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आध्यात्मिक देह प्राप्ति ।।

         आप चित्र में या मूर्ति विग्रह के रूप में या फिर स्वप्न में भगवती के स्वरूप को देखते हैं कभी उनकी अष्ट भुजाऐं दिखाई देती हैं, कभी दस भुजाऐं दिखाई देती हैं। कभी वह अनंत चक्षुओं से युक्त होती हैं तो कभी सिंह पर सवार होती हैं। कभी महाकाली के समान रुण्ड मुण्ड की माला पहने हुए होती हैं। सभी देवी शक्तियाँ अनोखे स्वरूप लिए हुए हैं। अत्यंत ही विहंगम, अलौकिक एवं दुर्लभ स्वरूप उनके मुख मण्डल पर जो दिव्य आभा होती है वह सामान्य जीवन में किसी भी जीव में उसका एकांश भी देखने को नहीं मिलता है। उनके अतुलनीय सौन्दर्य को असंख्य मानवों की आँखें निरंतर ढूंढती रहती है फिर भी सम्पूर्ण जीवन बीत जाने के बाद भी एक क्षण के लिए हमें पराम्बरा के दुर्लभ स्वरूप के दर्शन नहीं हो पाते हैं। उनका स्वरूप तो वास्तव में दुर्लभ है। 

          कितने उपवास साधक रखते हैं, कितनी घोर तपस्या साधक करते हैं, कितना जाप, कितने अनुष्ठान, तीर्थ स्थलों इत्यादि पर भी साधक भटकता है। निश्चित ही वह पराम्बरा की शक्ति को तो महसूस कर लेता है। कृपा रूपी अदृश्य शक्ति के द्वारा वे उसे संकटों से भी उबार लेती है। उसके बिगड़ते कार्य भी बना देती हैं, उसे भौतिक सुखों से भी युक्त कर देती है। कुछ एक सिद्धियाँ भी प्राप्त कर लेते हैं फिर भी उनके दर्शन की दुर्लभता तो बनी ही रहती है। दर्शन की दुर्लभता उन्होंने स्वयं ही कर रखी है दर्शन की इसी दुर्लभता के कारण हमारे देश के अधिकांशतः तथाकथित पढ़े लिखे एवं पाश्चात्य शैली से ग्रसित लोग पराम्बरा के अद्भुत विग्रहों को मात्र कल्पना मान बैठते हैं। अब उन्होंने देखा ही नहीं है तो वे क्या जाने उन्हीं की हाँ में हाँ मिलाने वाले कुछ टटपुंजिए लोगों की भी समाज में कमी नहीं है। वे चाहते हैं कि पराम्बरा उन्हें उसी प्रकार अपना स्वरूप दिखा दे जिस प्रकार वे चित्रपट के पर्दे पर फिल्म देखते हैं या फिर सुबह उठकर अखबर में खबर पढ़ते हैं। 

            पाश्चात्य देशों में आज से दस वर्ष पूर्व तक हमारे देव विग्रहों की खूब हँसी उड़ाई जाती थी परन्तु जैसे जैसे उन्होंने ठण्डे दिमाग के साथ सोचना शुरू किया। पूर्वाग्रह से ग्रसित हुए बिना शोधकार्य प्रारम्भ किए उन्हें आश्चर्य जनक परिणाम मिले। भारत वर्ष से चुराकर ले जाई गई मूर्तियाँ और चित्रों को उन्होंने अपने कक्षों में सजा लिया एवं जाने अनजाने में वे उनकी उपासना करने लगे। इन मूर्तियों के प्रति आकर्षित होने लगे, उन्हें एक टक निहारने लगे तो तुरंत ही उनके अंतर्मन में देव शक्तियों की मौजूदगी का आभास होने लगा। अचानक रात्रि में उन्हें पराम्बरा के हूबहू उसी स्वरूप का दर्शन होने लगा जिसे कि वे मात्र कल्पना समझते थे। जाने अनजाने में वे दिव्य पराम्बरा विग्रहों के सानिध्य में लम्बे समय तक आ गये। उनके लिए एक नया मार्ग खुल गया। अध्यात्म का मार्ग शक्ति का मार्ग। जिससे कि वे सर्वथा अपरिचित थे उन्हें आश्चर्यजनक परिणाम मिलने लगे। यह सब कैसे हुआ? क्या कारण है इसका? यह सब हुआ आध्यात्मिक देह प्राप्ति के कारण एक व्यक्ति अगर निरंतर वेश्यागमन करता है तो उसकी देह वेश्यानुगामी हो जायेगी। नाना प्रकार के रोगों से उसकी देह भर जायेगी। ये रोग धीरे-धीरे तंत्रिका तंत्र के द्वारा उसके मस्तिष्क को भी क्षतिग्रस्त कर देंगे और कुछ समय पश्चात वह एक जीता जागता पथ भ्रष्ट व्यक्ति बनकर रह जायेगा। 

