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भज गोविंदम् ।।

    रावण जैसा ज्ञानी, प्रकाण्ड शिव भक्त अपने जमाने का महान वेदन्ती ब्राह्मण पुरुष इतना नीचे गिर गया कि सीता जी का अपहरण करके ले आया। अपहरण और रावण, लंका में यह स्थिति किसी के गले नहीं उतर रही थी। भला रावण को क्या जरूरत पड़ी अपहरण की ? वह तो महान यौद्धा है, प्रचण्ड शक्तिशाली है, फिर वह इतना तुच्छ कर्म कैसे कर बैठा ? इसके पीछे रावण का एक ही उद्घोष था कि मार विष्णु-मार, उसने सीता हरण जैसा नीच कर्म सम्पन्न कर दिया कि अब तो विष्णु को लोक लज्जा निवारणार्थ मेरा वध करना ही होगा,मुझे मुक्ति देनी ही होगी, यही रावण तंत्र की विशेषता है कि आखिरकार विष्णु जिस स्थिति को टाल रहे थे उसे उसने प्राप्त कर ही लिया।

            राम ने हनुमान को भेजा,अंगद को भेजा उनकी प्रवृत्तियों के विरुद्ध संधि प्रस्ताव हेतु, युद्ध टालने हेतु । हनुमान रुद्रांश हैं फिर भी अपनी प्रवृत्ति के विरुद्ध संधि का प्रस्ताव लेकर गये। लक्ष्मण शेषनाग का अंश हैं वे भी संधि, प्रस्ताव के विरुद्ध थे। वास्तव में राम के साथ सभी युद्ध प्रिय शक्तियां ही थीं। संधि का प्रस्ताव किसी के गले से नीचे नहीं उतर रहा था।इसके विपरीत रावण के आसपास शांतिप्रिय शक्तियां थीं विभीषण समझा रहा था, मंदोदरि समझा रही थी, माल्यवान समझा रहे थे,मेघनाथ भी समझा रहा था परन्तु रावण युद्ध चाह रहा था। 

        एक युग में जय-विजय नाम के विष्णु के दो पार्षद थे, अचानक एक दिन दुर्वासा स्वरूप एक मुनि विष्णु लोक में आये किन्तु विष्णु के दोनों गणों ने उन्हें अंदर प्रविष्ट होने से रोक दिया, उन्होंने श्राप दे दिया कि जाओ विष्णु से तुम्हारा वियोग हो जाये। कालान्तर विष्णु ने श्राप की गरिमा रखते हुए अपने गणों से कहा कि क्या चाहते हो?मुझसे सात जन्मों की दूरी जो कि विष्णु भक्तिपूर्ण होगी या फिर तीन जन्मों की दूरी जिसमें कि तुम विष्णु द्रोही होंगे। दोनों गण बोले हमें तीन जन्मों की ही दूरी मंजूर है चाहे वह विष्णु द्रोह की ही क्यों न हो। विष्णु ने तथास्तु कहा और दोनों गण हिरणयाक्ष और हिरणकश्यप के रूप में उत्पन्न हो गये। विष्णु द्रोह इनके मन में भरा हुआ था,यहाँ पर विष्णु ने फिर माया रची और प्रहलाद को इनके कुल में उत्पन्न कर दिया। विष्णु द्रोहियों के अंश से परम विष्णु भक्त उत्पन्न हो गया अब तो न चाहकर भी प्रतिक्षण विष्णु का नाम ही हिरणकश्यप के मुख पर था। 

         यह भी एक विधान है,शत्रु का नाम तो मुख पर होता ही है, शत्रु का नाम लेने में भीषण कष्ट होता है,तप तो इसमें भी हो जाता है। नास्तिक भूल क्यों नहीं जाते ? विरोधी भूल क्यों नहीं जाते ? बहुत से लोग किसी विशेष गुरु या देव शक्ति को गाली देते रहते हैं,अपशब्द बोलते रहते हैं, बेमतलब में चिंतन करते रहते हैं। यह उन बेचारों की शाप ग्रस्तता होती है। एक व्यक्ति मुझे मिला वह बस मेरे गुरु के नाम से रोता रहता है, मैंने उससे कहा चार वर्ष हो गये उन्हें शरीर त्यागे और तू बीस वर्ष से उनके नाम से क्यों रोता रहता है? भूल क्यों नहीं जाता, जाकर कहीं और अपना मुँह काला क्यों नहीं करता?जब देखो तब रो-रोकर उनका नाम रटता रहता है। तू उन्हें नहीं मानता, उनके प्रति श्रद्धा नहीं है, उनके कारण कष्ट है तो अब भूल जा क्यों नहीं वे तेरे दिमाग से निकलते?चौबीसों घण्टे उलट क्रिया के माध्यम से तू क्यों उन्हें रटता रहता है? उसके तू पास कोई जबाव नहीं था। 

