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सत्यम् शिवम् सुन्दरम् ..

          परम ममतामयी माँ नर्मदा के तट पर मध्यप्रदेश में एक जगह नरसिंहपुर भी है। यहीं पर नाथ सम्प्रदाय के एक महायोगी का आश्रम एवं समाधि स्थल भी है। आज से २५ वर्ष पूर्व नाथ सम्प्रदाय के परम भक्त शिव योगी सशरीर मौजूद थे उनके आस-पास शिष्यों, अनुयायियों एवं दर्शनार्थियों का पूरा का पूरा दल मौजूद रहता था कभी कोई व्यक्ति उन्हें अपने घर पधारने का निमंत्रण देता तो कोई अन्य अपनी समस्या लेकर उनके आश्रम में ही बैठा रहता था। आश्रम के पास ही एक मुस्लिम परिवार भी रहता था इस परिवार की छोटी बालिका जब-जब स्वामीजी बाहर निकलते वह उनसे अपने घर भोजन करने को कहती। स्वामीजी भी उससे किसी और दिन जरूर आने की बात कह चले जाते थे। एक दिन बालिका ने जिद के साथ प्रेमपूर्वक निर्मल आग्रह पुनः किया। स्वामीजी ने पता नहीं क्या सोचा और उस बालिका के साथ भोजन करने चल दिये। यह सब देखते ही शिष्यों, अनुयायियों और तो और मुस्लिमों में भी हड़कम्प मच गया। बालिका के घर उस दिन भोजन में मछली बनी थी। स्वामीजी तो परम ब्रह्मचारी थे मांसहार तो बहुत दूर की बात है। खैर स्वामीजी ने प्रेमपूर्वक भोजन किया जो बालिका के घर में बना था वही उन्होंने ग्रहण किया। घर के बाहर भीड़ लग गई हिन्दुओं के चेहरे देखने लायक थे और तो और शिष्य भी छाती पीट-पीट कर रो रहे थे। 
              स्वामीजी भोजन करके बाहर निकले सबकी तरफ देखा फिर सबको पास बुलाकर बैठने के लिए कहा। योगी के लिये मन की बात जानना छोटा-मोटा कार्य है। वे सबसे बोले आप लोग जानना चाहते हैं कि मैंने अंदर क्या खाया है फिर उन्होंने अपने एक शिष्य से पानी लाने को कहा पानी पीकर उन्होंने जो कुछ खाया था उसे मुख से पुनः बाहर निकाल दिया। आप जानते हैं उनके मुख से बाहर क्या निकला जिसे देखकर सारे लोग शर्म से गड़ गये और उनके चरणों पर लोटन लगे। स्वामीजी के मुख से केवल गुलाब के ढेरों फूल ही बाहर निकले। यह घटना कटु सत्य है और शिव के महात्म्य को दर्शाती है जिसके अंदर शिव विराजमान है वह विष को भी अमृत में बदल देगा बस जरूरत है तो सिर्फ प्रेम की। बालिका ने प्रेम पूर्वक जो कुछ उन्हें अर्पित किया वह सब गुलाब में परिवर्तित हो गये। भगवान शिव तो विष ही पीते हैं अपने भक्तों का । 
          नर्मदा में शिवलिङ्ग निर्माण हजारों वर्षों में होता है। एक सामान्य पत्थर शिवलिङ्ग में परिवर्तित तभी होता है जब नर्मदा की धारा के अनंत थपेड़ों और प्रवाहों को झेलता हुआ निष्काम भाव से पथ में पड़ा रहता है। नर्मदा के प्रत्येक थपेड़े प्रत्येक काल को, क्षण को, वर्ष को इंगित करते हैं। काल, वर्ष, क्षण आते जाते रहते हैं। शिवलिङ्ग बनने के लिए कंकर को इन सबको तो देखना ही पड़ता है। बहुत कुछ त्यागना पड़ता है, विशुद्धता पाने के लिए त्याग नितांत आवश्यक है। अपने उमर कुछ और भी स्थापित नहीं होने देना पड़ता है और न ही नर्मदा की धारा से विचलित होना पड़ता है। नर्मदा के पथ में पड़े-पड़े कंकर शंकर में परिवर्तित होता है तब कहीं जाकर वह प्रतिष्ठित हो पाता है, पूजनीय हो पाता है एवं कालजयी बनता है। शिव चिंतन के मूल में वीतराग है। 