          अगर कोई व्यक्ति अपना ज्यादातर समय नास्तिकों के बीच बितायेगा तो कुछ समय पश्चात वह भी नास्तिक बन जायेगा। इसे कहते हैं पिण्ड निर्माण की प्रक्रिया। धीरे-धीरे एकत्रीकरण के माध्यम से एक विशेष पिण्ड का निर्माण हो जाता है। जिस भूमि में सत्तर प्रतिशत लोह तत्व पाये जाते हैं तो वहाँ पर एक प्रतिशत स्वर्ण तत्व भी होता है और इस प्रकार सभी तत्व कुछ न कुछ प्रतिशत में अवश्य पाये जाते हैं परन्तु लोह तत्व की अधिकता होती है। इसी अयस्क को बाद में शोधित करके अधिकता वाले तत्व का निषेचन कर लिया जाता है और इस प्रकार लोह पिण्ड का निर्माण हो जाता है। आध्यात्मिक देह प्राप्ति भी ठीक इसी प्रकार से होती है।

         महाकालेश्वर के पुजारी कुछ नहीं करते बस सुबह उठते हैं नित्य -कर्म सम्पन्न करने के बाद महाकाल की सेवा में जुट जाते हैं। साफ सफाई करते हैं, विधिवत पूजन करते हैं, प्रांगण में ही निवास करते हैं। उन्हें कभी कोई रोग नहीं होता। उन्होंने अपने जीवन में कभी कोई फिल्म नहीं देखी होती, कंचन के समान उनकी काया है उनके दिमाग में बेफिजूल की बातें भी नहीं आती। बहुत कुछ तो ऐसी बातें हैं कि जिन्हें व्यक्त करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं है। एक जीव एवं जैविक व्यवस्था के अंतर्गत होते हुए भी ये कितने शांत, शालीन और अद्भुत हैं देखते ही बनता है। .

इनके पास खड़े होने पर ही आत्मा और मन पूरी तरह से शांत हो जाता है। दूसरी तरफ ठीक वैसे ही दो हाथ और दो पांव वाले शहरी मनुष्य भी मिलते हैं जो दस मिनट के अंदर दिमाग खराब करके रख देते हैं। साक्षात् राक्षसी प्रवृत्ति से युक्त असुर अवतार सनातन धर्म कर्मकाण्ड से युक्त है। इसमें कर्मकाण्ड की अधिकता देखने को मिलती है अन्य धर्मों की अपेक्षा आध्यात्मिक त्यौहार भी बहुत ज्यादा दिखाई पड़ते हैं। व्रत, उपवासों की भी भरमार है। साधु-संतों की लम्बी फौज यहाँ दिखाई पड़ती है। मुख्य रूप से सनातन धर्म आत्मा का धर्म है। जीवात्मा का अनुसंधान है इसलिए सनातन धर्म में आध्यात्मिक देह अधिकांशतः लोगों में विकसित दिखाई देती है। वे स्वयं ही कुछ समय पश्चात् व्यर्थ की हिंसा, पापाचार, मांस मदिरा इत्यादि से विमुख हो जाते हैं।

