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पुनर्जन्म ।।


           एक गाँव की स्त्री गर्भावस्था के दौरान खेत में काम कर रही थी। अचानक प्रसव पीड़ा हुई एवं उसने खेत में ही शिशु को जन्म दे दिया। कुछ देर बाद उसने स्वयं ही शिशु को उठाया और घर की तरफ चल पड़ी। दूसरी तरफ किसी बड़े शहर में एक धनी व्यक्ति के यहाँ ठीक उसी समय संतान उत्पन्न हुई। माता को बड़े अस्पताल में भर्ती कराया गया, सैकड़ों लोग एकत्रित थे, हर तरह की सुविधाऐं थीं। एक से एक ख्याति प्राप्त चिकित्सक प्रसव कराने में जुटे हुए थे। शिशु का जन्म होते ही उत्सव का माहौल बन गया। ऐसा हमेशा से होता आया है आगे क्या होगा यह अलग बात है परन्तु जन्म के समय दोनों शिशुओं की स्थितियाँ सर्वथा विपरीत हैं। इसे कहते हैं भाग्य ।

            भाग्य है तो हैं, भाग्य की सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता। भाग्य का निर्माण कैसे होता है? अगर हम इस विषय का गहराई में जाकर विश्लेषण करेंगे तो पायेंगे कि कर्मों की श्रृंखला कभी नहीं टूटती । जिस जीवन में हमने मृत्यु के समय तक जो कर्म सम्पन्न किए होंगे उसी का प्रारम्भ अगले जन्म में पुनः होगा। टूटी हुई कड़ी पुनः जुड़ेगी। अधूरे कर्म पुनः शरीर प्राप्त करके सम्पन्न करने पड़ेगें। इसी से प्रतिपादित होता है पुनर्जन्म का सिद्धांत समस्या यह है कि लोगों का दृष्टिकोण अब वैज्ञानिक नहीं रहा। वे दो स्थितियों में जीते हैं हाँ या ना या तो किसी भी सिद्धांत को हाँ कहकर प्रतिपादित कर देते हैं या फिर न कहकर नकार देते हैं। हाँ और ना से कुछ भी हासिल नहीं होगा। हाँ या न से ऊपर उठकर सोच, विचार एवं बुद्धि रूपी शक्तियों को एक अत्यंत ही लचीला, स्थित प्रज्ञ एवं समग्र भाव देना होगा। यही तरीका है परम सत्य को समझने का जीवन के गूढ़ सिद्धांतों को आत्मसात करने का ।

           मैं क्या हूँ? मैं, कहाँ से आया हूँ? मेरी आंतरिक खोज क्या है? मेरी पसंद और नापसंद जन्म के समय मुझे कहाँ से मिली है? क्यों जब मैं अकेला बैठता हूँ तो मेरे मन में एक अलग प्रकार के विचार आते हैं? इन सब यक्ष प्रश्नों के उत्तर में पुनर्जन्म छिपा हुआ है। मेरे माता पिता या परिवार वाले मेरे गुरु से बहुत चिढ़ते हैं फिर भी मैं उन्हें असीम प्यार करता हूँ। ऐसा क्यों हो रहा है? ऐसा इसलिए हो रहा है कि शिष्य विशेष के तो गुरु से पुनर्जन्म के सम्बन्ध हैं भले ही वह उन व्यक्तियों के बीच में रह रहा हो जिनका आध्यात्मिक तल शून्य है। एक स्त्री थी उसे एक पुरुष से प्रेम था। यह सत्य घटना है। अचानक एक वर्ष बाद लड़की ने अपने प्रेमी को छोड़कर किसी दूसरे युवक से विवाह कर लिया। उसने अपने प्रेमी को इस तरह से छोड़ा कि वह उसे कभी जानती ही नहीं थी और पूर्ण रूप से अपने पति के साथ खुशी खुशी रहने लगी। प्रेमी युवक को अथाह मानसिक वेदना और कष्ट हुआ। उसने तो जीवन का अंत करने की ही ठान ली थी परन्तु अचानक चौराहे पर उसे गुरु मिल गये उसने उसे बचा लिया।