           वास्तव में अध्यात्म का मूल ही वीतराग हैं। वीतराग ही मनुष्य को या कंकर को छोड़ने की कला सिखाता है, उर्ध्वगामी बनाता है। वीतराग ही मोह से मुक्ति दिलाता है। स्तम्भन की कला सिखाता है। वीतराग ही जीवन है, मोह मृत्यु का परिचायक है। कायरता का दूसरा नाम मोह है। शिव भक्तों के लिये वीतराग ही प्राण है। खोल को फाड़कर निकलना वीतराग के कारण ही सम्भव है। जीव में अगर वीतराग न हो तो वह अण्डे के खोल में ही दम तोड़ देगा। इस पृथ्वी पर कोई भी बीज अंकुरित ही नहीं हो सकता वीतराग के अभाव में न ही कोई पर्वत धरती का सीना फाड़कर उँचाइयों को छू सकता है और न ही कोई मनुष्य दुनिया, समाज इत्यादि के कवच को भेदकर कुछ नया प्रस्तुत कर सकता है। नवीनता और वीतराग एक दूसरे के पर्याय हैं। नवीनता तभी सम्भव है जब वीतरागी क्रिया होगी।
            बालक भी नौ महीने पश्चात् माता के गर्भ से बाहर आ ही जाता है। गर्भ तो छोड़ना पड़ेगा ही, बाल्यावस्था भी छोड़नी पड़ेगी, युवावस्था भी छोड़नी पड़ेगी। स्त्री को जन्म देने की शक्ति भी एक दिन त्यागनी पड़ती है। वीतराग सीखने की वस्तु नहीं है। यह तो ब्रह्माण्डीय प्रक्रिया है सभी जीवों, तत्वों, पिण्डों और शरीरों में स्वयं ही निर्धारित रहती है। लाख कोशिश करो मृत्यु तो आयेगी ही। कितना आप मृत्यु से बचेंगे। एक दिन प्रवचन देने की शक्ति भी चली जायेगी, बोलने और लिखने की शक्ति भी जाती रहेगी। आप कुछ भी पकड़कर नहीं रख सकते। शरीर तो निरंतर लहरों, थपेड़ों को झेलता ही रहता है। 

थपेड़े समय के हो सकते हैं, उम्र के हो सकते हैं, ज्ञान के हो सकते हैं, विज्ञान के हो सकते हैं। सब कुछ आता जाता रहता है। सिद्धियां स्वयं आती हैं, क्षण भर रुकती हैं फिर चली जाती हैं। सिद्धियाँ अजर अमर हैं मनुष्य नश्वर है। आज इस जीव पर सिद्धि कल दूसरे महापुरुष पर उसका हस्तांतरण है। जब आप यह समझ लेंगे तो सब कुछ व्यर्थ लगने लगेगा। पाने की लालसा, अपना बना लेने की लालसा समाप्त हो जायेगी। सत्य से परिचय ही वीतराग है। 
            वीतराग समस्याओं से भागने की कला नहीं है। भगोड़े कभी भी वीतरागी नहीं होते। वीतराग शिव की दुर्लभ कृपा है, उनका आशीर्वाद है और उन्हीं का अंश है जिसमें वीत राग अंशात्मक स्वरूप में जितना ज्यादा होगा वह शिव के उतना ही निकट होगा। शिव और हमारे बीच की दूरी का माप ही वीतराग है जितनी ज्यादा वीतराग की क्रिया प्रबल होगी उतना ही एक व्यक्ति शिव तुल्य होता जायेगा। यही गुरु बनने का रहस्य है। निरंतर कुछ न कुछ त्यागते रहना, बाँटते रहना निःस्वार्थ भाव से, निर्विकार भाव से शिवलिङ्ग निरंतर बांटते रहते हैं सब कुछ। गुरु भी प्रवचन के माध्यम से, सिद्धियों के माध्यम से, दीक्षाओं के माध्यम से आशीर्वाद के माध्यम से और अंत में वरदान के माध्यम से अपनी साधना, तपस्या, ज्ञान, विचार, सिद्धियां इत्यादि सब कुछ लुटाने के लिये सदैव तत्पर रहते हैं। अनेकों ऐसे दिव्य पुरुष होते हैं जिनके पास अमूल्य ज्ञान, सिद्धियां