सिंहासन था। इस पर बैठते ही विक्रमादित्य शक्ति से सम्पुट हो जाते थे उनके न्याय एवं निर्णय का कोई सानी ही नहीं होता था। 

           बत्तीस योगनियाँ अर्थात बत्तीस मातृ शक्तियाँ सिंहासन को इस तरह से सम्हाली हुई थी जैसे कि हैदराबाद के निकट कृष्णा नदी के समीप बना श्री शैलम ज्योतिर्लिङ्ग। इस ज्योतिर्लिङ्ग की विशेषता यह है कि यहाँ पर शिवलिङ्ग का स्थान अलग है एवं माता पराम्बरा का मंदिर करीब, शिवलिङ्ग से तीन सौ फिट की दूरी पर स्थित है। प्रतिदिन शिवानुष्ठान के बाद शिवजी की बारात माता पराम्बरा के मंदिर में जाती हैं और फिर वे वहीं उनके साथ निवास करते हैं इसीलिए इसका नाम श्री शैलम पड़ा है। द्वादश ज्योतिर्लिङ्गों में एक ही जगह श्री शैलम में शिव और पराम्बरा एक साथ निवास करते हैं। शिव जाते हैं पराम्बरा के पास माता पराम्बरा का मंदिर अत्यंत ही मन को मोह लेने वाला है। हूबहु श्रीयंत्र के समान चौंसठ मातृका शक्तियाँ इस मंदिर के गुम्बज तक अंकित हैं। इतनी अद्भुत और चैतन्य मातृका शक्तियों के विग्रह हैं कि मैं देखता ही रह गया। अतुलनीय एवं दैवीय सौन्दर्य से युक्त आँखें ही नहीं हटतीं और बीच गर्भगृह में शिव और पराम्बरा निवास करते हैं। इसी से मिलता-जुलता सिंहासन बत्तीसी का भी निर्माण हुआ था। एक योगिनी शक्ति जब इतना प्रचण्ड कार्य कर सकती हैं, जीवन को बदलकर रख सकती है, एक योग से जीवन की धारा ही बदल जाती है तब आप सोचे कि अगर बत्तीस योगनियाँ शक्तियाँ एक साथ मिलकर अगर योग करेंगी तो परिणाम कितने चमत्कारिक होंगे। उस पर बैठा व्यक्ति कितना शक्तिशाली हो जायेगा। 

         विशुद्धानंद जी ने भी बाद में सिंहासन बत्तीसी से प्रेरणा लेकर अपने आश्रम में एक अद्भुत प्रस्तर के आसन की संरचना की थी। आज भी यह सिंहासन मौजूद है। इस पर बैठते ही मस्तिष्क अध्यात्म की दुनिया में प्रविष्ट हो जाता है। जितने भी ज्योतिर्लिङ्गों का निर्माण हुआ है वह ऐसे ही नहीं हो गया। शिव और पराम्बरा स्थापना के लिए जिस भुवन का निर्माण किया जाता है वह चौंसठ योगिनीयों की शक्तियों के योग का ही प्रतिफल होता है। जब तक चौंसठ मातृकाऐं शक्तियाँ एक स्थान पर योग नहीं करेंगी तब तक शिव स्थापना सम्भव ही नहीं है । .

अगर उचित वास्तु शास्त्र एवं उचित योगिनी शक्तियों के अभाव में कोई व्यक्ति मंदिर निर्माण, गृह निर्माण या फिर अपने व्यापार व्यवसाय के कक्ष इत्यादि में बैठता है तो उसे अत्यंत ही तकलीफें होती हैं,उसकी कुर्सी अभिशप्त हो जाती है। प्रधान मंत्रियों की सत्ता गिर जाती है, मुख्य मंत्री सड़कों पर घूमते हैं। यही रहस्य है सिंहासन बत्तीसी का कुर्सी या गद्दी इस पृथ्वी की सभी सभ्यताओं में मनुष्य को प्रचण्ड शक्ति प्रदान करती है। पदविहीन व्यक्ति की कोई पूछ नहीं है, उसका कोई प्रमाणीकरण नहीं है। गद्दी पूजी जाती है, गद्दी जीवित जागृत और चैतन्य होती है। वह लात मारकर गिरा देती है। किसी और को अपने ऊपर बिठा लेती है, गद्दी गई व्यक्ति का मान खत्म।अतः गद्दी की प्राण प्रतिष्ठा को स्वीकार करना ही होगा। 

           मनुष्य को बैठना आता है बस एकमात्र छोटी सी बैठने की विद्या ने सर्वशक्तिमान बना दिया अन्य कोई प्राणी बैठ ही नहीं पाता परन्तु मनुष्य घण्टों वर्षों बैठा रह सकता है। बड़े-बड़े योगी और सिद्ध भी अपने आसन, अपने कक्ष एवं अपनी कुर्सी पर किसी को बैठने नहीं देते क्योंकि वे गद्दी की महिमा जानते हैं। जो गद्दी पर बैठ गया उसके आगे तो सारा देश झुकेगा ही। भले ही वह मूर्खाधिराज क्यों न हो। किसमें इतनी ताकत है जो गद्दी की शक्ति को नकार सके। शक्तिहीन को भी शक्ति शाली बनाती है गद्दी और शक्तिशाली को शक्तिहीन बनाती है गद्दी । वैसे तो कुर्सी स्वयंभू प्रतीक है चौंसठ योगिनी शक्तियों का परन्तु अगर जानकार एवं सिद्धं व्यक्ति उचित तरीके से कुर्सी को प्राण प्रतिष्ठित कर लें।उसे चौंसठ योगिनी की शक्ति से सम्पुट कर ले तो उसे चमत्कारिक परिणाम तुरंत मिल जायेंगे। सिंहासन की अपनी मर्यादा है। तिब्बत के लामा जिस सिंहासन पर बैठते थे उसे कोई, स्पर्श नहीं कर सकता।उसके सामने प्रत्येक व्यक्ति को पहुँचकर सर्वप्रथम झुकना पड़ता है। कोई भी व्यक्ति पीठ दिखाकर प्रस्थान नहीं करता। वैसे भी मूर्तियों एवं मंदिरों से बाहर निकलते समय भक्तजनों को पीठ मूर्ति के सामने नहीं करनी चाहिए, न ही किसी गुरु के दरबार में पीठ दिखाकर बाहर जाना चाहिए अन्यथा अवमानना हो जायेगी और काम होते रुक जायेंगे।

             गुरु भी कुर्सी की मर्यादा के प्रति प्रतिबद्ध हैं। कुर्सी के नियमों की अवमानना नहीं करनी चाहिए जो कुर्सी जिस कार्य के लिए मिली है उस पर विराजमान हो वही कार्य सम्पादित करना चाहिए। आसन सिद्धि अति महत्वपूर्ण है। आप अपने व्यापार व्यवसाय या कार्य क्षेत्र में उपयोग आने वाली गद्दी को पूरा सम्मान दीजिए।उसकी मर्यादाओं का कठोरता के साथ पालन कीजिए।किसी अन्य की कुर्सी पर मत बैठिए। न ही किसी अन्य को अपनी कुर्सी पर बैठने दीजिए।कुर्सी की स्थापना अमृत सर्वार्थ सिद्धि योग में ही करनी चाहिए।कुर्सी इत्यादि में आध्यात्मिक दृष्टिकोण से धातु का इस्तेमाल नहीं होना चाहिए,न प्लास्टिक इत्यादि का।कुर्सियाँ बार-बार नहीं बदली जाती।कुर्सी बदलने से त्वरित परिणाम आते हैं।कुछ व्यापार व्यवसाय कुर्सी बदलने के कारण ठप्प हो जाते हैं।नई कुर्सी पर ऊटपटांग निर्णय हो जाते हैं लेने के देने पड़ जाते हैं। मैं ऐसे बहुत से सफल व्यक्तियों को जानता हूँ जो विगत चालीस वर्षों से एक ही कुर्सी पर बैठ रहे हैं, वे कुर्सी को माता की गोद के समान सम्मान देते हैं।वास्तव में कुर्सी माता की गोद ही है।माता की गोद ही पुत्र के लिए सुख प्राप्ति का सबसे उत्तम स्थान है।अन्यों की गोद सुख कम कष्ट ज्यादा देगी।कुर्सी को मातृ भाव से देखना चाहिए,उसका आदर और पूर्ण सम्मान करना चाहिए। 

          व्यापार व्यवसाय की सफलता हेतु अति उच्चकोटि का पारद श्रीयंत्र या फिर स्फटिक श्रीयंत्र गुरु के हाथों से प्राप्त कर अपने व्यापार कक्ष में अवश्य स्थापित करना चाहिए। पूजा कक्ष,व्यापार कक्ष हो,नौकरी का कक्ष हो सभी जगह श्री की उपस्थिति अनिवार्य है। बहुत से तांत्रिक प्रयोग होते हैं कुर्सियों पर।उल्लू की पूंछ अभिमंत्रित करके कुर्सी पर डाल दी जाती है। शाही का काँटा उच्चाटन मंत्र से प्राणप्रतिष्ठित कर कुर्सी में गाढ़ दिया जाता है बैठने वाले को घोर उच्चाटन हो जाता है।वह अपनी कुर्सी पर बैठ ही नहीं पाता है।तंत्र तो चलते ही रहते हैं जब मंदिर अपवित्र कर दिए जाते हैं तो फिर कुर्सी की क्या बात।कुर्सी छिनने से वही दुःख होता है जितना कि एक बालक को माता की गोद से विमुख होने पर होता है।आदमी तिलमिला कर रह जाता है। ईश्वर न करे किसी की गद्दी छिने।कुर्सी को भी उसके ऊपर बैठने वाले से उतना प्रेम होता है जितना कि माता को अपने बालक से। बस यही भाव कुर्सी और उस पर बैठने वाले दोनों को आनंदित करते हैं और उनके सम्बन्ध चिरस्थाई बनाये रखते हैं। कुर्सी को प्राण-प्रतिष्ठित करने की क्रिया,उसे सिद्ध करने की क्रिया फिर कभी आगे लिखूंगा अभी इतना ही काफी है.

                   शिव शासनत: शिव: शासनत

योनि कवचम् ।।


               आम के वृक्ष से जब फल टूटता है तो उस फल में स्थित बीज पुनः एक नये वृक्ष की संरचना कर देता है। वृक्ष यह भूल जाता है कि सामने खड़ा वृक्ष कभी मेरा ही अंश था, मेरे अंदर ही पला बड़ा था एवं वह उसे अपने से अलग समझने लगता है परन्तु वास्तविकता यह नहीं है, वास्तविकता तो यह है कि सभी एक दूसरे में से उत्पन्न हुए हैं। मूल संरचना कभी नहीं बदलती डी.एन.ए. कभी नहीं बदलता बस रंग रूप थोड़ा बहुत बदल जाता है, यही माया का खेल है। मूल संरचना क्यों नहीं बदलती? क्योंकि वह शिव के द्वारा निर्मित है। मूल संरचना में तो इतनी विलक्षणता है कि मृत्यु कब होगी ? भाग्योदय कब होगा? कितनी पीढ़ी बाद मूल संरचना में कुछ विलक्षण उत्पन्न होगा इत्यादि मूल संरचना में यह सब कुछ पूर्व नियोजित होता है। कब जीव को स्थानांतरित होना है? कितने हजार वर्ष बाद रूप परिवर्तन करना है? कितने लाख वर्ष बाद क्या खाना है? क्या पीना है? किस वातावरण में ढलना है ? यह सब कुछ मूल संरचना में अर्थात डी.एन.ए. में अनंत काल पहले शिव ने लिख दिया है। आज अगर जीव पंचभूतीय है, प्राण वायु ग्रहण कर रहा है तो हो सकता है कि कुछ लाख वर्ष बाद जीव अदृश्य होना सीख जाये एवं प्राण वायु की जगह किसी अन्य प्रकार की वायु को ग्रहण करना सीख जाये। आज जो जीव स्थूल भोजन पर निर्भर हैं कल वह सूर्य की ऊर्जा का भक्षण करता हुआ आज के मुकाबले ज्यादा शक्तिशाली हो जाये, ऐसा हुआ है और ऐसा होता रहेगा। मूल कोशिका के कवच के माध्यम से ही जीव पूर्ण रूप से कवचित है, योनि कवच सबसे सूक्ष्मतम और रहस्मय कवच है एवं इस कवच का भेदन, उत्कीलन, विखण्डन शिव के अलाक कोई नहीं कर सकता। साधकों को इस कवच का पाठ अवश्य करना चाहिए।परम् रहस्यमयी कवच है ये।शाक्त मार्गियों के लिए तो वरदान है, देवी भक्तों के लिए भी अत्यंत कल्याणमय है।

