कुरुक्षेत्र में महाभारत युद्ध का अंतिम दिन, गांधारी जोर-जोर से बालकों के समान विलाप कर रो रही थीं। उसके चारों तरफ उसके बच्चों के शव बिखरे पड़े थे। उसके 100 कौरव पुत्र दल बल, सेना सहित अंग-भंग युद्ध क्षेत्र में मृत पड़े थे। अपने बालकों को मृत देख वह बालकों के समान फूट फूट कर रो रही थी तभी उसका एक बालक अर्थात पाण्डव पुत्र युधिष्ठिर आ गया और बोला हे माँ मैं भी आपका बालक हूँ, आप मुझे सजा दीजिए, मुझे दण्ड दीजिए क्योंकि इस युद्ध का नेतृत्व मैंने ही किया है। गांधारी की आँखों पर पट्टी बंधी हुई थी परन्तु उसके बाल्य रूपी रुदन से वह कुछ सरक गई और गांधारी की हल्की सी दृष्टि युधिष्ठिर के हाथों पर पड़ गई। देखते ही देखते युधिष्ठिर के हाथों के नाखून काले पड़ गये। भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव डर के मारे पीछे हट गये।
क्रोध युक्त बाल्य दृष्टि अत्यंत ही मारक होती है, गांधारी साक्षात् रुदन बालिका बन गईं थीं तभी कृष्ण सामने आ गये और गांधारी बोल उठीं हे रसेश्वर, हे रासेश्वर यह किस रस का उत्पादन कर दिया, किस प्रकार का रास रच दिया ? तुम तो सर्वेश्वर हो, सर्व समर्थ हो, तुम्हारे पास तो असीमित बल है, सेना है, तुम चाहते तो युद्ध को समझा बुझाकर रोक सकते थे अन्यथा बल प्रयोग के द्वारा भी युद्ध रोका जा सकता था परन्तु तुमने ऐसा नहीं किया अपितु महाभारत रूपी युद्धारास रच दिया। जिस प्रकार तुम रास मण्डल में कभी-कभी रस बालेश्वरी राधा की उपेक्षा कर देते हो ठीक उसी प्रकार तुमने यहाँ पर भी उपेक्षा कर दी, चुपचाप खड़े रहे और युद्ध रूपी महारास रच गया। जाओ मैं तुम्हें श्राप देती हूँ कि यदुवंश भी ठीक इसी प्रकार आपस में युद्ध कर नष्ट हो जायेगा और तुम उपेक्षा के साथ वहाँ खड़े रहोगे।
रसेश्वर बोल उठे हे राजपुत्री तू क्या श्राप देगी ? मैं बाला का आराधक हूँ, बाला अर्थात राधा मेरी अर्धांगिनी है अतः मैं श्राप से परे हूँ। जो तू श्राप दे रही है वह मैं पहले ही निश्चित कर चुका । बाला के अलावा, राधा के अलावा मुझे किसी अन्य की अपेक्षा नहीं हैं अत: सब उपेक्षित हैं मेरे लिए, मैं सबकी उपेक्षा ही करता हूँ। यदुवंश को कब तक रहना है? कब नष्ट होना है? किस प्रकार नष्ट होना है? कैसे नष्ट होना है? क्यों नष्ट होना है ? इसका निर्णय किसी का श्राप नहीं करेगा अपितु इसका निर्णय मैं करूंगा और निर्णय कब का चुका है अत: तेरे श्राप को मैं गम्भीरता से नहीं लेता। यही श्रीविद्योपासना है और कृष्ण रूदन करती हुई गांधारी को छोड़ उपेक्षा पूर्वक चल दिए।
