ज्ञान की चोरी बहुतायत में होती है। ज्ञान अत्यंत ही संवेदनशील तत्व है न जाने कब मस्तिष्क से विस्मृत या उड़ जाये। कवच के दो कार्य हैं, सर्वप्रथम जो ज्ञान हमने अर्जित किया है वह हमारे पास मौजूद रह सकें उसका क्षय न हो एवं हमारे ज्ञान का उच्चाटन, कीलन, बंधन या हरण कोई दूसरा व्यक्ति तांत्रोक्त या मांत्रोक्त विधान से सम्पन्न न कर पाये। यह पक्ष अत्यंत ही महत्वपूर्ण है। वाद विवाद प्रतियोगिता के समय मुख का स्तम्भन कर दिया जाता है, परीक्षा की जगह बांध दी जाती है। अचानक कुछ समय के लिए परीक्षार्थी अर्जित ज्ञान भूल जाते हैं या उनकी एकाग्रता भी भंग की जा सकती है। उपरोक्त वर्णित विषम परिस्थितियों से बचने के लिए सरस्वती कवच का पाठ किया जाता है। अनेकों बार भोज पत्र के ऊपर सरस्वती यंत्र को निर्मित कर उसे महासरस्वती मंत्र से अभिमंत्रित कर धारण भी किया जाता है विशेषकर 13 मुखी रुद्राक्ष में सरस्वती की स्थापना सबसे उपयुक्त तरीके से की जा सकती है। कवच पाठ की विधि नीचे लिखी हुई है सरस्वती कवच का पाठ प्रातःकाल ही करना चाहिए। पाठ करते समय प्रत्येक अंग का ध्यान कर लेना चाहिए।
सरस्वती कवच-
शृणु शिष्य ! प्रवक्ष्यामि कवचं सर्वकामदम् ।
घृत्वा सततं सर्वैः प्रपाठ्योऽयं स्तवः शुभः ॥
विनियोग - (दाएं हाथ में जल लेकर निम्न मंत्र बोले)
अस्य श्रीसरस्वतीस्तोत्रकवचस्य प्रजापतिर्ऋषिः, अनुष्टप्छन्दः, शारदादेवता, सर्वतत्त्वपरिज्ञाने सर्वार्थसाधनेषु च । कवितासु च सर्वासु विनियोगः प्रकीर्तितः ॥ इति पठित्वा, विनियोगं कुर्यात् ।
(जल भूमि पर छोड़ दे)
ॐ श्रीं ह्रीं सरस्वत्यै स्वाहा शिरो मे पातु सर्वतः ।
ॐ श्रीं वाग्देवतायै स्वाहा भालं मे सर्वदाऽवतु ।
ॐ सरस्वत्यै स्वाहेति श्रोत्रे पातु निरन्तरम् ।
ॐ ह्रीं श्रीं भगवत्यै सरस्वत्यै स्वाहा नेत्रयुग्मं सर्वदाऽवतु।
ॐ ऐं ह्रीं वाग्वादिन्यै स्वाहा नासां मे सर्वदाऽवतु ।
ॐ ह्रीं विद्याऽधिष्ठातृदेव्यै स्वाहा चोष्ठं सदाऽवतु।
ॐ श्रीं ह्रीं ब्राह्मयै स्वाहेति दन्तपङ्क्तिं सदाऽवतु ।
ॐ ऐं इत्येकाक्षरो मन्त्रो मम कण्ठं सदाऽवतु ।
ॐ श्रीं ह्रीं पातु मे ग्रीवां स्कन्धौ मे श्रोः सदाऽवतु ।
ॐ ह्रीं विद्याऽधिष्ठातृदेव्यै स्वाहा वक्षः सदाऽवतु।
ॐ ह्रीं विद्याऽधिस्वरूपायै स्वाहा मे पातु नाभिकाम् ।
ॐ ह्रीं क्लीं वाण्यै स्वाहेति मम हस्तौ सदाऽवतु ।
ॐ सर्ववर्णात्मिकायै पादयुग्मं सदाऽवतु ।
ॐ वागधिष्ठातृदेव्यै स्वाहा सवं सदाऽवतु ।
तत्पश्चादाशाबन्धं कुर्यात् -
ॐ सर्वकण्ठवासिन्यै स्वाहा प्राच्यां सदाऽवतु । ॐ सर्वजिह्वाऽग्रवासिन्यै स्वाहाऽग्निदिशि रक्षतु ।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं सरस्वत्यै बुधजनन्यै स्वाहा ।
ॐ सततं मन्त्रराजोऽयं दक्षिणे मां सदाऽवतु ।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं त्र्यक्षरो मन्त्रो नैर्ऋत्ये सर्वदाऽवतु ।
ॐ ऐं ह्रीं जिह्वाऽग्रवासिन्यै स्वाहा प्रतीच्यां मां सर्वदाऽवतु ।
ॐ सर्वाऽम्बिकायै स्वाहा वायव्ये मां सदाऽवतु ।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं गद्य-पद्य वासिन्यै स्वाहा मामुत्तरे सदाऽवतु ।
ॐ ऐं सर्वशास्त्रवादिन्यै स्वाहैशान्ये सदाऽवतु ।
ॐ ह्रीं सर्वपूजितायै स्वाहा चोर्ध्वं सदाऽवतु ।
ॐ ह्रीं पुस्तकवासिन्यै सदाऽधो मां सदाऽवतु ।
ॐ ग्रन्थबीजस्वरूपायै स्वाहा मां सर्वतोऽवतु ।
इति ते कथितं शिष्य ! ब्रह्म-मन्त्रौघ-विग्रहम् । इदं विश्वजयं नाम कवचं ब्रह्मरूपकम्॥
॥ इति श्रीसरस्वतीकवचं समाप्तम् ॥
शिव शासनत: शिव शासनत:
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