योनि कवचम्

देव्युवाचा

भगवन् श्रोतुमिच्छामि कवचं परमाद्भुतम्।
इदानीं देवदेवेश कवचं सर्वसिद्धिदम् ॥

महादेव उवाच

शृणु पार्वति! वक्ष्यामि अतिगुह्यतमं प्रिये ।यस्मै कस्मै न दातव्यं दातव्यं निष्फलं भवेत् ॥

अस्य कुलटाच्छेन्दा राजविघ्नोपातविनाशे श्रीयोनिकवचस्य गुप्तऋषिः विनियोगः ।

ह्रीं योनिमें सदा पातु स्वाहा विघ्नविनाशिनी ।
शत्रुनाशात्मिका योनिः सदा मां रक्ष सागरे ।।

ब्रह्मात्मिका महायोनिः सर्वान् प्ररक्षतु ।
राजद्वारे महाघोरे क्रीं योनिः सर्वदावतु ॥

हुमात्मिका सदा देवी योनिरूपा जगन्मयी ।
सर्वाङ्गं रक्ष मां नित्यं सभायां राजवेश्मनि ॥

वेदात्मिका सदा योनिर्वेदरूपा सरस्वती ।
कीर्त्ति श्रीं कान्तिमारोग्यं पुत्रपौत्रादिकं तथा ॥

रक्ष रक्ष महायोने सर्वासिद्धि प्रदायिनी।
राजयोगात्मिका योनिः सर्वत्र मां सदावतु ॥

इति ते कथितं देवि कवचं सर्वासिद्धिदम् ।
त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नित्यं राजोपद्रवनाशकृत् ॥

सभायां वाक्पतिश्चैव राजवेश्मनि राजवत् ।
सर्वत्र जयमाप्नोति कवचस्य जपेन हि ॥

श्रीयोन्याः सङ्गमे देवीं पठेदेनमनन्यधीः ।
स एव सर्वसिद्धीशो नात्र कार्या विचारणा ॥

मातृकाक्षरसंपुटं कृत्वा यदि पठेन्नरः ।
भुङ्गक्ते च विपुलान् भोगान् दुर्गया सह मोदते ॥

इति गुह्यतमं देवि सर्वधर्म्मोत्तमोत्तमम् ।
भूर्जे वा ताड़पत्रे वा लिखित्वा धारयेद् यदि ॥

हरिचन्दनमिश्रेण रोचना-कुङ्कमेन च ।
शिरवायामथवा कण्ठे सोऽपीश्वरो न संशयः ॥

शरत्काले महाष्टम्यां नवम्यां कुलसुन्दरि ।
पूजाकाले पठेदेनं जयी नित्यं न संशयः ॥

॥ इति शक्ति कागमसर्वस्वे हरगौरीसंवादे श्रीयोनिकवचं समाप्तम् ॥

     
                शिव शासनत: शिव शासनत:

साधना रहस्य् ।।

         पद, पादप, प्राप्ति, पुष्प, पदम, पंकज इत्यादि के मूल में ही तो साधना है। पद क्या है? जिस पर आप विराजमान हैं या जिस स्थिति में आप जी रहे हैं वही पद है। अगर आप साधनाओं में लीन हैं तो आप साधक के पद पर हैं। सबसे श्रेष्ठ पद है यह कभी भी न खत्म होने वाला महान पद। ईश्वर के द्वारा रचा हुआ पद। जीवन में अनेकों पद आते जाते रहेंगे पर साधक का पद हर क्षण, हर योनि में, हर उम्र में गतिमान रहता है और गतिमान रहना चाहिए। कुछ अच्छे कर्म होंगे, कुछ सत्य होगा, सही दृष्टिकोण होगा, गुरुओं का आशीर्वाद होगा, जुझारूपन होगा और आगे बढ़ने की इच्छाशक्ति होगी तो फिर पद चलकर आयेगा। यही विधान उचित है कि पद चलकर आये। पद प्राप्ति के लिए पद के पीछे दौड़ना उचित नहीं है। पद आपके लिए बने यही साधक के लिए उचित है अन्यथा पद जी का जंजाल बन जायेगा। समस्या ही समस्या खड़ी कर देगा पद की खींचतान से जीवन की साधनात्मक लय खण्डित हो जायेगी, प्रदूषित हो जायेगी। एक पद जाता है तो दूसरा पद प्राप्त होता है। एक ही पद से कब तक चिपके रहोगे। गुरु दीक्षा देने का यही तात्पर्य है कि आपको साधक का पद प्रदान कर दिया गया है। एक ऐसा मार्ग जिस पर अनेकों घाट आयेंगे।

         साधक ही गुरु पद पर विराजमान होता है। पद पर विराजमान होना आसान है परन्तु पद की मर्यादा निभाना दूसरी प्रकार की साधना है। यह साधना पद प्राप्ति से पहले वाली स्थिति से भी ज्यादा कठिन है। पद की अपनी मर्यादा है, अपनी सीमाऐं हैं। पद कभी-कभी साधक के लिए बंधन भी बन जाता है इसलिए साधक को पद के मोह में नहीं उलझना चाहिए। आज गुरु हो तो कल सद्गुरु का पद भी प्राप्त हो सकता है। कुलगुरु भी बन सकते हो। जगद्गुरु एवं परमेष्ठि गुरु के पद पर भी आप विराजमान हो सकते हैं। साधना प्रारम्भ की है तो फिर निरन्तरता होनी चाहिए। एक दिन गुरु पदों से ऊपर उठकर गुरु तत्व के रूप में भी क्रियाशील हो सकते हैं और अंत में शिवत्व को प्राप्त करते हुए शिव में भी विलीन हो सकते हैं। आध्यात्मिक साधक की यात्रा में इन सब पदों का आना निश्चित है परन्तु प्रत्येक पद पर साधना तो करनी ही पड़ेगी। सभी योनियों के पास मात्र एक ही कार्य है और वह है साधना का कार्य हँसकर करो, रोकर करो, अवचेतन में करो साधना करनी पड़ेगी। साधना की समग्रता में भौतिक, अगोचर, दैहिक, दैविक एवं सूक्ष्म तत्व सम्बन्धित सभी प्रकार की साधनात्मक स्थितियाँ आती हैं। पद स्थाई है, पद पर विराजमान होने वाले सदैव बदलते रहते हैं। कैसे बदल जाते हैं? यह सृष्टि का नियम है। चाहकर भी आप पद में लिप्त नहीं हो सकते। 

        आज शरीर मिला है, युवावस्था मिली है हम लाख जतन कर लें एक दिन सब स्वतः ही प्रस्थान कर लेंगें। एक मनवन्तर में तो ब्रह्मा का पद भी बदल जाता है। इन्द्र का पद भी बदलता रहता है। शक्ति केवल पद में होती है। व्यक्ति केवल पद पर ही प्रतिष्ठित होता है। द्रोण सर्वप्रथम एक गरीब ब्राह्मण थे परन्तु जैसे ही गुरु पद पर विराजमान हुए वे पाण्डु कुल के राजगुरु बन गये। राजगुरु के के कारण वे मर्यादाओं की सीमा में बँध गये और न चाहते हुए भी एकलव्य से अंगूठा माँग बैठे उसकी साधना खण्डित कर दी। राजगुरु के रूप में उन्हें अर्जुन को श्रेष्ठ धनुर्धर के रूप में देखना था। राजगुरु की मर्यादा अनुसार वे राज परिवार के अलावा किसी अन्य को शिक्षा-दीक्षा नहीं प्रदान कर सकते थे। राजगुरु के पद की मर्यादा ने ही उन्हें कुरुक्षेत्र में कौरवों की तरफ से लड़ने को मजबूर किया। जिस पद पर बैठकर उन्होंने प्राप्ति सम्भव की थी उसकी मर्यादा तो निभानी ही पड़ती है। वे सिर्फ राजगुरु बनकर ही रह गये भीष्म भी पद से चिपके हुए थे। आँखों के सामने अपनी कुलवधू का चीर हरण देखना पड़ा। इससे बड़ा विष क्या हो सकता है? गलती तो उनसे भी हुई। अपने अंत समय में उन्हें तीरों की शैय्या पर लेटना पड़ा इसीलिए पद में लिप्तता साधक के लिए उचित नहीं है। पद आते जाते रहेंगे साधक को तो केवल साधनाऐं परिष्कृत करते रहना चाहिए। 

        कृष्ण महाभारत के युद्ध में अर्जुन के सारथी हैं उनकी भी अपनी साधना है। साधना तो नारायण स्वरूप में उन्होंने भी की है। बिना साधना के प्राप्ति सम्भव ही नहीं है। सुदर्शन चक्र प्राप्त करने के लिए भगवान विष्णु ने साम्बसदाशिव की घोर उपासना शुरू कर दी वे प्रतिदिन 108 दिव्य ब्रह्म कमलों से भगवान शिव की उपासना करते थे। एक दिन शिव जी ने उनकी परीक्षा लेने के लिए एक कमल कम कर दिया। साधना काल में अचानक कमल के कम हो जाने पर विष्णु जी विचलित हो गये। अंत में उन्होंने अपनी एक आँख निकालकर कमल के रूप में शिव जी को अर्पित कर दी। वे कमलनयन भी कहलाते हैं। शिव जी अति प्रसन्न हुए और दूसरे ही क्षण भगवान विष्णु पुण्डरीकाक्ष के नाम से पहचाने जाने लगे। .

मंगलम् भगवान विष्णुः मंगलम् गरुड़ ध्वजः । 
मंगलम् पुण्डरी काक्षः मंगलाय तन्नोहरिः ॥

अर्थात मंगल तभी है, कुशलता तभी है जब आप साधना में सफल होंगे अन्यथा अमंगल ही अमंगल है। मंगलमय जीवन का प्रतीक ही श्री हरि हैं। उनसे श्रेष्ठ इस ब्रह्माण्ड में और कौन साधक है। यही श्री हरि महाभारत के युद्ध में सब कुछ साध रहे हैं तभी तो सारथी हैं अर्जुन के महाभारत का युद्ध कृष्ण अवतार की साधना है। साधना अधर्म के नाश की और धर्म की स्थापना की। स्थापित वही होगा जो कि सफल साधक होगा और जिसकी साधना में पारंगतता होगी। सबसे पहले कर्म के सिद्धांत को समझते हैं। कर्म ही साधना है। प्रत्येक योनि अपनी विशेषतानुसार कर्म सम्पादित करती है। साधक सबसे पहले यह समझ ले कि अकर्मण्यता नाम की कोई वस्तु होती ही नहीं है। यह मिथ्या शब्द है। शब्द कोष के अधिकांशतः शब्द मनुष्यों के द्वारा निर्मित हैं। अर्थ का अनर्थ निकालते हैं। अगर कोई व्यक्ति बिना हाथ पाँव हिलाये मात्र दूरदर्शन देख रहा है तो यह भी एक कर्म है। एक प्रकार की मानसिक साधना। इसका फल भी निश्चित मिलेगा। किसी भी कर्म का फल तो मिलता ही है। जैसा कर्म होगा वैसा ही फल होगा। जिस क्षण कर्म प्रारम्भ होता है या फिर जिस क्षण कर्म का विचार मात्र ही उदित होता है उसी क्षण फल का निर्माण भी प्रारम्भ हो जाता है। 

