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कनकधारा स्तोत्र ।।


    वेदांत दर्शन की अनंत यात्रा में अनेको ऋषि-मुनि एवं परमतत्व ज्ञानी आते जाते रहे हैं एवं सभी ने वेदांत के संस्पर्श से अपने आप को स्वर्णमयी आभा से युक्त कर अमृत्व की प्राप्ति की परन्तु कालांतर में एकांगी एवं विकृत मानव रचित धर्मों का उदय हुआ। वेदात के विपरीत व्यक्ति पूजन ने स्थान ग्रहण किया मनुष्यों द्वारा रचित पुस्तकों से तथाकथित धर्मों का एवं उनके अनुयायियों का प्रादुर्भाव हुआ। कुछ काल ही ऐसा हो गया की धर्म के नाम पर युद्धों का संचालन होने लगा। जगह-जगह मठों, आश्रमों एवं तथाकथित कृत्रिम शक्ति स्थलों का निर्माण होने लगा।

         कलयुग में मनुष्य इतना पतोन्मुखी हो गया है कि राजाओं को भी ईश्वर पुत्र माना जाने लगा। कलयुग में जितने भी धर्म प्रादुर्भाव में आये उन सब के प्रवर्तक एकांगी ही हैं। अध्यात्म के अनंत एवं असंख्य तत्वों की उनमें झलक भी देखने को नहीं मिलती है। मात्र अहिंसा से पूर्णता प्राप्त नहीं हो सकती, न ही सूली पर लटक कर प्रेम का व्याख्यान देने से सभी प्रेममयी कोष में पहुँच जायेंगे। ठीक इसके साथ वेदांत दर्शन के कुछ सिद्धांतों को चुरा लेने से और फिर धर्म के युद्ध या जेहाद या फिर ईश्वर की मर्जी कह देने से कोई भी व्यक्ति मोक्षगामी नहीं हो जायेगा । इन तथाकथित निकृष्ट धर्मों ने मानव "जाति के मस्तिष्क को एक प्रकार से कम्प्यूटर के समान विशेष सीमाओं में या प्रोग्रामों में आबद्ध कर के रख दिया है । 

        इसीलिये इन धर्मों से कोई भी व्यक्ति छठवें चक्र तक भी नहीं पहुँच पाया सब के सब भेड़-बकरी बन गये और उनके प्रवर्तक चरवाहे, जिधर मर्जी आये उधर हांक दो । यही हाल आप के तथाकथित अध्यात्मिक संस्थानों, आश्रमों एवं मठों का है। यहाँ पर धर्म के नाम की दुकान लगती है। शिष्य के नाम पर इन्हें सिर्फ दुधारू गायों की तलाश रहती है जो कि उनकी आवश्यकताओं को पूरी कर सके । यह खुद कंगाल है, दरिद्र हैं, भिखमंगें हैं, आपको क्या देगें। कभी-कभी कटु शब्दों में भी लोगों तक सच्चाई पहुँचानी पड़ती है। किसी न किसी को तो आगे आकर भ्रम और मायाजाल को तोड़ना ही पड़ेगा।

        इन सब बातों के साथ-साथ आम आदमी भी उतना ही जिम्मेदार है। वह भी स्वार्थी है, कर्म करना ही नहीं चाहता कभी वेदों को खोलकर पढ़ता ही नहीं। बस सब कुछ गोली या इंजेक्शन के स्वरूप में प्राप्त करना चाहता है। स्वयं अनुसंधान, विचार परखने एवं समझने की क्षमता तो अब खत्म होती जा रही है। जो कुछ है वह दूसरों से प्राप्त करो खुद कुछ मत करो । योगासनों की फोटो देख लेने से या पुस्तक पढ़ लेने से आप कभी योग सिद्ध नहीं हो सकते। स्वयं भी हाथ पाँव हिलाने पड़ेगे एकांगी धर्मों के प्रवर्तकों ने बड़े ही सुनियोजित तरीके से वेदांत दर्शन को अपने कुतर्कों के द्वारा एवं जरूरत पड़ने पर हिंसा एवं बल के द्वारा भौतिक रूप में समाप्त करने की पूरी कोशिश की परन्तु बस यहीं पर वे मूर्खता कर बैठें। वेदांत दर्शन में द्वैत तो कुछ भी नहीं अद्वैत ही सब कुछ है। 

