सूर्य तो सुबह उगेगा ही अब कोई हो सकता है ब्रह्म मुहूर्त में उठ जाये, कोई 6 बजे उठे, कोई 9 बजे उठे पर उठना तो उसे पड़ेगा ही, उठने से वह नहीं बच सकता। यह प्रज्ञा का विषय है एवं दूसरा विषय छाया का है। सूर्य की दो पत्नियाँ हैं प्रथम का नाम प्रज्ञा है और प्रज्ञा से यमराज एवं अश्विनी कुमारों का जन्म हुआ है, छाया से शनि एवं तप्ति का जन्म हुआ है। प्रज्ञा से ही प्रथम मनु भी उत्पन्न हुए हैं, भगवान मनु सूर्य पुत्र हैं एवं उन्होंने मनु स्मृति नामक ग्रंथ लिखा। मनु स्मृति ग्रंथ कुछ भी नहीं केवल सौर अभियांत्रिकी के अंतर्गत किस प्रकार जीव श्रेष्ठतम स्थिति को प्राप्त कर सकता है का वर्णन है। यह एक तरह से मनुष्य का संविधान है, जब जब मनुष्य मनु-स्मृति से भटकेगा वह सर्वप्रथम तो मनुष्य ही नहीं रह जायेगा और उसके ऊपर प्राकृतिक रूप से कालचक्र क्रियाशील हो जायेगा पुनः उसे मनुष्यता के रास्ते पर लाने हेतु साथ ही उसे एहसास एवं अनुभव रूपी दण्डों को भी भोगना पड़ेगा।
मैं नाम नहीं लिखना चाहता, अनेक लोग केवल मनु स्मृति मनुवाद को गाली एवं अपशब्द कहने में अपनी ऊर्जा व्यय करते हैं परन्तु यह सब आधा-अधूरा ज्ञान है, आधा-अधूरा व्यर्थ का चिंतन है एवं किसी शास्त्र की गहनता और वास्तविकता के गूढ़ार्थ में जाने की अपेक्षा उसे युग एवं समय के अनुसार तोड़-फोड़कर समझने की प्रक्रिया है। मनु स्मृति जैसे ग्रंथ किसी काल विशेष के लिए नहीं लिखे गये हैं, किसी वर्ग विशेष के लिए नहीं लिखे गये हैं। मनु स्मृति की रचना तो युग युगान्तरों पूर्व हुई है। मैं यह भी नहीं कर रहा कि वर्तमान में जिसे हम वास्तविक मनु स्मृति ग्रंथ मान रहे हैं वह भी पूर्ण शुद्ध या अपने वास्तविक रूप में है वास्तविक गीता वास्तव में 120 श्लोक की थी कालान्तर उसमें अनेक विद्वानों ने युग एवं कालानुसार दुनियाभर के श्लोक ठूस दिए। आप जब गीता पढ़ेंगे तो अनेकों श्लोक ऐसे हैं जो पढ़ते से ही समझ में आ जाते हैं कि ये परम परमात्मा भगवान श्रीकृष्ण के मुख से नहीं निकले हुए हैं अतः युग और काल के दोष तो आ ही जाते हैं।
इसलिए प्राचीन काल में ऋषि-मुनि सीधे सूर्य मण्डल में ध्यान करके सूर्य रश्मियों के द्वारा अपने हृदय में वेदों को आर्भिभूत करते थे। महर्षि याज्ञवल्कक्य ने सामवेद, अथर्ववेद, ऋग्वेद सूर्य रश्मियों के माध्यम से प्राप्त किये थे। सौर उपासना का तात्पर्य है सीधे प्राप्त करना एवं माध्यम को बीच से हटा देना। कृतिका नक्षत्र में भगवान सूर्य अपनी दिव्य रश्मियों से वर्षा करते हैं तब न कोई बादल होते हैं, न ही वर्षा का मौसम फिर भी बरसात होती है और योगीजन इस दिव्य स्नान का इंतजार करते रहते हैं इसे ही वे अमृत स्नान कहते हैं। भगवान सूर्य के लिए सब कुछ सम्भव है। पूर्णिमा के दिन ही लोगों को ज्ञान प्राप्त क्यों होता है ? जिन्हें ज्ञान, मोक्ष, कैवल्य पद इत्यादि प्राप्त होता है वे पोथे नहीं बांचते अपितु सीधे ध्यानस्थ हो सोम मण्डल, सूर्य मण्डल एवं अग्नि मण्डल के माध्यम से परम शुद्ध एवं चैतन्य ज्ञान अपने अंदर समाहित करते हैं।