           जैसे-जैसे कर्म गतिमान होता है वैसे-वैसे फल भी मूर्त रूप लेता जाता है और जिस क्षण कर्म चर्मोत्कर्ष पर पहुँचता है साधक को फल प्राप्ति हो जाती है। कर्म निरंतरता लिए हुए है। पहले माऊँट एवरेस्ट पर चढ़ना पड़ेगा उसी क्षण सफलता की विशेष अनुभूति प्राप्त होगी इसके पश्चात वहाँ से नीचे उतरने का कर्म भी प्रारम्भ हो जायेगा। यह कर्म भी साधना के अंतर्गत ही आता है। इसकी पूर्णता के बाद फूलों के हार की भी प्राप्ति हो जायेगी। पुष्प प्राप्ति सफलता का द्योतक है। स्थापित होने के लक्षण हैं। स्थापित होने के पश्चात साधनात्मक स्थिति पुनः प्रारम्भ हो जायेगी किसी और स्वरूप में। आज से 20 वर्ष पूर्व महाजन एक गद्दी पीछे लगाकर 12-12 घण्टे अपने स्थान पर बैठे-बैठे व्यवसाय करते थे यह स्थापित होने की प्रक्रिया है एक विशेष आसन में । बारह-बारह घण्टे बैठना अपने आपमें जटिल साधना है। इसका फल भी इन्हें प्राप्त हुआ है। धन लक्ष्मी व्यापार रूप में उन्हें सिद्ध हुई परन्तु पेट भी गद्दी के बाराबर आगे की तरफ निकल आया। जैसी साधना, जैसा स्थापत्य वैसा ही फल। यही सृष्टि का विधान है। 

         मात्र मंत्र जाप करना ही आध्यात्मिक साधना के अंतर्गत नहीं आता। कृष्ण ने अपने जीवन में अनेकों साधनाऐं सम्पन्न कीं, अपने जीवन का काफी लम्बा हिस्सा युद्ध के मैदान में व्यतीत किया। मथुरा से द्वारका तक अपना राज्य स्थापित किया। विवाह भी रचाये, गोपियों संग रास लीला भी की, प्रजा की समस्याऐं भी सुलझाई इत्यादि इत्यादि और अंत में युद्ध के मैदान में गीता का प्रादुर्भाव भी किया। आध्यात्मिक साधक होने का तात्पर्य यह नहीं है कि जीवन की अन्य जिम्मेदारियों और भौतिक साधनाओं का परित्याग कर दिया जाय। यह सब साथ-साथ ही चलता है इसीलिए तो वे सारथी बने। एक तरफ युद्ध का संचालन, दूसरी तरफ अध्यात्म, तीसरी तरफ अर्जुन की रक्षा, चौथी तरफ धर्म की स्थापना और पाँचवी तरफ अदृश्य रूप से सभी अधर्मियों का अपनी शक्ति के द्वारा विनाश पाण्डव तो मात्र माध्यम हैं महाभारत रूपी साधना के आयोजक कोई भी हो, आयोजन कैसा भी हो, भाग लेने वाले कौन हैं? यह सब तो कृष्ण की माया है। जगद् गुरु की माया है। संचालक कौन है? यही साधक की दृष्टि को पहचानना चाहिये। एक दिन साधक को भी संचालक बनना पड़ेगा।

           साधना के पथ में साधन अति आवश्यक है। मनुष्य माध्यम है देवताओं की साधना में एवं देवता माध्यम है आदि शक्तियों की साधना में ठीक इसी प्रकार पशु माध्यम है मनुष्यों की साधना में आर्य इसलिए सफल हुए कि उन्होंने सर्वप्रथम गाय को साधा, वनस्पतियों को साधा, अश्व को साधा, तत्वों को साधा इत्यादि। उनके पास सर्वप्रथम लोहे के हथियार थे जो कि अन्य सभ्यताओं के पास नहीं थे। जो सभ्यता या मानव वर्ग या साधक साधने की कला में निपुण हो जाता है वही श्रेष्ठ साधक कहलाता है। कृष्ण ने अर्जुन को साधा। अर्जुन ने तो हथियार ही रख दिये थे युद्ध भूमि में कृष्ण को अपना लक्ष्य खण्डित होता हुआ दिखाई दिया। अब तक जो कृष्ण अपने अवतारी स्वरूप को पर्दानशीन रखे हुए थे आखिरकार उसे भी अर्जुन को दिखाना पड़ा। साधक को अपना लक्ष्य और साधना गुप्त ही रखनी चाहिए। कृष्ण ने अर्जुन के अलावा किसी और को अपना स्वरूप नहीं दिखाया। औरों के लिए अपने विराट स्वरूप को पर्दानशीन ही रखा। प्रदर्शन साधक के लिए सर्वथा निषिद्ध है। .

प्रदर्शन अपवाद स्वरूप ही करना चाहिये। प्रदर्शन प्रतिबंधित है शिव द्वारा इसीलिए इस ब्रह्माण्ड में फल की व्यवस्था सर्वत्र विद्यमान है। एक साधक को दूसरे साधक की साधना का ऋण अवश्य ही चुकाना चाहिये । ऋण चुकाने का श्रेष्ठ तरीका उसके स्थापत्य की स्वीकारोक्ति एवं प्रेममय व्यवहार है। आध्यात्मिक साधनायें सम्पन्न करने के लिए साधक को हृदय प्रधान होना पड़ेगा। मुख्य रूप से सभी साधनाऐं हृदय प्रधान ही होती हैं। भौतिक उपलब्धियाँ भी हृदय प्रधान व्यक्तियों ने ही सम्पन्न की हैं। हृदय प्रधान व्यक्ति ही एकाग्रचित्त हो सकता है। बंधनमुक्त होकर सोच सकता है एवं अपनी शक्ति को उचित तरीके से संचालित कर सकता है। श्री यंत्र क्या है? मात्र महालक्ष्मी रूपी आदि शक्ति के दिव्य संचालन की व्यवस्था का प्रतिनिधि इस यंत्र में कहीं पर भी शक्ति का अपव्यय नहीं है। शक्ति कहीं पर भी व्यर्थ में व्यय नहीं हो रही है। जीवन की दीर्घजीविता शक्ति के संचालन पर निर्भर करती है। इस यंत्र में सभी तरफ संधि स्थल है। अवरोध कहीं भी दिखाई नहीं पड़ रहा है। 

       साधक के साथ दिक्कत क्या है? सभी साधक साधनाओं में अवरोधित क्यों हो जाते हैं? इसका उत्तर श्री यंत्र देता है। प्राप्ति महालक्ष्मी का विषय है। साधक तो बस प्राप्ति ही चाहता है। चाहे वह मोक्ष हो या फिर अप्सरा आप सारा दिन या महीना भर मेहनत करके कुछ धन प्राप्त करते हैं जो धन कम से कम एक महीना चलना चाहिये वह तीन दिन में खत्म हो जाता है। तीस दिन की मेहनत के बाद प्राप्त तनख्वाह या फल क्यों तीन दिन में खत्म हो गया? क्यों यह तीस दिन तक नहीं चला? क्या ऐसा कोई विधान है जिसके द्वारा यह तीन महीने या तीन वर्ष तक अक्षय बना रह सके। प्रतिफल को अक्षय कैसे बनायें? यही तो सभी लोगों की समस्या है। प्राप्ति हो रही है और न चाहते हुए भी आँखों के सामने से धन जा रहा है। तीस लाख रुपये एक व्यक्ति सारा जीवन मेहनत करने के बाद जोड़ पाता है और कुछ ही क्षणों में उसे वह न चाहते हुए भी हृदय के चिकित्सक को भेंट कर देने पड़ते हैं। एक भी ऐसा व्यक्ति बता दें जो हृदय की शल्य चिकित्सा चाहता हो परन्तु अब तो करवानी ही पड़ रही है। फल को अक्षय बनाने की कला साधक को सीखनी ही पड़ेगी। सारे छिद्रों को जो उसने स्वयं बनाये हैं बंद करने ही पड़ेंगे। समग्रता के साथ व्यवस्था समझनी ही पड़ेगी। स्वयं को मर्यादित करना ही पड़ेगा अन्यथा अंत में कुछ भी हाथ नहीं लगेगा। भौतिक साधकों की यही समस्या है।

           मनुष्य के साथ एक विलक्षण प्रतिभा है शक्ति संग्रहित करने की विभिन्न साधनाओं के द्वारा वह नाना प्रकार की वस्तुओं को भोज्य के रूप में इस्तेमाल कर सकता है। उसमें असीम क्षमता है भोग करने की। ध्यान रहे भोग के कारण जो प्रतिफल उत्पन्न होता है उसमें काफी कुछ स्वयं के शरीर से विस्थापित हो जाता है। भोग की क्रिया बल को निष्कासित करती जाती है। इसीलिए भोग मार्ग पर चले साधक अतिशीघ्र ही बलहीन हो जाते हैं। इस जग में सभी कृषक हैं। खेती करना सभी का कार्य है परन्तु बीज कहीं और से आते हैं। आप अपने मस्तिष्क में दुख के बीज, विषाद के बीज और दरिद्रता के बीज बोओगे तो इन्हीं की फसल उगेगी, यही काटना पड़ेगा। जाने अनजाने में लोग रोते रहते हैं, अपने भाग्य को कोसते रहते हैं परन्तु बीजों को नहीं बदलते हैं। इतने कमजोर हो गये हैं कि उन्हें खुद ही नहीं मालूम होता कि उनका मस्तिष्क किन-किन नकारात्मक बीजों के लिए उपजाऊ भूमि बन गया है। दुर्गन्ध रोपोगे तो सुगन्ध कहाँ से आयेगी। क्रोध रोपोगे तो शांति नहीं उत्पन्न होगी। ऐसा ही होता है अधिकांशतः मनुष्यों के वंश वृक्षों में अनेकों प्रकार की समस्याऐं, रोग और नकारात्मक शक्तियों को वे रोप लेते हैं अपने अंदर और पीढ़ी दर पीढ़ी अभिशप्त जीवन व्यतीत करते हैं। उन्हें केवल फल ही दिखाई देता है परन्तु जड़ बीज और मूल तक तो उनकी दृष्टि ही नहीं पहुँचती है। .

         इस ब्रह्माण्ड में सारा खेल अदृश्य शक्तियाँ रचती हैं। अदृश्य शक्तियों के अंतर्गत देवता, गंधर्व, किनर, प्रेत, ब्रह्मराक्षस, अप्सरायें, योगनियाँ इत्यादि-इत्यादि जैसे अनेकों वर्ग हैं। ये सबके सब मनुष्य के इर्द-गिर्द विद्यमान रहते हैं। इन्हीं के कारण जीवन सुखी और दुखी होता रहता है। मनुष्य के प्रत्येक कर्म में इनका अंश निश्चित है। इनके स्थापन और विस्थापन की प्रक्रिया एक चेतनाशील व्यक्ति को अवश्य समझनी चाहिए। एक स्त्री का विवाह अत्यंत ही धूमधाम और रजामंदी से एक पुरुष के साथ होता है। कुछ महीने पश्चात स्त्री मायके में जाकर रहने लगती है बिना किसी कारणवश उसका मन ही पति के पास लौटने का नहीं होता। ऐसा क्यों हो रहा है? जब कुछ भी समझ में नहीं आता है तो लोग कह देते हैं उसका दिमाग खराब है। किसी स्त्री विशेष या पुरुष विशेष के मस्तिष्क में उच्चाटन की क्रिया कैसे हुई? बस यहीं पर आप अदृश्य योनियों की गति को पकड़ सकते हैं। कौन सी वह ताकत है जो कि मनुष्य को माध्यम बनाकर अपना स्वार्थ सिद्ध कर रही है और उसे किस प्रकार से निष्कासित किया जाय? यही कार्य गुरु सम्पन्न करते हैं।

        एक व्यक्ति जो कि आपके प्रति अत्यंत ही अनुराग रखता हो कुछ दिनों बाद आपका सबसे बड़ा शत्रु हो जाता है। अकारण ही ऐसा क्यों हुआ? इसके पीछे क्या वास्तविकता है? साधक को यह निश्चित समझना चाहिए। यही अद्वैत है। अगर समस्या का केन्द्र द्वैत हो तो फिर इस संसार में कोई दुखी ही न हो। द्वैत केन्द्र से तो मनुष्य अच्छी तरह निपटना जानता है परन्तु अद्वैत स्थिति एक आम व्यक्ति के वश की बात नहीं है। राजा से रंक और रंक से राजा, विफलता से सफलता पदहीनता से पद प्राप्ति, दरिद्रता से वैभव इत्यादि इत्यादि सभी परिस्थितियों के केन्द्र अद्वैत ही है अर्थात अगोचर और पंचेन्द्रियों के द्वारा न पकड़ में आने वाली स्थिति। आध्यात्मिक साधनायें इसीलिए आवश्यक हैं। आध्यात्मिक साधना शून्य से उत्पन्न करने की कला है। अद्वैत में तो सब कुछ विद्यमान है। दिक्कत बस उसे गोचर बनाने की है। इसी प्रक्रिया के लिए सम्पन्न किया गया कर्म साधना है। यही क्रिया योग है। जीवन को पवित्र, ऊर्ध्वगामी एवं सत्मार्ग पर चलाने की क्रिया । इसे ही कहते हैं साधना। वह साधना जिससे कि प्राप्त होने वाला अक्षय फल एक जन्म तो क्या कई जन्मों तक शक्ति प्रदान करता रहेगा। इसके मूल में जागृत हृदयपक्ष है, जागृत हृदय पक्ष में ही प्रेम की खेती होती है। यहीं पर गुलाब के फूल पल्लवित होते हैं, यहीं पर न खत्म होने वाली पद प्रतिष्ठा एवं प्राप्ति होती है। यहीं पर पद्म पर विराजमान महालक्ष्मी के दर्शन होते हैं। जिसने इसे समझ लिया, जी लिया, कर्मों को सम्पादित कर लिया वही निपुर्ण साधक कहलायेगा। उसी के आगे श्री शब्द शोभायमान हो गये। अंत में मैं कहता हूँ कि समझ-समझ के समझना भी एक समझ है और समझ समझ के भी जो न समझे मेरी समझ में वो नासमझ है। .

