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योग ( हनुमंत शक्ति के सन्दर्भ में )

     योग के साधक इस बात को याद रखें कि उद्देश्यहीन यौगिक क्रियाएँ पतन का मार्ग हैं। योग मार्ग पर चल कर आप अनेकों प्रकार की साधनाएँ, सिद्धियाँ और दुर्लभ शक्तियाँ प्राप्त कर लेगे। योग मार्ग आपको स्वस्थ एवं दीर्घायु जीवन भी प्रदान कर देगा। आपकी युवावस्था अन्य व्यक्तियों की तुलना में चार गुना बढ़ जायेगी। एक योग का साधक व्यक्ति अगर अपनी क्षमताओं को भोग के लिये इस्तेमाल करेगा तो फिर अंत अत्यंत ही भयावह होगा। साधक अगर सब क्षमताओं को प्राप्त कर एकांतवास करता है, तो कहीं न कहीं वह सत्य से भाग रहा है। एक कहावत है "जंगल में मोर नाचा किसने देखा" अधिकांशतः सिद्ध साधकों द्वारा इस कहावत को आत्मसात् कर देने के कारण ही समाज में अध्यात्म के प्रति संशय की स्थिति निर्मित होती है। 
           जन साधारण साधनाओं और सिद्धियों के पथ से विमुख होते हैं क्यों ? उनके सामने जो व्यक्तित्व बचते हैं वे अध्यात्म का प्रारंभिक ज्ञान भी नही रखते और तो और उनके अधकचरे प्रदर्शन से जन साधारण के बीच सिद्धियों का ह्रास होता है। हनुमान को आठ सिद्धियाँ एवं नौ निधियाँ प्राप्त हैं उनका शरीर अखण्ड ब्रह्मचर्य की दिव्य एवं पवित्र मंगलमूर्ति है। बल, बुद्धि, विद्या एवं प्रेम का अद्भुत समिश्रण है हनुमान का चरित्र । योग के साधकों को हनुमान के समान ही चरित्रवान बनना चाहिये और उन्हीं के समान अपनी साधनाओं, शक्ति और सिद्धियों से कल्याणकारी कार्यों को संपन्न करना चाहिये। हनुमान रक्षक देव हैं अतः जब तक अध्यात्म के साधक समाज की हर प्रकार की बुराईयों से रक्षा नहीं करेंगे अध्यात्म जन साधारण मे लोकप्रिय नहीं हो पायेगा। हनुमान भगवान श्री राम के द्वारा स्थापित मर्यादित आर्य संस्कृति के ही अंश हैं। उन्होंने श्री राम के साथ इस पृथ्वी को मर्यादा का पाठ पढ़ाया है। 
           रोग, क्लेश, कुविचार, हिंसा, भ्रष्टाचार, महामारियाँ, विपत्तियाँ, मद्यपान, नाना प्रकार के कुकर्म एवं प्राकृतिक प्रकोप अमर्यादित व्यवस्थाओं के कारण ही उत्पन्न होते हैं। जब तक मन, शरीर, विचार और इन्द्रियाँ मर्यादित नहीं होगी शरीर का रक्षा कवच पूर्ण नहीं हो पाता है। योग मर्यादा का ही दूसरा नाम है। मर्यादित व्यक्तित्व ही कायरता का परित्याग कर वास्तविक वीर बन सकता है। ऐसे ही व्यक्तियों से परिवार, समाज और राष्ट्र की वास्तविक रक्षा संभव है। योग केवल आत्मकल्याण का विषय नहीं है। जब हम समाज, परिवार, राष्ट्र एवं विश्व और ब्रह्माण्ड से ही सब कुछ ग्रहण करते है तो फिर इन्हें भी रक्षा और मर्यादित व्यवहार प्रदान करना हमारा प्रमुख धर्म है। हम अपने शरीर की पवित्रता एवं बल तभी तक बना सकते है जब हम पंचभूतों के निरंतर सानिध्य में रहें। 
         जल में तैरना, पहाड़ी पर भ्रमण करना, शुद्ध वायु के लिये वनों में जाना, खुली धूप में घूमना एक योग के साधक के लिये नितांत आवश्यक है इन सब से शरीर का पवित्रिकरण अति तीव्र हो जाता है। योग मात्र बंद कमरे की प्रक्रिया नहीं है यह तो मनुष्य को इस पृथ्वी पर स्वस्थ एवं गतिशील बनाए रखने की विद्या है। योग का साधक भोजन भी अत्यन्त प्रेम से करता है और उसे अच्छी तरह पचाने की भी क्षमता रखता है। आपने अनेकों ऐसे लोगों को देखा होगा कि वे प्रतिदिन उच्चतम भोजन करते हैं फिर भी शरीर पूर्ण विकसित नहीं होता और न ही चेहरे पर तेज होता है। थोड़ा सा भी मौसम के परिवर्तन होने की स्थिति में वे खाट पकड़ लेते हैं, परंतु योग का साधक अल्प भोजन से भी समग्रता के साथ सभी तत्व ग्रहण करता है और जीवन में आने वाले परिवर्तनों में वह अपरिवर्तनीय रहता है।

