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उत्पादन ।।

        गुरु उद्यमशीलता का पर्यायवाची है। गुरु का कर्तव्य है जनमानस को अध्यात्म के उद्यम हेतु प्रेरित करना संचालित करना एवं क्रियाशील करवाना। उद्यम से ही उत्पादन होता है। इस सृष्टि में आध्यात्मिक शक्ति का भी उत्पादन किया जाता है। मनुष्य एक परम उद्यमशील संरचना है सृष्टि के विकास क्रम में जीव सबसे परिष्कृत और शक्तिशाली इकाई है। यह ईश्वर का प्रतिरूप है। ब्रह्माण्ड की समस्त झलकियाँ मनुष्य के अंदर निहित कर दी गई हैं एवं एक अकेला मनुष्य आध्यात्मिक उद्यम, का स्तोत्र बन सकता है। एक अकेला मनुष्य अध्यात्म की धारा प्रवाहमान करने में सक्षम है और वह भी कई कल्पों तक एक अवतार या एक महापुरुष एक वृहद धर्म संस्थान की स्थापना कर सकता है। एक कृष्ण हुए हैं पर आज भी अनंत जनमानस, साधक एवं कृष्ण भक्त उनके द्वारा प्रवाहित गीता ज्ञान को आधार मानकर। आध्यात्मिक शक्ति का उत्पादन कर रहे हैं जो उत्पादन कर रहे हैं वही कृष्ण को प्रिय है। 

      प्रत्येक व्यक्ति का अपना मानस है, प्रत्येक व्यक्ति दूसरे से भिन्न है, प्रत्येक व्यक्ति की अपनी अलग आवश्यकता है। अतः सभी से कृष्णोपासना नहीं करवाई जा सकती और यह भी हो सकता है कि एक व्यक्ति जीवन में अनेकों प्रकार की साधनाएँ सम्पन्न करे। अतः ईश्वर विभिन्न ॐ स्वरूपों में प्रकट होता है। जिसे जो स्वरूप पसंद आता है वह उसी स्वरूप में ध्यानस्थ हो अध्यात्म का उत्पादन करता है। अध्यात्म ही श्री है। चाहे भैरव उपासना करो,शिव उपासना करो या विष्णु उपासना मूलभूत रूप से अध्यात्म का ही उत्पादन होता है। जब तक अध्यात्म का उत्पादन होता रहता है जीव ईश्वर को प्यारा होता है। अनुत्पादक मनुष्य से गुरु को क्या काम? जो धरती मरु भूमि बन जाती है वहाँ से मनुष्य भी पलायन कर जाता है। ठीक इसी प्रकार जब जीव धर्मोपासना नहीं करता तो परम शक्ति पलायन कर जाती है। अध्यात्म की शक्ति ईश्वर को नहीं चाहिए बल्कि ईश्वर के द्वारा रचित इस जगत को चाहिए होता है। 

       सूर्य, चंद्र, आकाश, नक्षत्र इन सबको गतिमान रखने । के लिए यथा स्थिति बनाये रखने के लिए अध्यात्म बल की ही जरूरत पड़ती है। केवल मनुष्य अकेला अध्यात्म का उत्पादन नहीं करता है अपितु सभी ग्रह- नक्षत्र, पिण्ड, सूर्य इत्यादि भी आध्यात्मिक बल के उत्पादन की एक इकाई हैं। मनुष्य तो बहुत बाद में आता है। जैसे ही कोई आध्यात्मिक बल के उत्पादन से विमुख होता है उसकी संरचना खण्डित होने लगती है। गुरु के लिए प्रत्येक शिष्य मात्र अध्यात्म के उत्पादन की एक इकाई है। उससे किस प्रकार की साधना करवानी है, उसे किस प्रकार फल देना है इत्यादि यह गुरु का विषय है। गुरु शिष्य की परम्परा के अंतर्गत फल का विधान अनंत गुना होता है। आध्यात्मिक उत्पादन की इकाई बनने की स्थिति में जो फल प्राप्त होता है वह कई पीढ़ियों तक संरक्षित रहता है एवं उसी का भोग आने वाली पीढ़ियाँ करती हैं। जिसमें जितनी ज्यादा । उत्पादन की क्षमता होती है उसे उसी के हिसाब से पद प्राप्ति होती है। चाहे ब्रह्मा का पद हो या फिर विष्णु पद या फिर रुद्र गणों के पद इत्यादि यह सब निरंतर बदलते रहते हैं। 

