आध्यात्मिक लोगो और सामान्यजनों में अधिकांशतः सभी अपने जीवन के किसी न किसी काल में अध्यात्म के प्रति सशंकित रहते हैं। मानव मस्तिष्क ही कुछ ऐसा है आत्मा की आवाज कहती है कि अध्यात्म ही सत्य का मार्ग है परन्तु मस्तिष्क माया संसार की तरफ मनुष्य को खींचता है। बड़े-बड़े साधक डिग जाते हैं। अब तो कलयुग है प्रत्येक का मानस अंतद्वंद से ग्रसित है। हजारों महाभारत को एक तरफ रख लीजिए और अंतद्वंद को एक तरफ निश्चित ही अंतद्वंद भारी पड़ेगा। अंतर्द्वद के निराकरण के पश्चात ही महाभारत का अभ्युदय हुआ। सर्वप्रथम अर्जुन अंतद्वंद से ग्रसित हुआ उसके अंदर विचारों और तर्कों का तूफान उठा सब कुछ उलझ गया, संकल्प शक्ति क्षीण पड़ गई। पथ भ्रष्ट होने ही वाला था तभी श्रीकृष्ण ने गीता का प्रकाश आलोकित कर दिया। अंतद्वंद मिट गया। अर्जुन पुनः कर्मशील बन पाया।
नीचे एक कथा वर्णित कर रहा हूँ यह बताने के लिए कि आचार्य विद्यारण्यस्वामी जी भी अंतद्वंद से ग्रसित हो एक बार नास्तिक हो बैठे थे। यह कहानी फार्मूला पद्धति पर चल रहे साधकों के लिए एक प्रकाश पुंज का कार्य करेगी। आचार्य विद्यारण्यस्वामी जी ने अपने गुरु के निर्देशानुसार ग्यारह अनुष्ठान किये पर कोई परिणाम नहीं निकला। कुछ भी चमत्कार नहीं हुआ। तब उन्होंने स्थण्डिल पर अग्नि प्रज्वलित कर झोली, माला, आसन, पुस्तक आदि सबको अग्निसात् कर दिया। बस, केवल एक श्री यंत्रमय शिवलिङ्ग ही हाथ में बचा था। उसे भी वे अग्नि में डाल ही रहे थे कि एक स्त्री वहाँ आ गयी और बोली महाराज! आप यह क्या कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि पूजा-पाठ, उपासना सब पाखण्ड है, इसलिये मैं इन सबों को जलाकर लोगों को सचेत करूंगा कि वे उपासना छोड़कर अन्य पुरुषार्थ एवं परिश्रमों का आश्रय लें। इस पर वह स्त्री बोली कि यह सब तो ठीक है, पर जरा आप अपने पीछे देखिए कि वहाँ क्या हो रहा है, विद्यारण्य ने जब पीछे देखा तो वह स्थण्डिलाग्नि उनके पीछे ही दिखायी दी और उसमें ऊपर से बड़े-बड़े पत्थर गिरकर फूटने लगे।
वे घबराकर खड़े हो गये और धीरे-धीरे अग्नि से दूर हटने लगे। तब तक लगातार ग्यारह पत्थर आकाश से गिरकर भयंकर ध्वनि करते हुए अग्नि में नष्ट हो गये। उन्होंने सोचा कि यह स्त्री इस विषय में कुछ अवश्य जानती होगी, क्योंकि उसी ने ही पीछे देखने को कहा है पर जब वे स्त्री को खोजने लगे तो वह कहीं न दिखी। निकट के उपवन की झाड़ियों में भी उसे चिल्लाकर पुकारा पर वह नहीं आयी। अंत में आकाश से एक ध्वनि आयी कि तुम घोर नास्तिक हो। मैं तो ठीक समय पर आ गयी थी। पर तुम्हारी गुरु और शास्त्रों में श्रद्धा नहीं थी। अतः तुमने सबको जला दिया, गुरु का अपमान किया और नास्तिकता का प्रचार करने को उद्यत हो गये थे। अब भला बताओ तुम्हें किस देवता का दर्शन होगा और कौन सी सिद्धि प्राप्त होनी चाहिए। तुम्हारे ग्यारह जन्मों के पाप थे जो ग्यारह पहाड़ के रूप में गिरकर अग्नि में नष्ट हुए। अब पुनः गुरु के चरणों का आश्रय ग्रहण करो। विद्यारण्य अपने गुरु के चरणों में गिरकर यह सारी घटना सुनाई। उनके गुरु अत्यंत कृपालु थे उन्होंने उन्हें पुन: दूसरी माला, झोली और पुस्तकें आदि दे दीं और कहा कि तुम्हे एक ही अनुष्ठान से भगवती का सम्यक् दर्शन एवं ज्ञान प्राप्त हो जायेगा। फिर सब कुछ वैसा ही हुआ।
