साधना विज्ञान में विशेषकर वाममार्गी ताँत्रिक साधनाओं में ‘यंत्र-साधना’ का बड़ा महत्व है। जिस तरह देवी देवताओं की प्रतीकोपासना की जाती है और उनमें सन्निहित दिव्यताओं, प्रेरणाओं की अवधारणा की जाती है, उसी तरह ‘यंत्र’ भी किसी देवी या देवता के प्रतीक होते हैं। इनकी रचना ज्यामितीय होती है। यह बिंदु, रेखाओं, वक्र-रेखाओं, त्रिभुजों, वर्गों, वृत्तों और पद्मदलों से मिलाकर बनाये जाते हैं और अलग-अलग प्रकार से बनाये जाते हैं। कई का तो बनाना भी कठिन होता है। इनका एक सुनिश्चित उद्देश्य होता है। इन रेखाओं, त्रिभुजों, वर्गों, वृत्तों और यहाँ तक कि कोण, अंश का भी विशेष अर्थ होता है। जिस तरह से देवी-देवताओं के रंग, रूप, आयुध, वाहन आदि विशेष गुणों का प्रेरणाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं, उसी तरह यंत्रों में भी गंभीर लक्ष्य धातु या अन्य वस्तुओं के तल पर होता है। रेखाओं और त्रिभुजों आदि के माध्यम से बने चित्रों को ‘मंडल’ कहा जाता है, जो किसी भी देवता के प्रतीक हो सकते हैं, किंतु ‘यंत्र’ किसी विशिष्ट देवी या देवता के प्रतीक होते हैं।
तंत्र विद्या विशारदों के अनुसार यंत्र अलौकिक एवं चमत्कारिक दिव्य शक्तियों के निवास स्थान हैं। ये सामान्यतया स्वर्ण, चाँदी एवं ताँबा जैसी उत्तम धातुओं पर बनाये जाते हैं। भोजपत्र पर बने यंत्र भी उत्तम माने जाते हैं। ये चारों ही पदार्थ कास्मिक तरंगें उत्पन्न करने और ग्रहण करने की सर्वाधिक क्षमता रखते हैं। उच्चस्तरीय साधनाओं में प्रायः इन्हीं से बने यंत्र प्रयुक्त होते हैं। ये यंत्र केवल रेखाओं और त्रिकोणों आदि से बन ज्यामिति विज्ञान के प्रदर्शक चित्र ही नहीं होते, वरन् उनकी रचना विशेष आध्यात्मिक दृष्टिकोण से की जाती है। जिस प्रकार से विभिन्न देवी-देवताओं के रंग-रूप के रहस्य होते हैं, उसी तरह सभी यंत्र विशेष उद्देश्य से बनाये गये हैं। इन यंत्रों में पिण्ड और ब्रह्माण्ड का दर्शन पिरोया हुआ है। भारतीय दर्शन का मत है कि जो कुछ ब्रह्माण्ड में है, वह सारी देवशक्तियां पिण्ड अर्थात् मानवीकाया में भी सूक्ष्म रूप में विद्यमान है। मानवी काया-पिण्ड उस विराट् विश्व-ब्रह्माण्ड का संक्षिप्त संस्करण है, अतः उसमें सन्निहित शक्तियों को यदि जाग्रत एवं विकसित किया जा सके तो वे भी उतनी ही समर्थ एवं चमत्कारी हो सकती हैं। यंत्र साधना में साधक यंत्र का ध्यान करते हुए ब्रह्माण्ड का ध्यान करता है और क्रमशः आगे बढ़ते हुए अपनी पिण्ड चेतना को वह ब्रह्म जितना ही विस्तृत अनुभव करने लगता है। एक समय आता है जब दोनों में कोई अंतर नहीं रहता और वह अपनी ही पूजा करता है। उसके ध्यान में पिण्ड और ब्रह्माण्ड का ऐक्य हो जाता है। वह भगवती महाशक्ति को अपना ही रूप समझता है, फिर उसे सारा जगत ही अपना रूप लगने लगता है। वह अपने को सब में समाया हुआ पाता है, अपने अतिरिक्त उसे और कुछ दृष्टिगोचर ही नहीं होता। वह अद्वैत सिद्धि के मार्ग पर प्रशस्त होता है और ऐसी अवस्था में आ जाता है कि ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय एक रूप ही लगने लगते हैं। साधक चेतना अब अनंत विश्व और अखण्ड ब्रह्म का रूप धारण कर लेती है। यंत्र पूजा में यही भाव निहित है।