      द्वैत तो बस अद्वैत के असंख्य आयामों में से एक आयाम है। उसे नष्ट करना दुष्ट मनुष्यों की बात नहीं है वे तो स्वयं ही नष्ट हो जायेंगे। अद्वैत चिंतन ही महामंत्रों, दिव्य यंत्रों को जन्म देता है। उसी के गर्भ से दिव्य पराब्रह्माण्डी रहस्यों से भरपूर श्रीमद् भागवत् गीता की अनुगूंज होती है, वेद ऋचाओं का प्राकट्य होता है। ज्योतिर्लिंगों से लेकर माँ आदि शक्ति भगवती के पवित्र तीर्थ पिण्ड स्वरूप में प्रकट होते हैं। भारत की धर्म भूमि पर मुगलों, हूणों, कुशाण, मंगोल एवं अन्य बरबर जातियों ने हमला किया सम्पूर्ण वेदांत संस्कृति को मिटाने में कोई कसर नहीं छोड़ी, पाण्डुलिपियों को जलाया। वैदिक ब्राह्मणों के सर काट दिये । बलात धर्म परिवर्तन कराया और जो कुछ भी उन से बन पड़ा वह सब किया परन्तु अंत में क्या हुआ वेदांत दर्शन अक्षय ही रहा और यह सब अखिरकार उसी में शामिल हो गये इतिहास इस बात का गवाह है। 

       भगवान बुद्ध के अवसान के बाद बौद्ध धर्मावलम्बियों ने अपनी पूरी शक्ति वैदिक संस्कृति को समाप्त करने में लगा दी। उनका एकमात्र लक्ष्य था "बुद्धम् शरणम् गच्छाम्" अर्थात समस्त भारत वर्ष को बौद्धमय कर दो। सभी का काम सिर्फ बुद्ध की ही पूजा करना हो इस घोर अंधकारमय दशा में फिर एक बार अवतार होता है और वह अवतार वेदान्त दर्शन के प्रवर्तक आदि गुरु श्री शंकराचार्यजी के रूप में जिन्होंने मात्र 36 वर्ष की आयु में सम्पूर्ण भारतवर्ष को एक सूत्र में पिरोते हुए पुनः वेदान्त दर्शन को जन-जन तक पहुँचाया अद्भुत एवं दिव्य प्रचण्डता ही इस युवा सन्यासी की शक्ति है। वे आज भी आवृत्ति स्वरूप में या फिर दिव्य अनुभूति के रूप में सत्य के मार्ग पर चलने वाले वास्तविक सन्यासियों को आशीर्वाद देने के लिये सदैव तत्पर रहते हैं।

उन्हीं के द्वारा उत्सर्जित दिव्य ऊर्जा से भारतवर्ष अनंतकाल तक प्रकाशवान होता रहेगा । उन्होंने कभी स्वयं की पादुका पूजन, मूर्ति पूजन की परम्परा नहीं डाली और तो और अपने निर्वाण षटकम् श्लोक में वे कहते हैं कि मैं न अहंकार हूँ, न बुद्धि हूँ, न विचार हूँ। मैं संज्ञाहीन एवं प्राणहीन हूँ, मैं पंचवायु भी नहीं हूँ। मैं द्वेष तथा राग से परे हूँ न मोक्ष की आकांक्षा है और न धर्म की आकांक्षा है। मुझ में जाति भेद भी नहीं है। मैं पिता-माता, गुरु-शिष्य बंधु मित्र इत्यादि बंधनों से भी युक्त नहीं हूँ। मुझे मृत्यु का भी भय नहीं है। मैं सर्वव्यापी एवं सर्वस्वरूप हूँ इत्यादि इत्यादि । 