शंकराचार्य के सम्प्रदाय में वे ही सबसे बड़े विद्वान् हुए। फिर उन्होंने श्रीविद्यार्णव, नृसिंहोत्तरतापिनी उपनिषद्-भाष्य आदि विशाल मंत्रोपासना ग्रंथ, जीवन्मुक्ति विवेक, उपनिषद् भाष्य, वेद, आरण्यक भाष्य और पंचदशी आदि प्रायः शताधिक छोटे- बड़े ग्रंथ लिखे तथा देवी से यह भी प्रार्थना की कि जो शुद्ध हृदय से गुरु न मिलने पर मुझे ही गुरु मानकर इस ग्रंथ की विधिपूर्वक उपासना करे तो उसे आप शीघ्र दर्शन दें, अन्यथा कलियुग में सभी नास्तिक हो जायेंगे। ये ही विद्यारण्य भगवान् शंकर की कृपा से शृंगेरी मठ के आचार्य हुए और प्रायः सौ वर्षों से अधिक दिनों तक जीवित रहे। इन्होंने काश्मीर तथा विजयनगर दो विशाल साम्राज्यों की स्थापना की थी, जिनकी राजधानियाँ श्री यंत्र पर स्थित होने के कारण श्री नगर तथा विद्यानगर (विजय नगर ) के नाम से प्रसिद्ध हुई।
दोनों के शासक नरेश इनके अत्यन्त अनुगत शिष्य थे और साम्राज्यों का सीधा संचालन इनके ही हाथों में था। यों ही हाथों में था। यों देव्यपराधक्षमापनस्तोत्र में मया पञ्चशीतेरधिकमपनीते तु वयसि इसमें पचासी वर्ष से अधिक जीने की जो बात कही गयी है, वह इन्हीं की रचना सिद्ध होती है, क्योंकि शंकराचार्य जी 32 वर्ष तक ही जीवित थे।
देवता का ध्यान प्रायः हृदय में होता है, यदि हृदय शुद्ध नहीं है, काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह आदि से तनिक भी दूषित हैं तो वहाँ देवता कैसे आयेंगे। जिस गंदे तालाब में सुअर, गदहे, कुत्ते, गीध, कौए, बगुले आदि लोट लोटकर स्नान आदि कर दूषित करेंगे, वहाँ राजहंस कैसे आ सकते हैं? गोस्वामी जी ने भी कहा है
जेहि सर काक कंक बक सूकर क्यों मराल तहँ आवत।।
शैवागमों में शिव-ज्ञान की बहुत चर्चा है। तदनुसार अभ्यास, ज्ञान, वैराग्य ही शिव की प्रसन्नता के लिये मूल स्रोत बतलाये गये हैं। शिवगीता एवं भगवद्गीता में प्रायः यही बात कही गयी है। रामचरित मानस के प्रारम्भ में गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है कि शिवरूप परमात्मा तो सभी प्राणियों के हृदय में स्थित ही हैं। पर विनम्रता और श्रद्धारूपी भवानी तथा त्याग, वैराग्य, दैन्य और विश्वासरूपी शिव के अभाव में वह प्रत्यक्ष नहीं होता
भवानीशङ्करौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरू पिणौ ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तः स्थमीश्वरम् ॥
देवो भूत्वा यजेद्देवम् शिवो भूत्वा शिवं यजेत् के अनुसार विष्णु बनकर विष्णु की आराधना होती है अतः शिव की प्राप्ति के लिये अपने को निरन्तर ऊपर उठाते हुए शिव के समान ही त्यागी, परोपकारी, सहिष्णु और काम, क्रोध, लोभ आदि से शून्य होकर केवल विज्ञानमय, साधनामय एवं उपासनामय ही बनना पड़ेगा। गीता के नासतो विद्यतो भावो नाभावो विद्यते सतः के आधार पर मानसिक योग्यता न होने तथा अर्थ, काम लिप्सा के कारण ही अन्तर-बाह्य व्याप्त शिव नहीं दिखते। शुद्ध उपासना का आश्रय लेने पर सभी दोष धीरे-धीरे दूर होकर एकमात्र शांत शिव ही सर्वत्र उद्भासित होते दिखेंगे।
शिव शासनत: शिव शासनत:
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