Follow us for Latest Update

गुरु की खोज ।।

             एक दिन मनुष्य जब सांसारिक चक्रव्यूह में फँसकर तड़फ उठता है, उसके मानुषिक रिश्ते उसके लिए जी का जंजाल बन जाते हैं, दुनिया की चमक दमक में उसकी आँखे पथरा जाती हैं और फिर जब भीड़ में वह अपने आपको थका हारा, घिसा पिटा और गुम पाता है तब उसकी आत्मा का दम घुटने लगता है और वह गुरु की खोज प्रारम्भ करता है जो उसे इस भव सागर से मुक्त करा दे। संसार की तपिश और गर्दिश में वट वृक्ष बन उसे अमृतमयी छाया प्रदान करे एवं जीवन निरर्थक और बदरंग हो जाने से पहले उसे जीवन जीने की कला सिखा दे । इसे ईश्वर की खोज भी कहते हैं। सभी को ईश्वर की तलाश है। ईश्वर का कार्य केवल मनुष्यों को देखना नहीं है। मनुष्य ब्रह्माण्ड का एक छोटा सा हिस्सा है और फिर प्रत्येक मनुष्य में इतनी ताकत भी नहीं है कि वह शिव की अनगढ़ में भाषा को समझ सके, उनसे सम्प्रेषण कर सके इसीलिए पिछले पाँच हजार वर्षों में बहुत ही कम गिने चुने ऐसे लोग हुए हैं जो सीधे शिव से बात कर सकते हैं। कुछ विलक्षण पुरुषों से दुनिया नहीं चल सकती। सभी की जरूरत पूरी नहीं हो सकती। यहीं पर गुरु का उदय होता है।

              गुरु एक अत्यंत ही व्यापक शब्द है एवं अपने आपमें विराटता छिपाए हुए है। इसका ओर छोर समझ पाना बड़ा मुश्किल है। गुरु को परिभाषित भी नहीं किया जा सकता, किन्हीं नियमों में आबद्ध भी नहीं किया जा सकता। यही परम ब्रह्म का स्वरूप है। इसी कारणवश सभी शास्त्रोक्त ग्रंथों ने एक स्वर में गुरु को परम ब्रह्म कहा है। उसी में समास्त दैवीय शक्तियों को निहित माना है। वो ही मनुष्य को ब्रह्मा, विष्णु, महेश और माँ भगवती के विभिन्न स्वरूप उनकी वाणी में समझा सकता है, दिखा सकता है, उनसे आसानी के साथ सम्प्रेषण कर सकता है। गुरु ही आम जनता की समस्याओं को उन्हीं के शब्दों में, उन्हीं की समझ अनुसार उनके तार्किक एवं बौद्धिक स्तर पर आवश्यकतानुसार हल प्रदान कर सकता है अन्यथा विराट जनसमूह ईश्वरी ज्ञान से वंचित रह जायेगा।

         जीवन की अंधी दौड़ ज्यादा दिन नहीं चलती। एक जैसी नियमित जिन्दगी मनुष्य को उबाऊ बना देती है। कोई भी भौतिक संसाधन मनुष्य को ज्यादा देर तक बाँधे नहीं रख सकता। जीवन के सांसारिक सम्बन्ध कब बंधन का कारण बन जायें यह, सभी मनुष्यों को झेलना पड़ता है। आज जिन सांसारिक सम्बन्धों में खुशी महसूस होती है कल वही बोझ बन जाते हैं नीरसता जीवन का प्रमुख रस बन जाती है। मनुष्य जीवन में अत्यधिक भटकाव आता है एवं भरे पूरे परिवार में भी मनुष्य अपने आपको अकेला महसूस करता है। ऐसा सब क्यों होता है? मुख्य रूप से इनके पीछे दो धाराऐं छिपी हुई हैं। प्रथम धारा में 99% कर्म और सम्बन्ध आते हैं। यह सब सौदेबाजी के अंतर्गत निर्धारित कर्म और बंधन हैं। यहाँ पर मात्र देना ही देना है। देने की अपेक्षा प्राप्त करने में उत्तरोत्तर कमी ही होती जाती है। यह जीवन जीने का एक आम ढर्रा है। अनंतकाल से जन्म लेते ही मनुष्य इस ढरें के अंतर्गत जीने का आदी हो चुका है परन्तु हर चीज की हद होती हैं। एक हद के बाद मनुष्य व्याकुल हो ऐसे व्यक्तित्व की तलाश करता है जहाँ से वह पुनः शक्ति प्राप्त कर सके। शीतलता प्राप्त कर सके, असीम शांति प्राप्त कर सके। वहाँ पर उसे कोई नोंचने खसोटने और लूटने वाला न हो। हर समय कुछ न कुछ मांग की पूर्ति करने वाला वह यंत्र न हो। यंत्रवतता से मुक्ति ही गुरु की प्राप्ति है। कुछ न करने की स्थिति ही गुरु की स्थिति है।