         अर्थात परम अभेदात्मक स्थिति बस यही वेदांत है। यही प्रेम का चर्मोत्कर्ष है। सन्यासी से बड़ा प्रेममयी तो कोई होता भी नहीं है वह प्रेम करता है ब्रह्माण्ड की विचित्रता से, उसकी शक्ति से एवं उसकी विलक्षणता से अपरिग्रह की समग्रता ही वैदिक पूजन की आधारपीठ है। प्राप्त करने की लालसा, आबद्ध करने की लालसा, बलात कर्म यह सब घटिया एवं पशु तुल्य अपवित्र पूजा पद्धतियाँ हैं। इनके द्वारा निरंतरता एवं अक्षुणता में दिव्य शक्ति प्राप्त नहीं हो सकती एक बार आदिगुरु शंकराचार्य जी भिक्षा के लिये एक ब्राह्मण के घर पर पहुँचते हैं ब्राह्मण आर्थिक दृष्टि से अत्यंत ही विपन्न था परन्तु अन्य दृष्टियों से नहीं। दरवाजे पर दिव्य मूर्ति को देख ब्राह्मणी अति संकोच से भर उठी क्या करती कुछ देने को था ही नहीं परन्तु हृदय अभी भी पवित्र था। उसमें दया एवं शील भाव पूर्ण रूप से विकसित थे घर में पड़ा एक आंवला ही उसे दिखाई पड़ा उसने तुरंत उस एकमात्र आंवले को ही शंकराचार्य के भिक्षा पात्र में समर्पित कर दिया।

         शंकराचार्य ने भी उसे पूर्णता के साथ ग्रहण करते हुए मात्र आँवले के एक फल के द्वारा अपनी कई दिनों की क्षुधा को तृप्त कर लिया। देने वाली भी पूर्ण हृदय की थी और लेने वाला तो समस्त ब्रह्माण्ड को अपने हृदय स्थल में धारण किये था। आँवला तो मात्र माध्यम था पवित्रता का। ऐसे ही पवित्र संयोगों से दिव्यता एवं अमृत्व प्रफुल्लित होता है। शंकर ने आँवले के साथ-साथ उस ब्राह्मणी की दरिद्रता को भी आत्मसात कर लिया जब सद्गुरु शिष्य को ग्रहण करते हैं तो फिर समग्रता से ग्रहण करते हैं चाहे बदले में जो कुछ मिले सब स्वीकार्य होता है। मस्तिष्कीय गणित, विचार, तर्क यहाँ नगण्य होते हैं तुरंत शंकराचार्य महालक्ष्मी का आह्वान करने लगे महालक्ष्मी का आह्वान स्वयं के लिये नहीं बल्कि ब्राह्मण परिवार की दरिद्रता को दूर करने के लिये और उनके दिव्य आह्वान से जिस श्लोक का जन्म हुआ वह कनकधारा स्त्रोत कहलाता है अर्थात निष्काम, अभेद एवं परम प्रेममयी महालक्ष्मी पूजन कनक का तात्पर्य स्वर्ण तो वहीं धारा का तात्पर्य निरंतरता और जब कनकधारा के साथ स्त्रोत जुड़ जाता है तब धारा भी अनंतकालीन हो जाती है एक ऐसा महालक्ष्मी पूजन जिसके द्वारा लक्ष्मी अपने सम्पूर्ण स्वरूप में स्वर्ण आभा मण्डल से सुशोभित भक्त के सामने मातृ स्वरूप में आती ही है। 