विश्वामित्र ने यही किया, उन्होंने गायत्री मंत्र के माध्यम से सीधे-सीधे सूर्य के तेज को अपने अंदर उतार लिया, स्वयं वेदमयी हो गये, स्वयं तेजमयी हो गये, ब्रह्मज्ञानी बन गये। सीधे प्राप्त करने की क्षमता जब आ जाती है तब सौर अभियांत्रिकी से जातक युक्त हो जाता है, वह साक्षात् मंत्र दृष्टा बन जाता है, साक्षात् सूर्य बन जाता है। स्वामी विशुद्धानंद जी सौर विद्या में दक्ष थे अतः वे सूर्य किरणों के माध्यम से गेंदे के फूल को गुलाब के फूल में परिवर्तित कर देते थे। लोग कहते हैं कि मृत्यु दण्ड या फाँसी की सजा खत्म कर देना चाहिए पर जरा सोच कर देखिए वर्ष में मात्र एकाध दो लोगों को सरकार फाँसी देती है, वह भी जब वे अत्यंत ही जघन्य अपराध करते हैं कितना धन खर्च होता है, एक अदालत से दूसरी अदालत यहाँ तक कि राष्ट्रपति तक क्षमा याचना की जाती है कितना हो हल्ला मचता है परन्तु प्रतिदिन प्रत्येक मानव बस्ती रूपी शहरों इत्यादि में अनेको लोग स्वयं अपने हाथ से बिना जल्लाद की सहायत से फाँसी का फंदा लगाते हैं और झूल जाते हैं कितने जहर खाते हैं, कितने स्वयं को दग्ध करते हैं,कितनी हत्याएं होती हैं इसे कहते हैं आत्मघात।
समस्त चिकित्सालय रोगियों से भरे पड़े हैं इसे कहते हैं आत्मघात। यह सब इसलिए हो रहा है मनुष्य यह नहीं समझ रहा कि वह एक सौर मण्डल विशेष के अधीन है एवं उसकी शारीरिक संरचना कालचक्र के अधीन है, वह सौर अभियांत्रिकी का एक अभिन्न हिस्सा है, वह वास्तविक मनु स्मृति को अपनी स्मृति में जगह नहीं दे रहा इसलिए जो सौर अभियांत्रिकी एक मनुष्य को सौ वर्ष तक देखने,समझने, जीवित रहने इत्यादि के लिए निर्मित कर रही है वही उसे बेकार समझ नष्ट कर रही है।
स्वयं नष्ट करवा रही है। कालचक्र को सौर आधारित जीवन का अनुसरण करने वाले जीव की आवश्यकता है न कि सौर प्रणाली के अंतर्गत पनपने वाले विषाणुओं की जो कि सम्पूर्ण सौर प्रणाली को क्षतिग्रस्त या नष्ट करने की प्रवृत्ति से युक्त हैं। स्वामी विशुद्धानंद जी ने कहा प्रत्येक पंजीकृत भूत के अंतर्गत अपंजीकृत भूत छिपे हुए हैं अर्थात जल के अंदर आठवे अंश में वायु, अग्नि, भूमि एवं आकाश निहित हैं और सौर किरणें जब चाहें तब इन अपंजीकृत भूतों को उदित कर सकती हैं। उन्होंने यह विद्या तिब्बत में लामाओं से सीखी थी वे कालचक्र में पारंगत थे। रावण की लंका में विभीषण भी छिपे हुए थे एवं राम ने विभीषण को उदित कर दिया और वे लंकेश बन गये।