          सब कुछ भूलकर, सब सम्बन्धों को विस्मृत करके कुछ क्षण के के लिए प्रफुल्लित हो गुरु सानिध्य में बैठना ही परम ध्यान है। गुरु और शिष्य का सानिध्य ऐसा है कि जब वे आमने सामने होते हैं तब सब कुछ रुक जाता है। समय भी रुक, जाता है। जब समय रुक गया तो समय के अंतर्गत आने वाले समस्त ताम झाम भी रुक जाते हैं। बस यही पूर्णता के क्षण हैं। जीवन की अनमोल धरोहर यही क्षण हैं। यहीं गुरु की पहचान है कि उसके सानिध्य में सब कुछ रुक जाये और शिष्य समय विहीन, शब्द विहीन, बुद्धिविहीन एवं ज्ञानविहीन हो जाये। ब्रह्माण्ड में अभी तक ऐसी कोई ध्यान साधना पद्धति नहीं बनी है जो कि व्यक्ति को इस स्थिति में पहुँचा दे। यही परम ब्रह्म की स्थिति है, यही गुरु की महत्ता है, यही पुनः कई जन्मों तक स्फूर्तिवान बने रहने की कला है। इसे ही निखिलत्व कहते हैं।

           जब जब मैं गुरु के सामने गया सारी समस्या भूल गया, सारे सम्बन्ध, सारे तामझाम, दिन और रात का फर्क, भूख और प्यास की दैहिक क्रियाऐं स्वतः ही मिट गई बस आँखें गुरु को देखकर भाव विभोर हो उठीं एवं मुख पर मुस्कान छा गई। बस समझ में आ गया कि जीवन में कितनी निरर्थकता है और सार्थकता केवल गुरु दर्शन में है। .

यही मंगल मूर्ति गुरु स्वरूप की पहचान है, जहाँ से उठने की इच्छा न हो, जहाँ कुछ बोलने का मन न करे, जहाँ पर समस्त भौतिक, दैहिक, बौद्धिक, मानसिक और विशेषकर तथाकथित आध्यात्मिक और धार्मिक आवश्यकताओं का महत्व नगण्य हो जाये। यही परमानंद की स्थिति है। यही गुरु हृदयस्थ धारण दीक्षा का महत्व है। यह हर पल प्रसन्न और मस्त कलंदर बने रहने की कला है। 

          दुनिया चलती है, चलती रहेगी। सब कुछ चलता रहेगा और हम भी चलते रहेंगे। जब तक जीना है जियेंगे, समस्याऐं आती जाती रहेंगी। रोने वाले रोते रहेंगे, हँसने वाले हँसते रहेंगे। हम भी निष्काम भाव से कर्म सम्पन्न करते रहेंगे परन्तु अंदर से हृदय में स्थापित गुरु के साथ बातें करते हुए, मस्त रहेंगे। यही शाम्भवी दीक्षा है। इतना ढीठ बन जाना, कि दुनियाँ की कोई भी ताकत, कोई भी व्यक्ति हमें रुला न सके, हमें विचलित न कर सके, हम पर हावी न हो सके और हम पर नियंत्रण न कर सके। जो गुरु हृदय में से बोलेगा वहीं हम करेंगे। देखिए सृष्टि में सबसे ज्यादा दुखी, व्यथित, परेशान मध्य मार्गीय होता है। मध्यमार्गी कायरता की निशानी है। मध्यमार्गी कहीं का नहीं रहता। न जी सकता है न मर सकता है। मध्यमार्गी ही त्रिशंकु कहलाते हैं न स्वर्ग के रहते हैं न पृथ्वी के बस बीच में लटके रहते हैं। इसका कारण उनकी गणित लगाने की प्रवृत्ति, कुछ ज्यादा दिमाग चलाने की आदत और स्वयं तर्क कुतर्क में उलझे रहने की प्रवृत्ति ही है एक मध्यम वर्गीय परिवार में विवाह जैसी सामान्य प्रक्रिया मुसीबत का कारण बन जाती है। उच्च वर्ग में विवाह कोई समस्या नहीं है और निम्न वर्ग में पाँच हजार रुपये में विवाह हो जाता है। उसी में वे आनंद उठा लेते हैं। सारा का सारा कचरा घर मध्य वर्ग है ठीक इसी प्रकार जो मध्य मार्गीय सोच से ग्रसित होते हैं, वे गुरु को प्राप्त करने के बाद भी हैरान परेशान रहते हैं। 