‘यंत्र’ का अर्थ ‘ग्रह’ होता है। यह ‘यम्’ धातु से बनता है जिससे ग्रह का ही बोध होता है, क्योंकि यहीं नियंत्रण की प्रक्रिया दृष्टिगोचर होती है यों तो सामान्य भौतिक अर्थ में यंत्र का तात्पर्य मशीन से लिया जाता है जो मानव से अधिक श्रम साध्य और चमत्कारी कार्य कर सकती है और हर कार्य में सहायक सिद्ध होती है। उदाहरण के लिए मोटर कार, रेलगाड़ी, वायुयान, सेटेलाइट आदि की उपयोगिता एवं द्रुतगामिता से सभी परिचित हैं। इसी तरह माइक्रोस्कोप, टेलीस्कोप जैसे सूक्ष्म से सूक्ष्म वस्तुओं एवं दूरस्थ वस्तुओं को देखा जा सकता है। इसी तरह विराट् ब्रह्म को देखना हो तो भी यंत्र की अपेक्षा रहती है, उसकी भावना करनी पड़ती है। ताँत्रिक यंत्र को निर्गुण ब्रह्म के शक्ति-विकास का प्रतीक माना जाता है।
अध्यात्मवेत्ताओं ने यंत्र के अभिप्राय को स्पष्ट करते हुए कहा भी है-”जिससे पूजा की जाये, वह यंत्र है। तंत्र परंपरा में इसे देवता के द्वारा प्राण-प्रतिष्ठा प्राप्त यंत्र शरीर के रूप में देखा जाता है। यंत्र उस देवता के रूप का प्रतीक है जिसकी उपस्थिति को वह मूर्तिमान करता है और जिसका कि मंत्र प्रतीक होता है।” इस तरह यंत्र को देवता का शरीर कहते हैं और मंत्र को देवता की आत्मा। इसके द्वारा मन को केन्द्रित और नियंत्रित किया जाता है। कुलार्णव तंत्र के अनुसार-”यम और समस्त प्राणियों से तथा सब प्रकार के भयों से त्राण करने के कारण ही इसे ‘यंत्र’ कहा जाता है। यह काम, क्रोधादि दोषों के समस्त दुखों का नियंत्रण करता है। इस पर पूजित देव तुरंत ही प्रसन्न हो जाते हैं।” सुप्रसिद्ध पाश्चात्य मनीषी सर जॉन वुडरफ ने भी अपनी कृति “प्रिंसिपल्स ऑफ तंत्र” में लिखा है कि इसका नाम ‘यंत्र’ इसलिए पड़ा कि यह काम, क्रोध व दूसरे मनोविकारों एवं उनके दोषों को नियंत्रित करता है।
यंत्र-साधना का उद्देश्य ब्रह्म की एकता की सिद्धि प्राप्त करना है। यंत्र द्वारा इस अंतिम लक्ष्य तक पहुँचने के लिए विभिन्न प्रकार की साधनायें करनी पड़ती हैं। इनका संकेत-सूत्र यंत्र के विभिन्न अंगों से परिलक्षित होता है। उनका चिंतन-मनन करना होता है। विचार परिष्कार एवं भाव-साधना से ही उत्कर्ष होता है। यंत्र के बीच में बिंदु होता है, जो गतिशीलता का, प्रतीक है। शरीर और ब्रह्माण्ड का प्रत्येक परमाणु अपनी धुरी पर तीव्रतम गति से सतत् चक्कर काट रहा हैं यह सर्वव्यापक है। अतः हमें भी उन्नति के मार्ग पर संतुष्ट नहीं रहना है, वरन् हर क्षण आगे बढ़ने के लिए तत्पर और गतिशील रहना है, तभी शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा गतिशील हो सकते हैं। बिंदु आकाशतत्त्व का प्रतिनिधित्व करता है क्योंकि इसमें अनुप्रवेश भाव रहता है जो आकाश का गुण है। बिंदु यंत्र का आदि और अंत भी होता है अतः यह उस परात्पर परम चेतना का प्रतीक है जो सबसे परे है, जहाँ शिव और शक्ति एक हो जाते हैं।