आप ऊपर से भूमि को देखिए गर्मी में वह सूखी दिखाई देगी परन्तु वर्षा ऋतु में वही भूमि हरितिमा से ढँक जायेगी, सूर्य देव अपनी किरणों के माध्यम से उसमें कुछ उदित कर देंगे। यमराज ने नचिकेता से कहा तू सिद्धि ले ले, राजपाट ले ले, अप्सरा ले ले, धन-दौलत ले ले, जो चाहे वो ले ले, सौ वर्ष की आयु ले ले परन्तु ब्रह्म विद्या के बारे में मत पूछ । मृत्यु के बाद क्या होता है? यह मत पूछ इस पर पर्दा पड़ा रहने दे। नचिकेता नहीं माने एवं उन्होंने सौर मण्डल के अंतर्गत तथाकथित प्राप्ति को अस्वीकार कर दिया और ब्रह्म को जानना चाहा आखिरकार थकहारकर यमराज ने उन्हें श्रीविद्योपासना बता दी। इस प्रकार नचिकेता मुक्त हो गये एवं उन्होंने यमराज के पास बैठकर समस्त मैट्रिक्स देख ली, वे गुलामी से मुक्त हुए और सूर्य मण्डल को भेदकर निकल गये।
वैसे तो भगवान सूर्य को अनंत रश्मियाँ हैं परन्तु उनकी सप्त रश्मियाँ प्रमुख मानी गई हैं। इन सप्त रश्मियों का पूजन कालचक्र के अंतर्गत होता है। ये सात रश्मियाँ हैं सुषुम्ना यह रश्मि कृष्ण पक्ष में क्षीण चंद्र कलाओं पर नियंत्रण करती हैं और शुक्ल पक्ष में उनमें कलाओं का आभिर्भाव करती हैं। चन्द्रमा सूर्य की सुषुम्ना रश्मि से पूर्ण कला प्राप्त करके अमृत का प्रसारण करते हैं। संसार के सभी जड़ चेतन प्राणी चंद्रमा की पूर्ण कला से क्षारित अमृत हैं। सूर्य की दूसरी प्रमुख रश्मि है सुरादना। चंद्रमा की उत्पत्ति इसी सूर्य रश्मि से होती है। 33333 देवता चंद्र मण्डल में निरंतर अमृत पान करते रहते हैं चंद्रमा में जो शीत किरणें हैं वे सूर्य की रश्मियाँ हैं एवं इसी से चंद्रमा अमृत की रक्षा करते हैं। उदन्वसु सूर्य रश्मि से मंगल ग्रह का आभिर्भाव हुआ है। मंगल प्राणियों के शरीर में रक्त संचालन करते हैं, इसी रश्मि से प्राणियों के शरीर में रक्त संचालन होता है। यह सूर्य रश्मि सभी प्रकार के रक्त दोषों से प्राणियों को मुक्त कराकर आरोग्य, ऐश्वर्य, तेज का अभ्युदय करती है। इसका तंत्रोक्त मंत्र है ॐ ऐं ह्रीं श्रीं उदन्वसु रश्मि मण्डलाय नमः ।
विश्वकर्मा नाम की रश्मियाँ बुध ग्रह का निर्माण करती हैं। बुध ग्रह प्राणियों के शुभ चिंतक ग्रह हैं। इस रश्मि के उपयोग से मनुष्य की मानसिक अशांति शांत होती हैं एवं इसका तंत्रोक्त मंत्र है ॐ ऐं ह्रीं श्रीं विश्वकर्मा रश्मि मण्डलाय नमः । उदावसु नामक सौर रश्मियाँ बृहस्पति ग्रह का निर्माण करती हैं। बृहस्पति प्राणी मात्र के अभ्युदय निश्रेयष प्रदायक हैं। गुरु की अनुकूलता प्रतिकूलता में ही मनुष्य का उत्थान पतन होता है इस सूर्य रश्मि मण्डल के पूजन से प्रतिकूल वातावरण निरस्त होते हैं और अनुकूल वातावरण उपस्थित होते हैं इसका तंत्रोक्त मंत्र है ॐ ऐं ह्रीं श्रीं उदावसु रश्मि मण्डलाय नमः