एवं विज्ञान शिव की कृपा से अटूट रूप में मौजूद होता है। शिव मात्र उड़ेलते ही हैं। गुरुओं की समस्या यह है कि वे इसका करें क्या ? किसे बांटे, किसे दें। कभी-कभी उचित व्यक्तियों का मिलना अत्यंत कठिन हो जाता है। ऐसी स्थिति में पुनः शम्भु से प्रार्थना करते हैं कि हे प्रभु ! इन्हें लेने वाले भी उत्पन्न करो। जैसे ही लेने वाले मिलते हैं वे उसे बांट देते हैं और अगर नहीं मिलते हैं तो फिर शम्भु का ध्यान करते हुये सभी ज्ञान, विज्ञान, विद्याओं और सिद्धियों को जल में प्रवाहित कर मुक्त हो जाते हैं। यही क्रिया उन्हें अंत में करनी ही पड़ती है। वीतरागी के लिये मात्र सम्प्रेषण ही एकमात्र अस्त्र होता है।
                  जिसके पास वीतराग की शक्ति होती है उसे आने जाने वाले अस्थाई मौसम के थपेड़े परेशान नहीं करते। ज्ञानी पुरुष प्रतिक्षण वीतराग की क्रिया ही करते रहते हैं। दीक्षा प्रदान करने का यही रहस्य है इसमें तृप्ति है। भूलने की प्रवृत्ति है, लेन-देन का व्यवहार नहीं है। लेन-देन का व्यवहार पशुतुल्य सिद्धांत है और पशुतुल्य सिद्धांत धर्मभूमि पर लागू नहीं होते। भारत धर्मभूमि है यहाँ अध्यात्म के शाश्वत् सिद्धांत लागू होते हैं। पाश्चात्य जगत कर्मभूमि है वहाँ पशुतुल्य लेन-देन का सिद्धांत ही लागू होगा। गाय को दो किलो चारा खिलाओ और शाम को दो किलो दूध दुहो। उनके यहाँ सारी सोच, समस्त विकास की जड़ में मात्र यही सिद्धांत समाया हुआ है। इस सिद्धांत की परम अवस्था दो किलो चारा और शाम को दो किलो दूध ही है। वे सारा जीवन इसी सिद्धांत को परिष्कृत करने में लगा देते हैं। आठ घण्टे का काम और फिर आठ घण्टे बाद आठ घण्टे की मजदूरी परन्तु भारतवर्ष में आज तक किसी भी युग में यह सिद्धांत लागू नहीं हो पाया है और न लागू होगा। आठ घण्टे कार्य करने के पश्चात् भला किस युग में उचित पारिश्रमिक मिला है। यहाँ वही व्यक्ति उत्थान कर सकता है जो कि अपने पीछे धर्म की ताकत रखता है। ध्यान रहे कर्म भूमि में दो किलो चारे के बदले दो किलो दूध ही चरम अवस्था में प्राप्त हो सकता है परन्तु धर्म भूमि पर दो किलो चारे के बदले में दो लाख किलो दूध भी प्राप्त होने की पूरी पूरी सम्भावनायें हैं चुनाव आपके हाथ में है। 
            कर्मभूमि में तनाव है, रोग है, अल्प आयु है, हिंसा है, आनंद का अभाव है, और तो और ध्यान, आत्मसुख, प्रेम इन सबका तो नितांत ही अभाव है, जीवन में अनेकों वस्तुयें ऐसी हैं जिनका मूल्य आप लगा ही नहीं सकते। कर्म के सिद्धांत में तो पिता पुत्र होता ही नहीं तो फिर मृत्यु के बाद कंधा देने के लिए भी पैसा देना पड़ेगा। क्रियाकर्म तो बहुत दूर की बात है। जीवन संगिनी तो होती नहीं बस बिस्तर बदलने का खेल होता है। जिस दिन कार्य करने की क्षमता खत्म होती है वृद्ध आश्रम रूपी जेलों में फेंक दिये जाते हैं। जब वृद्धों को जेल में फेंक दोगे तो फिर कहाँ से ऋषि-मुनि और सद्गुरु जैसे दिव्य पुंजों का संस्पर्श आपको प्राप्त होगा। तब आप मनुष्य कहाँ रहे। जब तक जवानी है तब तक जीवन है ऐसी व्यवस्था पशुओं में ही होती है इसीलिये मृत्यु तो कष्टकारी होगी। कर्म भूमि के सिद्धांत वीतरागी का आह्वान नहीं कर सकते। इस प्रकार की भूमि गुरु विहीन होगी, शिव विहीन होगी। शिव अगर साक्षात् नहीं होंगे तो फिर सभी तरफ विष ही विष होगा। 