        सनातन धर्म में कामुकता कभी नहीं चली है। आप अपने आसपास के लोगों को देख लीजिए। विवाह के दस वर्ष के भीतर लोग कामवासना से निवृत्त हो जाते हैं। यह सब एक समग्र आध्यात्मिक देह के विकास के कारण होता है। सनातन धर्म में पग-पग पर विलासिता के विरोध में अवरोध लगे हुए हैं। कब तक व्यक्ति बच पायेगा। वैसे तो नैतिकता भी यही कहती है कि यह गरीबों का देश है अभी भी अनंत लोगों के पास दो वक्त की रोटी भी उचित तरीके से उपलब्ध नहीं है इसीलिए यहाँ विलासिता नहीं चलेगी। यहाँ लूटपाट नहीं चलेगी। विशेषकर आध्यात्मिक गुरुओं को अपने खोपड़े में यह बात बिठा लेनी चाहिए। यहाँ केवल धर्म चलेगा और चलेगा तो विशुद्ध अध्यात्म जो अध्यात्म के मार्ग को अपनायेगा वही राज राजेश्वरी सिद्ध कर पायेगा। जो गुरु शंकराचार्य के समान कंठोर जीवन जियेगा वही ब्राह्मणी के घर में स्वर्ण मुद्रा की वर्षा करा पायेगा भिक्षा के बदले स्वर्ण मुद्रा की बरसात। जो गुरु भिक्षां वृत्ति अपनायेगा वही वेद व्यास के समान अद्भुत ग्रंथ लिख पायेगा। महलों में बैठकर गुरु बाजी नहीं चलेगी जनता को भी यह समझना होगा।

          द्रोणाचार्य अत्यंत ही ज्ञानी एंव शस्त्र विद्या में निपुण थे। पग-पग पर उनकी निर्धनता का अपमान हुआ। उनके मित्र ध्रुपद ने भी उनका तिरस्कार किया व्यथित होकर वे राजगुरु बन बैठे। अपना सारा तप राज सत्ता के पीछे लगा दिया और बदले में प्रतिबंधित हो गये। उनसे प्रतिज्ञा ले ली गई कि राजपुत्रों के अलावा किसी को भी ज्ञान नहीं देंगे। सौदा हो गया यहाँ पर अध्यात्म और सत्ता का विश्वामित्र एवं वशिष्ठ भी प्रतिबंधित हो गये थे राजाओं के कुल गुरु बन गये। आम जनता लाभान्वित नहीं हो सकी। आम जनता के पास देने को कुछ भी नहीं है यह सबसे बड़ी विडम्बना है। वे अपने गुरु को भोजन और यात्रा का खर्चा भी नहीं दे पाते हैं इसलिए सत्ता से दूर पड़े रहकर तमाशा देखते रहते हैं। बुद्ध भी थकहारकर उस जमाने के राजाओं के हो लिए। अजात शत्रु, बिम्बसार और बाद में सम्राट अशोक ने बौद्ध गुरुओं को एक तरह से बंदी बना लिया था। यह तालमेल है सत्ता और अध्यात्म का। राज राजेश्वरी को जाने से पहले यह जानना जरूरी है जाने से पहले यह जानना जरूरी है।