        ऐसा ही होता है, राम को प्रस्थान किये पता नहीं कितने हजार वर्ष हो गये, कृष्ण को प्रस्थान किये युगो बीत गये, अनंत जनमानस उनकी भक्ति में लीन रहता है फिर भी कुछ शापित, अभिशप्त नास्तिक जगत में बैठकर उन्हें उलट माध्यम से भजते रहते हैं। यह उनका श्राप है। ईश्वर का सबसे बड़ा दण्ड मनुष्यों को क्या है ? एक दिन रात्रि में दो बजे चिंतन कर रहा था, जब दुनिया सोती है तभी वास्तविक चिंतन होता है। ईश्वर है सबको मालुम है, भगवान है सबको मालुम है, उन्हें प्रमाणित करना,अप्रमाणित करना यही दर्शाता है। कि ईश्वर सर्वत्र हैं परन्तु मनुष्य को दण्ड यह है कि जिससे वह परम प्रेम करता है, जिसे देखने के लिए उसकी आँखें तरसती हैं, जिसका स्पर्श करने के लिए वह आतुर रहता है, जिसकी शरण में वह जाना चाहता है वही उसे चर्म चक्षु से दिखाई नहीं देता, उसी से वह बातचीत नहीं कर पाता, उसी के सानिध्य में वह नहीं रह पाता, यह न्यूनता है शरीर की, यह न्यूनता है पंचेन्द्रियों की। 

           मानव जगत का सारा गुस्सा, सारा क्षोभ ईश्वर पर सिर्फ इसी कारणवश है। नास्तिकता सिर्फ इसी कारणवश है।नास्तिक अंदर से बड़े वेदनामयी होते हैं,भक्ति का यह रूप अत्यंत ही कष्ट एवं पीड़ादायक है, नास्तिकता इसीलिए बनाई गई है।सामान्य मनुष्यों को नास्तिकता प्राप्त नहीं होती,यह तो असामान्य मनुष्यों को प्राप्त होती है। असमान्य को असमान्य स्थिति ही विष्णु देते हैं। 

हिरणकश्यप ने भी वही घिसी-पिटी बात कही कि कहाँ है विष्णु, प्रत्यक्ष दिखा प्रहलाद प्रहलाद के गुरु को हिरणकश्यप पकड़ लाया था वह कहने लगा कि इसी गुरु ने मेरे पुत्र को विष्णु भक्ति सिखाई है अतः इसे मृत्युदण्ड मिलना चाहिए परन्तु प्रहलाद ने कहा नहीं मेरे गुरु ने विष्णु भक्ति नहीं सिखाई है मैं स्वयं इसे करता हूँ। हिरणकश्यप विष्णु का अनुसंधान कर रहा था परन्तु आज पराकाष्ठा का समय आ पहुँचा वह बोला कहाँ है विष्णु ।

         हिरणकश्यप ने ॐ नमः शिवाय का जप कर शिव से अनेकों माध्यमों से अपनी मृत्यु को कवचित कर लिया था परन्तु अचानक भक्त की रक्षा हेतु खम्भा फाड़कर नरसिंह अवतार के रूप में विष्णु प्रकट हो गये। हिरणकश्यप को जाँघों पर लिटा उसका पेट फाड़ डाला एवं उसकी आँतें अपने गले में माला के समान लपेटं लीं, प्रत्यक्षीकरण हो गया। यह बात इसलिए लिखी कि नरसिंह स्तोत्र केवल शिष्यों के लिए बना है। नरसिंह स्तोत्र का उत्कीलन केवल गुरु की रक्षा, धर्म की रक्षा और नास्तिकों के विनाश के लिए ही किया जाता है। विष्णु तंत्र का अतिमहत्वपूर्ण भाग है नरसिंह स्तोत्र, नरसिंह के रूप में भगवान विष्णु की शक्ति धर्म रक्षार्थ, गुरु रक्षार्थ प्रकट होती है। 

         पद्मपाद ने नरसिंह स्तोत्र के माध्यम से ही अपने गुरु आदि शंकराचार्य जी के ऊपर किये गये तांत्रिक प्रयोगों को नष्ट किया था। कामाख्या में एक दुष्ट तांत्रिक ने आदि गुरु शंकराचार्य जी से दीक्षा लेकर उन्हीं पर मारण प्रयोग किया, आदि शंकर का शरीर सूख गया, वे भगन्दर की गम्भीर बीमारी से ग्रसित हो गये। वे लाचार थे, जानते हुए भी तांत्रिक का अनिष्ट नहीं कर पा रहे थे क्योंकि उसने शिष्यता जो ग्रहण कर ली थी तब पद्मपाद ने नरसिंह साधना के द्वारा उस तांत्रिक को मृत्यु प्रदान की थी। दक्षिण में जब एक कापालिक वरदान के माध्यम से शंकराचार्य जी का शीश काटने वाला था तब भी नरसिंह साधना के माध्यम से पद्मपाद ने उसका मर्दन किया था। नरसिंह साधना प्रचण्ड आवेशात्मक है एवं साधारणतया इसका उपयोग नहीं किया जाता। ठीक इसी प्रकार परशुराम साधना भी नहीं की जाती क्योंकि इसमें क्रोध का अद्भुत सम्मिश्रण है। 