इस कथानक में श्रीविद्योपासना का महत्व भली-भांति उभरकर आता है। बाला का उपासक श्राप को भी टालना जानता है, बाला के उपासक के जीवन में उसकी स्व इच्छा क्रियाशील होती है। किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप चाहे वह श्राप के रूप में हो, आशीर्वाद के रूप में हो, वरदान के रूप में हो या किसी परतंत्र-परमंत्र - परयंत्र प्रयोग के रूप में हो कदापि क्रियाशील नहीं होता है। यह राज मार्ग की यात्रा है। बाला ने वशिष्ठ से कहा उठो वशिष्ठ जनमार्ग, वाममार्ग, लोकमार्ग, सामान्य मार्ग, प्रचलित मार्ग इत्यादि छोड़कर राजमार्ग पर राजाओं के समान चलो। राजा जब चलता है तो उसके मार्ग में उसके आने से पूर्व ही सारी व्यवस्थाएं सुव्यवस्थित हो जाती हैं। समस्त कंकड़-पत्थर समस्त अवरोध, समस्त रुकावटें, समस्त बाधाएं समस्त विरोध राजा के साथ चलने वाली राजकीय शक्ति अर्थात बाला स्वतः ही हटा देती है, स्तवः ही दबा देती है। आप देखिए अगर कोई राष्ट्राध्यक्ष वायु मार्ग से, थल मार्ग से कहीं गमन करता है तो उसके आने से पूर्व ही सारी व्यवस्थाएं हो जाती हैं, रास्ते नव निर्मित कर दिए जाते हैं, अवरोध समाप्त कर दिए जाते हैं और राजा की सवारी निर्विघ्न यात्रा करती है।
पराशक्तियों का पूजन विशेषकर भगवती बाला की उपासना आम जीवन जीने के लिए लोकाचार निभाने के लिए कदापि नहीं बनी है अतः मुट्ठी भर लोग ही बाला की साधना सम्पन्न कर सकते हैं। बाला उनके साथ इस प्रकार गमन करती है जिस प्रकार राधा कृष्ण के साथ सदा गमन करती हैं। राजाओं के लिए, राज करने वालों के लिए, राज प्रवृत्तियों से सुशोभित व्यक्तित्वों के लिए ही बाला साधना बनी है। जीवन की यात्रा राज्यपथ के समान हो इसलिए बाला साधना की जाती है। बाला अपने साधक के जीवन को निष्कण्टक बनाती है। कृष्ण के अवतरित होने से पूर्व ही राधा अवतरित हो गईं थीं, उन्होंने कृष्ण को गोद में खिलाया कृष्ण पर जब भी विपदा आयी बाला रूपी राधा सामने खड़ी हो गईं, कृष्ण का महाभाव हैं राधा कृष्ण के बारे में यह विख्यात था कि वह चम्पा के पुष्पों को देखते ही मूच्छित हो जाते थे, विशेषकर जहाँ उन्होंने चम्पा के पुष्पों से गुथीं माला देखी वे इन्द्रिय शून्य हो जाते थे क्योंकि राधा अपने केशों में चम्पा के पुष्पों की वेणियाँ गुथती थीं।
कृष्ण की रानियों ने तो पुष्पों से श्रृंगार करना ही छोड़ दिया था। न जाने कौन सा पुष्प कृष्ण के अंतर्मन में राधा के भाव को प्रज्जवलित कर दे और शरीरी कृष्ण पुनः अशरीरी हो जायें।
कृष्ण की रानियाँ तो बस उनका शरीर लिए हुए ही रह गईं महाभाव में तो राधा ही कृष्ण के साथ हैं। यही हाल राधा का भी था वे मयूर पंख देखकर इन्द्रिय शून्य हो जाती थीं क्योंकि कृष्ण का प्रतीक है मयूर पंख। महाभाव एक अति परिष्कृत वैज्ञानिक प्रक्रिया है जो कुछ उत्पन्न होता है वह महाभाव में ही उत्पन्न होता है, अदृश्य से दृश्य महाभाव की स्थिति में ही होते हैं। इस पृथ्वी पर श्री उत्पादन महाभाव में ही सम्पन्न हुआ है, तंत्र क्षेत्र में महाभाव का बहुत महत्व है । महाभाव कुण्डली जागरण की स्थिति है एवं इस स्थिति में जल में, पाताल में, वायु में, अग्नि में, अंतरिक्ष में ब्रह्माण्ड में