             मैंने देखा है गरीब और आदिवासियों को, खेतिहर किसानों को उनके पास पैसा नहीं होता पर वे गुरु को प्राप्त करते ही ध्यानस्थ हो जाते वे हैं। अपने खेत में बैठे-बैठे गुरु से सम्प्रेषण कर लेते हैं। उच्च वर्गीय हवाई जहाज का टिकिट कटाकर गुरु के दरवाजे इच्छा होते ही पहुँच जाते हैं और बचा मध्य वर्ग बस गुरु को गाली देता रहता है और सड़ता रहता है। निखिलेश्वरानंद जी के शिविरों में मैंने अद्भुत आध्यात्मिक दर्शन प्राप्त किए हैं। एक शिविर में एक सात वर्षीय बालक आया । उसका सिर मुंडा हुआ था, पीताम्बर ओढ़ रखा था उसने वह अपने माँ बाप से जिद कर रहा था कि मुझे गुरुजी के पास ले चलो। थक हारकर माँ बाप लेकर आये । मैंने बालक से पूछा कौन सी दीक्षा लेनी है तुम्हे, वह ब्राह्मण जाति का बालक था बोला मैं नवार्ण दीक्षा लेना चाहता हूँ। मैंने सोचा सामान्यतः बालक तो सरस्वती दीक्षा लेते हैं यह नवार्ण दीक्षा क्यों लेने आ गया। वह बोला पिछली बार यह दीक्षा छूट गई थी। मैं बोला पिछली बार का क्या मतलब तुम तो पहली बार आये हो वह बोला हाँ पहली बार आया हूँ पर पिछली बार किसी कारणवश यह दीक्षा छूट गई थी। मैं तुरंत समझ गया इसे पूर्व जन्म की स्मृति आ गई है शायद गुरुजी ने इसे खींच लिया हो । दीक्षा के बाद मैं पुनः बालक से मिला मैं क्या देखता हूँ कि बालक बिल्कुल सामान्य है एवं पूर्व जन्म की याददाश्त के चिन्ह उसके चेहरे पर कहीं नहीं है। निश्चित ही गुरुजी ने पूर्व जन्म की याददाश्त को प्रतिबंधित कर दिया होगा। 

            एक बात और देखने को मिली उनके शिविरों में उनके शिष्यों की संख्या एक प्रकार से निश्चित रहती थी चार से पाँच हजार के बीच परन्तु हर बार अस्सी प्रतिशत चेहरे नये होते थे। ये साधनात्मक शिविरों का रहस्य है। यह दीक्षा प्रणाली का विधान है। हर जीवन में हर व्यक्ति की सभी दीक्षाऐं नहीं होती। एक बार एक व्यक्ति को उसकें घर वाले जंजीरों से बांध कर लाये वह विक्षिप्त सा था और वह व्यक्ति गुरुजी के मंच के नीचे तीन दिन तक सोता रहा। चौथे दिन वह ठीक हो गया। हर व्यक्ति के लिए गुरु की खोज अलग-अलग है। मेरे एक जान पहचान वाले थे अपने कुकर्मों से वह विक्षिप्त हो गये थे उसके घरवाले बहुत परेशान थे। वह सब काम छोड़, पागलों के समान घूमते थे खैर उसे भी पकड़कर गुरुजी के पास ले गये। कई बार मार-मार कर भी सुधारना पड़ता है। गुरुजी ने उसे तीन चरणों में दीक्षा दी। आज वह कई सौ एकड़ जमीन का मालिक है और दवा की दुकान भी चलाता है। कल तक जो दवा खाता था जिसे अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान ने भी लाइलाज घोषित कर दिया था अब वह खुद दूसरों को दवा बेचता है। यह सब अनमोल एवं अत्यंत ही दिव्य अनुभव हैं मेरे जीवन के ।

               कैसे- कैसे लोग गुरुजी के पास आये, किस-किस माध्यम से किस-किस बहाने, किन-किन समस्याओं ने उन्हें गुरुजी के नजदीक पहुँचाया और उनकी गुरु की खोज समाप्त की। खेल-खेल में भी गुरु मिलते है। गुरु शिष्यों के ऊपर सदैव आवरण डालकर रखते हैं। यही है गुरु की पहचान अगर वह अपनी विराटता, अपनी सम्पूर्णता और अपने वैभव का वास्तविक स्वरूप शिष्य को दिखा देगा तो फिर शिष्य असहज हो जायेगा। शिष्य मतिभ्रम का शिकार हो जायेगा। गुरुजी में एक खासियत थी जैसा शिष्य हों वे वैसी ही बात करते थे। इस मर्यादा का वे कड़ाई से पालन करते थे। 