                        शिव शासनत: शिव शासनत:

संस्कृत शिक्षा ।।

यही महेश्वर सूत्र है, या इसे पाणीनि के सूत्र के नाम से भी जानते हैं यही संस्कृत व्याकरण का मूल भी है ।
व्याकरण के सभी सूत्र महादेव की डमरू से फूटे हैं. वेद पहले से थे लेकिन उनको समझने के लिए तपस्या की दृष्टि चाहिए थी. घोर तप करके वेद देवता को प्रसन्न करना होता था तब वह अपना ज्ञान साधक के मन में प्रविष्ट कराते थे.

साधना और तपस्या का यह कार्य सरल नहीं था. इसीलिए वेदपाठी ब्राह्मण ऋषिगण या साधु-महात्मा ही होते थे. वेदों के ज्ञान के सार को सरल रूप में आम लोगों के लिए उपलब्ध कराने के लिए एक माध्यम की आवश्यकता थी.

महादेव के डमरू से फूटे चार ध्वनि अक्षरों की साधना करके पाणिनी जिन्हें वेद का अंशावतार माना जाता है, ने संस्कृत के सभी सूत्रों की रचना की और संस्कृत के सबसे बड़े ज्ञानी की उपाधि पाई. महादेव की कृपा से कैसे हुआ यह सब इसकी कथा सुनते हैं.

एक बार ऋषियों ने सूतजी से पूछा- भगवन! तीर्थों का दर्शन, दान, पूजा और व्रत-उपवास आदि में सबसे उत्तम धर्म साधन क्या है जिसका पालन करके मनुष्य इस भवसागर को सरलता से पार कर ले?

सूतजी बोले– ऋषियों आपने उत्तम प्रश्न किया है. इस संदर्भ में एक कथा सुनाता हूं. ध्यान से सुनो और समझो.

साम ऋषि के सबसे बड़े पुत्र का नाम पाणिनि था. पाणिनी मन लगाकर विद्या अभ्यास करते थे. ज्ञान प्राप्ति के हर संभव प्रयास में लगे रहते. उनमें सबसे बड़ा ज्ञानी बनने की धुन सवार हो गई पर उस समय पृथ्वी अद्वितीय विद्वानों से भरी थी.

ईश्वर की लीला देखिए. एक दिन अचानक पाणिनि को दैवयोग से यह आभास हुआ कि उनमें कुछ शक्ति ऐसी आ गई है कि वह कुछ असाधारण कर सकते हैं.

पाणिनि के पास ज्ञान साधारण ही था परंतु परमात्मा को जब कोई खेल रचना होता है तो वह कुछ न कुछ ऐसा कराते ही हैं जो अप्रत्याशित हो.

भगवान भोलेनाथ की माया ऐसी हुई कि पाणिनी ने अपनी बुद्धि जांचने के लिए सभी विद्वानों को शास्त्रार्थ की चुनौती दे दी. जिसे अभी ठीक से ज्ञान नहीं हुआ था उसने विद्वानों को शास्त्रार्थ की चुनौती दे दी

बात इतनी ही नहीं थी. अज्ञानता में पाणिनी ने सबसे पहले चुनौती दी भी तो किसे?
पणिनि ने कणाद ऋषि को ही शास्त्रार्थ की पहली चुनौती दे दी. कणाद उस समय के श्रेष्ठ विद्वानों में थे. उनके ज्ञान का सम्मान स्वयं वेद करते थे.

कणाद दिव्यदृष्टा थे. वह सब समझ गए. वह जानते थे कि पणिनी विलक्षण हैं किंतु उन्हें मिथ्या अभिमान हो गया है. कणाद ने पाणिनी की आंखें खोलने का निश्चय किया.

पाणिनी उनके पास शास्त्रार्थ के लिए आए तो कणाद ने बड़े आदर से स्वागत किया.

उन्होंने पाणिनी से कहा- पाणिनी पहले मेरे शिष्यों से ही शास्त्रार्थ कर लो. यदि तुम उन्हें पराजित कर सको तो फिर मैं तुमसे शास्त्रार्थ करने को सहर्ष तैयार हूं.

पाणनि का कणाद के शिष्यों के साथ शास्त्रार्थ आरंभ हुआ परंतु शीघ्र ही कणाद के शास्त्रज्ञ शिष्यों से वह पराजित हो गए. उन्हें अपनी क्षमता का बोध हो चुका था. वह लज्जित होकर उस क्षेत्र से निकले.

लज्जावश वह अपने घर भी नहीं लौट सकते थे. इसलिए तीर्थयात्रा के लिए चले गए.

सभी तीर्थों में स्नान तथा देवता-पितरों का तर्पण कर चुकने के बाद भी मन शांत न हुआ. पाणिनी के समक्ष जीवन आशाहीन लग रहा था.

उन्हें जगत के गुरू महादेव को प्रसन्नकर ज्ञान प्राप्त करने की सूझी तो केदारक्षेत्र में रहकर भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए तप करने लगे.

पाणिनी का तप धीरे-धीरे कठोर होता जा रहा था. पहले तो वह पूरी तरह से वृक्ष के पत्तों के आहार पर निर्भर रहे. सात दिनों बाद एकबार जल ग्रहण करते थे.

इसके बाद दसवें दिन केवल जल ग्रहण करने. बाद में उन्होंने जल भी त्याग दिया और दस दिनों तक केवल वायु के ही आहार पर निर्भर रहकर भगवान शिव का ध्यान करते रहे.

इस प्रकार अठ्ठाइस दिन बीत गये. पाणिनी की कठोर तपस्या निरंतर चल रही थी. पाणिनि की प्रतिज्ञा उनकी तपश्चर्या में दीख रही थी. अंतत: शीघ्र प्रसन्न होने वाले औघड़ दानी महादेव ने प्रकट होकर उनसे वर मांगने को कहा.

भगवान् शिव की स्तुति करने लगे- महान रुद को नमस्कार है. सर्वेश्वर सर्वहितकारी भगवान् को नमस्कार है. विजय एवं विद्या प्रदान करनेवाले भगवान महादेव को नमस्कार है. देवेश! मुझे मूल विद्या एवं परम शास्त्रज्ञान प्रदान करने की कृपा करें.

सूत जी बोले– हे ऋषिगणों, महादेवजी ने प्रसन्न होकर अपने डमरू से ध्वनि निकाली और उससे निकले ‘अ इ उ ण’ जैसे मंगलकारी वर्ण और व्याकरण सूत्र प्रदान किया.

शिवजी बोले- पाणिनी! मैंने जो प्रदान किया उसे सर्वोत्तम तीर्थ समझना. आत्मज्ञान से बड़ा कोई तीर्थ नहीं. बिना ज्ञान प्राप्त किए तीर्थ दर्शन का पूर्ण लाभ नहीं होता. यह महान-ज्ञानतीर्थ ब्रह्म के साक्षात्कार कराने तक में समर्थ है. सभी धर्म साधनों का एक साथ लाभ देने वाला है.

इस के बाद भगवान रूद्र अंतर्धान हो गए और पाणिनि पूरे आत्मविश्वास से अपने घर लौटे.
शिवजी की संध्या तांडव के समय उनके डमरू से निकली हुई ध्वनि उन्हें याद थी. पाणिनी उस ध्वनि का ध्यान करने लगे. उन ध्वनियों के ध्यान से संस्कृत में वर्तिका नियम की रचना की प्रेरणा हुई और उन्होंने रचा भी.

पाणिनी को भगवान का आदेश था कि समस्त तीर्थों का लाभ ज्ञानतीर्थ से प्राप्त करना है. उन्होंने एक स्थान पर आसन जमाया और डमरू की ध्वनियों के और रहस्य तलाशने लगे.

उनकी दृष्टि जितनी विस्तृत होती जाती उन्हें उतनी ही प्रेरणा मिलती गई. इस तरह पाणिनि ने सूत्रपाठ, धातुपाठ, गणपाठ और लिंगसूत्र-रूप व्याकरण शास्त्र का निर्माण कर दिया.

पाणिनी की इस रचना से जब संसार परिचित हुआ तो वह उनकी पूजा करने लगा. इस तरह पाणिनी ने परम निर्वाण प्राप्त किया.

कथा सुनाकर सूतजी बोले- ज्ञान एक सरोवर है. उस सरोवर का सत्य रूपी जल राग-द्वेष रूपी मल का नाश करने वाला है.

तीर्थों के दर्शन, दान, पूजा और व्रतोपवास से भी उत्तम धर्म साधन है मानस तीर्थ का दर्शन करता अर्थात ज्ञान प्राप्त करना. उससे समस्त पुण्य लाभ प्राप्त हो जाते हैं.

(भविष्य पुरांण प्रतिसर्गपर्व, द्वितीय खंड के पन्द्रहवें अध्याय की कथा)

महामुत्युंजय साधना ।।

''ॐ हौं जूँ सः । ॐ भूर्भुवः स्वः । ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् । उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् । स्वः भुवः भूः ॐ । सः जूँ हौं ॐ ''

         शास्त्रों के अनुसार 64 करोड़ प्रकार के शारीरिक एवं मानसिक रोग हैं। यह तो हुई शरीर एवं मानस के प्रति विपरीत स्थिति इसके अलावा जन्म लेते ही जीव को प्रकृति की विपरीत परिस्थितियाँ, देश, समाज और परिवार की भी विपरीत एवं प्रतिकूल परिस्थितियाँ झेलनी पड़ती हैं। एक जीव को इन सब विषम परिस्थितियों के अलावा दूसरे जीव या मनुष्य से भी प्रतिक्षण जीवन का खतरा बना रहता है। इस पर से दैवीय आपदायें भी मुँह बाये खड़ी रहती हैं। ऐसी स्थिति में सामान्य जीवन निर्वाह करना एक शरीर धारी मनुष्य के लिए अत्यंत ही विकट है। इतना विकट कि जीवन की प्रारम्भिक आवश्यकतायें ही पूरी करने में सारी ऊर्जा चली जाती है। साधना तो बहुत दूर की बात है। अनंत काल से परिस्थितियाँ प्रतिकूल बनी हुई हैं। मनुष्य को इन विपरीत परिस्थितियों में ही जीवन की पूर्णता प्राप्त करनी है। जीवन के प्रत्येक पक्ष को जीना है तो फिर ऐसी कौन सी साधना है, ऐसा कौन सा महाबल है, ऐसी कौन सी दिव्य शक्ति है जिसकी स्तुति से निर्धारित जीवन के क्षण हम पूरे कर सकते हैं। जीवन को पूर्णता प्रदान करने वाली एक ही महाशक्ति है और वह है शिव । अतः प्रत्येक साधक और व्यक्ति को भगवान शिव की कृपा प्राप्त करने के लिए प्रतिदिन महामृत्युञ्जय आराधना अवश्य करनी चाहिए। आराधना के अंतर्गत महामृत्युञ्जय अनुष्ठान एवं महामृत्युञ्जय रूपी विस्तृत और समग्र चिंतन का होना नितांत आवश्यक है। प्रत्येक सद्गुरु अपने शिष्यों को सर्वप्रथम महामृत्युञ्जय साधना ही सम्पन्न करवाता है।