         सम्बन्धों की इतनी भयानकता किसी न किसी रूप में प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन में देखने को मिलती है। इन सबके पीछे परम ब्रह्माण्डीय लेन-देन का व्यवसाय छिपा हुआ है अर्थात लेखा-जोखा कर्मों का लेखा जोखा । ब्रह्माण्डीय लेखा जोखा । उस स्त्री का व्यक्ति के साथ कुछ लेखा जोखा बाकी रह गया था और जैसे ही हिसाब-किताब बराबर हुआ साथ खत्म यही होता है जीवन में। जैसे ही फल वृक्ष की डाली पर पक जाता है तुरंत टपक पड़ता है अर्थात साथ खत्म। जैसे ही शरीर वृद्ध होता है आत्मा उड़ जाती है अर्थात साथ खत्म। अब किसी और को पकड़ो हमारा समय पूरा हुआ । संकल्प, प्रतिज्ञा ये सब कर्म बंधन हैं। उन्हें पूरा करना ही पड़ता है। यही विधाता का विधान है, विज्ञान है । आपने विधाता से कहा मुझे पैसा रुपया चाहिए विधाता आपको देगा आपके कर्मानुसार मृत्यु होते ही आत्मा को सर्वप्रथम यमराज या देवदूत चित्रगुप्त के पास ले जाते हैं। वहाँ पर चित्रगुप्त व्यक्ति विशेष की आत्मा के पाप और पुण्य का हिसाब किताब देखते हैं। पुण्य हुए तो योग्यतानुसार स्वर्ग विशेष में भेजा जायेगा आत्मा विशेष को इच्छानुसार अमृत तुल्य भोगों को सम्पन्न करने के लिए। उसके लिए स्वर्ग के अनुरूप देह प्राप्त होगी ।

           दिव्य देहों से दिव्य कर्म तो वहाँ भी सम्पादित करने पड़ेंगे। अगर खाते में पापाचार ज्यादा होगा, पग-पग पर शरीर धारण करने के पश्चात् मनमानी की होगी या सृष्टि के नियमों को भंग किया होगा तो फिर योग्यतानुसार नर्क की प्राप्ति होगी। नर्क भी अनेक प्रकार के हैं। भयंकर पापाचारियों को भयंकर से भयंकर नर्क में जाना पड़ता है। जब तक उनके नारकीय स्वरूप का क्षय नहीं हो जाता उन्हें पुनः देह धारण करने का अधिकार नहीं होता है और देह भी उन्हें योग्यतानुसार ही मिलती है। प्रेत-योनियों में एक-एक हजार वर्ष तक पेड़ों के ऊपर उल्टा लटकाकर रखा जाता है। वे लोग जो धर्म का दुरुपयोग करते हैं,

दुर्योधन ने उस अबला स्त्री को दिखा कर अपनी जंघा ठोकी थी, तो उसकी जंघा तोड़ी गयी। दु:शासन ने छाती ठोकी तो उसकी छाती फाड़ दी गयी।

महारथी कर्ण ने एक असहाय स्त्री के अपमान का समर्थन किया, तो श्रीकृष्ण ने असहाय दशा में ही उसका वध कराया।

भीष्म ने यदि प्रतिज्ञा में बंध कर एक स्त्री के अपमान को देखने और सहन करने का पाप किया, तो असँख्य तीरों में बिंध कर अपने पूरे कुल को एक-एक कर मरते हुए भी देखा...।।

भारत का कोई बुजुर्ग अपने सामने अपने बच्चों को मरते देखना नहीं चाहता, पर भीष्म अपने सामने चार पीढ़ियों को मरते देखते रहे। जब-तक सब देख नहीं लिया, तब-तक मर भी न सके... यही उनका दण्ड था।
 
धृतराष्ट्र का दोष था पुत्रमोह, तो सौ पुत्रों के शव को कंधा देने का दण्ड मिला उन्हें। सौ हाथियों के बराबर बल वाला धृतराष्ट्र सिवाय रोने के और कुछ नहीं कर सका।

दण्ड केवल कौरव दल को ही नहीं मिला था। दण्ड पांडवों को भी मिला।

द्रौपदी ने वरमाला अर्जुन के गले में डाली थी, सो उनकी रक्षा का दायित्व सबसे अधिक अर्जुन पर था। अर्जुन यदि चुपचाप उनका अपमान देखते रहे, तो सबसे कठोर दण्ड भी उन्ही को मिला। अर्जुन पितामह भीष्म को सबसे अधिक प्रेम करते थे, तो कृष्ण ने उन्ही के हाथों पितामह को निर्मम मृत्यु दिलाई।

अर्जुन रोते रहे, पर तीर चलाते रहे... क्या लगता है, अपने ही हाथों अपने अभिभावकों, भाइयों की हत्या करने की ग्लानि से अर्जुन कभी मुक्त हुए होंगे क्या ? नहीं... वे जीवन भर तड़पे होंगे। यही उनका दण्ड था।

युधिष्ठिर ने स्त्री को दाव पर लगाया, तो उन्हें भी दण्ड मिला। कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी सत्य और धर्म का साथ नहीं छोड़ने वाले युधिष्ठिर ने युद्धभूमि में झूठ बोला, और उसी झूठ के कारण उनके गुरु की हत्या हुई। यह एक झूठ उनके सारे सत्यों पर भारी रहा... धर्मराज के लिए इससे बड़ा दण्ड क्या होगा ?