कहाँ क्या है ? सब कुछ स्पष्ट दिखाई देने लगता है। ऐसा क्यों ? क्योंकि महाविद्या का तात्पर्य है तीन नेत्र वालों की पूजा, त्रिनेत्राओं की पूजा । दसों महाविद्याएं और उनके दसों शिव तीन-तीन नेत्रों से सुशोभित हैं। दो नेत्र धोखा खा सकते हैं, भटक सकते हैं, भ्रम में आ सकते हैं, सही को गलत और गलत को सही देख सकते हैं, पूर्वाग्रह से ग्रसित हो सकते हैं, दो नेत्रों की ज्योति धीमी पड़ सकती है, दृष्टि विहीनता आ सकती है, दृष्टि भ्रम हो सकता है परन्तु तीसरा नेत्र सीधे-सीधे सहस्त्रार से जुड़ा हुआ है अतः वह ऊपर वर्णित स्थितियों में नहीं उलझता, उसकी देखने की क्षमता असीमित है, वह ब्रह्माण्ड से भी परे झांककर देख सकता है।
हे माँ बाले तू तो बाल्य स्वरूपा है, साक्षात् बालिका बन शिव के साथ खेलती है, कभी अपने दोनों कोमल हाथों से बाल्य वश शिव के नेत्र मूंद लेती है, तेरे अलावा कौन और शिव के नेत्रों को ढँक सकता है तभी तो शिव तीसरा नेत्र लगा बैठे हैं, वे तेरे बाल्यपन को समझते हैं। कभी-कभी तो तू उनके तीसरे नेत्रों को भी ढँक देती है और शिव तेरे ही नेत्रों से सृष्टि का अवलोकन करते हैं। सत्य तो यह है कि हे बालिके तेरी पलकें कभी नहीं झपकती क्योंकि शिव के पास कोई और चारा भी नहीं है सृष्टि को तेरे नेत्रों से देखने के अलावा, उनकी तीनों आँखें तो तू मूंदे हुए बैठी हुई है। तेरी सहजता, तेरा बाल्यपन ही तेरे मंत्र के प्रथम बीज 'ऐं' में छिपा हुआ है। "ऐं" का तात्पर्य है ज्ञान, हे ज्ञान स्वरूपा बाले सृष्टि में समस्त ज्ञानों की उद्गमा तू ही है क्योंकि तू ही प्रश्न कर सकती है शिव से, तू ही बालकों के समान जिज्ञासा वश ब्रह्माण्ड का गोपनीय ज्ञान शिव से पूछ सकती है। तेरे बाल्य वश पूछने पर ही शिव उवाच करते हैं, तेरी समस्त जिज्ञासाओं को शांत करने के लिए ही शिव ने वेद, पुराण, उपनिषदों, तंत्र ग्रंथों, कवचों,स्तोत्रों इत्यादि की रचना की है। तू बच्चों के समान पूछती रहती है और शिव धीर गम्भीर उवाच करते रहते हैं।
क्लीं बीजाक्षर भी तेरा ही है क्योंकि तुझसे ही तो जगत सम्मोहित है। जब तू मधुरता के साथ शिव से कुछ पूछती है तो शिव भी सम्मोहित हो जाते हैं, वशीभूत हो जाते हैं, स्तम्भित हो जाते हैं और तू उन्हें परम एकांत में ले जाकर श्रवण करती है, तू तो शिव का महाभाव है। हे बाला तेरा तीसरा बीजाक्षर है सौंः अर्थात गुरु रूपिणी, गौ रुपिणी, गणेश रुपिणी । बीजाक्षर सौं: में ग धातु ही छिपी हुई है। सृष्टि का समस्त ज्ञान शिव ने तेरे ही कर्णों के लिए निर्मित किया है, जैसे-जैसे शिव ज्ञान तेरे कर्णो के माध्यम से तेरे श्री युक्त शरीर में प्रविष्ट होता जाता है तू साक्षात् कामधेनु बन जाती है। हे शिव ज्ञान प्रिया, हे शिव ज्ञान तृप्ता तेरी तृप्ति के पश्चात् ही हम तेरे द्वारा दुग्ध रूप में शिव ज्ञान का श्री युक्त अमृत पान करते हैं। हे बाला