           साधरण जन महामृत्युञ्जय साधना का तात्पर्य यह समझते हैं कि अगर व्यक्ति अस्पताल में किसी कारणवश या दुर्घटनावश मृत्यु से संघर्ष कर रहा है तभी इसे सम्पन्न करनी चाहिए। यह आधा-अधूरा चिंतन है। यह स्थिति आग लगने पर कुँआ खोदने की प्रक्रिया के समान है। विवेक, बुद्धिमत्ता और ज्ञान का इस प्रकार के चिंतन में सर्वथा अभाव है। मैंने ऊपर कहा 64 करोड़ प्रकार के रोग होते हैं। सर्वप्रथम रोग क्या है? यह समझना चाहिए। रोगों का सीधा सम्बन्ध कर्म की श्रृंखला से जुड़ा हुआ है। मानव शरीर का सम्पूर्ण विकास एक परम चेतना के अंतर्गत पूरी तरह से नियंत्रित है। इस परम चेतना ने शरीर को इस प्रकार से निर्मित किया है कि कर्मों के अनुसार उसमें अतिशीघ्र परिवर्तन हो जाता है। सारी कोशिकायें कर्मों के अनुसार ही प्रारूप बदलती है। शक्ति संचालन की आंतरिक प्रक्रिया कर्मों के अनुसार ही निर्धारित होती है। यह परम व्यवस्था इतनी सूक्ष्म और दिव्य है कि इसी के कारण यह संसार चल रहा है। अगर एक क्षण के लिए भी परम चेतना के नियंत्रण से कर्म श्रृंखला हट जाये तो फिर जीव-जगत हमेशा के लिए समाप्त हो जायेगा। एक क्षण का असंतुलन अनंत वर्षों के जीव संतुलन को समाप्त करके रख देगा। कर्मों के अंतर्गत अनेकों जीवन के कर्म, सामूहिक कर्म, पैतृक कर्म, जीव की जाति विशेष के कर्म इत्यादि सभी कुछ आते हैं। रोग और निरोग इसीलिए सम्पूर्ण रूप से कर्म श्रृंखला पर आधारित है। 

             अब बात करते हैं खण्डित और अखण्डता की। आप कार्य शुरू करते हैं परन्तु लक्ष्य तक पहुँचने से पहले ही कार्य खण्डित हो जाता है, अचानक अवरोध आ जाते हैं। आपके लक्ष्य में सहयोगी कम होते हैं एवं अवरोध डालने वालों की संख्या ज्यादा होती है। आप साधना के पथ पर अग्रसर होते हैं तो सारा परिवार, पत्नी इत्यादि उसमें विघ्न डालने लगते हैं। कभी कभी आप पूरे जोर शोर से अध्यात्म के पथ पर अग्रसर होते हैं परन्तु कुछ ही महीनों बाद आप निस्तेज हो पुनः पुराने ढर्रे पर लौट आते हैं। इसे कहते हैं आध्यात्मिक यात्रा की अकाल मृत्यु । अर्थात यात्रा का खण्डित हो जाना। यात्रा सम्पूर्ण नहीं हो सकी तो फिर जीवन में अपूर्णता तो निश्चित है, मृत्यु भी पूर्ण नहीं होगी। अंतिम समय मे कुछ न कुछ मलाल रह जायेगा। अधिकांशतः व्यक्ति सामाजिक, आर्थिक, पारिवारिक दबाव के चलते मन- मसोसकर निराश हो जाते हैं। जीवन अत्यधिक उदासीन हो जाता है। जीवन जीने की शक्ति खत्म हो जाती है। इसे कहते हैं मृत्यु के मुख में जाने की तैयारी । मृत्यु के पाश से व्यक्ति का जकड़ जाना। इस पाश को तोड़ने के लिए पुन: आपको जरूरत पड़ेगी दिव्य महामृत्युञ्जय बल की। महामृत्युञ्जय बल ही वह दिव्य शक्ति है जिसके कारण जीव कहता है अभी कुछ बाकी है। अंधेरे में भी उजाले की प्रबल सम्भावना बनी रहती है। दिव्य महामृत्युञ्जय बल के कारण मनुष्य सर्वश्रेष्ठ हुआ है। इसी बल ने उसे हिम्मत न हारने की इच्छा शक्ति प्रदान की असफलताओं को पीछे छोड़ते हुए सफलताओं तक पहुँचाया है। .

जिस मानव जाति ने महामृत्युञ्जय बल को आत्मसात किया वे सर्वश्रेष्ठ कहलाये हैं। जब मनुष्य ने सर्वप्रथम सुदूर अंतरिक्ष में यात्रा सम्पन्न करने ने की ठानी तो उसे सैकड़ों वर्ष अनुसंधान करने पड़े। पता नहीं कितने अंतरिक्ष यान या राकेट उड़ने से पूर्व ही फट गये। कितने मनुष्य और पशु यात्रा पथ में ही मारे गये, कई पीढ़ियों ने सामूहिक रूप से अनुसंधान किया तब कहीं जाकर मानव जगत ने चन्द्रमा पर साक्षात रूप से पैर रखने का सौभाग्य प्राप्त किया। महामृत्युञ्जय साधना को समझने के लिए आपको यात्रा को समझना होगा। चन्द्रमा पर पहुँचना यात्रा का प्रथम चरण है और पुनः अंतरिक्ष यात्री का पृथ्वी पर वापस लौटना दूसरा चरण है। इन दोनों चरणों के बीच अनेकों उपचरण हैं, अनेकों विषम परिस्थितियाँ में हैं, समस्याऐं है, अवरोध है इत्यादि इत्यादि कहने का तात्पर्य है कि प्रतिक्षण यात्रा के खण्डित होने का भय है। यात्रा एक चुनौती है। जीवन भी एक चुनौती है इसीलिए महामृत्युञ्जय बल यात्रा को निर्विघ्न समाप्त करने के लिए अति आवश्यक है। 

         साधक का तात्पर्य मात्र आध्यात्मिक साधक से ही नहीं लेना चाहिए। प्रत्येक अनुसंधान, प्रत्येक खोज, सभी कुछ साधकों की ही देन है। इनके पीछे भी निश्चित ही आध्यात्मिक बल है। साधक का सीधा तात्पर्य कर्मशील व्यक्ति से है। साधक भगवान श्री कृष्ण के अनुसार कर्मयोगी ही होते हैं। निखट्टु, कर्महीन एवं शेखचिल्ली के समान सोच वाले व्यक्ति साधक कदापि नहीं हो सकते चाहे वह आध्यात्मिक अनुसंधान हो या भौतिक अनुसंधान, साधना का पथ कर्मशीलता मांगता है। एकाग्रता मांगता है। असफलताओ अवरोधों एवं कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करना हो महामृत्युञ्जय साधना है। निरंतरता के लिए अथक कर्म करने पड़ते हैं। इस संसार में जीवन को सुलभ बनाने के लिए की गई प्रत्येक खोज, शरीर को रोग मुक्त करने के लिए किया गया प्रत्येक अनुसंधान, चिकित्सा जगत का चर्मोत्कर्ष पर पहुँचना इत्यादि महामृत्युञ्जय साधना के अंतर्गत ही आता है। जिस भी क्रिया या कर्म से जीवन का बचाव होता है, जीवन की अवधि बढ़ती है वह महामृत्युञ्जय साधना का ही प्रतीक है। 

         महामृत्युञ्जय भगवान शिव का वह दिव्य बल है जो कि जीव को मृत्यु के मुख से प्रतिक्षण खींचता है। यह बल समय, काल एवं व्यक्ति अनुसार विभिन्न स्वरूपों में प्रकट होता है। आपके जीवन में ऐसे मनुष्य भी आ सकते हैं जो कि तोड़- तोड़कर आपको खा जायेंगे। आपकी ऊर्जा नष्ट कर देंगे। आपको धोखा देंगे, आपके साथ छल करेंगे, आपको भारी नुकसान पहुँचायेंगे। आपको कहीं का नहीं छोड़ेंगे। इसे कहते हैं आस्तीन में सांप पालना। भगवान शिव के मूर्ति रूपी विग्रह में इसीलिए सर्प भी शांत अवस्था में बैठे दिखाई पड़ते हैं। वे अधिष्ठाता हैं भूत-प्रेत, बेताल एवं अन्य जीवन को क्षति पहुँचाने वाली योनियों के। शिव ही इन सब नकारात्मक शक्तियों को नियंत्रित कर सकते हैं। अतः उनकी कृपा प्राप्ति के लिए प्रतिदिन महामृत्युञ्जय मंत्र का जाप कीजिए। 

           प्रत्येक मनुष्य एक निश्चित ऊर्जा का स्वामी है। उसके पास ऊर्जा का एक निश्चित भण्डार है। ऐसी स्थिति में ऊर्जा का क्षय रोकना नितांत आवश्यक है। मनुष्य मनुष्य की ऊर्जा खा जाता है। जब तक ऊर्जा होती है चाहे वह किसी भी स्वरूप में हो ऊर्जा का शोषण करने वाले आपके पास मंडराते ही रहेंगे। जैसे ही ऊर्जा क्षीण होगी आप सब तरफ से त्याग दिये जायेंगे। अतः आपको ऊर्जा का अनुसंधान करना होगा। प्रतिक्षण आपको अपने शरीर में मौजूद दिव्य ऊर्जा केन्द्रों को खोजना होगा। संजीवनी विद्या समझनी होगी। पुनः मस्तिष्क को चैतन्य करने के विधान ढूंढने होंगे। ब्रह्माण्ड से अक्षय ऊर्जा प्राप्त करनी होगी। यह सब कलायें महामृत्युञ्जय साधना के अंतर्गत ही आती हैं। जिस प्रकार बहती हुई एक नदी अनेकों गुप्त स्त्रोतों से जल प्राप्त करती रहती है, वर्षा से भी जल प्राप्त करती रहती है, स्थान अनुसार स्वरूप परिवर्तन करती रहती है, कहीं पर भूमिगत हो जाती है, कहीं पर तीव्र हो जाती है तो कहीं गुप्त रूप से बहती है इत्यादि इत्यादि परन्तु यात्रा अविरल जारी रहती है। यही संजीवनी विद्या है। प्रतिक्षण पुनः जीवन प्राप्त करने की कला । मृत्यु को प्रतिक्षण भगाने की कला । ऐसा भी सम्भव है जब आपमें सक्रियता, चेतना का स्तर अत्यंत ही उच्च हो । 

          आपका शरीर पंचभूतों से निर्मित हो । इन पंचभूतों की आयु और संतुलन आपके जीवन का निर्धारण करेंगी। पंचभूत अगर विकार ग्रस्त होते हैं तो जीवन भी विकार ग्रस्त हो जायेगा । वायु प्रदूषित होगी तो श्वास भी प्रदूषित हो जायेगी । श्वास प्रदूषित होगी तो रक्त प्रदूषित हो जायेगा। इसी प्रकार प्रदूषित जल का सेवन शरीर को प्रदूषित कर देता है। संजीवनी विद्या के अंतर्गत विष का निष्कासन, मल का निष्कासन जीवन के प्रत्येक तल पर आवश्यक है। .