        सन्यासी के लिए तो महालक्ष्मी सम्पूर्ण रूप से मातृ स्वरूप में ही स्थापित रहती है न कि पत्नी प्रेमिका या अन्य किसी तुच्छ स्वरूप में सारा का सारा वर्णन धनात्मक होता है कहीं भी नकारात्मक विचार प्रकट ही नहीं होते हैं। कनकधारा स्त्रोत में शंकराचार्य जी माँ लक्ष्मी को भगवान विष्णु के पत्नी स्वरूप में पूजते हैं अर्थात लक्ष्मी और विष्णु में कहीं भी कोई भेद नहीं। भेद तो लोभ का प्रतीक है। वास्तव में जहाँ विष्णु वहीं लक्ष्मी एवं जहाँ लक्ष्मी वहीं विष्णु। जब वे क्षण भर को भी अलग नहीं होते तो फिर केवल लक्ष्मी की मूर्ति को पूजने से कभी भी लक्ष्मी प्रसन्न नहीं होगी। इस प्रकार का पूजन खण्डित एवं विकृत है। इसके साथ-साथ वे तृतीय श्लोक में माँ लक्ष्मी के रक्षेश्वरी, कृपेश्वरी और दानेश्वरी स्वरूप का भी वर्णन करते हैं। 
      
         यहाँ पर भी कहीं कोई भेद नहीं। आगे वे भगवान विष्णु के साथ माँ लक्ष्मी के क्षीर सागर में विराजमान दिव्य स्वरूप का अद्भुत वर्णन करते हुए उनका आह्वान करते हैं। कनकधारा स्त्रोत में माँ महालक्ष्मी के गायत्री, सरस्वती और काली स्वरूप का भी - आह्वान है। उन्हीं को यश, धन, रूप, सौन्दर्य, पुत्र, कीर्ति इत्यादि का अक्षय स्त्रोत माना है। आदि गुरु शंकराचार्य जी जब हृदय की परम गहराई से पूर्ण समर्पित भावना के साथ निष्काम कर्म रूपी आह्वान कर रहे थे तो फिर महालक्ष्मी कैसे रुक पाती। दूसरे ही क्षण उनके समक्ष उपस्थित हो बोली “हे पुत्र" मुझे किस लिये याद किया माता के पैर हृदय की पुकार सुन कदापि नहीं रुक सकते। यह असम्भव है। अपने समक्ष माता को उपस्थित देख शंकर बोले “हे माँ" इस ब्राह्मण परिवार पर अपनी कृपा बरसाओं एवं इसकी विपन्नता दूर करो माँ बोली "हे पुत्र" यह ब्राह्मण पूर्व जन्मकृत पापों के कारण इस जन्म में दरिद्रता से कैसे मुक्त हो सकता है। इस पर शंकर बोले 'हे' माँ इस ब्राह्मणी ने इतनी घोर विपन्नता में भी मुझे एकमात्र उपलब्ध आँवले का फल भी समर्पित कर दिया तो क्या इसका यह एक मात्र कर्म ही इसके समस्त पापों को नष्ट करने के लिये काफी नहीं है।

        महालक्ष्मी निरुत्तर हो गयी और दूसरे ही क्षण ब्राह्मण धन-धान्य युक्त हो गया। ऊपर वर्णित कथा से कुछ मूलभूत बातें एक साधक को मिलती हैं तो वह यह है कि दो हाथ वाले से मांगोगे तो चार हाथ वाला कभी नहीं देगा। शंकर ने मांगा तो महालक्ष्मी से ही मांगा चार पुत्रों का पिता होना अगर गर्व की बात है तो ईश्वर पुत्र होना परम गर्व की । शंकराचार्य तो ईश्वर पुत्र थे जिन्हें स्वयं महालक्ष्मी पुत्र के रूप में पुकार रही हो वह भिक्षा मांग रहा है केवल इसलिये कि किसी की विपन्नता दूर कर सके उनका यश तो अक्षय है। जब तक ब्रह्माण्ड है शंकर की कीर्ति निरंतर बढ़ती ही जायेगी आखिर वे कनकधारा स्त्रोत के रचयिता जो हैं।

