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गहरी- पैठ ।।

             मैंने अपने आस-पास अपने रिश्तेदार नातेदारों को समस्याओं के लिए हमेशा रुदन करते हुए देखा है। जिन्दगी की अगर हर घटना को हम अपनी आँख खोलकर देखें तो शायद समस्या का समाधान भी हो और जो समाधान होगा वह हमारा अपना होगा लेकिन हम अपनी समस्याओं को उधार के मस्तिष्क से हल करने की कोशिश करते हैं। उधार का मस्तिष्क महामारी है यह सबसे खतरनाक बीमारी है एवं इस बीमारी से हम हजारों वर्षों से पीड़ित हैं इसलिए बंधे-बंधाए सिद्धांतों का कोई अर्थ नहीं होता है अगर अर्थ है तो जीवित मन का। जीवंत मन का फूल की तरह खिला हुआ होना ही ताजा मस्तिष्क (फ्रेश माइंड) कहलाता है। जब तक मन ताजा नहीं होगा तब तक किसी समस्या का समाधान नहीं होगा।

        जो लोग नित्य, आनंदमय, शांत, निर्विकल्प, निरामय हैं, जिन्हें तत्व ज्ञान प्राप्त है, जिन पर माँ भुवनेश्वरी की अपार कृपा है, जिन पर शिव की अनन्य कृपा है, जो चारों संध्या, ध्यान, प्राणायाम करते हैं उनका मन जीवंत मन होता है क्योंकि देवी बल उनके पास होता है फिर लोक और परलोक में कोई अंतर नहीं होता है, कोई भी वस्तु दुर्लभ नहीं है। जिनका मस्तिष्क मेडिटेटिव माइंड है, द्वंद रहित है उनके लिए शिव और विष्णु में कोई भेद नहीं है, काली और भुवनेश्वरी में कोई अंतर नहीं है। शास्त्रों को पढ़ने से, महाभारत, रामायण, गीता जैसे महाकाव्य पढ़ने से जो ज्ञान प्राप्त होगा उससे ज्यादा ध्यानस्थ होने पर, समाधिस्थ होने पर परम सत्य के दर्शन होते हैं। 

      सत्य एक ही है पर विधाता ने सबके लिए अलग-अलग दृश्य, अलग-अलग रूप बनाएं हैं। चैतन्य के अंदर उसके नीचे आंतरिक एवं सूक्ष्म प्रवाह फैले हुए हैं जिनका संबंध सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड से है। समुद्र को हम समुद्र की लहरों से अलग नहीं कर सकते क्योंकि समुद्र से लहरें जुड़ी हुई हैं। उसी प्रकार दूसरी लहर तीसरी लहर से जुड़ी हुई है। हमारे जीवन की जो भी वृत्तियाँ हैं, वेग हैं, इच्छाएं हैं, वासनाएं, कामनाएं हैं उनको समझना देखना और पहचानना जरुरी है। जितनी गहरी हमारी समझ होगी ये सब परिवर्तित होती जाएगीं। यह बहुत बड़े रहस्यों का भी रहस्य है कि हम अपनी जिस आदत से डरते हैं जागने पर उसी दिशा में परिवर्तन होना शुरु हो जाता है। जीवन सहज है, जीवन को पूरे मन से स्वीकार करें, जीवन को अंगीकार करें भले ही जीवन किसी भी रूप में हमारे सामने आता हो। जीवन की वृत्ति, जीवन की समस्याओं का डटकर सामना करें। जीवन जिस रूप में भी हमारे द्वार पर आता है उसे समझें, उसे जानें, पहचानें और सामना करें। 