महामृत्युञ्जय का साधक अमरता प्राप्त करता है । अमरता भी है भूख लगती है तो हम भोजन करते हैं, प्यास लगती है तो हम जल पीते हैं, जब मस्तिष्क में प्यास होगी तभी तो जल पीयेंगे। इसी प्रकार अमरता के ख्याल आते हैं तो हम अमृतमय कोषों की तलाश करते हैं। तुलसीदास जी ने कहा है कि 

सकल पदारथ है जग माहीं । 
करम हीन नर पावत नाहीं ॥

         जो कुछ मस्तिष्क सोचता है वह इस जगत में निश्चित ही मौजूद है। जरूरत है तो सिर्फ उचित कर्मों को सम्पन्न करने की मृत्युञ्जयी साधक वही है जो कि अपनी इच्छानुसार मृत्यु को प्राप्त कर सकता है। वैसे तो सभी को यह अधिकार प्राप्त है। कुछ मूर्ख आत्महत्या भी करते हैं उन पर मैं यह विचार नहीं कह रहा हूँ। मेरा कहने का तात्पर्य है कि मृत्यु के अंतिम क्षण हमारी चेतना अनुसार हों। शरीर का त्याग हम उसी प्रकार करें जिस प्रकार महायोगी करते है। यह अमरता का प्रतीक है। चेतना से चेतना को मिलाने का अनुसंधान कठिन है पर असम्भव नहीं है। आप देखिए अनेकों जीवों में अंग कट जाने के पश्चात फिर से उग आने की प्रवृत्ति होती है। वृक्ष की एक डगाल टूट जाने पर पुन: नई शाखायें उग जाती है, प्रतिक्षण फल टूटते रहते हैं फिर भी वृक्षों का वंश तो समाप्त नहीं होता है। कुछ फल निश्चित ही बीज को उचित जगह पर रोपित कर देते हैं। प्रतिवर्ष आम के असंख्य फल मनुष्य भक्षण करता है, पशु-पक्षी भी खाते हैं परन्तु आम के वृक्ष भी प्रतिवर्ष सभी जगह ऊगते हैं। उनमें न्यूनता नहीं आती है। यही महामृत्युञ्जय बल है। 

         इस देश में पचास वर्ष पहले बीस करोड़ लोग थे तब भी श्वास लेते थे आज एक अरब से भी ज्यादा है फिर भी किसी को निःशुल्क श्वास लेने में कहीं कोई कठिनाई नहीं है। वायु तो कम नहीं हुई यही ईश्वर की लीला है। बीस करोड़ लोग पचास वर्ष पहले अकाल और भुखमरी से ग्रसित थे परन्तु एक अरब हो जाने पर भी अब अन्न कम नहीं पड़ रहा है। सभी को कम से कम एक वक्त का भोजन मिल ही जाता है। शिव की प्रौद्योगिकी अत्यंत ही परिष्कृत है। कहीं न कहीं वृक्ष में पत्तों के बीच एक न एक फल मनुष्य और पशुओं की आँखों से बचते हुए समस्त मौसमों की मार सहते हुए पूर्ण आयु अर्थात पकने के पश्चात ही स्वतः वृक्ष से विस्थापित हो नवजीवन सम्पन्न करता है जो फल वृक्ष से स्वतः ही सम्पूर्णता प्राप्त करने के पश्चात भूमि पर गिरता है उसी का बीज सर्वश्रेष्ठ होता है। वही एक स्वस्थ एवं सम्पूर्ण आयु को प्राप्त करने वाले वृक्ष को जन्म देने में सक्षम है। बाकी सब आधे अधूरे कर्मों को सम्पन्न करेंगे क्योंकि उसी फल ने सभी बाधाओं, अवरोधों और अकस्मात मृत्यु प्रदान करने वाले तत्वों को हराया है। उसने अपनी यात्रा निर्विघ्न समाप्त की है। वह स्वेच्छाचारी हैं। स्वेच्छा से वृक्ष का त्याग किया है। शिव स्वेच्छाचारी हैं। महामृत्युञ्जय बल स्वेच्छा का प्रतीक है। स्वेच्छा ही पूर्णता है किसी और की इच्छा या बल का प्रभाव यहाँ पर शून्य है। यही संजीवनी साधना का रहस्य है। 

         कितना भी मारने की कोशिश करो, मृत्यु प्रदान करने की कोशिश करो परन्तु हम मृत्यु को प्राप्त होने का कारण तुम्हें नहीं बनने देंगे। ऐसी सोच वाले ही शिव सानिध्य को प्राप्त करते हैं। शिव की रुद्रता यही है। यही श्रीकृष्ण का संदेश है। मृत्यु क्या है? मृत्यु टुकड़ों टुकड़ों में भी प्राप्त होती है। जीवन की अवधि बढ़ायी भी जा सकता है। आप 36 वर्ष की आयु को 50 वर्ष भी कर सकते हैं। इसके लिए निद्रा को कम करना होगा। बारह घण्टे सोने की अपेक्षा चार घण्टे में भी काम चला सकते हैं। ऐसा भी होता है। साधक के लिए यह नितांत आवश्यक है। प्रतिदिन व्यर्थ के मनुष्यों में बैठने की अपेक्षा अपनी इच्छानुसार कार्य कर सकते हैं। सफल व्यक्ति चाहे वह वैज्ञानिक हो, आध्यात्मिक साधक हो इत्यादि इत्यादि ऐसा ही करते हैं। अनेकों अनुपयोगी और निम्र कर्मों को सम्पन्न करने की अपेक्षा आप कुछ इच्छानुसार कर सकते हैं। साधक को ऐसा ही होना चाहिए। मूर्ख व्यक्ति टी.वी देखते हैं, समय व्यर्थ करते हैं, उनका भोजन घटिया मनोरंजन है इसके विपरीत ग्रह-नक्षत्रों पर अनुसंधान करने वाले रात्रि में ब्रह्माण्ड को निहारते हैं। वे जगत को कुछ नया प्रदान करते हैं। भीड़ तंत्र के पीछे भागने वाले भीड़ का हिस्सा बन जाते हैं। जो स्वेच्छा पूर्वक जीवन बिताते हैं वह अनुसंधानकर्ता हैं। वही सच्चे साधक हैं। पुनः प्राप्ति की क्रिया सीखनी होगी। 

            आज से 60 - 70 वर्ष पूर्व चेचक का अत्यधिक प्रकोप था इसके कारण अनंत लोगों का असमय जीवन चला गया एवं जो बचे उनका रूप और सौन्दर्य चला गया। सारा शरीर बदनुमा दागों से ढँक गया। अगर जा सकता है तो प्राप्त भी किया जा सकता है। पुनः प्राप्ति होनी ही चाहिए। .

अब देखिए किसी का रूप और सौन्दर्य चेचक के कारण नहीं जाता। रोकने की कला तो हमने सीख ही ली प्राप्ति की कला भी सीखनी होगी। पहले समझो फिर साधना सम्पन्न करो। साधना बुद्धिजीवी को भी करनी चाहिए। कहीं बुद्धि मृत्यु का कारण न बन जाये। शिव से आपको अलग न कर दे इसलिए इतना सब कुछ कहना पड़ा। 

        सामान्य मनुष्यों और ईश्वर पुत्र के रूप में जीवन जीने वाले श्रेष्ठ मनुष्यों की नियति में जमीन आसमान का फर्क होता है। सामान्य मनुष्य स्वयं के लिए जीता है तो वहीं उसके कर्म ही उसकी नियति निर्धारित करते हैं इसके विपरीत इस धरा पर ईश तत्व का प्रसार करने वाले ईश पुत्रों की नियति स्वयं भगवान शिव निर्धारित करते हैं।इनका जीवन मात्र प्राणी जगत को शिव सानिध्य में पुनः लाने के लिए ही होता है। ऐसे महापुरुष और ऋषिगणों की रक्षा के लिए भगवान सदैव तत्पर रहते हैं। उनके जीवन पर किसी भी प्रकार की आँच न आये, वे इस पृथ्वी के मायाजाल में भटककर समय व्यर्थ न गवा दें और कहीं अकाल मृत्यु को प्राप्त न कर लें इसके लिये शंकर प्रकृति में भी हस्तक्षेप करने से भी नहीं चूकते हैं क्योंकि इसी में प्राणियों का कल्याण छिपा हुआ है। इन्हीं महापुरुषों के जीवन से अनंत वर्षों तक हम प्रेरणा प्राप्त करते है। जो जीवन देता है वही जीवन को बढ़ाने की क्षमता भी रखता है।

        भगवान शिव नीलकण्ठ हैं वे समस्त जगत का विष-पान कर इस जगत को जीवन प्रदान करते हैं, वे ही भूत भावन हैं उनके अंदर विष भी अमृत में बदल जाता है। महामृत्युञ्जय मंत्र भगवान शिव की उस विलक्षण शक्ति को मनुष्यों की चेतना में स्थापित करता है जिसके द्वारा वे अपना जीवनकाल सम्पूर्णता के साथ सम्पन्न कर सकते हैं। इसी विद्या को संजीवनी विद्या कहा गया है। महामृत्युञ्जय मंत्र के प्रचारक मार्कण्डेयजी नामक ऋषि रहे हैं उन्होंने ही इस मंत्र को आत्मसात कर जन-जन में प्रसारित किया है। वे भगवान शिव के परम भक्त रहे हैं और शंकर जी ने उनकी निष्काम भक्ति से प्रसन्न हो उन्हें सभी लोकों के दर्शन कराये हैं एवं वरदान में कलपान्त तक अमर रहने और पुराणाचार्य होने का वरदान दिया है। मार्कण्डेय पुराण के उपदेशक मार्कण्डेय मुनि ही हैं। 

          पदम पुराण उत्तर खण्ड के अनुसार मार्कण्डेय ऋषि के पिता मुनि मृकण्डु ने अपनी पत्नी के साथ घोर तपस्या कर के भगवान शिव को प्रसन्न किया था। उन्हीं के वरदान स्वरूप मार्कण्डेय जी को पुत्र रूप में प्राप्त किया था परन्तु भगवान शंकर ने उनकी आयु 16 वर्ष निर्धारित कर दी थी। अतः जैसे ही मार्कण्डेय जी ने 16 वें वर्ष में प्रवेश किया उनके पिता व्यथित हो उठे। पुत्र के द्वारा पूछे जाने पर पिता ने मार्कण्डेय जी के सामने वास्तविकता प्रकट कर दी। इस पर मार्कण्डेय जी ने अपने पिता को समझाते हुये कहा कि आप चिंता न करें मैं भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिये घोर तपस्या करूँगा जिससे कि मेरी मृत्यु हो ही नहीं और इस प्रकार माता-पिता की आज्ञा लेकर मार्कण्डेय जी दक्षिण समुद्र के तट पर चले गये ओर वहाँ विधि पूर्वक शिवलिङ्ग की स्थापना कर के महामृत्युञ्जय मंत्र का जाप करने लगे। उनके द्वारा जप किया जा रहा मंत्र इस प्रकार है 

''ॐ हौं जूँ सः । ॐ भूर्भुवः स्वः । ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् । उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् । स्वः भुवः भूः ॐ । सः जूँ हौं ॐ ''

    यह सम्पुट युक्त मंत्र है। यही मंत्र आगे चलकर जन मानस में महामृत्युंजय मंत्र के नाम से विख्यात हुआ। समय पर काल आ पहुँचा मार्कण्डेयजी ने काल से कहा मैं शिवजी का मृत्युंजय स्तोत्र से स्तवन कर रहा हूँ, इसे पूरा कर लूँ, तब तक तुम ठहर जाओं काल ने कहा ऐसा नहीं हो सकता। तब मार्कण्डेय जी ने भगवान शंकर के बल पर काल को फटकारा। काल ने क्रोध में भरकर ज्यों ही मार्कण्डेय को हठपूर्वक ग्रसना चाहा, त्यों ही स्वयं महादेवजी उसी लिङ्ग से प्रकट हो गये। हुँकार भरकर मेघ के समान गर्जना करते हुए उन्होंने काल की छाती में लात मारी। मृत्यु देवता उनके चरण-प्रहार से पीड़ित होकर दूर जा पड़े। .