जिसे देखो उसे विष वमन करता ही मिलेगा एवं सम्पूर्ण समाज विष का महासागर होगा। शिव उर्ध्वगामी है। शिवलिङ्ग हमेशा उपर की तरफ ही उठते हैं। तंत्र और यंत्र के मध्य में विराजमान हमेशा शिव ही होते हैं। प्रत्येक यंत्र के मूल में उर्ध्वगामी त्रिकोण शिव को दर्शाता है। जो उर्ध्वगामी होगा वही ज्योति प्रदान कर सकता है। वेदों में अग्नि को शिव स्वरूप माना गया है। अग्नि हमेशा उर्ध्वगामी ही होती है। ज्योतिर्लिङ्गों का दिव्य प्रकाश समस्त जीवों को अंधेरे से मुक्त कराता है। अंधकार से मुक्ति शिव प्राप्ति है। कर्म की प्रधानता मनुष्य के अंदर नाना प्रकार के ताप को प्रतिष्ठित कर देती है। इन तापों से मुक्ति के लिये ज्योतिर्लिङ्ग ही एकमात्र सहारा है जिनके सानिध्य में हमारे तापों का शमन होता है। आप क्रोधित व्यक्ति को देखें, शोषित व्यक्ति को देखें, रोगी व्यक्ति को देखें आपको झुलसा देने वाला ताप ही दिखाई देगा। इसी ताप से उन कर्मों का उदय होता है जो कि पाप की श्रेणी में आते हैं और जब पाप कर्मों के द्वारा किसी जीव के साथ अनर्थ होता है तो उसके द्वारा मात्र शाप आह और हाय का ही सम्प्रेषण होता है जिसके विकिरण में पाप कर्मों के सम्पन्न करने वाले माध्यम का सर्वनाश निश्चित ही होता है। 
         शिव के पास सम्प्रेषण के लिये जीवों में चीत्कार सबसे अमोघ माध्यम है। इसी के द्वारा शिव की ध्यान मग्न अवस्था भंग होती है और फिर उनके तीसरे नेत्र से प्रवाहित संहारक शक्ति समस्त पापियों का सर्वनाश कर देती है। यह ब्रह्माण्डीय प्रक्रिया है। शिव इसी प्रक्रिया के द्वारा प्रलय की उत्पत्ति करते हैं। कर्म का सिद्धांत इसीलिये अपूर्ण है। प्रलय के मूल में कर्म का हाहाकारी सिद्धांत है धर्म की संरचना शिव ने इसलिये की है। अनंतकालों से भारत की धर्मभूमि में प्रचुर संख्या में शिवलिंग, ऋषि, देव, अवतार इत्यादि प्रतिष्ठित होते आ रहे हैं। ये हमेशा कर्म के सिद्धांत को खण्डित करते हैं। व्यक्ति को अध्यात्म की परिभाषा सिखाते हैं कर्म की पशुता से पुनः पृथ्वी को बचाते हैं और बदले में जीवों के ताप का हरण कर लेते हैं। ये सबके सब शिव के प्रतिनिधि हैं। शिव वीतरागी है, सिंहासन पर विराजमान नहीं है, कोई राज्य नहीं है, कोई लालसा नहीं है, कहीं कोई भय नहीं है बस देने की प्रक्रिया है। शम्भु को समझा नहीं जा सकता। तत्वचिंतक तत्व के माध्यम से उनके कुछ अंशों को आत्मसात करते हैं । तपस्वी तप के माध्यम से थोड़ा बहुत दर्शन कर लेते हैं। बुद्धिमान पुस्तक के माध्यम से शिव रस का पान कर लेते हैं। वैज्ञानिक विज्ञान के द्वारा थोड़ी बहुत झलक देख लेते हैं इत्यादि इत्यादि परन्तु इन सबमें अपूर्णता है। 