        कलियुग में विष्णु अवतार के रूप में राम, कृष्ण, बुद्ध की ही साधना ज्यादा श्रेयष्कर और हितकर है। हिरणकश्यप और हिरणयाक्ष पुनः रावण एवं कुम्भकरण के रूप में त्रेता युग में एक बार पुनः उपस्थित हुए और राम के हाथों मृत्युप्राप्त कर पुनः बैकुण्ठ धाम में परम वैष्णव पद पर आरूढ़ हुए। . सृष्टि का एक विधान है इसमें जन्म मृत्यु का एक चक्र चलता रहता है इस चक्र में जीव अपने कर्मानुसार फल को प्राप्त करते हुए विभिन्न योनियों में जन्म लेता रहता है। कर्म की व्यवस्था विष्णु के द्वारा रचित है। अधिकांशतः वे इस व्यवस्था में हस्तक्षेप नहीं करते, यह कार्य धर्मराज एवं चित्रगुप्त सम्हालते हैं। ॥ श्री चित्रगुप्ताय नमः ॥ अनेकों देवी देवता हैं एवं उनमें लोलुपता है, कर्म भ्रष्टता है, शाप ग्रस्तता भी है। विष्णु भी शापित हो जाते हैं, दुर्वासा भी शापित हो जाते हैं, इन्द्र तो शापित होते रहते हैं, यमराज भी शापित हुए हैं परन्तु चित्रगुप्त आज तक शापित नहीं हुए, चित्रगुप्त आज तक भ्रष्ट नहीं हुए, . चित्रगुप्त आज तक लोलुप नहीं हुए। 

       हमारी पृथ्वी पर तो हत्या करो अदालत से छूट जाओ, चोरी करो और नेता बन जाओ, भ्रष्ट आचरण करो और सत्ता सुख भोगो इत्यादि सब कुछ चलता रहता है परन्तु चित्रगुप्त के यहाँ जब खाता खुलता है तो कर्मों का एक-एक चित्र चाहे वह सात तालों के पीछे छिपकर सम्पन्न क्यों न किया गया हो चित्रगुप्त के खाते में दर्ज होता है। यहाँ पर उलटफेर सम्भव नहीं है, यहाँ पर झूठ को सच दिखाना असम्भव है। उनका नाम ही है चित्रगुप्त अर्थात जीव के गुप्त से गुप्त चित्र भी उनके खाते में दर्ज होते ही हैं। नर्क मिलना हैं या स्वर्ग, विष्णु लोक मिलना है या शिव लोक, साधु के वेश में चोर तो नहीं है इत्यादि का फैसला चित्रगुप्त के यहाँ हो ही जाता है, कोई इससे नहीं बच पाता और कर्मानुसार चित्रगुप्त हिसाब किताब बता देते हैं एवं जीवात्मा को आगे की यात्रा तय करनी पड़ती है।

           सबसे गोपनीय, सबसे विश्वसनीय, सबसे महत्वपूर्ण विष्णु तंत्र में चित्रगुप्त का पद है। कर्म की व्याख्या जो प्रभु श्रीकृष्ण ने गीता में की है वह पूरी की पूरी चित्रगुप्त की ईमानदारी पर टिकी हुई है अगर सोचें कि चित्रगुप्त के पद पर इस पृथ्वी के समान भ्रष्ट, घूसखोर, लोलुप, आधे अधूरे स्वार्थी तत्व विद्यमान हो जायें तो असुर प्रवृत्ति के जीव स्वर्ग पहुँच जायेंगे, नर्क के कीड़े बैकुण्ठधाम में घूमेंगे और सृष्टि समाप्त हो जायेगी। अतः विष्णु सदैव चित्रगुप्त की मर्यादा की रक्षार्थ सक्रिय रहते हैं परन्तु इसके अलावा इस भूमण्डल पर विशेष कारणों से, विशेष परिस्थितियों में कुछ समय के लिए अनेक दिव्य ग्रहों एवं लोकों से विभिन्न आत्म्मएं शाप ग्रस्ततावश आज्ञावश, तपवश विशेष कार्य हेतु अंशात्मक रूप से उदित होती है। यह एक विशेष दर्जा है, एक विशेष श्रेणी है अतः इनकी मुक्ति हेतु, इनकी कर्म बाद्धयता समाप्ति हेतु, पुनः शुद्धता हेतु विष्णु तंत्र में अनेकों व्यवस्थायें हैं, अनेकों उद्धारक स्थितियां अनुष्ठान, व्रत इत्यादि हैं।