          साधक अपनी उत्कृष्ट उत्पादन क्षमता के हिसाब से कोई भी पद प्राप्त कर सकता है। जीवन इसी शर्त पर मिलता है कि उत्पादन करो अन्यथा जीवन की प्राप्ति नहीं होगी। उत्पादन की विभिन्नता के हिसाब से ही लोक निर्मित होते हैं। महालक्ष्मी सर्वलोकों में सुपूजित हैं। इनकी विशुद्धतम एवं पवित्रतम मूल शक्ति । बैकुण्ठ में महाविष्णु के साथ शोभायमान हैं। वह दिव्यता केवल बैकुण्ठ में जाकर ही अनुभव की जा सकती है। समुद्र मंथन के समय इन्होंने मात्र अपनी दृष्टि स्वर्गलोक की तरफ केन्द्रित की थी एवं उसी से स्वर्ग पूर्ण ऐश्वर्यशाली बन गया और वहाँ पर ये स्वर्ग लक्ष्मी के नाम से प्रतिष्ठित हुई परन्तु पराकाष्ठा तो बैकुण्ठधाम में ही हैं। महालक्ष्मी तो माया हैं। दृश्यों को जन्म देने वाली जगत प्रसूतिका हैं एवं एक क्षण में दृश्य को बदलकर रख देती हैं। 

गरीब के झोपड़े का दृश्य कुछ और है तो वहीं राजा के महल के दृश्य कुछ और हैं। दृश्य इन्द्रियों का विषय है एवं इन्द्रियों को दृश्य बहुत प्रिय हैं। दृश्य संस्पर्शित भी किये जाते हैं दृश्यों के आयाम ध्वनि, स्पर्श, गंध इत्यादि से युक्त हैं। दृश्य ही सुख और दुख का कारण बनते हैं। अत: व्यक्ति सुखद दृश्यों को निर्मित करने हेतु लक्ष्मी का अनुसंधान करता है। मनुष्य दृश्य जगत में जीता है इसलिए लक्ष्मी को दृश्यों के अधीन समझता है परन्तु यह अर्ध सत्य है। लक्ष्मी दृश्यों से भी परे हैं, सुख से भी ऊपर हैं। वह परम तृप्तिका हैं एवं इन्द्रियों के अलावा अन्य अंतेन्द्रिय चक्षुओं और तंतुओं को भी तृप्ति प्रदान करती हैं। लक्ष्मी पूर्णता हैं। पूर्णता इसलिए हैं क्योंकि वह विष्णु की अर्धांगिनी हैं, विष्णु की शक्ति हैं। विष्णु नारायण हैं, पुरुषोत्तम हैं, वे परम हैं वे शिव केद्वारा निर्मित प्रथम पुरुष हैं। अतः पुरुषोत्तम के साथ पुरुषोत्तमा ही होंगी, नारायण के साथ नारायणी ही सुशोभित होती हैं। एक खास बात यह है कि विष्णु और लक्ष्मी ने संतानोत्पत्ति व्यक्तिगत तौर पर नहीं की है। यही सबसे विशेष बात है इसलिए वे जगत पुरुष और जगतमाता हैं, व्यक्तिगत कुछ भी नहीं है। व्यक्तिगतता मनुष्यों का विषय है। विष्णु और लक्ष्मी व्यक्तिगत कारणों से क्रियाशील नहीं होते हैं। उनके प्रत्येक कार्य में जगत कल्याण का लक्ष्य छिपा हुआ होता है। महाविद्या साधनाओं के अंतर्गत सबसे कल्याणकारी साधना कमला सांधना ही है।

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