           पहली क्लास के बच्चे को इंजिनियरिंग का गणित नहीं पढ़ाना चाहिए। नहीं तो यह पढ़ाने वाले के दिवालिएपन का परिचायक है।सहजता के साथ जितना प्राप्त किया जा सकता है उतना ढोंग के द्वारा नहीं। सहजता सफल शिष्य होने की निशानी है । प्रत्येक गुरु को सीधे-सादे, सच्चे, सहज, निष्कपट और सरल हृदय के शिष्य ही पसंद होते हैं। आडम्बरी, नाटकीय व्यक्तियों को कोई पसंद नहीं करता। जीवन में सब कुछ एक दिन अचानक होता है। अचानक ही गुरु मिलते हैं। गुरु प्लानिंग से नहीं मिलते। गुरु को प्राप्त करने के लिए उस प्रकार के निरर्थक प्रयास नहीं करने पड़ते जिस प्रकार से प्रयास शादी के लिए करने पड़ते हैं। गुरु की प्राप्ति शुभ कर्मों के उदय का प्रथम लक्षण है। जीवन के पूर्ण परिवर्तनीय होने की पहचान है गुरु की खोज। 

                एक शिविर का आयोजन सम्पन्न हुआ था। सारा सामान मैदान से उठाया जा रहा था तभी एक महिला किसी अन्य प्रांत से मेरे पास आयी और बोली मुझे गुरुजी से मिलना है। मैंने कहा गुरुजी तो चले गये। वो बोली अब कहाँ मिलेंगे, मैंने कहा तुम दिल्ली चली जाओ। वह रोती हुई दिल्ली चली गई। वहाँ पर भी गुरुजी उसे नहीं मिले। उसे वहाँ से जोधपुर जाना पड़ा। वहाँ उसकी गुरु दीक्षा हुई। उसने हिम्मत नहीं हारी। अकेली महिला होते हुए भी दिल्ली से जोधपुर गई और अंत में गुरु को खोजकर ही मानी। मेरी एक जान पहचान वाला है जब-जब गुरुजी आते मैं उसे बुलाता पर उसकी किस्मत ही खराब थी। वह कभी कहीं उलझ जाता तो कभी उसे अचानक बाहर जाना पड़ जाता। अंत तक उसकी दीक्षा नहीं हो पायी। अब वह नित्य प्रतिदिन गुरु मंत्र का जाप एवं गुरु पूजन करता है। ऐसा भी होता है। दीक्षा केवल शिविरों में ही नहीं होती है। गुरुजी के साथ तो यह आलम था कि देर से आये लोग रेल्वे प्लेटफार्म पर ही दीक्षा लेने लगते थे। एक बार तो ऐसा हुआ कि एक व्यक्ति दीक्षा के लिए ट्रेन में चढ़ गया। उसने ट्रेन के डिब्बे में ही दीक्षा ली और दूसरे प्लेटफार्म पर उतर गया। भगवान जाने कब कहाँ किस हाल में किस स्थिति में किसको गुरु मिल जाये। सबकी अपनी-अपनी कहानी है। खैर गुरु मिलना चाहिए। 

              एक शिष्य अपनी पत्नी से छिप छिपकर गुरुजी से मिलने आता था। उसकी पत्नी बहुत झगड़ा करती थी। बाद में पत्नी पति से भी ज्यादा गुरु भक्त बन गई। कब किसमें कैसे भाव फूट पड़ें। लोग दस-दस वर्ष तक दीक्षा के पश्चात घूमते रहे हैं। उनके अंदर श्रृद्धा और भक्ति का झरना फूटा ही नहीं पर मैं क्या देखता हूँ कि एक दिन अचानक वे भक्तिमय हो गये और गीत उनके मुख से झरने लगे। मानस शुद्धि, पूर्व जन्म के शाप कटने में समय लगता है पर गुरु मिल जाने के बाद देर सबेर यह तो होकर ही रहता है। गुरु अपना असर जरूर दिखाता है। लोहा भी एक तापमान पर मोम के समान मुलायम हो जाता है। लड़ाई-झगड़े, गुरु से शिकायत, गुस्सा यह सब सामान्य बातें हैं। जीवन के यह आवश्यक अंग है। गुरु इनका कभी बुरा नहीं मानता वह इन परिधियों से ऊपर रहता है। फिर से जवान बना देना, फिर बाल्यावस्था को लौटा देना यही गुरु का कार्य है। गुरु की खोज जीवन की सबसे बड़ी खोज है आप भी इस खोज में सफल हों बस इतना ही कहना है।

         गुरु कृपा ही केवलम् गुरु कृपा ही केवलम्



0 comments:

Post a Comment