           आजकल तो सभी आध्यात्मिक मठाधीश नेताओं की तनख्वाह पर जी रहे हैं। उन्हीं के हवाई जहाज में चलते हैं, उन्हीं के दान दिए गये आश्रमों में रहते हैं, उन्हीं के दिए हुए रेशमी वस्त्र पहनते हैं तो फिर किस प्रकार से जनता के अचार्य हुए। आज के राजाओं की खाते हैं आज के राजाओं की बजाते हैं, जनता से उन्हें कोई लेना देना नहीं है। सदियों से ऐसा होता चला आ रहा है। राजगुरुओं की एक लम्बी श्रृंखला है। आध्यात्मिक देह का विकास अध्यात्म की शक्तियों के सानिध्य में ही सम्भव है। तीर्थ स्थानों की यात्रा, कुम्भ के अवसर पर विशेष स्नान, नैतिकता का पालन, ज्योतिर्लिङ्गों की यात्रा, गुरु का सानिध्य, गुरु के लिए सम्पादित कर्म, वेदमंत्रों का पाठ, रुद्राभिषेक, यज्ञानुष्ठान, हवन इत्यादि यह सब धीरे-धीरे करके एक समयोपरांत भौतिक पिण्ड़ रूपी इस देह को आध्यात्मिक देह में परिवर्तित कर देते हैं। इसी अदृश्य देह का कद कुछ ही क्षण में कई सौ फिट ऊँचा एवं अणु के समान सूक्ष्म भी हो सकता है। यही देह अनेकों भुजाओं से युक्त होगी। इसी देह के अनेकों मस्तक सकते हैं। यही देह कुछ ही क्षण में इस ब्रह्माण्ड के किसी भी कोने में जा सकती है। 

              मेरे गुरु कहा करते थे कि अचेत व्यक्ति के लिए तो किसी भी वस्तु का महत्व नहीं है परन्तु चेत गये तो यह समस्त ब्रह्माण्ड भी तुम्हें छोटा पड़ने लगेगा। बेहोश व्यक्ति के लिए तो पलंग ही सब कुछ है परन्तु चेते हुए व्यक्ति के लिए ब्रह्माण्ड भी छोटा पड़ जाता है। आध्यात्मिक देह में इतनी शक्ति होती है कि योगी आँख बंद करता है और मन की शक्ति के माध्यम से कुछ ही क्षण में सूर्य मण्डल पर पहुँच जाता है। .

शरीर में तपन महसूस होने लगती है क्योंकि आध्यात्मिक देह अभी सूर्य मण्डल में गमन कर रही है। कुछ ही क्षण में शरीर बर्फ के समान ठण्डा हो जाता है कारण आध्यात्मिक देह अभी हिमालय पर विचर रही है। एक कमरे में लेटे-लेटे ही गंगा स्नान हो जाता है। एक क्षण के अंदर आध्यात्मिक देह मान सरोवर में डुबकी लगाकर वापस आ जाती है। एक जगह बैठकर ही दुनिया के कोने में किसी भी व्यक्ति से सम्पर्क स्थापित किया जा सकता है। कहीं भी आशानुकूल परिणाम दिये जा सकते हैं क्योंकि चेते हुए व्यक्ति के लिए तो ब्रह्माण्ड भी छोटा पड़ गया है।
         इसी आध्यात्मिक देह में दिव्य आध्यात्मिक चक्षु होंगे जो कि पराम्बरा के दिव्य स्वरूपों का दर्शन कर पायेंगे। तब कहीं जाकर अष्ट भुजीय दुर्गा या कमल पर विराजमान महादेवी के दर्शन सम्पन्न हो पायेंगे। जिस प्रकार माता गर्भ से शरीर रूपी पिण्ड को जन्म देती है उसी प्रकार शरीर रूपी पिण्ड से पराम्बरा अपनी कृपा के द्वारा ही आपकी आध्यात्मिक देह को जीवन प्रदान करती हैं। यही कारण है कि माता के रूप में देवी भक्ति का माता ही सृजन करेगी आध्यात्मिक देह का और उसी देह के माध्यम से आप उनके अनुपम आयामों को देख पायेंगे, सुन पायेंगे, ग्रहण कर पायेंगे। सूंघने के लिए नाक चाहिए कान नहीं खाने के लिए मुँह चाहिए आँख नहीं ठीक इसी प्रकार पराम्बरा के दर्शन हेतु पराम्बरा द्वारा प्रदत्त दिव्य चक्षु चाहिए। ऐसी मुसीबत महाभारत के युद्ध से पूर्व अर्जुन के सामने भी आयी है। महाभारत के युद्ध से पूर्व अर्जुन ने कृष्ण से पूछा मैं युद्ध में विजय प्राप्ति हेतु किसका अनुष्ठान करूं। कृष्ण ने कहा हे अर्जुन! तू पराम्बरा का अनुष्ठान कर मातृ शक्ति को पूज। इन्हीं मातृ शक्ति की कृपा से अर्जुन प्रभु श्रीकृष्ण के विराट स्वरूप का दर्शन कर पाया।