वस्तुतः प्रत्येक यंत्र शिव और शक्ति की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति कराने वाला एक अमूर्त ज्यामितीय संरचना होता है। इसमें उलटा त्रिकोण ‘शक्ति’ का और सीधा त्रिकोण ‘शिव’ का प्रतीक माना जाता है। एक दूसरे को काटते हुए उलटे और सीधे त्रिकोणों से ही यंत्र विनिर्मित होता है। त्रिभुज का शीर्षकोण जब ऊपर की ओर बना होता है तो अग्निशिखा का प्रतीक माना जाता है जो उन्नति का ऊपर उठने का भाव प्रदर्शित करता है। जब यह शीर्षकोण नीचे की ओर होता है तो जल-तत्व का द्योतक माना जाता है,क्योंकि नीचे की ओर प्रवाहित होना ही जल का स्वभाव है। यंत्र में त्रिकोणों के चारों ओर गोलाकार वृत्त-सर्किल बनाये जाते हैं जिसे पूर्णता का और खगोल का प्रतीक कहा जा सकता है। इसे वायु का द्योतक भी माना जाता है, क्योंकि वृत्त में चक्राकार गति के लक्षण पाये जाते हैं। जब एक बिंदु दूसरे के चारों ओर चक्कर लगाता है तो वृत्त बनता है। वायु भी यही करती है और जिसके साथ संपर्क में आती है, उसे घुमाने लगती है। अग्नि और जल के साथ यही स्थिति रहती है।
यंत्र में इस गोलाकार वृत्त के सबसे बाहर जो चार ‘द्वार’ वाला चतुष्कोण या चतुर्भुज बना होता है, उसे ‘भूपुर’ कहते हैं। इसमें बहुमुखता का भाव है। यह पृथ्वी का भौतिकता का और विश्व-नगर का प्रतीक माना जाता है। किसी भी दशा में इसके चारों द्वारों को पार करके ही साधक मध्य में स्थित उस महाबिंदु तक पहुँच सकता है जहाँ परम सत्य स्थित है। यह बिंदु यंत्र के बीच में रहता है और यह अंतिम लक्ष्य माना जाता है। वहीं ईश्वर के दर्शन होते हैं और एकता सधती है।
आगम ग्रंथों के अनुसार यंत्रों में चौदह प्रकार की शक्तियाँ अन्तर्निहित होती हैं और प्रत्येक इन्हीं में से किसी न किसी शक्ति के अधीन रहते हैं। इन्हीं शक्तियों के आधार पर यंत्रों की रेखायें और कोष्ठकों का निर्माण होता है। इन यंत्रों में 36 तत्वों का समावेश होता है, जिनमें पंचमहाभूत, पंच ज्ञानेन्द्रियाँ, पंचकर्मेन्द्रियाँ और पाँच इनके विषय-रूप, रस, गंध आदि तन्मात्रायें, मन, बुद्धि, अहंकार, प्रकृति पुरुष, कला, अविद्या, राग, काल, नियति, माया, विद्या, ईश्वर, शिव, शक्ति आदि आते हैं। जिस तरह मंत्रों में बीजाक्षर होते हैं, उसी तरह यंत्रों में भी 1 से लेकर 36 तक की संख्या बीज संख्या मानी गयी है। ये बीज संख्यायें चौदह शक्तियों पर आधारित होकर 36 तत्वों के भावों को भिन्न-भिन्न प्रकट कर रेखाओं, कोष्ठकों के आकार-प्रकार और बीजाक्षरों के अधिष्ठाता देवी-देवताओं का प्रतिनिधित्व करती हुई उन देवशक्तियों को स्थान विशेष पर प्रकट कर मानव संकल्प की सिद्धि प्रदान करती हैं। इन्हीं 36 तत्वों के अंतर्गत पृथ्वी जल, वायु, अग्नि आदि जो 25 तत्व हैं, वे वर्णमाला के 25 वर्ण बीजों से संबंध रखते हैं।