        आप देखेंगे कि चैतन्य भाव से, चैतन्य मन से जब हम किसी चीज को देखते हैं तो हमारे अंदर एक अभूतपूर्व परिर्वतन शुरु हो जाता है। मन को मंदिर जैसा बनाओ, उसमें ध्यान का दीप जलाओ, उसमें जागरुकता का पहरा हो तब सामान्य सा जीवन भी अमृतमय जीवन में परिवर्तित जाता है। शरीर के तल पर जागना संसार के तल पर क्या हो रहा है, हमारे मन में क्या हो रहा है तब धीरे-धीरे तुम्हारे अंदर एक ज्योति जलनी शुरु हो जाती है और वह ज्योति हर चीज को देखती है। तुम्हारे अंदर एक प्रकार का परिवर्तन शुरु हो जाता है। अपने जीवन को कुएं के जल के समान बनाओ और हम हैं कि उसे होज की तरह बना रहे हैं। 

        कुंए और हौज दोनों में पानी होता है, पानी दोनों में हैं पर दोनों के पानी में अंतर हैं। कुएं में पानी मिट्टी, पत्थर खोदकर निकालना पड़ता है और हौज का पानी मिट्टी और पत्थर जोड़कर बनाया जाता है। कुएं में पानी अपने आप आता है और हौज में पानी बाहर से भरकर डालना पड़ता है। हौज का पानी बासा है, उसके पानी में प्राण नहीं हैं जबकि कुएं का पानी ताजा है। वह पृथ्वी के गर्भ में छुपे हुए सागरों से जुड़ा हुआ है, होज का पानी मृत है वह गंदगी फैलाता है। कुए का पानी जीवित जागृत होता है उसका संबंध सीधे सागरों से होता है यही है राज राजेश्वरी यह क्रिया है। भुवनेश्वरी की जब कृपा होती है तब वे मस्तिष्क को स्वस्थ कर उसके अंदर से ककड़ पत्थर निकाल देती हैं और जीवित जागृत सागर से, ब्रह्माण्डीय जल से संबंध स्थापित कर देती हैं। यही है अमृत की खोज इसलिए किताबी ज्ञान से जिन्होंने अपने मस्तिष्क भर लिए हैं ऐसे मस्तिष्क सड़ांध देने लगते हैं। 

         जो मनुष्य जाति को आपस में लड़वाते हैं, उनमें भेद करवाते हैं, पिटवाते हैं, आपस में दीवार खड़ी करवाते हैं, जो दीवार खड़ी करवाने में सहयोगी हो गये हैं ऐसे रटंतु तोतों का ज्ञान किताब से आया है। जो लोग खुद कुआ खोदते हैं वे सारे कचरे, मिट्टी, पत्थर जो कि सदियों से हमारे मस्तिष्क में जमा थे को फेंक देते हैं। वह ऐसे ब्रह्माण्डीय ज्ञान में पहुँच जाते हैं जो अनंत है।

          ह्रीं की इच्छा के बिना इस ब्रह्माण्ड में एक पत्ता भी नहीं हिलता है, तुम सर्व देव स्वरूपा, तुम ही सर्व मंत्र स्वरूपा, तुम अद्वितीय हो, तुम समस्त देवताओं की माता, अंधकार और अज्ञान का विनाश करने वालीं, प्राण स्वरूपा, ज्ञान शक्ति हो। आपकी यह महाशक्ति देवताओं द्वारा अनेक स्तुति किये जाने पर प्रादुर्भूत होती है एवं इनकी कृपा से ही तत्व ज्ञान, आत्म तत्व का बोध प्राप्त किया जाता है।जिससे सूर्य उदय होता है, जिससे सूर्य अस्त होता है, जिसमें सभी तत्व, अग्नि, वायु आदि सभी प्रविष्ट हैं जैसे पहिए के आरे मध्य भाग में संलग्न रहते हैं। ह्रीं ही आत्म तत्व है, ह्रीं ही प्राण तत्व है। जो इन्हें भेद से देखते हैं वह मृत्यु से मृत्यु को प्राप्त होते हैं, अर्थात इस धरती पर बार-बार जन्म और मृत्यु को प्राप्त होते हैं उन्हें मोक्ष की प्राप्ति नहीं होता, वह विभिन्न योनियों में सदा भटकते रहते हैं। 