                        शिव शासनत: शिव शासनत:

ब्रह्म विद्या ।।


            विश्वामित्र एक अति तेजस्वी एवं प्रतापी राजा थे आर्यों के इस महान शासक ने सम्पूर्ण पृथ्वी पर एकाधिकार करने के लिए अश्वमेघ यज्ञ सम्पन्न किया परन्तु जैसे ही यह ब्रह्मऋषि वशिष्ठ के सम्मुख पहुँचे इनका सारा तेज जाता रहा। इनके सारे यत्न असफल हो गये, सारे शस्त्र निष्फल हो गये। कल तक जो विश्वामित्र राज्य, सत्ता, शक्ति, सेना के दम्भ पर अपने आपको दिग्विजयी समझ रहा था उसने ब्रह्मत्व धारण किए हुए निःशस्त्र ब्रह्मऋषि वशिष्ठ के सामने पराजित, लज्जित एवं अपमानित स्थिति में अपने आपको खड़ा हुआ पाया। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है भारत भूमि पर सिकन्दर ने भी अपने आपको इसी भाव में लाचार खड़े पाया है। उसकी बुद्धि के द्वार भी भारत वर्ष में ही खुले हैं। मुगल सम्राट अकबर भी ब्रह्मज्ञानियों के चरणों में झुका है। तुलसीदास जी और मीरा दोनों के चरणों में ही अकबर का सर झुका है। उसने भी थक हारकर एक ईश्वर वाद के इस्लामी सिद्धांत को छोड़ ब्रह्म ज्ञानियों की महत्ता स्वीकार की है एवं दीन-ए-इलाही जैसे नये पंथ का भी उसे अनुसरण करना पड़ा है। निराकार को पूजने से कुछ नहीं होता है। निराकार भी कोई पूजने की वस्तु है दिल को बहलाने वाला यह तथाकथित सिद्धांत तो कृष्ण ने गीता में स्वयं ही खण्डित कर दिया है। इस सिद्धांत पर चलकर दस पीढ़ियों में से एकाध को ही साक्षात्कार सम्भव हो पायेगा। इस प्रकार की आध्यात्मिक धारा सामान्य जन को क्या लाभ पहुँचायेगी? क्यों सामान्य जन इसे अपनायेगा? यही कारण है कि सद्गुरुओं, ब्रह्मऋषियों के सानिध्य में अध्यात्म फलता-फूलता है।

            परमेष्ठि गुरु अपनी जगह है और वर्तमान का गुरु अत्यधिक महत्व लिए हुए है। जिन देश में उपासकों को प्रतिबंधित कर दिया जाता है, जिस घरों में अभिभावक पूजा पद्धति या गुरु की अवमानना करते हैं वहाँ पर राक्षसी एवं ताण्डवी शक्ति का वास होता है। अगर घर में बिजली के तार खींचे ही नहीं जायेंगे तो फिर मोमबत्ती या चिमनी की आवश्यकता होगी फिर भी अंधेरा पूरी तरह नहीं मिट पायेगा। ब्रह्मऋषि का तात्पर्य ही वह व्यक्तित्व है जो कि स्वच्छ, निर्मल, निर्विकार एवं निखिल प्रकाश का ऊर्जा केन्द्र है। जिसके अमृतमयी प्रकाश में मनुष्य के सभी तलों पर से अंधेरा गायब हो सके, हृदय भी प्रकाश युक्त हो सके मन भी निर्मल प्रकाशमय हो जगमगा उठे, विचारों एवं बुद्धिपक्ष में भी इतना प्रकाश भर जायें कि अंधेरे में बिलबिलाने वाले कीड़े-मकोड़े और निशाचर शक्तियाँ स्वयं ही भाग खड़े हों। निशाचरों को शक्तिहीन बनाता है प्रकाश। आप सूक्ष्मता से अध्ययन करेंगे तो पायेंगे कि उन जगहों पर ही नकारात्मक पैशाचिक एवं प्रेत शक्तियाँ क्रियाशील होती हैं जहाँ पर कि अंधेरा घोरतम होता है। प्रकाश युक्त सद्गुणी वातावरण में पैशाचिक शक्तियाँ भाग जाती हैं।

           आदि गुरु शंकराचार्य जी एक बार वन में एक वृक्ष के नीचे बैठे थे। उस पेड़ पर दो प्रेत निवास करते थे शंकराचार्य जी को देख प्रेत ताण्डव करने लगे उन्होंने दूसरे ही क्षण अपने कमण्डल से अभिमंत्रित जल निकालकर वृक्ष पर छिड़क दिया देखते ही देखते वे प्रेत योनि से मुक्त हो वहाँ से सदा के लिए चले गये। इस प्रकार वो अभिशप्त जगह पुनः पवित्र हो पूजन स्थल में परिवर्तित हो एवं बाद में वहाँ पर देवालय का भी निर्माण हुआ। बुद्ध जब बोधि वृक्ष के नीचे बैठे निर्वाण प्राप्ति की अंतिम अवस्था में थे तब उस वन में उपस्थित सभी नकारात्मक शक्तियों ने भीषण ताण्डव उत्पन्न कर दिया उनके इर्द-गिर्द । वे सब भयभीत हो गये थे ब्रह्मत्व के प्रकाश से ब्रह्मत्व क्या है ? ब्रह्मत्व वह शक्ति है जिसे धारण कर व्यक्ति ब्रह्मण बनाता है एवं उसके मन, वचन, कर्म इत्यादि सभी कुछ सत्य, निष्ठा से ही क्रियाशील होते हैं ब्रह्मण का तात्पर्य है सत्य को पहचानना । अभेदात्मक सोच शालीनता, निर्लिप्तता एवं कर्तव्य परायणता । जीवन की क्षण भंगुरता से सत्य का कोई भी लेना देना नहीं है।

            ब्राह्मण का तात्पर्य है विराटता। विश्वामित्र ने अपने आपको वशिष्ठ के सामने बौना पाया। ब्रह्मऋषि इतने पारदर्शी होते हैं कि उनके सामने खड़े होते ही व्यक्ति चाहे कितने नकाब ओढ़े हो, कितना भी बनने की कोशिश करे अपने आपको नग्न पाता है, स्वयं वह क्या है उसे समझ में आ जाता है। हम स्वयं क्या हैं? बस इतनी सी बात समझ में आ जाये तो फिर ब्रह्मऋषि बनने में देर नहीं लगेगी। इस दुनिया की विडम्बना यह है कि यहाँ पर शासन करने वाले शक्ति से सम्पुट होते हैं। युवा होते हैं। वे जीवन की कोमलता, बाल्यावस्था को पूरी तरह दर किनार कर देते हैं अपने मस्तिष्क के उन्माद से व्यवस्था रचते हैं। उन्हें इस बात की फिक्र नहीं होती है कि इस दुनिया में बालक, शिशु, शांतिप्रिय सात्विकता लिए हुए उपासक, मनोहारी स्त्रियाँ इत्यादि भी समान रूप से वास करते हैं। 

उनके द्वारा रचे गये ताण्डवी युद्ध, ताण्डवी वातावरण, ऊट पटांग योजनाओं इत्यादि से असंख्य प्राणियों के हृदय हाहाकार कर उठते हैं, चीत्कार कर उठते हैं। वे स्वयं जीना चाहते हैं और दूसरों की परवाह नहीं करते। अनंतकाल से ऐसा ही होता आ रहा है इसलिए इन सबका पतन हो जाता है। समय तो लगता ही है।

         एक बात ध्यान से समझ लें हृदय पक्ष मस्तिष्क से अनंत गुना ज्यादा शक्तिशाली है। आज तक मस्तिष्क ही परास्त होता आया है और होता रहेगा। मस्तिष्क ब्रह्म ज्ञानियों का शासक नहीं है वह तो मात्र विनम्र दास या सेवक की भांति उनकी सेवा में सदैव तत्पर रहता है। मस्तिष्क से निर्मित समाजवाद कम्युनिष्ट व्यवस्था तानाशाही व्यवस्था, राजशाही व्यवस्था नौकरशाही इत्यादि पिछले पचास वर्षों में आपके समक्ष पूरी तरह ध्वस्थ हो गई है। बचा है तो सिर्फ लोकतंत्र, जनतंत्र इसमें भी सुधार की आवश्यकता है क्योंकि मस्तिष्क कहीं-कहीं इसमें भी विकृति डालने से नहीं चूकता है। ब्रह्मऋषि बनना है या फिर ब्रह्मत्व से आत्म साक्षात्कार करना है तो फिर हृदय पक्ष को जागृत करना होगा अन्यथा कुछ भी नहीं होगा जोर जबरदस्ती से तो विश्वामित्र भी कामधेनु को वशिष्ठ के आश्रम से नहीं ले जा सके। कामधेनु वहीं पर निवास करेगी जहाँ पर ब्रह्मत्व का स्थापत्य होगा। कामधेनु का तात्पर्य गौ वंश की उस दिव्य शक्ति से है जो कि साक्षात् लक्ष्मी स्वरूपा है एवं जिसका प्रत्येक कर्म लक्ष्मी का आनंदमयी स्वरूप ही प्रदान करता है। जितना चाहो, जब चाहो, जैसा चाहो वैसा दुग्ध वह आपको अमृतमय स्वरूप में प्रदान कर देगी। उसे देखते ही मन के सारे विकार धुल जाते हैं उसके सानिध्य में अलौकिक शांति या अनुभव होता है।

           ईश्वर भी है और ईश्वर के अलौकिक चमत्कार भी हैं। ईश्वर की अलौकिक सिद्धियाँ भी हैं। आप इस योग्य तो बनो कि वे आपके समक्ष प्रस्तुत हों। कामधेनु का दुग्ध तो क्या उसके शरीर से अष्ट गंध की सुगन्ध निरंतर फूटते रहती है। कामधेनु वहीं निवास करेगी जहाँ पर उसके कानों में प्रात:काल गायत्री जैसे ब्रह्म मंत्र का उच्चारण सुनाई देगा। उसे स्पर्श करने वाला भी पूर्ण रूप से पापरहित ब्रह्म ऋषि ही होगा। उसे चारा खिलाने वाला अपनी आँखों में असीम निर्मलता एवं ममता से युक्त होगा। हिमालय पर सभी जगह शीतलता होगी। इसे कहते हैं स्वेच्छाचारिता। कामधेनु राजऋषि के आश्रम में निवास नहीं करेगी। कृष्ण में इतना ब्रह्मत्व था कि उन्हें देखते ही वृक्ष हरे-भरे हो जाते थे। जहाँ वे खड़े होते थे वहीं पर वातावरण अमृतमय हो जाता था। उनकी एक झलक अनंत वर्षों की थकान और तपन को शांत करने के लिए काफी थी। गायत्री मंत्र भी इस पृथ्वी पर कामधेनु के समान ही कार्य करती है साधकों के लिए।

           ब्रह्मत्व का प्रतिस्फुरण होते ही बुद्ध को विरक्ति आने लगी राज-पाट, जीवन मृत्यु, वृद्धावस्था एवं दुनियादारी के अन्य तामझामों से जैसे-जैसे वे ब्रह्मत्व के करीब पहुँचते गये उनके विरक्ति भाव अत्यंत ही तीव्र हो उठे। तीव्रता के साथ-साथ वे अस्तित्व के सूक्ष्म से सूक्ष्म तल पर भी पहुँचते हुए उन्हें सत्य से परिचित कराते हुए निष्पाप करने लगे और अंत में जब पूर्ण सत्य अर्थात केवल्य ज्ञान अनुभूत हुआ तब वे परमोत्पादक बन सके। परमोत्पादन का मतलब है उन दिव्य धाराओं को प्रवाहित करना जो कि उनके द्वारा ग्रहण किए गये परम तत्व से सम्पुट हों। इन दिव्य उत्पादों को हो आप वेदों, छन्दों, ज्ञान, उपासना पद्धति, योग, नियमों अमृतकारी प्रवचनों, दीक्षा, आशीर्वाद एवं वरदान स्वरूप में अपने समक्ष मौजूद पाते हैं। यही विधान है कायाकल्प का कायाकल्प तो कर पड़ता है। सभी ने कायाकल्प किया है। विश्वामित्र भी कायाकल्पित थे। बुद्ध भी कायाकल्पित हुए हैं।