यंत्र विज्ञान में 1, 9 तथा (0) की संख्या अपना महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं जिस प्रकार एकाक्षरी बीज मंत्रों के अनेक अर्थ होते हैं उसी तरह प्रत्येक संख्या बीज भी अनेक अर्थों वाले होते हैं। ये अंकबीज विभिन्न प्रकृति के मनुष्यों के ऊपर प्रभाव डालने की अपार शक्ति रखते हैं। मीमाँसाशास्त्र में कहा गया है कि देवताओं की कोई अलग मूर्ति नहीं होती। वे मंत्र मूर्ति होते हैं। वे यंत्रों में आबद्ध रहते हैं और उन पर अंकित अंकों एवं शब्दों का जब लयबद्ध ढंग से भावपूर्ण जप किया जाता है तो उनसे एक विशिष्ट प्रकार की तरंगें उत्पन्न होती हैं जिसका प्रभाव उच्चारणकर्ता पर ही नहीं पड़ता, समूचे आकाश मंडल एवं ग्रह-नक्षत्रों पर भी पड़ता है। यंत्र शरीर में स्थित शक्ति केन्द्र को मंत्र एवं अंकों के शक्ति के सहकार से उद्दीप्त उत्तेजित करता है। मानवी काया में अनेकों सूक्ष्म शक्ति केन्द्र हैं जिन्हें देवता की संज्ञा दी जा सकती है। यंत्र वस्तुतः इन्हीं विभिन्न शक्ति केन्द्रों के मानचित्र के समान हैं जिनकी साधना से साधक में तद्नुरूप ही शक्तियों का विकास होता है और वह उत्तरोत्तर प्रगति करते हुए आत्मोत्कर्ष के चरमलक्ष्य तक जा पहुँचता है।
मंत्रों की तरह यंत्र भी बहुविधि एवं संख्या में अनेकों हैं और उनका रचना विधान भी प्रयोजन के अनुसार कई प्रकार का होता है। तंत्रशास्त्रों में इस तरह के 960 प्रकार के यंत्रों का वर्णन मिलता है जिनकी प्रतीकात्मकता की विषद व्याख्या भी की गयी है। इनमें से कुछ यंत्रों को ‘दिव्य यंत्र’ कहा जाता है। ये स्वतः सिद्ध माने जाते हैं और दैवी शक्ति संपन्न होते हैं। उदाहरण के लिए वीसोयंत्र, श्रीयंत्र, पंचदशी यंत्र आदि की गणना दिव्य यंत्रों में की जाती है। इनमें से ‘श्री यंत्र’ सबसे प्रसिद्ध है। इसकी उत्पत्ति के संबंध में ‘योगिनी हृदय’ में कहा गया है कि “जब परात्पर शक्ति अपने संकल्प बल से ही विश्व-ब्रह्माँड का रूप धारण करती और अपने स्वरूप को निहारती है तभी ‘श्री यंत्र’ का आविर्भाव होता है।”
‘श्री यंत्र’ आद्यशक्ति का बोधक है। इसका आकार ब्रह्मांडाकार है जिसमें ब्रह्मांड की उत्पत्ति और विकास का प्रदर्शन किया गया है। यह कई चक्रों में बँटा होता है जिनमें से प्रत्येक की अपनी महिमा-महत्ता है। इस यंत्र के सबसे अंदर वाले वृत्त के केन्द्र में बिंदु स्थित होता है जिसके चारों ओर नौ त्रिकोण बने होते हैं। इनमें से पाँच की नोंक ऊपर की ओर और चार की नीचे की ओर होती है। ऊपर की ओर नोंक वाले त्रिभुजों को भगवती का प्रतिनिधि माना जाता है और शिव युवती की संज्ञा दी जाती है। नीचे की ओर नोंक वाले शिव का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन्हें ‘श्री कंठ’ कहते हैं। ऊर्ध्वमुखी पाँच त्रिकोण पाँच