विश्वव्या रश्मि मण्डल से शुक्र एवं शनि नामक ग्रह उत्पन्न होते हैं। शुक्र वीर्य के अधिष्ठाता हैं एवं मनुष्य का जीवन शुक्र से ही निर्मित होता है तो दूसरी | तरफ शनि देव मृत्यु के अधिष्ठाता हैं। जीवन एवं मृत्यु दोनों का नियंत्रण सूर्य के उक्त रश्मि मण्डल से होता है। शुक्र ग्रह एवं शनि ग्रह के अनुकूलन हेतु तंत्रोक्त मंत्र है ॐ ऐं ह्रीं श्रीं विश्व्च्या रश्मि मण्डलाय नमः । आकाश के सम्पूर्ण नक्षत्र हरिकेश नामक सूर्य रश्मि से उत्पन्न हुए हैं। नक्षत्रों का कार्य प्राणियों में तेज, बल वीर्य का क्षरण, द्रवण से रक्षण करना है। यह रश्मियाँ प्राणियों में तेज, बल-वीर्य के प्रभाव को बढ़ाती है एवं मरणोपरांत परलोक प्रदान करती हैं। इनका तंत्रोक्त मंत्र है ॐ ऐं ह्रीं श्रीं हरिकेश रश्मि मण्डलाय नमः । ॐ ऐं ह्रीं श्रीं सुरादना रश्मि मण्डलाय नमः मंत्र के जाप से चंद्रग्रह जातक पर अत्यधिक प्रसन्न होते हैं।
भगवान सूर्य देव के रथ पूजन का अपना विशेष तांत्रिक महत्व है। मकर संक्रांति के दिन भगवान सूर्य के रथ का पूजन किया जाता है एवं सूर्य के साथ-साथ उनके नौ ग्रहों के भी रथ पूजित किए जाते हैं। ये नौ ग्रह महारथी हैं, हमेशा रथ पर सवार रहते हैं और निरंतर परिक्रमा रत रहते हैं। स्वयं भगवान सूर्य रथ पर सवार हो ध्रुव भण्डल की परिक्रमा करते रहते हैं और ध्रुव मण्डल शिशुमार चक्र की शिशुमार चक्र में भगवान नारायण विराजित हैं। ध्वज भंग नहीं होना चाहिये, किसी भी राजा के रथ पर आरुढ़ ध्वज जब भंग हो जाता है तो उसका राजपाट जाता रहता है अतः जीवन के सभी क्षेत्रों में ध्वज भंग होने से बचने हेतु नीचे लिखित मंत्रों के जप का अत्यधिक महत्व है।
चन्द्रमा का रथ तीन पहियों वाला है एवं उसमें श्वेत वर्ण के दस घोड़े जुते हुए हैं इसका तंत्रोक्त मंत्र है ॐ ऐं ह्रीं श्रीं दस श्वेत अश्व युक्ताय चंद्र रथाय नमः । चन्द्रमा के पुत्र बुध का रथ वायु और अग्निमय द्रव्यों का बना हुआ है एवं उसमें आठ पिशंग वर्ण वाले घोड़े जुते हुए हैं, इनका तंत्रोक्त मंत्र है ॐ ऐं ह्रीं श्रीं अष्ट पिशंग अश्व युक्ताय बुध रथाय नमः । शुक्र का रथ लौह निर्मित है एवं पृथ्वी से उत्पन्न हुए घोड़ों के द्वारा खींचा जाता है इसका तंत्रोक्त मंत्र है ॐ ऐं ह्रीं श्रीं लौह निर्मित शुक्र रथाय नमः । मंगल का रथ स्वर्ण निर्मित है एवं अग्नि से उत्पन्न पद्म राग मणि के समान अरुण वर्ण के आठ घोड़ों से युक्त है इसका तंत्रोक्त मंत्र है ॐ ऐं ह्रीं श्रीं अष्ट अश्व युक्ताय मंगल रथाय नमः । बृहस्पति का रथ भी स्वर्ण से निर्मित है एवं इसे