तेरे स्तन मण्डलों की शोभा की क्या व्याख्या करुं? वे ब्रह्माण्ड के श्रेष्ठतम्, परम सौन्दर्य युक्त, स्थूल अमृत कुम्भ हैं एवं तू अपने बालकों के लिए उनसे निरंतर अमृत स्त्रावित करती रहती है हे अमृतेश्वरी अमृत का स्त्राव ही तेरी प्रकृति है अतः सिद्धजन आल्हादित हो भ्रमरों का रूप धारण कर ह्रींकार मंत्र से सुशोभित हो तेरे सौन्दर्य युक्त, अमृतयुक्त स्तन मण्डलों के आसपास मंडराते रहते हैं।
मेरा दावा है कि जब तक कालीदास ने, चण्डीदास ने, तुलसीदास ने, वाल्मीकि ने, वशिष्ठ ने, दत्तात्रेय ने क्रोध-भट्टारक दुर्वासा ने, व्यास ने, आदिशंकराचार्य ने तेरी दिव्य स्तन मण्डल साधना को सम्पन्न नहीं किया तब तक वे कवि नहीं बन सके, पुराण पुरुष नहीं बन सके, ग्रंथकार एवं वेद रचियता नहीं बन सके। जब भी कभी मैं ध्यानस्थ होता हूँ तो अखिल ब्रह्माण्ड में तेरे दिव्य स्तन मण्डलों के ही दर्शन होते हैं, आगे कुछ कहना नहीं चाहता परम सौन्दर्य को गोपनीय रहने दो। हे बाले तुझमें ही वह शक्ति है कि तू शिव को श्रृंगारित कर सकती है। जया विजया के साथ मिलकर हे बाले तूने बालकों के समान खेलते हुए धूनी रमाये दिगम्बर, औघड़, हड्डियाँ धारण किए हुए, जटाजूट युक्त शिव को देखते ही देखते सौन्दर्यवान बना दिया। उनके शरीर से भस्म पोंछकर मिटा दी, उनका दुग्ध से महाभिषेक कर दिया, दीमकों की बाम्बीं उनके चारों तरफ से साफ कर दी, जटाजूटों को पुनः सुलझा दिया, केशों को सलीके से पुष्पों के साथ गूथ दिया, अस्थि माला की जगह रुद्राक्ष की मालाएं पहना दी, कर्णों में कुण्डल पहना दिए, जटा को दिव्य पुष्पों से सुशोभित कर दिया, बढ़े हुए केशों को सलीके से काट दिया, दिगम्बर शिव के कंधों पर रेशमी वस्त्र डाल दिए, स्वयं के आंचल को फाड़कर उन्हें वस्त्र युक्त बना दिया, गले में पड़े सर्पों को निकाल फेंका।
जैसे ही तूने शिव की तपोभूमि को स्पर्श किया वह पुष्पों से लद गई, शिव तो पाषाण पर बैठा सूर्याग्नि भक्षण कर रहे थे पर जैसे ही तूने शिव भूमि को स्पर्श किया शिव के ऊपर कल्प वृक्ष छाया देने लगा। जो शिव भांग धतूरा खाते थे वह अब तेरे हाथों से अन्न भी खाने लगे। तूने जैसा चाहा अपनी सहजता वश, अपनी प्रसन्नतावश अपने खेलवश शिव को वह स्वरूप दे दिया। तू कहीं रूठ न जाये, तू कहीं बालकों के समान रोने न लगे अतः शिव कुछ नहीं बोलते। जैसा तू नचाती है वैसा वे नाचते हैं। शिव तेरे ही ध्यान में लीन रहते हैं, शिव को तेरी ही आदत है । हे माता जब साधक स्तम्भन सिद्ध करना चाहता है तो वह तेरा ध्यान पीले वस्त्रों में करता है, तुझे पीले अलंकारों से युक्त देखता है, तुझे पीले सिंहासन पर विराजमान देखता है। हे माता साधक जब वशीकरण सिद्ध करता है तो तेरा रक्त वर्ण का ध्यान करता है, वह चिंतन करता है कि मां लाल वस्त्रों से सुशोभित हैं, रक्त चंदन का लेप अपने स्तन मण्डल पर किए हुए हैं एवं माँ के शरीर से प्रातः कालीन सूर्य की रक्त वर्णीय किरणें निकल रहीं हैं और वह वशीकरण सिद्ध हो जाता है।