       मन दो प्रकार का होता है, शुद्ध और अशुद्ध शुद्ध मन का सीधा संबंध हमारी अंतरात्मा से होता है और अशुद्ध मन का सीधा संबंध हमारी इन्द्रियों से होता है। ह्रीं के हाथ में अमृत कलश है, मनुष्य के हृदय में 101 नाड़ियाँ (नसें) हैं एवं यह शरीर में विभिन्न स्थानों में फैली हुई हैं, इन्हीं में से एक नाड़ी सुषुम्ना है जो मूलाधार से ब्रह्मरन्ध्र तक फैली हुई है। योगी इसी नाड़ी के द्वारा ही गमन करते हैं एवं अमृत कलश तक पहुँचते हैं और अमृत को प्राप्त करते हैं। यही उन्हें अमृत पान कराती है, इस ब्रह्म विद्या का ज्ञान भी ह्रीं देती हैं, वही दिव्य दृष्टि प्रदान करती हैं, संसार के दिव्य तत्वों से हमारा संबंध जोड़ती हैं, वह ही जीवन को दिव्यता प्रदान करती हैं क्योंकि जब तक आपके अंदर दिव्यता नहीं आयेगी तब तक दिव्य शक्तियाँ आप के ओर नहीं खिचेगीं। 

         हर पदार्थ हर तत्व अपने सजातीय तत्व की ओर ही खिंचता है और उन्हीं को अपनी ओर खींचता है। यही महासरस्वती हैं, ये ही दिव्योद्य गुरुरूपणि हैं, मानबौध गुरुरुपणि हैं अर्थात वह सारे गुरुओं की भी गुरु हैं, वही परमगुरु हैं। वह दिव्यों की गुरु हैं, वह ही सिद्धों की गुरु हैं, गुरु तो सभी के होते हैं जिस दिन मनुष्य पैदा होता है उसमें प्राण तत्व से पहले गुरु तत्व आता है। गुरु भूत-प्रेतों के भी होते हैं, गुरु राक्षसों के भी होते हैं, गुरु देवताओं के भी होते हैं गुरु मनुष्यों के भी होते हैं। बृहस्पति देवताओं के गुरु हैं तो शुक्रचार्य राक्षसों के गुरु हैं। जिसमें जो तत्व अधिक होता है वह उसी तत्व से युक्त गुरु की ओर खिंचा चला जाता है। गुरु सिर्फ पुरुष ही नहीं होते हैं बल्कि गुरु स्त्रियाँ भी होती हैं। 

         ऋग्वेद की 10 134, 10-39, 10-40, 10-91, 10 95, 10-107, 10-109, 10-154, 10-159, 10-189, 5-28, 8-91, आदि सूत्रों की मंत्रदृष्टा ऋषिकाएं हैं। बिना ह्रीं केन्द्र को जागृत किये ऋषि बनना बिल्कुल असम्भव है। जब कृष्ण कहते हैं कि मेरे शरण में आ जा तो ऐसा लगेगा कि यह अहंकार का घोष है पर जब आप कृष्ण की आँखों में आँखें डालकर देखोगे तो वहाँ किसी अहंकार को नहीं पाओगे, वहाँ आप किसी को नहीं पाओगे। वहाँ परम सन्नाटा है, वहाँ शून्य है, वहाँ मैं विसर्जित हुआ दिखाई देता है इसलिए वह इतनी सरलता से सब कुछ कह देते हैं क्योंकि कृष्ण ह्रींमय हैं। जिस प्रकार प्रेम का अनुभव है उसी प्रकार पूर्ण चैतन्यमय शक्ति, ज्ञानमय शक्ति, आनंदमय शक्ति, करुणामय शक्ति ह्रीं ही है अगर अनुभव करना है तो पूर्ण समग्रता के साथ करना होगा। कृष्ण ने तो सिर्फ इतना ही कहा है कि मेरी शरण में आ जाओ क्योंकि वह पूर्ण ह्रींमय हो गये थे अगर आप में से किसी पर हीं कृपा हो गई तो वह सबसे पहले आत्म ज्ञान प्रदान करती हैं, आत्म दर्शन देती हैं, आत्म सौन्दर्य देती हैं, आत्म ऐश्वर्य देती हैं वह बाहर तो बाद में आता है। जिस दिन आप अंगुष्ठ बराबर अपने स्वयं के आत्म दर्शन कर लोगे उसी दिन आप स्वयं को नमस्कार करने लगोगे फिर आत्म साक्षी स्वयं कहता है, अहो मेरा स्वभाव, अहो मेरा प्रकाश वह अपना स्वयं का आत्म प्रकाश देखकर स्वयं की शरण में जाकर स्वयं को नमस्कार करता है। वह कहेगा कि जब सब कुछ नष्ट हो जाएगा तब भी मैं बचूंगा। अपने को ही नमस्कार, अपने ही पैर छू लेना देखने वाले कहेंगे कि अहंकार की हद हो गई पर जिसने अध्यात्म की समग्रता को समझा, उसकी गहराईयों को जाना वह सब कुछ समझ जाएगा। 