           ऐसा क्या डाल दिया था परमहंस जी ने नरेन्द्र में जिससे कि वह एक सामान्य पुरुष से विवेकानंद बन बैठा ऐसी कोई दवा तो दुकान पर बिकती दिखाई नहीं देती। मेरे गुरु ने भी पता नहीं क्या डाल दिया अन्यथा मैं भी दुनियादारी में उलझकर ही प्राणांत कर बैठा होता। ब्रह्मऋषि क्या डालते हैं मालुम नहीं। उनका कोई ओर छोर नहीं होता। उनके आगे किसी का वश नहीं चलता। मीरा के आगे किसका वश चला? ब्रह्मऋषि बनने का तात्पर्य है ब्रह्माण्डीय पुरुष बनना। ब्रह्माण्डीय नायक बनना। विष्णु जब युद्ध करते-करते थक जाते हैं तब योगमाया उन्हें शांत अवस्था में सुला देती है। ऐसा ही विश्वामित्र के साथ हुआ जब वे थक गये मैं और अहम की ताकत जबाब दे गयी तब गायत्री माता के रूप में प्रकट हुई। मेरे गुरु ने सही कहा है जब तक दो हाथ वाले से मांगते रहोगे चार हाथ वाला कभी नहीं देगा। 

स्वयंभू प्रतिष्ठित नहीं हो पाओगे। अध्यात्म के क्षेत्र में लोगों से प्रतिष्ठा मत मांगों। लोग यहाँ पर प्रतिष्ठित नहीं करते हैं। लोगों के पीछे दौड़ोगे तो फिर दौड़ते ही रहना। अगर वृक्ष अपने आपको न समेटे तो फिर उचित ऋतु आने पर आप फल कदापि नहीं खा पायेंगे। ब्रह्मऋषि बनना है तो सर्वप्रथम कायाकल्प की तीव्र लालसा होनी चाहिए।

         आज हम जो कुछ हैं उसे निवृत्त करना ही होगा। जहाँ जहाँ कमजोरी, पापाचार एवं कुप्रवृत्ति हमारे अंतर्गत छिपी हुई है उसे त्यागना ही होगा। अहम और मैं को एक कोने में रख दो। ऐसे सानिध्यों को ढूंढना पड़ेगा जहाँ से आपको अमृतमयी तत्व प्राप्त हो सकें। ऐसे स्थानों पर वास करना होगा जहाँ का वातावरण अमृतमयी हो व्यर्थ में ऊर्जा नष्ट करने से या फिर टकराव की स्थिति निर्मित करने से तो घर्षण ही उत्पन्न होगा। घर्षण से अग्रि और तपन ही निकलती है। आपने सड़क के किनारे लगे वृक्षों को देखा है मैं पिछले बीस वर्षों से अपने घर के पास लगे एक आम के वृक्ष को देख रहा हूँ बेचारा नपुंसक हो गया है, दुनिया भर का प्रदूषण, शोर एवं स्पंदन इत्यादि झेल रहा है। न तो उसमें कभी आम लगते हैं और न ही वह घटता बढ़ता है। ऐसा ही होता है सड़े-गले वातावरण में रहने से ब्रह्म शक्ति वह शक्ति है जिससे कि समस्त ब्रह्माण्ड का संचालन होता है जिससे कि यथा स्थिति बनी रहती है एवं प्रत्येक सूक्ष्म से सूक्ष्म आवृत्ति तत्व और जीव की क्रियाशीलता बनी रहती है। ब्रह्मशक्ति अनैतिक व्यवस्था में विश्वास नहीं रखती इसीलिए ब्रह्मत्ता को निर्विकार निर्गुण कहा गया है।

           यह निर्लिप्त शक्ति है। अत्यंत ही सूक्ष्म एवं परिष्कृत नियंत्रणात्मक एवं अत्यंत ही सूक्ष्म क्रियाशीलता का नाम ही ब्रह्म शक्ति है। अद्वैत ही ब्रह्मा है। देखिए जीवन कितना सार्वभौमिक है। नियम बद्धता कितनी कठोर एवं सुस्पष्ट है। सभी मनुष्यों को एक हृदय से काम चलाना पड़ता है। सभी मनुष्यों को ऊंचाई का एक निश्चित माप मिला हुआ है। आपने कभी ऐसा नहीं देखा है कि बीस फुट से लेकर आधे इंच तक के मनुष्य होते हैं। 99 प्रतिशत मनुष्य पांच फुट से लेकर छः फुट तक के मिलेंगे। कितनी निश्चितता है। अधिकांशत: स्त्रियाँ एक बार में और वह भी नौ महीने के अंतराल में ही एक बार बालक को जन्म देगी। 45 वर्ष की अवस्था तक पहुँचते-पहुँचते स्त्रियों में जन्म देने की क्षमता स्वयं ही समाप्त हो जाती है। 55 वर्ष की आयु में पुरुष में संतानोत्पत्ति की क्षमता खत्म हो जायेगी। शेर दस फिट का ही होगा सौ फिट का नहीं। सीमाऐं पूरी तरह निर्धारित हैं। अधिकतम सीमा तो कठोरता के साथ निर्धारित हैं। अब इसमें घट बढ़ का क्षेत्र मनुष्य के कर्मों के आधार पर छोड़ दिया ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार सम्पूर्ण भारत वर्ष में आप बिना किसी रोक-टोक के आ जा सकते हो, कहीं पर भी नौकरी कर सकते हो परन्तु बाहर जाने के लिए कुछ अन्य आवश्यकताऐं पड़ती हैं। योग्य होंगे तो जा पाओगे। आपकी मर्जी नहीं चलेगी। ऐसा नहीं हो सकता कि आप अपने पूरे परिवार का बोरिया बिस्तर बाँधे और हवाई जहाज का टिकिट लेकर अमेरिका में जा बसें।

       जब मानव निर्मित नियम इतने कठोर हैं तो फिर ब्रह्म शक्ति द्वारा निर्मित नियम कैसे होंगे खुद ही अंदाजा लगा सकते हो। बस यहीं से शुरू होता है ब्रह्म वर्चस्व का प्रादुर्भाव । जिसने अति सूक्ष्मता और गूढ़ता के साथ ब्रह्म या ब्रह्माण्डीय या परा ब्रह्माण्डीय नियमों को समझ लिया, आत्मसात कर लिया वही ब्राह्मण कहलायेगा । ब्रह्म को धारण करने का यही विधान है। ब्रह्म नियम ही सत्य है। इसको आत्मसात किया हुआ व्यक्ति ही परम ब्रह्मास्त्रों से सुसज्जित होता है। यही धर्म धारण करने की विधि है। शंकराचार्य जी ने इसीलिए हाथ में ब्रह्म दण्ड धारण किया हुआ है। ब्रह्म- दण्ड प्रतीक है समस्त देव आयुधों का एवं जिसके अंतर्गत माँ भगवती द्वारा धारण किए गये सभी आयुध भी आते हैं। ब्रह्म दण्ड के अंतर्गत ही शाप भी आता है। ब्रह्म दण्ड किनके लिए है? ब्रह्म दण्ड उन कुमार्गियों के लिए है जो कि ब्रह्म शक्ति में अविश्वास रखते हैं एवं राक्षसी प्रवृत्तियों से युक्त होते हैं। जब बह्म नियम कह रहें हैं कि साठ वर्ष की अवस्था काम लिप्तता के लिए नहीं है फिर भी राक्षसी गुणों के कारण भोगी इस ओर अग्रसर हो रहे हैं तो फिर निश्चित ही ये दण्ड के अधिकारी हैं अन्यथा ब्रह्म वर्चस्व समाप्त हो जायेगा। 

साठ वर्ष के भोगी सोलह वर्ष की कन्याओं से विवाह करने लगेंगे तो इस प्रकार समाज में कुकर्म फैल जायेगा। यही कारण है कि भोगी और कामी व्यक्ति मधुमेह, हृदय रोग एवं अन्य प्रकार के विकारों से ग्रसित हो जाते हैं। अत्यधिक कामातुर स्त्रियों के गर्भाशय जीवन के मध्य अवस्था में ही नष्ट हो जाते हैं। यह सब मनुष्य नहीं करता है कोई न कोई दिव्य शक्ति ही इस प्रकार के दण्ड निर्धारित कर देती हैं जिससे कि अंकुश लग सके कुप्रवृत्तियों पर यही है। देव और असुर शक्तियों के बीच चलने वाला निरंतर संग्राम सूर्य की किरणें अत्यंत ही घातक हैं परन्तु ब्रह्म शक्ति के चलते उनकी भी हिम्मत नहीं है कि वे पृथ्वी पर घातक रूप में पैर रख सकें। उन्हें भी माता गायत्री के अनुसार ही कोमल रूप में पृथ्वी पर उतरना पड़ता है। इस पृथ्वी पर प्रत्येक शक्ति को अमृतमयी रूप में उतरने की इजाजत है अर्थात शक्ति का वह स्वरूप जो कि जीवन के लिए उत्पादक एवं लाभप्रद हो। बस इसी मातृमयी शक्ति के कारण ही तो बालक नौ महीने स्त्री के गर्भ में रह पाता है।

          ब्रह्मऋषि सदैव मातृ शक्ति के उपासक होते हैं। प्रत्येक तत्व में, प्रत्येक जीव में माता के भाव देखते हैं इसलिए वे चारों ओर से पूर्ण सुरक्षित, कवचित और सुसज्जित होते हैं। जिस प्रकार माता अपने शिशु की हर तरफ से पूरी देखभाल करती है उसी प्रकार ब्रह्मऋषियों की प्रत्येक आवश्यकता माता बिना बताए ही स्वतः पूर्ण कर देती है। बालक के एक रूदन पर माता के स्तनों से दुग्ध की धारा फूट पड़ती है, वह स्वयं भूखी रह सकती है परन्तु बालक के लिए येन-केन-प्रकारेण भोजन उपलब्ध करा देती है। ब्रह्मत्व धारण करने का एकमात्र उपाय, अनुष्ठान एवं संकल्प है मातृ शक्ति की पूर्ण तन्मयता के साथ उपासना, आराधना एवं कृपा की प्राप्ति यही रहस्य जब विश्वामित्र ने समझा तब जाकर वह ब्रह्मऋषि बन पाये। गायत्री मंत्र क्या है? सीधी सी बात है वह परम ब्रह्माण्डीय, परम आदि माता का स्तुतिगान ही है। ब्रह्मविद्या के अंतर्गत क्या नहीं आता है? ब्रह्मज्ञानी चाहें तो बैठे-बैठे हजारों मील दूर की घटना को देख सकते हैं कहीं भी प्रकट हो सकते हैं। ब्रह्माण्ड में कहीं भी विचरण कर सकते हैं, किसी भी रोगी को दो मिनिट में स्वस्थ कर सकते हैं, मनचाहा पदार्थ अपनी इच्छानुरूप एक क्षण में प्राप्त कर सकते हैं, ब्रह्माण्ड के गूढ़ से गूढ़ रहस्यों को एक साथ देख सकते हैं, आत्मसात कर सकते हैं, किसी भी विषय पर घण्टों बोल सकते हैं, लीला भी कर सकते हैं, माया भी फैला सकते हैं, आशीर्वाद भी प्रदान कर सकते हैं, वरदान भी दे सकते हैं, दीक्षा संस्कार भी सम्पन्न कर सकते हैं। जिसने खुद कायाकल्प किया होगा वही तो कायाकल्प करायेगा। जिसके अंदर स्वयं के दुग्ध का उत्पादन होगा वही तो दुग्धपान करायेगा। वृक्ष ही आपको प्राणवान प्रदान करते हैं। जब प्राणवायु बनेगी तभी तो आपको प्राणवायु प्रदान करेंगे। प्रदान करने का खेल मातृ शक्ति का परिचायक है। मातृत्व के रस से परिपूर्ण मस्तिष्क ही मातृ शक्ति का प्रसार करेगी। जो स्वयं प्रेम विहीन होगा मातृत्व विहीन होगा, वह तो सिर्फ हिंसा, ताण्डव एवं दूसरों की आँखों में आँसू ही लायेगा। माता की गोद में बालक हँसने लगता है, मुस्कान बिखेरता है। ठीक इसी प्रकार आदि शक्ति माँ भगवती की गोद में खेल रहा बालक किस प्रकार की अमृतमयी मुस्कान बिखेरेगा इसे आप स्वयं ही समझ सकते हैं। ब्रह्मविद्या प्राप्त करने के लिए नाना प्रकार के जतन करने की जरूरत नहीं है बस सिर्फ मातृत्व की शरण में रहिए, मातृत्व तुल्य व्यक्तित्व बनिए, बालक के समान अपने आपको समेटिए और मुस्कान बिखेरिए यही है गायत्री शक्ति का रहस्य । 

                      शिव शासनत: शिव शासनत: