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अमोघ हनुमंत कवचम् ।।

        भगवान विष्णु और माता महालक्ष्मी इस अखिल ब्रह्माण्ड के पालनकर्ता हैं। जो पालनकर्ता होता है उसे तो बालक की व्यथा सुनकर अवश्य ही आना पड़ता है। चाहे जैसा भी काल हो, जैसी भी स्थितियां हो पालनकर्ता को तो बालक की पुकार सुननी ही पड़ती है । यही कारण है कि भगवान विष्णु बारम्बार इस पृथ्वी पर अवतरित होते हैं। विष्णु और माता महालक्ष्मी केवल मनुष्य रूप में ही अवतरित नहीं होते हैं। कभी वे नरसिंह अवतार के रूप में इस धरा पर आते हैं कभी मकर रूप में अवतरित होते हैं तो कभी किसी अन्य स्वरूप में विष्णु केवल मनुष्यों के देव नहीं है समस्त योनियां, जीव-जंतु, पादप सभी के पालक विष्णु ही हैं। अतः जब यह धरा मनुष्यों की बहुलता में क्रीड़ा स्थली बन जाती है तब भगवान विष्णु मनुष्य के रूप में अवतरित होते हैं। 
              इस धरा की सम्पूर्ण व्यवस्था में रुद्र और ब्रह्मा के साथ-साथ महादेवियों का अंश भी समान रूप से आवश्यक होता है। विष्णु के अवतरित होने की स्थिति में उनके साथ रुद्रांश भी अवतरित होते हैं साथ ही महादेवी भी स्त्री रूप में इस धरा पर दिव्य छटा बिखेरती हैं। त्रेता युग में जग को मर्यादित करने के लिये विष्णु जब राम के रूप में अवतरित हुये तभी रुद्रांश हनुमंत का भी प्राकट्य हुआ। हनुमंत अपने अंदर शिव के प्रमुख अंश वरुण और सूर्य की शक्ति समेटे हुये हैं। जिन दिव्य महापुरुषों में रुद्रांश या शिवांश होता है उन्हीं के शरीर और मस्तिष्क पर भवानी आरूढ़ होती हैं। निम्न स्तरीय जीव और मनुष्य क्रोध की आवृत्ति धारण करते हैं। क्रोध और भवानी दो अलग धारायें हैं। 
          क्रोध आसुरी प्रवृत्ति का द्योतक है, क्रोध के साथ दम्भ भी मिश्रित हता है। क्रोध मस्तिष्क का सबसे ज्यादा क्षय करता है। धीर गम्भीर और मर्यादित व्यक्तित्व क्रोध की आवृत्ति मे दूर रहते हैं परन्तु भवानी की तीव्रता वीरता का प्रतीक है । साहसी और मृत्युभय से विरक्त मस्तिष्क ही भवानी की गरिमा को धारण कर सकता है। हनुमंत को भवानी सिद्ध हैं। समस्त स्त्रियां एवं स्वयं माता सीता उन्हें आदर, श्रद्धा और वात्सल्य के भाव से देखती हैं। आखिरकार वे माता सीता और राम के पुनर्मिलन में सेतु ही तो बने हैं। जिस समय सीता जी लंका की अशोक वाटिका में राम वियोग में प्रतिक्षण व्यथित हो रही थीं उस समय हनुमान ने ही उन तक राम मुद्रिका पहुँचाकर उन्हें आनंदित किया था एवं सीताजी की निशानी पुनः राम तक पहुँचाकर उनके व्यथित हृदय को भी परम सुख प्रदान किया था। राम और सीता के बीच वास्तव में हनुमंत ही सेतुबंध हैं। यही सेतुबंध उन्हें राम के साथ अटूट प्रेम बंधन में बांधता है। जिसके मस्तक पर मां भवानी आरूढ़ होती है वही हर हर महादेव का जयघोष कर सकता है। मां भवानी की शक्ति ही महादेव को रौद्र रूप धारण करने के लिए प्रेरित करती है।
        हनुमंत कवच की विशेषता यह है कि इसमें भगवान शिव का महामृत्युंजय कवच और मां भगवती का महाकाली कवच एक साथ मिश्रित होकर हनुमंत की पवित्रता, भक्ति और श्रद्धा से समायोजित हो चमत्कारिक रूप से साधकों को फल प्रदान करता है एवं उन्हें सर्व बाधाओं, आसुरी शक्तियों, रोग, शोक और वियोग से संरक्षित करता है। पवित्रता ही परम रोग नाशक औषधि है। आसुरी प्रवृत्ति वाले मनुष्य के मस्तक पर मां भवानी कदापि आरूढ़ नहीं होती । आसुरी शक्तियां तो सदैव मातृ शक्ति का अनादर ही करती हैं। रावण ने तो इसकी पराकाष्ठा सीता हरण करके दिखा दी थी। ठीक इसी प्रकार दुर्योधन ने द्रोपदी का चीर हरण करके अपनी मृत्यु सुनिश्चत कर ली थी। हनुमंत कवच आसुरी प्रवृत्ति वालों के लिए नहीं है। न ही इसका उपयोग कायर, कामी और विलासी व्यक्ति अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिये कर सकते हैं। यह कवच तो वीरों के लिये बना है, धर्म की रक्षा और मर्यादा का पालन करने वाले ही इसे धारण कर सकते हैं।. 
           यह रक्षा करता है अवरोधों की, स्त्रियों की एवं प्रेममयी व्यक्तित्वों की । प्रत्येक व्यक्ति इस कवच को धारण तभी कर सकता है जब उसके मन में साधु संतो के प्रति आदर भाव हो, वेदान्त संस्कृति में पूर्ण विश्वास हो एवं हृदय - कमल पर विष्णु रूपी राम और लक्ष्मी रूपी सीता पूर्ण श्रद्धा के साथ विराजमान हों। हनुमंत कवच को धारण करने का अभिप्राय ही दुष्टों का दमन करना है। पूर्ण वीरता के साथ । न कि कायरों के समान दुष्टों के सामने समर्पण कर हनुमंत शक्ति की अवहेलना करना है। हनुमंत विजय का प्रतीक हैं। वे अजेय हैं। विषम से विषम परिस्थितियों को भी वे अनुकूल बना देते हैं जैसा कि उन्होंने भगवान श्रीराम के साथ किया था। हनुमंत कवच धारण करने वाले व्यक्ति के हृदय में असम्भव जैसे शब्दों का उत्पादन नहीं होना चाहिए। 

हनुमंत कवच पराआध्यात्मिक कवच है एवं इसमें समस्त आर्यावर्त के ऋषि-मुनियों और साधु-संतों के आशीर्वाद निहित हैं। 
            कवच का तात्पर्य लोहे के वस्त्रों से नहीं है। वे तो एक बार भेदे जा सकते हैं, आप उनके वजन तले बोझिलता महसूस कर सकते हैं, उनमें स्वरूप परिवर्तन होता ही नहीं है। परन्तु हनुमंत कवच तो हर परिस्थिति में परिवर्तनीय हो आपको बिना बताये अदृश्य रूप में प्रतिक्षण आपकी रक्षा करता रहेगा। हनुमंत बुद्धि के देवता हैं। उनकी बुद्धि शीशे के समान पवित्र है।रामायण जैसा महाग्रंथ इस आर्यावर्त के सभी ऋषि मुनियों एवं मंत्र दृष्टा, तंत्र दृष्टा और तत्व दृष्टा महापुरुषों ने अपने-अपने तरीके से वर्णित किया है। एक समय पार्वती जी ने भगवान शंकर से समस्त लोकों के कल्याण के लिये इस कवच के बारे में बताने को कहा जिससे कि सभी देव और मनुष्य परम सुरक्षा प्राप्त कर सकें तब भगवान शंकर बोले- हे देवि भगवान श्रीराम ने ही हनुमंत कवच का निर्माण किया है और वह भी सर्वप्रथम अपने परम भक्त विभीषण के लिये जो कि असुर नगरी में निवास करता हुआ भी राम का अनन्य उपासक था। यह कवच परम गोपनीय है अतः इसे आप विशेष रूप से श्रवण कीजीये 

विनियोग

       दाहिने हाथ में जल लेकर उसमें अक्षत, पुष्प मिला लें तथा निम्न मंत्र पढ़ें -

ॐ अस्य श्री हनुमत्कवचस्तोत्रमन्त्रस्य श्रीरामचन्द्र ऋषि: अनुष्टुप्छन्दः । श्री महावीरो हनुमान् देवता / मारुतात्मज इति बीजम् । अञ्जिनीसूनुरिति शक्तिः । ॐ ह्रीं ह्रां ह्रौं इति कवचम् । ॐ स्वाहा इति कीलकम् । ॐ लक्ष्मणप्राणदाता इति बीजम् । मम सकलकार्यसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।

अथ न्यास

ॐ ह्रां अंगुष्ठाभ्यां नमः । 
ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः । 
ॐ हूं मध्यमाभ्यां नमः । 
ॐ हैं अनामिकाभ्या नमः । 
ॐ ह्रौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः । 
ॐ हः करतल करपृष्टाभ्यां नमः । 
ॐ अंजनीसूनवे हृदयाय नमः । 
ॐ रुद्रमूर्तये शिरसि स्वाहा । 
ॐ वायुसुतात्मने शिखायै वषट् । 
ॐ वज्रदेहाय कवचाय हुम् । 
ॐ रामदूताय नेत्रत्रयाय वौषट् । 
ॐ ह्रीं ब्रह्मास्त्र निवारणाय अस्त्राय फट्

दिग्बन्ध

राम दूताय विद्महे, कपिराजाय धीमहि,तन्नो हनुमन्त प्रचोदयात् ।
 ॐ हुँ फट् इति दिग्बन्धन ।

अथ ध्यानम्

घ्यायेद्वालदिवाक रघुतिनिभं देवारिदर्पापाहं,
देवेन्द्रप्र वरप्र शस्तयशसं दैदीप्यमानं रुचा ।
सुग्रीवादिसमस्तवानरयुतं सुव्यक्ततत्त्वप्रियं 
संरक्तारुणलोचनं पवनजं पीताम्बरालंकृतम् ॥


उद्यन्मार्तण्ड कोटि प्रकट रुचियुतं चारु वीरासनस्थं,
मौंजीयज्ञोपवीता भरणरुचिशिरवा शोभितंकुंडलांगम्।
भक्तानामिष्टदंतं प्रणत मुनिजनं वेदाना प्रमोदं,
ध्यायेदेवं विधेयंप्लवंगकुलपतिं गोष्पदी भूतवाधिम् ॥


वज्रांगं पिंग केशादयं स्वर्ण कुण्डल मण्डितम् ।
नियुद्धं कर्म कुशलं पारावार पराक्रमम् ॥ 

वाम हस्ते महावृक्षं दशास्थकर खण्डनम् ।
उद्यदक्षिण कोदण्ड हनुमन्तं विचिन्तयेत् ॥

स्फटिकाभं स्वर्ण कान्तिं द्विभुजं च कृताञ्जलिं।
कुण्डलद्वय संशोभि मुखाम्भोजं हरिं भजेत् ॥

उद्यदादित्य संकाश मुदारभुज विक्रमम् । 
कन्दर्प कोटि लावण्यं सर्व विद्या विशारदम् ॥

श्री राम हृदयानन्दं भक्त कल्प महीरुहम् । 
अभयं वरदं दोभ्यि कलये मारुतात्मजम् ॥

अपराजित नमस्तेऽस्तु नमस्ते राम पूजित ।
 प्रस्थानंच करिष्यामि, सिद्धिर्भवतु मे सदा ॥

यो वारां निधिमल्प पल्वल मिवोल्लंघ्य प्रतापान्वितो, 
वैदेही घन शोक ताप हरणो वैकुण्ठ तत्त्व प्रियः ।

अक्षार्जित राक्षसेश्वर महा दर्पापहारी रणे 
सोऽयं वानर पुंगवोऽस्तु सदा युष्मान् समीरात्मजः ॥

वजांगं पिंग केशं कनकमयलसत्कुण्डला क्रान्त गंड,
नाना विद्याधिनाथं करतल विधूतं पूर्ण कुम्भं दृढं च ।
भक्ताभीष्टाधिकारं विदधति च सदा सर्वदा सुप्रसन्नं 
त्रैलोक्य त्राणकारं सकल भुवनगं रामदूतं नमामि ॥

उपल्लांगूल केशं, प्रचय जलधरं भीम मूर्ति कपीन्द्र,
वन्दे रामांघ्रि पदम भ्रमर परिवृतं तत्त्व सारं प्रसन्नम् ।
वज्रांगं वज्ररूपं कनकमयलसत्कुण्डला क्रांत गण्डम् भोहिणविकटं भूतरक्षोऽधिनाथम् ॥ 

वामे करे वैरिभयं वहन्तं शैलं च दक्षे निजकंठलग्नं । दधानमासाद्यसुवर्ण वर्णं भजेज्ज्वलत्कुण्डल रामदूतम् ॥

पदम राग मणि कुण्डलत्विषपाटली कृत कपोल मण्डलम् ।
दिव्यदेवकदलीवनान्तरे भावयामि पवमाननन्दनम् ॥
 
                          शिव शासनत: शिव शासनत:

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