             शिव की व्याख्या सम्भव नहीं है। शिवलिङ्ग पूजन वैश्विक प्रक्रिया है। इस पृथ्वी का कोई ऐसा कोना नहीं है जहाँ शिव पूजन नहीं होता हो। उनके सहस्त्र नामों में से कोई सा भी नाम उस पूजन का हो सकता है। पूजन पद्धति समय और काल की देन है। वेदों में वे रुद्र शक्ति के नाम से पूजित हैं। रौद्र तो सूर्य भी हैं, अग्नि भी है, वायु भी है तो वही मनुष्य भी है। प्रारम्भ में मनुष्य में इतनी शक्ति थी कि वह प्रकृति में मौजूद शिवलिङ्गों से सम्प्रेषण कर सकता था परन्तु धीरे-धीरे पिछले पाँच हजार वर्षों में मनुष्य अपने जीवन का ९० प्रतिशत हिस्सा मनुष्यों के बीच ही गुजार लेता है ऐसी स्थिति में प्राकृतिक शिव सानिध्य का अभाव उत्पन्न होने लगा परन्तु शिवत्व की ललक तो और बढ़ी। एक बार फिर वैश्विक प्रार्थना शुरु हुई शिव प्राप्ति के लिये और फिर कृष्ण, राम, महावीर, बुद्ध इत्यादि इत्यादि अनेकों महामानवों का अस्तित्व सामने आने लगा। इन सब महामानवों ने मूल रूप से आपने अंदर परम ब्रह्माण्डीय शिव की चेतना को वीतराग के रूप में स्थापित कर शम्भु को आत्मसात किया ध्यान रहे शिव रहस्य केवल वेद, पुराण, गीता, रामायण इत्यादि इत्यादि पुस्तकों के अधीन नहीं हुये । शिव की चेतना ने तो उन्हें नदी, पहाड़, वायु, समुद्र, भूमि, नभ-मण्डल, आकाश गंगा इत्यादि पर अंकित कर दिया है। बस पढ़ने वाले में ताकत होनी चाहिये। 
             वेदों को कहीं से भी ग्रहण किया जा सकता है। वे प्राणवान हैं। हर जगह, हर स्वरूप में मौजूद हैं। जिस प्रकार इस पृथ्वी पर आप कहीं भी वायु को ग्रहण कर सकते हैं उसी प्रकार शिव साधक कहीं भी शिव में लीन हो वेद ग्रहण कर सकता है। मनुष्य की ताकत केवल वेदों को ग्रहण करने की ही है तो वह ब्रह्माण्ड से वेद ग्रहण कर सका। वेदों से उपर भी अतिसूक्ष्म परा ब्रह्माण्डीय शिव रहस्य है। शिव का कोई और छोर नहीं है। यहीं से गुरुओं का प्रादुर्भाव हुआ। जब ब्रह्माण्ड से ग्रहण करने की क्षमता का ह्रास हुआ तो फिर शिव रूपी परम व्यवस्था ने गुरु रूपी व्यवस्था का भी निर्माण कर दिया मनुष्यों के कल्याण के लिये।

आदिगुरु शंकराचार्य जी ने जितने भी महाग्रंथ लिखे सबके सब ब्रह्माण्ड से ग्रहण किये। किसी भी वैज्ञानिक खोज को पुस्तक के द्वारा सम्भव नहीं किया जा सकता। अभी वर्तमान काल में गुरु ही शिव के प्रतिनिधि हैं। आगे माध्यम क्या होगा कहना सम्भव नहीं है। 
              आप अव्यवस्था से क्या समझते हैं ? जिसे आप अव्यवस्था कहते हैं वह भी वास्तव में व्यवस्था है। मनुष्य के अनुरूप अगर किसी शक्ति विशेष में तीव्रता हो जाती है तो वह उस पर अव्यवस्था रूपी शब्द चस्पा कर देता है। आकाश में वर्षा के घोर बादलों को देख वह उसे अव्यवस्थित कह देता है । रौद्र जल वृष्टि उसे अव्यवस्था लगती है परंतु वास्तव में इसी से अनेकों व्यवस्थायें जन्म लेती हैं। सड़ी-गली पुरानी व्यवस्थायें पुनः समुद्र में फेंक दी जाती हैं निर्ममता के साथ। अव्यवस्था तो मनुष्य करता है अपनी लिप्तता के कारण कोई कसर नहीं छोड़ता है शिव निर्मित इस जगत को बर्बाद करने में। नर्मदा किनारे एक बार मेला लगा हुआ था। मूर्ख मनुष्यों ने उसके तट पर इतनी गंदगी मचा दी थी कि वहां पैर रखने पर भी सांस लेते नहीं बन रही थी अगर नर्मदा में बाढ़ न आये तो मनुष्यों द्वारा फैलाया गया मल-मूत्र कभी साफ ही न हो पाये। नर्मदा के बारे में स्पष्ट कहा गया है कि इसके जल में उतर कर कभी स्नान मत करो यह आजीवन कुंआरी और मातृ स्वरूपा है। इनका जल अति पवित्र है। नर्मदा तट पर अगर स्नान करना है तो बाल्टी से पानी भरो और बाहर भूमि पर बैठकर स्नान कीजिये। उनकी पवित्रता की रक्षा तो करनी ही पड़ेगी। परन्तु कितने लोग इस बात को समझते हैं इसीलिये कंकर ही रह जाते हैं।