        एकादशी व्रत का महत्व अपने आपमें अद्भुत है। पाप और पुण्य की व्यवस्था से जीव जगत बाधित है, सामान्य कार्यों से सामान्य पाप और पुण्य फल के रूप में उदित होते हैं। विष्णु भक्ति का इतना महत्व है कि कई बार तो चित्रगुप्त भी वैष्णव जनों की भक्ति से उत्पन्न हुए पुण्यों का हिसाब' रखने में अक्षम साबित होते हैं अतः ऐसी स्थिति में उच्चता का निर्माण होता है और तब जीवात्मा के शरीर त्यागते समय दिव्य विमान विष्णु लोक से आते हैं, ब्रह्मलोक से आते हैं, देवी लोक से आते हैं, शिव लोक से आते हैं एवं दिव्य आत्माएं उन पर आरूढ़ हो अपने अपने मूल लोकों को गमन करती हैं। 

 कुबेर प्रतिदिन भगवान शिव की ब्रह्मकमलों से पूजा करते थे, उन्हें ब्रह्म मुहूर्त में हेममाली नाम का यक्ष पुष्प लाकर देता था। हेम माली की पत्नी अत्यंत सुन्दर थी, वह उसमें बुरी तरह आसक्त था। कुबेर एक दिन बैठे रह गये, वह पुष्प लेकर ही नहीं आया। कुबेर ने यक्षों को भेजा तो पता चला हेममाली पत्नी के साथ सो रहा है। कुबेर को क्रोध आ गया वे बोले मूर्ख मैं यहाँ शिव पूजन के लिए बैठा हूँ और तू रूप में उलझा हुआ है जा रूप विहीन हो जा। गलती तो हेममाली से हो गई थी अतः वह विकृत हो, सम्पूर्ण शरीर में कोढ़ ग्रस्तता से ग्रसित हो वन में छिपकर दण्ड भोगता हुआ घूमने लगा। अचानक लोमश ऋषि की शरण में पहुँच गया, गिड़गिड़ाने लगा, लोमश द्रवित हो गये। 

        लोमश ऋषि का सम्पूर्ण शरीर बालों से आच्छादित है उनका एक रोम एक कल्प में गिरता है, कितनी नित्यता है उनमें आपके बाल तो दिन भर गिरते रहते हैं। विष्णु नित्यता का प्रतीक हैं, वे वृद्धता को भगाते हैं। लोमश बोले जा एक वर्ष एकादशी का पूर्ण श्रद्धा के साथ व्रत कर एवं पीपल के वृक्ष में प्रतिदिन जल चढ़ा, श्राप ग्रस्तता से मुक्त हो जायेगा। हेममाली ने ऐसा ही किया एवं एक वर्ष बाद पुनः वह कुबेर की सेवा में उपस्थित हुआ। कुबेर आश्चर्य चकित हो गये कि यह क्या ? यह तो शाप बंधन से मुक्त हो गया। 

         इन्द्र की सभा में दो अप्सरायें नृत्य कर रही थीं नृत्य करते-करते कुछ सोचने लगीं, इन्द्र ने श्राप दे दिया जाओ वनस्पति जाओ। दोनों बेचारी बबूल का पेड़ बन पृथ्वी लोक में आ गईं अचानक एक दिन एक वैष्णव संत दोनों पेड़ों के बीच सो गये, उनके स्पर्श से उनकी शाप मुक्तता हो गई और पुनः इन्द्रलोक को प्राप्त हुई। कर्म के बंधन बनाते हैं विष्णु कर्म की व्याख्या करते हैं विष्णु कर्म के आधार पर चलाते हैं विष्णु और कर्म बंधनों से मुक्ति भी दिलाते हैं विष्णु, कर्म के पाशों को काटते हैं विष्णु क्या पृथ्वी कारागृह है ? क्या पृथ्वी शापित मनुष्यों का प्लेटफार्म है? क्या है यह ? आखिरकार पृथ्वी पर जीव क्यों आता है ? मैं क्या जानूं ? मैं खुद पृथ्वी पर भटक रहा हूँ। हाँ बस इतना कह सकता हूँ कि गीता पढ़ो शायद तुम्हें तुम्हारे प्रश्नों का उत्तर मिल जाये। निश्चित ही मिलेगा, नहीं तो विष्णु से पूछो।

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