हनुमान- आसन

          एक बहुत ही महत्वपूर्ण प्रश्न बार-बार उठता है कि ब्रह्मचर्य क्या है ? सामान्य व्यक्ति इसका मतलब सिर्फ काम क्रिया को रोकने से सम्बन्धित समझते हैं परन्तु वास्तव में काम क्रिया तो मात्र मस्तिष्क में उठ रहे काम संवेगों का परिणाम है। अगर मस्तिष्क में काम संवेग निरन्तर निर्मित हो रहे हों और व्यक्ति काम क्रिया को रोक दे तो सिर्फ दो ही बातें हो पायेंगी। नंबर एक मस्तिष्क के अंदर प्रचण्ड रूप से ऊर्जा एकत्रित हो जायेगी और व्यक्ति अपना सामान्य संतुलन खो बैठेगा या फिर वह कुछ समय पश्चात् पथभ्रष्ट होकर अनैतिक कार्य कर बैठेगा। अतः ब्रह्मचर्य से तात्पर्य है कि सर्वप्रथम काम सम्बन्धित ऊर्जा के सम्पूर्ण आयामों को समझा जाये और फिर उसके पश्चात इस ऊर्जा हो हम किस तरह से रचनात्मक एवं अन्य किसी दिशा में परिवर्तित कर पाते हैं। बिना परिवर्तन किये काम ऊर्जा को रोकना अत्यंत ही घातक एवं मूर्खता है।

          सवाल उठता है कि परिवर्तन कैसे किया जाय और कौन परिवर्तन करेगा। बस इसी बिंदु पर साधक को एक योग्य सदगुरु एवं ईश्वरीय कृपा की परम आवश्यकता पड़ती है। कुण्डलिनी शक्ति एवं काम ऊर्जा दोनों का आपस में बहुत ही गहरा एवं परस्पर सम्बन्ध है। आंतरिक रूप से कामेच्छा जब तक पूरी तरह परिवर्तित नहीं होती तब तक कुण्डलिनी जागरण की बात करना बेमतलब है। जिस बिंदु पर कामेच्छा से साधक निवृत्त होता है वहीं पर अध्यात्म की वास्तविक डगर शुरू होती है इससे पहले की सभी अवस्थाऐं मात्र आगे बढ़ने की तैयारी होती हैं। ब्रह्मचर्य के बारे में ये बातें नितांत रूप से इसलिए आवश्यक थी क्योंकि रामभक्त हनुमान पूर्ण रूप से बाल ब्रह्मचारी थे और जीवन पर्यन्त उन्हें कभी किसी भी प्रकार का वासना मय प्रेम लिप्त नहीं कर पाया। प्रत्येक व्यक्ति अपने आप में एक विशेष भिन्नता लिए हुए है अत: किसी की किसी से तुलना करना बेमानी है। कोई भी एक नियम सभी व्यक्तियों पर लागू नहीं होता है। ब्रह्मचर्य की बात करते समय भी हमें यह स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि काम ऊर्जा का सीधा सम्बन्ध हमारे अस्तित्व से है एवं एक जैविक रचना होने के नाते कोई भी इस ऊर्जा से मुक्त नहीं है परन्तु लम्बे समय से हठयोग के मार्ग पर चलते-चलते एक समय ऐसा आ जाता है कि आंतरिक रूप से बिना किसी दबाव या महत्वकांक्षा के यह रासायनिक क्रिया स्वयं ही सुप्त हो जाती है और ब्रह्मचर्य हमारे हाव-भाव, आचार-व्यवहार एवं दृष्टि में आ जाता है।