       जिसने इसका अनुभव किया है पूर्ण समग्रता के साथ वह सब कुछ प्राप्त कर लेता है। ह्रीं कृपा के बिना कुछ भी प्राप्त करना सम्भव नहीं है। मैं यहाँ पर अनुभव शब्द का उपयोग कर रहा हूँ, विचार तो बहुत छोटी चीज है क्योंकि अब तो कम्प्यूटर भी विचार करने लगा है, कम्प्यूटर मनुष्य से ज्यादा दक्षता और निपुणता से विचार कर लेता है। मनुष्य से तो भूल भी होती है पर कम्प्यूटर से भूल की सम्भावना तक नहीं रहती है। अध्यात्म की गरिमा उसके विचार में नहीं है बल्कि उसकी गरिमा उसके अनुभव में है। आध्यात्मिक अनुभव उसके रोम-रोम में बहता है, विचार नहीं बहता। जब मीरा के हृदय में भी ह्रीं तत्व जागृत हुआ तो वह कहती हैं 
रमैया में तो थारे रंग राती औरों के पियो परदेश बसत है। लिख लिख भेजे पाती मेरे पिया मेरे हृदय बसत है रोल करुं दिन राती ॥ 
सखी मद पी-पी माती मैं बिन पिया ही माती । प्रेम भठी को मैं मद पीयो छकी फिरु दिन राती ॥
मीरा में जब ह्रीं जागृत हुआ तो वह नाच उठीं, मीरा छलक जाती हैं इसलिए जिसकी जैसी प्रकृति उसके वैसे अनुभव होते हैं। बुद्ध में जब ह्रीं जागृत हुआ तो वह एकदम मौन हो गये, इतने मौन हो गये कि देवताओं ने आकर उनसे कहा कि तुम कुछ बोलते क्यों नहीं, तुम कुछ तो बोलो। कबीर भी कुछ दिनों के लिए बिल्कुल चुप हो गये, शिष्यों ने उनसे कहा आजकल आप कुछ बोलते नहीं हैं तब कबीर ने कहा कि मैं उसके सामने बोलता हूँ तो अज्ञानी सिद्ध होता हूँ और जब बिना बोले ही बात बन गई फिर बोलने की बात ही कहाँ, जब सुई से ही काम चल जाए तो वहाँ तलवार पागल उठाते हैं। देखा नहीं कैसी धारा बहती है, आँसू थमते नहीं, कैसी मस्ती है, जिसने इसका अनुभव किया है वही इसे जान सकता है, इसे समझ सकता है, इसे महसूस कर सकता है। 