भी आठ पाडुंर वर्ण वाले घोड़े खींच रहे हैं इनका तंत्रोक्त मंत्र है ॐ ऐं ह्रीं श्रीं अष्ट अश्व युक्ताय बृहस्पति रथाय नमः । शनि के रथ को आकाश से उत्पन्न हुए विचित्र वर्ण के घोड़े धीरे-धीरे खींच रहे हैं इनका मंत्र है ॐ ऐं ह्रीं श्रीं विचित्र वर्ण अश्व युक्ताय शनि रथाय नमः । राहु का रथ मटमैले वर्ण का है एवं उसे कृष्ण वर्ण के आठ घोड़े खींच रहे हैं इनका तंत्रोक्त मंत्र है ॐ ऐं ह्रीं श्रीं अष्ट अश्व युक्ताय राहु रथाय नमः । केतु का रथ धुंए की आभा लिए हुए है एवं इसे भी आठ घोड़े खींच रहे हैं इनका तंत्रोक्त मंत्र है। ॐ ऐं ह्रीं श्रीं अष्ट अश्व युक्ताय केतु रथाय नमः ।
इस प्रकार इन मंत्रों से जब हम इन ग्रहों के रथों का पूजन करते हैं तो ये समस्त ग्रह अतिशीघ्र कृपावान हो हमारे लिए अनुकूल परिस्थिति का निर्माण कर देते हैं भगवान सूर्य की दो पत्नियाँ हैं संज्ञा एवं छाया। हम सारा जीवन क्या करते हैं? सिर्फ छाया तलाशते हैं। वृक्ष की छाया मिल जाये, हमारे मकान क्या हैं? वे मात्र छाया में रहने के स्थान हैं। हमें छाया को विस्तृतता से समझना होगा। असुरक्षा की भावना छाया में रहने की प्रवृत्ति के कारण ही विकसित होती है। चाहे आर्थिक तल हो, सामाजिक तल हो, तल हो या कोई अन्य तल जब हम संग चाहते हैं, साथ चाहते हैं, सुरक्षा चाहते हैं तब हम सिर्फ छाया की शरण में जा रहे हैं। कहीं न कहीं हम में कुछ कमी है, कुछ भय है, कुछ कोमलता है, कहीं हम छिपना चाह रहे हैं, कहीं हम बचना चाह रहे हैं, कहीं कुछ असहनीय हो रहा है इसलिए हमें छाया चाहिए, ओंट चाहिए।
ऐसा नहीं कि छाया दिन में ही चाहिए होती है रात्रि में भी छाया चाहिए होती है। क्या हम रात्रि में खुले आकाश के नीचे सो सकते हैं? कालचक्र में भी हमारे ऊपर ग्रह, नक्षत्रों इत्यादि की छाया पड़ जाती है। जब सूर्य स्वयं छाया से मुक्त नहीं हैं तब हमारा किसी अन्य ग्रह, नक्षत्र इत्यादि का छाया से मुक्त होना बेमानी है। छाया, सूर्य और जीव के बीच एक अलौकिक आवरण है जिसके कारण सूर्य सीधे जीव के सम्पर्क में नहीं आते। दूसरी तरफ संज्ञा या प्रज्ञा हैं जो छाया मुक्त हैं। जैसे-जैसे मनुष्य साधक बनता है वह छाया को त्यागता जाता है, निकल पड़ता है
निकल पड़ता है सब कुछ छोड़कर प्रत्यक्ष की तरफ ।काल अपना काम करता रहे तो उसे करने दो, आप आत्मज्ञानी बनो एवं भगवती त्रिपुर सुन्दरी की शरण में जाओ, आत्मानुसंधान करो यही श्रेष्ठतम देवयान का मार्ग है। जो इस मार्ग पर चलेगा उसे भगवान सूर्य आदर के साथ ऊर्ध्वगामी मार्ग प्रदान करते हैं। अंत में यही कहना चाहूंगा कि गुरु के पीछे-पीछे चलते रहे सूर्य मण्डल को भेद जाओगे।
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