जिस रूप में तेरा ध्यान करो हे बाले वह रूप ही सिद्धिदायी है क्योंकि तू ही एकमात्र श्री स्वरूपा है, तेरे अलावा ध्यान करने के लिए इस ब्रह्माण्ड में है ही क्या ? कृष्ण थक गये युद्ध कर-कर के, सौ वर्षों का शरीरी वियोग अंतिम क्षणों में पहुँच चुका था अतः चल पड़े कुरुक्षेत्र की तरफ तर्पण हेतु। तर्पण तो बहाना था क्योंकि स्वयं अतृप्त थे, आज स्वतर्पण की आवश्यकता थी। कितना गूढ़ रहस्य है कि पहले स्वयं तृप्त होओ, स्वयं की प्यास बुझाओ तब जाकर तर्पण सफल होता है। अतृप्तता से ही तृप्तता का उदय होता है। राधा भी अतृप्त हो रही थीं जैसे ही उन्हें मालूम चला कि कृष्ण पुनः आ रहे हैं कुरुक्षेत्र में स्व तर्पण हेतु, स्व तृप्ति हेतु कृष्ण की तृप्ति राधा भी चल पड़ीं ब्रह्म सरोवर की ओर। वट वृक्ष के नीचे ब्रह्म सरोवर के सानिध्य में दो अतृप्तताएं बालकों के समान, बालकों की दृष्टि लिए हुए अपनी-अपनी तृप्तता की तलाश कर रहे थे। दौड़ पड़े कृष्ण और राधा एक दूसरे की तरफ, सारे लोकाचार, सारी मर्यादाएं, सारे शिष्टाचार, जग के असंख्य बंधन धरे के धरे रह गये और सौ वर्षों की अतृप्तता एक क्षण में मिट गई।
कृष्ण राधा के हो गये और राधा कृष्ण की। रानियाँ देखती रह गईं, जनता देखती रह गई एवं सब बोल उठे हे राधा नहीं सम्हाल पाये हम कृष्ण को, नहीं बहला पाये हम कृष्ण को, नहीं फुसला पाये हम कृष्ण को नहीं भुलवा पाये हम कृष्ण को तेरी याद से अतः हे राधा, हे बाले कृष्ण हमारे वश का नहीं है लो सम्हालों अपने कृष्ण को, लो सम्हालों अपने बाल गोपाल को, लो सम्हालो अपने बालेश्वर को। बाला को ही शोभा देता है बालेश्वर किसी अन्य को नहीं। रुक्मिणी आदर पूर्वक, ससम्मान राधा को द्वारिका ले आयीं, एक दिन देखा कि कृष्ण के पाँव में फफोले पड़े हुए हैं रुक्मिणी घबरा गईं, सहम गईं कि यह क्या हुआ ? कृष्ण से पूछने लगीं। वास्तव में हुआ यह था कि रुक्मिणी ने राधा जी को भूलवश कुछ गर्म दुग्ध पान हेतु दे दिया था और महाभाविका कृष्ण के भाव में डूबी हुई उसे पी गई जिसका परिणाम यह हुआ कि कृष्ण के पाँव में फफोले पड़ गये, रुक्मिणी समझ गई कि यह सब छलावा है राधा और कृष्ण दिखने में तो दो शरीर हैं परन्तु वास्तव में इनमें सम्पूर्ण एक्यता है, ये एक ही पिण्ड हैं,
क्रमशः
जो राधा को अर्पित करो वह कृष्ण को अर्पित हो जाता है और जो कृष्ण को अर्पित करो वह राधा को अर्पित हो जाता है। महाभारत का युद्ध चल रहा था, चारों तरफ से घनघोर अस्त्र शस्त्रों की वर्षा हो रही थी, रासेश्वर कृष्ण तभी अचानक युद्धरास रूपी महाभारत के मध्य में अर्जुन के रथ समेत पहुँच गये। कर्ण, अश्वत्थामा, भीष्म, दुर्योधन, शकुनि इत्यादि के तीरों से अर्जुन को बचाते-बचाते स्वयं कृष्ण का सम्पूर्ण शरीर तीरों से भिद