       मंसूर को पता था उसने अगर इस तरह की बात कहीं "अनलहक" अर्थात अहं ब्रह्मास्मि, मैं ह्रीं हूँ तो मुझे सूली लगेगी, मुसलमानों की भीड़ मुझे बर्दाश्त न कर सकेगी, अंधों की भीड़ उसे देख न पाएगी, मित्रों ने उसे बहुत समझाया कि तेरी घोषणा बहुत खतरनाक होगी लेकिन घोषणा रुक न सकी। जब फूल खिलेगा तो सुगंध तो बिखरेगी ही, जब दीप जलेगा तो प्रकाश फैलेगा ही। कुछ बात ऐसी होती हैं जिन्हें कितना भी दबाओ वह नहीं दबती है। ह्रीं कैसे छुप सकता है ? आँखों से मस्ती अपने आप झलकने लगती है, आँखें मदहोश हो जाती हैं, वचनों में लोक-परलोक का रंग छा जाता है वचन इन्द्र धनुषी हो जाते हैं। गद्य भी पद्य हो जाते हैं, बातें भी तब गीतों जैसी मालूम होती हैं,चलो तो नृत्य जैसा लगता है 
"नहीं छिपता' 'नहीं छिपता" "नहीं छिपता"।खैर, खून, खाँसी, खुशी, बैर, प्रीत ।
रहिमन दाबे न दबे, जानत सकल जहान ॥
यह सभी चीजें छुपाने से नहीं छिपती हैं। 

         स्वामी रामतीर्थ एक बार अमेरिका गए वह बहुत मनमौजी थे। अपनी मस्ती में मस्त थे किसी ने उनके समाधिस्थ होने से पहले ही उनसे पूछ लिया स्वामी जी इस दुनिया को किसने बनाया है, उन्होंने कहा मैंने बनाया है। अमेरिका में इस बात की बड़ी सनसनी फैल गई लोग कहने लगे आप होश में तो हो वह कहने लगे मैं बिल्कुल होश में हूँ, मैंने ही इस दुनिया को बनाया, मैंने ही इसे चलाया है। उस समय रामतीर्थ लहर की तरह नहीं थे बल्कि समाधि की अवस्था में शाश्वत बोल रहे थे। रामतीर्थ भारत लौटने पर गंगोत्री की यात्रा पर जाते हैं अभी वह गंगा में स्नान कर रहे थे और छलांग लगा दी पहाड़ों से, वह एक छोटा सा पत्र लिख गए। अब मैं इस देह में रह न सकूंगा, विराट ने बुलाया है, ह्रीं ने बुलाया है। लोग कहेंगे आत्महत्या कर ली पर वह कहते हैं मैंने सीमा तोड़कर विराट के साथ सम्बन्ध जोड़ लिए हैं, बाधाएं हटा दी हैं, मैं मरा नहीं हूँ पहले मरा-मरा सा था। मैंने सीमा छोड़ी है आत्मा नहीं यह सब बातें वह अपने पत्र में लिख गए थे। 

        एक व्यक्ति ने एक शेर का छोटा सा बच्चा पाल रखा था जिसकी अभी आँखें भी नहीं खुली थी। वह सिंह का छोटा सा बच्चा उसने अभी मांसाहार का सेवन नहीं किया था वह दाल, चॉवल, रोटी, साग-भाजी खाता था। एक दिन उस व्यक्ति को पैर में चोट लग जाती है, चोट के कारण उसके पैर से थोड़ा खून बहने लगता है सिंह का बच्चा पास में ही बैठा था वह बैठे-बैठे जीभ से उस व्यक्ति का खून चाटने लगता है, जैसे ही उसने खून चाटा बस एक क्षण में ही उसका रूपांतरण हो गया वह एकदम गुरनेि लगा। उस गुर्राहट में हिंसा थी पहले वह हिरण था अचानक सिंह बन गया। ह्रीं की कृपा से आत्म स्वरूप की याद आई, आत्म स्मृति हो गई किसी ने क्या खूब कहा है मैं वो गुम-गुस्ता मुसाफिर हूँ आप अपनी मंजिल हूँ मुझे हस्ती से क्या हासिल में खुद हस्ती का हासिल हूँ।

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