          जब तक आध्यात्मिक देह नहीं होगी आध्यात्मिक कर्मों का सम्पादन मुश्किल है। आध्यात्मिक सिद्धियाँ आप कहाँ रखोगे, सुदर्शन चक्र आप कहाँ धारण करोगे, पाशुपतास्त्र या चण्डिकास्त्र क्या आप हाथ में थामोगे? यह सब थामने के लिए आपको आध्यात्मिक देह की जरूरत पड़ेगी। आध्यात्मिक देह के विकास के लिए अनेकों वर्ष तक तपस्या की जाती है, ब्रह्मचर्य रखा जाता है, सात्विकता के साथ जीवन व्यतीत किया जाता है तब कहीं जाकर इस दैव दुर्लभ देह की प्राप्ति होती है। एक भी महान आध्यात्मिक साधक ऐसे ही नहीं बन गया है। सबने कठोर तप किया है। कठोरता का अभिप्राय भौतिक देह को कठोरता के साथ अनुशासित किया है। भौतिक देह के कार्यों को चरम सीमा तक सीमित किया है। भौतिक देह की जरूरतों को न्यूनतम सीमा में रखा है जिससे कि आध्यात्मिक देह भौतिक देह रूपी पिण्ड को फोड़कर प्रकट हो सके। 

          अण्ड का खोल यथा स्थिति रखता है परन्तु अण्ड के अंदर मौजूद जीव का विकास होता रहता है और कालान्तर जीव अण्ड को फोड़कर उदित हो जाता है। किसी भी फल का बीज ही मात्र विकास करता है उसके ऊपर का खोल कभी भी विकसित नहीं होता। बीज को भूमि में गाड़ देने से ऊपर का खोल तो बस नष्ट होता एवं सड़ता गलता है परन्तु अंदर विकास होता है। इसी भाव के साथ आध्यात्मिक साधकों को जीवन यापन करना चाहिए। आध्यात्मिक देह प्राप्त कर लेने के पश्चात साधक को अत्यंत ही सावधानी बरतनी चाहिए। उसका दुरुपयोग नहीं करना चाहिए सिद्धियों के चक्कर में भटकाव आध्यात्मिक देह के नाश का मुख्य कारण है। आध्यात्मिक देह भी क्षय ग्रस्त और रोग ग्रस्त हो जाती हैं। दुष्टों एवं पापाचारियों की संगत में आध्यात्मिक देह की शक्ति क्षीण होती है। आध्यात्मिक देह की प्राप्ति के लिए सभी कुछ नियंत्रित करना पड़ता है। हम जो अन्न खाते हैं उनकी आयु चार महीने होती है। चार महीने में गेंहूँ पक जाता है, दो-तीन माह में चावल पक जाता है परन्तु अनेकों ऐसी औषधियाँ हैं ऐसी अद्भुत जड़ी बूटियाँ हैं जिनके सेवन से आध्यात्मिक देह की प्राप्ति अत्यधिक आसान हो जाती है। ऐसी-ऐसी जड़ियाँ हैं जो 6-6 हजार वर्ष तक जीवित रहती हैं। इनका सूक्ष्म सेवन आध्यात्मिक देह के विकास में अत्यधिक मदद करता है।