गया, उनकी एक-एक जांघ में पाँच-पाँच तीर घुस गये, भुजाओं एवं हृदय भी तीर से भिद गये। प्रत्येक तीर लगने पर कृष्ण के मुख से निकलता "हा राधा" और दूसरे ही क्षण उनकी पीड़ा समाप्त हो जाती। तीर लगता कृष्ण को और जख्म बनते राधा के शरीर पर, लहु बहता राधा का परन्तु वह तो महाभाविका थीं अत: हँसकर दूसरे ही क्षण स्वस्थ हो जातीं एवं तीर की चुभन भी नहीं होती। महाभाव की अवस्था में मृत्यु कदापि नहीं होती अपितु मृत्यु तुल्य कष्ट भी तिरोहित हो जाते हैं। महाभाव की अवस्था में इच्छा शक्ति, ज्ञान शक्ति और क्रियाशक्ति का चरम तालमेल होता है। महाभाव की अवस्था समझने के लिए इन तीनों को समझना पड़ेगा।
कुछ लोगों में इच्छा शक्ति प्रबल होती है परन्तु इच्छा को पूर्ण कैसे किया जाय इसका ज्ञान नहीं होता, ज्ञान शक्ति के अभाव में क्रियाशक्ति पथ विहीन हो जाती है अतः जीवन में सफलता हेतु तीनों में सामंजस्य अत्यंत आवश्यक है। कुछ लोगों में इच्छा शक्ति भी होती है, ज्ञान शक्ति भी होती है परन्तु क्रियात्मक स्तर पर वे शून्य होते हैं अतः उन्हें सफलता नहीं मिलती। माँ भगवती बाला का मंत्र है "ऐं क्लीं सौः " ऐं ज्ञान शक्ति का प्रतीक है, क्लीं इच्छा शक्ति " का प्रतीक है और सौः क्रियाशक्ति का प्रतीक है जब तीनों में सामंजस्य हो जाता है तभी कुण्डलिनी शक्ति जागृत होती है अर्थात बाला क्रियाशील होती हैं। सिर्फ यह सोचते रहने से कि कुण्डलिनी शक्ति जागृत हो जाये कुछ नहीं होगा, किताबों या गुरुजनों के माध्यम से कुण्डलिनी शक्ति का ज्ञान हो जाने पर भी कुछ नहीं होगा क्रिया तो करनी पड़ेगी, साधना तो करनी पड़ेगी। जगत में मूढ़ता, शोषण, कुपोषण, अराजकता, दरिद्रता, अन्याय, विकृतता, प्रदूषणता, हिंसा, छीना-झपटी इत्यादि इसलिए है कि अधिकांशतः मनुष्यों में इच्छा, ज्ञान और क्रिया का सामंजस्य नहीं है इसलिए असंतुलनता है, संतुलनता श्रीविद्या की उपासना में ही है।
आप रेल से यात्रा कीजिए असंख्य खेत लहलहाते दिखेंगे, असंख्य मकान और भवन दिखाई पड़ेंगे, न जाने कितनी नदियाँ दिखाई पड़ेंगी, अगणित भूमि आपको खाली दिखाई पड़ेगी, न जाने कितने कारखाने, कितनी नौकरियाँ, कितनी स्त्रियाँ, कितने पुरुष इत्यादि इत्यादि दिखाई पड़ेंगे फिर भी स्थिति यह है कि कुछ लोगों के पास खाने को नहीं हैं, कुछ लोगों के पास एक फुट जमीन नहीं है, कुछ लोगों के पास पीने को पानी नहीं है, कुछ लोगों के पास विवाह हेतु स्त्री नहीं है, कुछ लोगों के पास संतान नहीं है इत्यादि इत्यादि है। सब कुछ स्पष्ट दिखाई दे रहा है आँखों से पर आपके पास क्यों नहीं है? क्योंकि कहीं न कहीं इच्छा शक्ति, ज्ञान शक्ति और क्रिया शक्ति में असंतुलन है अतः बाला तत्व को ग्रहण कीजिए, भगवती बाला की साधना कीजिए और राज पथ पर चलिए। श्रीविद्योपासक बनिए इसी में कुल का कल्याण है।
शिव शासनत: शिव शासनत:
0 comments:
Post a Comment