प्राण, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच तन्मात्रायें और पाँच महाभूतों के प्रतीक हैं। शरीर में यह अस्थि, माँस, त्वचा आदि के रूप में विद्यमान हैं। अधोमुखी चार त्रिकोण शरीर में जीव, प्राण, शुक्र और मज्जा के प्रतीक हैं और ब्रह्माँड में मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार के प्रतीक हैं। ये सभी नौ त्रिकोण नौ मूल प्रकृतियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। त्रिकोण के बाहर या पश्चात् जो वृत्त होते हैं वे शक्ति के द्योतक हैं। इस यंत्र में पहले वाले वृत्त के बाहर एक आठ दल वाला कमल है तथा दूसरा सोलह दलों वाला कमल दूसरे वृत्त के बाहर है। सबसे बाहर चार द्वारों वाला ‘भूपुर’ है जो विश्व ब्रह्माँड की सीमा होने से शक्ति गति-क्षेत्र है।
इस यंत्र में ऊर्ध्वमुखी त्रिकोण अग्नितत्व के, वृत्त वायु के, बिंदु आकाश का और भूपुर पृथ्वी तत्व का प्रतीक माना जाता है। यह तंत्र सृष्टिक्रम का है।
“आनंद लहरी” में आद्य शंकराचार्य ने इसका विस्तृत वर्णन किया है। वे स्वयं इसके उपासक थे। उनके हर मठ में यह यंत्र रहता है। योगिनी तंत्र में भी इसका वर्णन करते हुए कहा गया है कि आध्यात्मिक उन्नति के विशेष स्तर पहुँचने पर ही साधक इसकी पूजा का अधिकारी होता है। सिद्धयोगी अंतर पूजा में प्रवेश करते हुए यंत्र की पूजा से प्रारंभ करता है जो ब्रह्म विज्ञान का संकेत है।
यंत्रों में बिंदु, रेखा, त्रिकोण, वृत्त आदि ज्यामितीय विज्ञान का असाधारण प्रयोग होता है। इसकी महत्ता प्रदर्शित करते हुए प्रख्यात यूनानी तत्त्वज्ञ प्लेटो ने अपनी पाठशाला (कुछ शब्द मिसप्रिंट हैं) यह घोषणा लिखवादी थी कि जो विद्यार्थी ज्यामिति से अपरिचित हों वह इस पाठशाला में प्रवेश के लिए प्रयत्न न करें। आधुनिक विज्ञानवेत्ता-भी यंत्र रचना पर गंभीरतापूर्वक अनुसंधानरत हैं और उसकी मेटाफिजीकल पॉवर-एवं अद्भुत स्थापत्य को देखकर आश्चर्यचकित हैं। मास्को विश्वविद्यालय रूस के मूर्धन्य भौतिकी विद् एवं गणितज्ञ डॉ. अलेक्साई कुलाई-चेव ने प्राचीन भारतीय कर्मकाण्डीय आकृतियों विशेषकर ‘श्री यंत्र’ के बारे में गहन खोज की है और पाया है कि यह एक जटिल आकृति है जो वृत्त में अंतर्निहित नौ त्रिभुजों से बनी है। उच्च बीज गणित, सांख्यिकी-विश्लेषण, ज्यामिति एवं कम्प्यूटर आदि की मदद से ही वे इस आकृति को बनाने में सफल हुए। उनका कहना है कि विश्व प्रपंच से संबंधित तंत्र की धारणायें बहुत कुछ विश्वोत्पत्ति की ‘बिग-बैंग’ वाली वैज्ञानिक मान्यताओं तथा ‘तप्त विश्व’ के सिद्धाँतों से मिलती जुलती हैं। यंत्र रचना का रहस्य वैज्ञानिकों एवं गणितज्ञों के लिए अभी भी एक चुनौती बना हुआ है। यंत्रों के अर्थ, उद्देश्य एवं उनमें अंतर्निहित प्रेरणाओं को यदि समझा और तदनुरूप साधना की जा सके तो सिद्धि अवश्य मिलती है, इसमें कोई संदेह नहीं।
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