हमारे देश में अनेकों प्रकार के कल्प लिए जाते हैं। उनमें से एक प्रमुख कल्प गौ दुग्ध कल्प या गौ हैं कल्प अर्थात हमारे ऋषि-मुनि आध्यात्मिक देह की प्राप्ति के लिए अनेकों वर्षों तक गौ मूत्र, गौ दुग्ध एवं गौ दुग्ध से निर्मित वस्तुओं का ही सेवन करते थे और वे गाय को माता के रूप में पूजते थे। उन्हें इतना सूक्ष्म ज्ञान था कि वे गाय के दूध को भी अमृत बना लेते थे। गौ वंश की विशेष देखभालं, विशेष सेवा, विशेष प्रकार का पूजन एवं उसे उत्तम से उत्तम आहार उपलब्ध कराके वे गौ दुग्ध की गुणवत्ता सीमा से ज्यादा बढ़ा देते थे। ऐसी गायों का दूध, उनका सानिध्य, उनका स्वरूप शीघ्र ही आध्यात्मिक देह का चरम में विकास कर देता था। यह पूरा का पूरा एक विज्ञान है। वास्तविक जीव विज्ञान एक गाय को आप डण्डे से पीटिये, उसे प्रदूषित खाना दीजिए। उसका दुग्ध, उसका मूत्र, उसका स्वभाव, उसका आभामण्डल सब विष युक्त हो जायेगा। उल्टी क्रिया शुरू हो जायेगी। कल तक जो अमृत था आज वह विष में परिवर्तित हो जायेगा। इसी प्रकार यह सिद्धांत सभी जैविक व्यवस्थाओं पर लागू होता है चाहे वे वृक्ष हों पशु हों या फिर अन्य प्राकृतिक संरचनाऐं।

          मातृ स्वरूप में उपासना करने पर अमृत प्राप्त होगा एवं भोग्या स्वरूप में किसी भी जीव का उपभोग करने से केवल विष का ही निर्माण होगा। देवतुल्य देह अमृत का पान करेगी न कि विष का यही कारण है कि आज दुग्ध की मात्रा तो ज्यादा है, घी का उत्पादन तो ज्यादा है, अन्न का उत्पादन तो ज्यादा है पर वैज्ञानिक इन सबको मनुष्य के शरीर के लिए हानिकारक मान रहे हैं। सीधी सी बात है पंचतत्वों से निर्मित इस पृथ्वी पर उपस्थित प्रत्येक जैविक संरचना, पिण्ड, जड़चेतन इत्यादि सबकी सब भावना प्रधान हैं, संवेदन प्रधान हैं। प्रेम से किसी से भी कार्य करवाया जा सकता है। मारपीट कर गुणवत्ता नहीं बढ़ाई जा सकती। कल्प लेने के पीछे यही सिद्धांत छिपा हुआ है। भौतिक पिण्ड रूपी शरीर की खुराक भौतिक भोजन हो सकती है परन्तु आध्यात्मिक ह की खुराक भोजन के अंदर छिपा हुआ मातृत्व अर्थात अमृत ही होगा। कुल मिला-जुलाकर आध्यात्मिक देह ही व्यक्ति को महामानव बनायेगी। आध्यात्मिक देह का निर्माण, उसकी देख-रेख, उसकी जरूरत, उसका भोजन, उसका कर्म यह सब कुछ मातृत्व की भावना में निहित है। 

          श्रीमद् देवी भागवत में वर्णित राज राजेश्वरी अराधना में शाकम्भरी देवी के अभ्युदय के पीछे यही रहस्य छिपा हुआ है। शाकम्भरी देवी नील वर्ण की हैं। उनके हाथों में कमल, नाना प्रकार के सुगंधित एवं रसीले फल, एक से एक दिव्य औषधि युक्त पौधे, जड़ी-बूटियाँ दिखलाई पड़ रही हैं। उनके नील वर्ण शरीर पर अनंत आँखें स्थित हैं और प्रत्येक आँख से अश्रु धारा बह रही है। यह अश्रु धारा ही इस पृथ्वी पर प्रतिक्षण वर्षा के रूप में प्रकट होती है और उन्हीं की स्तुति देवताओं ने उस समय की थी जब असुरों ने इस पृथ्वी पर नियंत्रण कर सभी जीवों को त्रास देना प्रारम्भ कर दिया था। शाकम्भरी ही रसेश्वरी है। वही भगवती शताक्षी है। वही सुषुप्त पड़े प्राणों को पुनः जीवन प्रदान करती हैं। .
 
                       शिव शासनत: शिव शासनत:

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