             एक कथा याद आती है दो बड़े-बड़े शिला खण्ड नर्मदा के तट पर अनंत वर्षों से स्थित थे। इन दोनों शिला खण्डों पर धोबी वस्त्रों को पीट-पीटकर नर्मदा के जल से धोते थे। कुछ समय पश्चात् वहां से एक सन्यासी निकले उन्होने शिलाओं को देखा और तुरंत ही उनके मन में शंकर की प्रतिमा निर्मित करने का ख्याल आया। शिल्पी को बुलवाकर एक पत्थर वहां से उठवाया और शिवजी की अद्वितीय मूर्ति का निर्माण कराकर उसे तट पर ही भव्य रूप से प्राण प्रतिष्ठित कर दिया। लोगों की भीड़ आने लगी शिव के दर्शनार्थ। एक दिन रात्रि के समय तट पर पड़ी शिला मंदिर में स्थापित शिला से बोलने लगी तुम तो बहुत भाग्यवान हो मंदिर में प्राण प्रतिष्ठित हो गईं और मैं यहां पड़ी पड़ी धोबियों के पछीटे खा रही हु । इस पर मंदिर में स्थापित शिला बोली मैरे उपर तो प्रतिदिन न जाने कितने अपना पाप और मैल छोड़ जाते हैं परन्तु तुम तो प्रतिदिन अनेकों वस्त्रों को धो रही हो तो भला मैं भाग्यवान हुई या तुम यही शिव परिवार की व्यथा हैं। 
           शिव को आत्मसात कर गुरु भी बस समाज का कचरा साफ करते हैं। नर्मदा भी शिव सानिध्य में सब कुछ झेल रही है। शिव प्रेम में गंगा भी लोगों के पाप धो रही है। जो गुरु के साथ रहते हैं उनके कदम से कदम मिलाकर कार्य करते हैं उन्हें भी गुरु के समान कुछ हद तक तो जहर पीना ही पड़ता है। शिव का कार्य ही मानस पुत्रों का निर्माण करना है। शिव ने न तो गणेश को, न ही कार्तिकेय को स्वयं के शरीर से उत्पन्न किया है । वे तो प्राणों के देवता हैं, देवाधिदेव हैं। जिसमें चाहें उसमें प्राण प्रतिष्ठित कर दें। गणेश तो मां पार्वती के शरीर के मैल से उत्पन्न हुये हैं। गुरु के गर्भ में भी असंख्य मानस पुत्रों का जन्म छिपा हुआ होता है । वे प्राण प्रतिष्ठित करने की क्रिया में दक्ष होते हैं। शिव शिलाओं में भी अपनी दिव्य ज्योति प्रदर्शित कर ज्योतिर्लिङ्ग बन जाते हैं। परिवार और झगड़ा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जहां झगड़ा नहीं वहां परिवार नहीं और जहां झगड़ा वहीं परिवार।

शिव परिवार में गणेश हैं जिनका वाहन मूसक तो वहीं कार्तिकेय हैं जिनका वाहन मयूर माता भगवती सिंह वाहिनी हैं तो वहीं शंकर नंदी पर विराजमान हैं। एक तरफ ऋषि-मुनि हैं दूसरी तरफ असुर ।