विधि -

         सर्वप्रथम सावधान की मुद्रा में खड़े हो जायें, इसके पश्चात् धीरे-धीरे दोनों टांगों को विपरीत दिशा में फैलायें । दोनो टांगों के बीच तीन फिट की दूरी स्थापित करें। लगभग पाँच सेकेण्ड तक रुकें और फिर दूरी को बढ़ाकर पांच से छ: फिट कर दें और पुन: पांच सेकेण्ड तक रुकें। ऐसा करते समय पांव के पंजे भूमि से सटे हुए हों एवं घुटने से पांव मुड़ने न पायें | इसके पश्चात् दाहिने पंजे को 90 अंश पर घुमा लें और धड़ को दाहिनी तरफ घुमाते हुए दोनों हाथों की हथेलियों को भूमि से लगा लें। इसके पश्चात् बायें पैर को इस तरीके से घुमायें रखता है। कि पंजे का आपरी हिस्सा भूमि से स्पर्श करने लगे। आसन की पूर्ण स्थिति में दोनों टांगों को एवं नितम्बों को भूमि से सटा दें। इसके पश्चात् दोनों हाथों को छाती के सामने सटाते हुए प्रणाम की मुद्रा में स्थापित कीजिए ।

           लगभग दस सेकेण्ड तक इस स्थिति में रुकें फिर धीरे धीरे सामान्य अवस्था में वापस आ जायें। इसके पश्चात् पांव की दिशा बदलते हुए पुन: एक बार इस क्रिया को सम्पन्न करें। उपरोक्त आसन में कमर से ऊपर का हिस्सा आसन करते वक्त सीधा रखना है।

लाभ

    यह आसन खिलाड़ियों विशेषकर धावकों के लिए अत्यंत ही लाभदायक है। इस आसन को करने से पांव स्फूर्तिवान बनते हैं एवं उनमें चपलता बढ़ जाती है। विशेषकर लंबी कूद एवं धावकों के लिए यह आसन बहुत ही लाभदायक है। फुटबाल खेलने वाले इस आसन को अवश्य ही करते हैं जिसके कारण वे मंदिर शिरा की अकड़न एवं छोटी-छोटी मोचों से बचे रहते हैं।
           रामभक्त हनुमान को वायु पुत्र भी कहा जाता है अतः इस आसन को करने से व्यक्ति अपने आपको शारीरिक रूप से हल्का महसूस करता है एवं उसके अंदर तैरने, हवाईजहाज से छलांग लगाने, कूदने की क्षमता का विकास होता है। इस आसन को नियमित रूप से करने वाले व्यक्ति को परम शांति का अनुभव होता है एवं उसके अंदर विकट परिस्थितियों में भी मानसिक संतुलन बनाये रखने की क्षमता का विकास होता है। जिमनास्टिक से सम्बन्धित अभ्यासी इस आसन का अत्यधिक लाभ उठा सकते हैं। सम्पूर्ण टांगों को सुडौल बनाने के लिए यह सर्वश्रेष्ठ आसन है। इसके साथ ही यह आसन उदर शक्ति का विकास करता है, मल एवं मूत्र निकास की क्रिया को सुलभ बनाता है और गृहस्थों में काम शक्ति को लम्बे समय तक बनाये रखता हैं।
                   शिव शासनत: शिव शासनत:

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