मनुष्य के अनुवांशिक बीज में बीस गुण हैं और वहीं मनष्य के सबसे निकट के प्राणी वनमानुष के अनुवांशिक बीज में 18 गुण हैं। यह 18 गुण मनुष्य के 18 गुणों के समान हैं परन्तु मनुष्य दो गुण वनमानुष से ज्यादा लिये हुए है। अनुवांशिक बीज में गुण का तात्पर्य उन संरचनाओं से है जो कि सर्पाकार अनुवांशिक संरचना के मध्य में सीधी रेखाओं के रूप में स्थित होते हैं। मात्र दो अति सूक्ष्म आवृत्तियों के कारण मनुष्य इस ग्रह का नायक बन गया है तो वहीं दो अति सूक्ष्म आवृत्तियों की कमी के कारण वनमानुष आज भी जंगलों में भटक रहा है। अनुवांशिक बीज में एक अति सूक्ष्म आवृत्ति व्यक्ति को रूप और सौन्दर्य का प्रतीक बनाती है, एक विशेष आवृत्ति व्यक्ति को इस विश्व का सबसे बड़ा वैज्ञानिक बना देने में भी सक्षम है।
इसके ठीक विपरीत थोड़ी सी भी अनुवांशिक विकृति मनुष्य को अनेकों प्रकार की समस्याओं से ग्रसित कर देगी। सारा जीवन अव्यवस्थित हो जायेगा, पृथ्वी उसके लिये नर्क बन जायेगी। परिणाम स्थूल एवं अति विशाल होते हैं परन्तु कारण अत्यंत ही सूक्ष्म और अदृश्य होते हैं। संतुलन और असंतुलन की यह दिव्य व्यवस्था कर्म बंधनों के साथ-साथ आशीर्वाद, वरदान, दीक्षा, शाप, हाय इत्यादि से निर्मित होती है। मनुष्य के रूप में अपने आपको पूर्ण कहना मूर्खता की निशानी है। पूर्णता क्षणभंगुर है। अपूर्णता निरंतर बनी रहती है। मनुष्य के कर्म निरंतर पूर्णता प्राप्ति के लिये सम्पन्न होते रहना चाहिये ।
अध्यात्म का तात्पर्य प्रबल सम्भावनाओं से है। सम्भावना ही जीवन है तुरंत निर्णय पर पहुँच जाना नकारात्मक प्रवृत्ति का द्योतक है। चिंतनशील और बुद्धिमता पूर्ण जीवन ही मनुष्य जाति की पहचान है। प्रतिक्षण स्वयं में सुधार करने की प्रवृत्ति ही संत प्रवृत्ति है, एक योगी के गुण हैं। अध्यात्म किस काम का अगर वह व्यक्तिगत एवं सामूहिक तौर पर मानवता के काम न आ सके। अध्यात्म का कार्य ही निरंतर सुधार की प्रक्रिया को जारी रखना है। जिस क्षण आप अध्यात्म के क्षेत्र में प्रविष्ट होते हैं उसी क्षण सकारात्मक सुधार की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। गुरु क्षेत्र, धर्म क्षेत्र, तंत्र क्षेत्र, विज्ञान क्षेत्र, योग क्षेत्र इत्यादि इत्यादि यह सब कुछ एक संतुलनात्मक क्षेत्र को देते हैं जिसे कि अध्यात्म क्षेत्र कहा जाता है। यही सब अध्यात्म क्षेत्र के महत्वपूर्ण अंग हैं। अध्यात्म क्षेत्र को स्थूल रूप में मत लीजिये ।
स्थूल दृष्टि पशुतुल्य दृष्टि है। 99 प्रतिशत मनुष्य इसी दृष्टि के कारण भटक रहा है। पशुतुल्य दृष्टि केवल प्रतिफल को ही देख सकती है कारण जानने के लिए आध्यात्मिक दृष्टि चाहिए। आध्यात्मिक दृष्टिकोण ही इतनी भेदन क्षमता रखता है कि लाख पर्दों के पीछे छिपी वास्तविकता को नग्न स्वरूप में देखने की क्षमता प्रदान कर सकता है। परिवर्तन मूल से सम्भव होगा। अव्यवस्था और समस्या मूल से समाप्त होगी। सभी समस्याओं के मूल में कुछ गिने चुने कारण ही है। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार मात्र बीस गुण आवृत्तियाँ मनुष्य का निर्माण कर बैठती हैं। जटिलता के मूल में सरलता ही है।