एक तरफ शुक्राचार्य है तो दूसरी तरफ वशिष्ठ। कहीं देवता स्तुति कर रहें हैं तो कहीं भूत-प्रेत और पिशाच भी शिव के समीप बैठे हुये हैं। इन सब में आपस में 36 का आंकड़ा है । एक पल के लिये शिव अगर हट जायें तो यह सब एक दूसरे को सदा के लिए समाप्त कर देंगे। कुछ भी नहीं बचेगा। परन्तु शिव सानिध्य में सभी शांत बैठे हुये हैं। इनके शांत बैठने से ही ब्रह्मा और विष्णु अपना कार्य सम्पन्न कर पाते हैं एवं लोकरूपी अनंत व्यवस्थायें अनंतकाल से चली आ रही है। आप सोचिये भगवान शिव के कितने अनंत स्वरूप हैं इसीलिये शिव को परम चेतना के स्वरूप में देखना ही श्रेष्ठ है । ज्योतिर्लिङ्गों से प्रतिबिम्बित होते अनंत चेहरे तो बस क्षण, समय और काल का विषय हैं। भारतवर्ष में स्थित ज्योतिर्लिङ्गों के सानिध्य में सभी ऋषियों, महानायकों एवं अवतारियों का प्रादुर्भाव हुआ है। इस चराचर जगत में विविधता ही शिव है। 
           एकांगी मार्ग अत्यंत ही घटिया और संकीर्ण है। मरुस्थल में रेत होती है और कुछ नहीं। ज्यादा से ज्यादा खजूर का पेड़ है। उसी का फल खाओ, उसी के नीचे सोओ। न नदियां हैं, न पहाड़ हैं, न जल है, न वर्षा है, न ही विविध प्रकार के पशु व पक्षी इत्यादि-इत्यादि। ऐसे स्थानों पर उदित धर्म एकांगी ही होगा। एक महापुरुष और एक पुस्तक को हजारों साल तक पूजते रहो। इन स्थानों पर निवास करने वाले व्यक्ति क्या जाने कि शिव परिवार में इन्द्र कौन है, कुबेर कौन है, महालक्ष्मी कौन हैं, कामधेनु कौन हैं, ऋषि कौन है, नदी क्या है, पर्वत क्या है। यही मूल फर्क है सनातन धर्म में और मरुस्थल में उगे धर्म में इसीलिये मरुस्थल के मनुष्य आक्रांता हैं उनके अंदर ललक है शम्भू के विभिन्न स्वरूपों को देखने की। भारतभूमि पर आक्रमण का यही मूल कारण है। यह शिव भूमि है यहां पर शिव ने अपनी समस्त शक्तियों को ज्योतिर्लिङ्ग के माध्यम से जी भरकर लुटाया है। अनंत प्रकार के जीव-जंतु हैं, अनंत प्रकार की वनस्पति है, अनंत प्रकार के पंथ है, असंख्यों विद्यायें हैं, सिद्धियाँ हैं, ज्ञान से मनुष्य पटा पड़ा है, इतनी नदियां हैं कि गिन ही नहीं सकते। 
                आज से 500 वर्ष पूर्व अंग्रेज तो केवल उन मसालों को लेने के लिये आये थे जिन्हें हम सामान्य समझते हैं। हमारी सामान्य वनस्पति ही उनके लिये दुर्लभ और अमूल्य थी। आये तो थे मसाले लेने परन्तु पूजा पद्धति, वेदांत, दर्शन, योग, देवालयों इत्यादि इत्यादि को देख बौरा गये और जाने का नाम ही नहीं ले रहे थे। जितना ढोकर ले जाते बना ले गये परन्तु फिर भी हमारे यहाँ कोई कमी नहीं है। मूल तत्व में तो आज भी वे नहीं पहुँच सकें हैं। मूल में तो शिव ही है। भारत वासियों पर शिव की अनन्य कृपा है। इसके सामने सभी सभ्यतायें दरिद्र हैं। भारत ने एक बार फिर उन्हें आत्मसात कर लिया वे भी अब शिव पूजक बन रहे हैं। मरुस्थल में तो शिव मंदिर के ऊपर उन्होंने अपने पूजा घर खड़े कर लिये हैं यह सब कुछ मात्र आडम्बर है ज्यादा दिन नहीं चलेगा। इस तरह की क्षदम् पहचान आने वाले 500 वर्षों में स्वतः ही विखण्डित हो जायेगी। एक बार पुनः शैव शक्ति समस्त विश्व में वास्तविक स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जायेगी। शिव रूपी परम चेतना के लिये यह सब कुछ चंद मिनटों का काम है।
            
                                   शिव शासनत: शिव शासनत:

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