       प्रेम ही सबकुछ है प्रेमतत्व के अभाव में पूजन निर्जीव है। पद्धतियाँ शक्तिहीन है अगर देवशक्तियों को बंधन युक्त किया जा सकता है तो वह निष्काम प्रेम के ऊपर ही आरूढ़ होकर प्रकृति पुरुषों में ही वह शक्ति होती है जिसके द्वारा वे प्रकृति में भी हस्तक्षेप करने में समक्ष होते हैं शंकराचार्य की प्रचण्डता ही ब्राह्मण परिवार को कर्म बंधनों से मुक्त करा पायी। ब्रह्मा, विष्णु, महेश ही व्यवस्थापक, संस्थापक एवं दण्डात्मक स्थतियों का निर्माण करते है परन्तु मातृ शक्ति ही एकमात्र ऐसी शक्ति है जो कि इन संयोजनाओं को अपने अधीन रखती है। लक्ष्मी के आगे विष्णु की नहीं चलती और न ही पार्वती के आगे शिव की । उनके वचनों को पूरा करना त्रिमूर्तियों का ही कार्य है। सिद्ध पुरुष कभी भी सिद्धियों का प्रयोग स्वयं के लिये नहीं करते। शंकर ने स्वयं के लिए लक्ष्मी का आह्वान नहीं किया था। सिद्धियों का ह्रास उसी वक्त शुरू हो जाता है जब साधक में लिप्तता आ जाती है।

अङ्ग हरे: पुलकभूषणमाश्रयन्ती भृङ्गांगनेव मुकुलाभरणं तमालम ।
 अङ्गीकृताऽखिल विभूतिरपाङ्गलीला माङ्गल्यदातु मममङ्गलदेवतायाः 

मुग्धा मुहुविंदधती बदने मुरारे: प्रेमत्रपा-प्रणिहितानि गताऽऽगतानि ।
 मालादृशोर्मधुकरीव महोत्पले या सा से श्रियं दिशतु सागरसम्भवायाः ॥

विश्वामरेन्द्रपद-विभ्रमदानवक्ष मानन्द- हेतुरधिकं सुर - विद्विषोऽपि । 
ईषन्निषीवतु मयि क्षणमीक्षाई - मिन्दीवरोदर सहोदरमिन्दिरायाः ॥

आमोलिपाक्षमधिगम्य मुद्रा मुकुन्द मानन्दकन्दमनिमेशम नतन्त्रम् । आकेकरस्थितकनीनिकपक्ष्मनेत्रं भूत्यै भवेन्मम भुजङ्गशयाङ्गनायाः ॥

बाह्वन्तरे मधुजितः श्रित कौस्तुभे या हारावलीव हरिनीलमयी विभाति । 
काम्प्रदा भगवतोऽपि कटाक्षमाला कल्याणमावहतु मे कमलालयायाः ।।

कालाम्बुदालि ललितोरसि कैटभारे धराधरे स्फुरति या तडिदङ्गनेव । 
मातुः समस्तजगतां महनीयतमूर्ति र्भद्राणि मे दिशतु भार्गवनन्दनायाः ॥

प्राप्तं पदं प्रथमतः किल यत् प्रभावान् माङ्गल्यभाजि मधुमाथिनि मन्मथेन । 
मव्यापतेत्तदिह मन्थर- मोक्षणार्ध मन्दाऽलसंच मकरालय कन्यकायाः ।।

दद्याद दयानुपवनो द्रविणाम्बुधारा मस्मिन्नकिंचन विहङ्गशिशौ विषण्णे ।
 दुष्कर्म-धर्ममपनीय निराय दूरं नारायण प्रणयिनी नयनाम्बुवाहः ॥

इष्टाविशिष्टमतयोऽपि यया दयार्द्र दृष्टया त्रिविष्टपपदं सुलभ लभन्ते । 
दृष्टिः प्रहृष्ट-कमलोदर-दीप्तिरिष्टां पुष्टि कृषीष्ट मम पुष्करविष्टरायाः ।।

गीर्देवतेति गरुडध्वजभामिनीति शाकम्भरीति शशिशेखर वल्लभेति ।
सृष्टि स्थिति प्रलय सिद्धिषु संस्थितायै तस्यै नमस्त्रिभुवनैकगुरोस्तरूण्यै ।।