तुलसीदास जी एक बार गंगा स्नान कर काशी की गली से गुजर रहे थे अनजाने में उनकी धोती पर से कुछ बूंदें बगल से गुजर रही वेश्या के ऊपर गिर गई देखते ही देखते कुछ ही क्षणों में वेश्या की सम्पूर्ण मनोवृत्ति ही बदल गई और कालान्तर वही स्त्री उनकी अनन्य शिष्या बन बैठी लाख उपदेश, बड़ी-बड़ी बातें,अनेकों ग्रंथों का अध्ययन इत्यादि जो परिवर्तन नहीं कर सकते हैं वह मात्र एक साधारण से स्पर्श से हो जाता है। दीक्षा संस्कार में स्पर्श शरीर का नहीं होता है, स्पर्श किया जाता है प्राणों को । परिवर्तन किया जाता है प्राणों की आवृत्ति में, प्राणों को उर्ध्वगामी बनाया जाता है, उन्हें पहुँचाया जाता है मस्तिष्क के दिव्य आध्यात्मिक केन्द्रों में, आगे का काम अपने आप हो जाता है। वर्षा के बादल तो बस माध्यम हैं जल बरसाने का। बीज स्वतः ही गीली भूमि पर अपने आप अंकुरित हो जाते हैं। दीक्षा न तो किसी ने बनाई है, न ही व्यक्ति विशेष की अमानत है, लेने वाला कौन है, देने वाला कौन है यह भी विचार का विषय नहीं है। विचार स्थूल दृष्टि के द्योतक हैं।
अध्यात्म के इस अद्भुत मार्ग में अगले क्षण क्या होगा किसी को नहीं पता। सबके अपने अलग-अलग विधान हैं। तुलना, स्पर्धा, आलोचना इन सबका महत्व अध्यात्म क्षेत्र में शून्य है। मनुष्य को दीक्षा प्रदान करना एक गोचर विषय है। केवल मनुष्य ही दीक्षाओं का अधिकारी नहीं है। वृक्षों को भी संस्कारित किया जा सकता है, पाषाण को भी प्राण प्रतिष्ठित किया जा सकता है। शक्ति का विसर्जन वनों में भी किया जा सकता है, पशुओं को भी स्पर्श की जरूरत है इन्हें भी दीक्षायें प्रदान की जाती हैं। प्रदान करने वाले की मर्जी किसी को भी प्रदान कर सकता है। सौन्दर्य, स्वास्थ्य, चेतना केवल मनुष्यों का ही विषय नहीं है। मनुष्य को दीक्षा प्रदान करना सबसे टेढ़ी खीर है। 80 प्रतिशत पुस्तकें, प्रवचन, विचार इत्यादि इतनी प्रदूषित ध्वनि उत्पन्न करते हैं कि सारा मस्तिष्क ध्वनि तरंगों का कूड़ाघर बन जाता है। सोते वक्त भी मस्तिष्क में विचार घुमड़ते रहते हैं। मनुष्यों के साथ यही समस्या है। ध्वनि रूपी कचरा दिव्य ध्वनि की आवृत्तियों के द्वारा ही निकाला जा सकता है इसके लिये शल्य चिकित्सा या फिर अन्य कोई चिकित्सा पद्धति उपयोगी नहीं है।
दिव्य मंत्रों का जाप इसीलिये करवाया जाता है जिससे कि दिमाग में बैठी व्यर्थ की ध्वनि तरंगें निकल भागे। यह तो हुआ गोचर विषय अगोचर विषय में भी दीक्षायें प्रदान की जाती हैं इसके लिये काल अत्यधिक आवश्यक हैं। सम्प्रेषण की क्रिया अत्यंत ही विचित्र है। इस क्रिया को मानवीय दृष्टिकोण से न देखें यह अत्यंत ही गम्भीर वैज्ञानिक और तीव्र परिवर्तनकारी में व्यवस्था है। शक्तिपात उतनी ही मात्रा में किया जाता है जितना कि आप पचा सकें । एक किलो घी पिलाने से क्या फायदा जब छटाक भर घी भी आप पचाने की क्षमता न रखते हों । आपका जीवन श्री युक्त, ऐश्वर्यपूर्ण एवं मंगलमय हो बस यही कामना है, यही लक्ष्य है। समाज ही पुस्तक पढ़ता है, आपको सम्मान देता है, आपका आदर करता है, आपके गले में पुष्प माला डालता है उसका ऋण चुकाना अध्यात्म के पथ पर चले प्रत्येक यात्री का परम कर्तव्य है। गंगा किनारे बैठा खड़ताल बजाने वाला न तो आपको सुनेगा, न ही आपको पढ़ेगा वह तो कहेगा नौकरी छोड़ दो, पत्नी छोड़ दो, घर त्याग दो इत्यादि इत्यादि बस समस्याऐं अपने आप खत्म हो जायेंगी। उनका विधान उन्हें ही मुबारक हो। इससे समाज के प्रति ऋण मुक्ति कभी नहीं हो पायेगी । जो ऋण से मुक्त नहीं है उसकी गति अधम ही होगी ।
शिव शासनत: शिव शासनत:
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