श्रुत्यै नम स्त्रिभुवनैक फलप्रसूत्यै रत्यै नमोऽस्तु रमणीयगुणाश्रयायै । 
शक्त्यै नमोऽस्तु शतपत्र निकेतनायै पुष्ट्यै नमोऽस्तु पुरुषोत्तम वल्लभायै ।।

नमोऽस्तु नालीक-निभेक्षणायै नमोऽस्तु दुग्धोदधि जन्म शूत्यै ।
नमोऽस्तु सोमामृत-सोदरायै नमोऽस्तु नारायण-वल्लभायै ।।

सम्पत्कराणि सकलेन्द्रिय नन्दनानि साम्राज्यदान विभवानि सरोरुहाक्षि । 
त्वद् वन्दनानि दुरिताहरणोद्यतानि मामेव मातरनिशं कलयन्तु नान्यत् ।।

यत्कटाक्ष समुपासनाविधिः सेवकस्य सकलार्थसम्पदः ।
सन्तनोति वचनाऽगमानसै स्त्वां मुरारि हृदयेश्वरी भजे ।।

सरसिज निलये सरोजहस्ते धवलतरांशुक गन्ध माल्यशोभे भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे त्रिभुवन-भूतिकरि प्रसीद मह्यम् ।।

दिग्धस्तिभिः कनककुम्भमुखा वसृष्ट स्वर्वाहिनी विमलचारु-ज्जलप्लुतांगीम् । 
प्रातर्नमामि जगतां जननीमशेष लोकाधिराजगृहिणीममृताब्धिपुत्रीम् ।।

कमले कमलाक्षवल्लभे त्वं करुणापूर-तरंगितैरपांगेः । अवलोकय मामकिचनानां प्रथम पात्रमकृत्रिमं दयाया:।।

स्तुवन्ति ये स्तुतिभिरमूभिरन्वहं त्रयीमयीं त्रिभुवनमातरं रमाम् । 
गुणाधिका गुरुधन-भोगभागिनो भवन्ति ते भुविबुधभाविताशयाः ।।

श्रीमदाद्यशंकराचार्यविरचितं कनकधारास्तोत्रं समाप्तम्।। 

        कनक धारा यंत्र के स्थापन और कनक धारा स्त्रोत के पूर्ण पवित्र हृदय से पाठन के द्वारा ग्रहस्थ एवं सन्यासी लक्ष्मी के अभाव से मुक्त हो जाते हैं और इसके साथ कलयुग में लक्ष्मी प्राप्ति के लिये किये गये अज्ञानवश पाप कर्मों की अपवित्रता भी क्षीण हो जाती है। धन संपत्ति की अपवित्रता को दूर करने का यह अमोघ अध्यात्मिक अस्त्र है। आज के युग में समस्त शक्तियाँ अर्थ में समाहित होती जा रही है। प्रत्येक देश कागज रूपी धन को धड़ाधड़ धपता जा रहा है परंतु फिर भी लोग भूखों मर रहें हैं। धन के लिये सभी प्रकार के कुकर्म, पाप एवं हत्यायें की जा रही है। सभी तरफ धन ने अशांति फैला दी है इसका मुख्य कारण अपवित्र कर्मों की तीव्र श्रृंखला के द्वारा लक्ष्मी के स्वरूपों को प्राप्त करना है। मुख्य रूप से कागज के नोट मस्तिष्क द्वारा निर्मित लेनदेन अर्थात शक्तियों के हस्तांतरण की एक व्यवस्था है परंतु यह भी पूर्ण रूप से असफल है। लक्ष्मी मस्तिष्क के द्वारा क्रियान्वित करने पर क्या उत्पात उत्पन्न कर रही है यह तो सर्वविदित है मस्तिष्क के साथ-साथ अगर आप हृदय से भी लक्ष्मी का अनुसंधान करेगें तभी समग्रता आयेगी। मनुष्य रूपी जीवन में द्वैत एवं अद्वैत दोनों मतों का समिश्रण ही पूर्णता प्रदान कर सकता है।                
                     ।। इति शुभम् ।।

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