दुर्योधन को गदायुद्ध सिखाया था स्वयं बलराम ने। एक अधर्मी को गदायुद्ध की शिक्षा देने का दण्ड बलराम को भी मिला। उनके सामने उनके प्रिय दुर्योधन का वध हुआ और वे चाह कर भी कुछ न कर सके...

उस युग में दो योद्धा ऐसे थे जो अकेले सबको दण्ड दे सकते थे, कृष्ण और बर्बरीक। पर कृष्ण ने ऐसे कुकर्मियों के विरुद्ध शस्त्र उठाने तक से इनकार कर दिया, और बर्बरीक को युद्ध में उतरने से ही रोक दिया।

लोग पूछते हैं कि बर्बरीक का वध क्यों हुआ?
यदि बर्बरीक का वध नहीं हुआ होता तो द्रौपदी के अपराधियों को यथोचित दण्ड नहीं मिल पाता। कृष्ण युद्धभूमि में विजय और पराजय तय करने के लिए नहीं उतरे थे, कृष्ण कृष्णा के अपराधियों को दण्ड दिलाने उतरे थे।

कुछ लोगों ने कर्ण का बड़ा महिमामण्डन किया है। पर सुनिए! कर्ण कितना भी बड़ा योद्धा क्यों न रहा हो, कितना भी बड़ा दानी क्यों न रहा हो, एक स्त्री के वस्त्र-हरण में सहयोग का पाप इतना बड़ा है कि उसके समक्ष सारे पुण्य छोटे पड़ जाएंगे। द्रौपदी के अपमान में किये गये सहयोग ने यह सिद्ध कर दिया कि वह महानीच व्यक्ति था, और उसका वध ही धर्म था।

     "स्त्री कोई वस्तु नहीं कि उसे दांव पर लगाया जाए..."

कृष्ण के युग में दो स्त्रियों को बाल से पकड़ कर घसीटा गया।

देवकी के बाल पकड़े कंस ने, और द्रौपदी के बाल पकड़े दु:शासन ने। श्रीकृष्ण ने स्वयं दोनों के अपराधियों का समूल नाश किया। किसी स्त्री के अपमान का दण्ड  अपराधी के समूल नाश से ही पूरा होता है, भले वह अपराधी विश्व का सबसे शक्तिशाली व्यक्ति ही क्यों न हो।।

    जय श्री कृष्णा बांके बिहारी 🙏

लोगों को ठगते एवं चोरी करते हैं उन्हें हजारों वर्षों की प्रेत योनि प्राप्त होती है।

         सांसारिक दृष्टिकोण से क्षय का तात्पर्य क्षय रोग से लगा लिया जाता है परन्तु विधाता ने क्षय के रूप में एक अद्भुत प्रक्रिया निर्मित की है। परमात्मा की परम दयालुता का परिणाम है सभी कर्मों का क्षय होना नारकीय कष्टों का भी क्षय होगा, शरीर का भी क्षय होगा, पुण्यों का भी क्षय होगा, कारावास का भी क्षय होगा और फिर से मौका मिलेगा सुधरने का क्षय नहीं हो तो पुनर्प्राप्ति कैसे होगी? शरीर का क्षय न हो तो पुनर्जन्म कैसे होगा? एक अपराधी की सजा क्षय न हो तो फिर वह जेल से कैसे छूटेगा । क्षय तो होना ही चाहिए। सभी कुछ क्षयवान है। यही सबसे बड़ा प्रमाणीकरण है पुनर्जन्म का। जेल से छूटने के बाद व्यक्ति अपराधी नहीं है। उसके अपराध का क्षय हो गया अब वह सामान्य व्यक्ति है उसने दण्ड भोग लिया। अब वह उचित कर्म सम्पन्न कर प्रतिष्ठा भी प्राप्त कर सकता है। उसे पूरा अधिकार है। आज जो निर्धन है कल वह करोड़पति हो सकता है। हो सकता है कुछ समय पश्चात उसकी निर्धनता का क्षय हो जाय। आज जो अज्ञानी है कल वह महाज्ञानी हो सकता है।

          कल तक जो कालीदास जिस डगाल पर बैठे थे उसे ही काट रहे थे, निपट महामूर्ख थे, कुछ ही दिनों पश्चात वे महाकवि बन गये। किसने क्षय कर दिया उनके अज्ञान का। गुरु ने कर दिया। गुरु को क्षय करना आता है। वह कुछ ही क्षणों में क्षय करं देगा। दूध में से पानी का क्षय कर दो मावा बन जायेगा। क्या किया आपने सिर्फ क्षय किया। बस यही खेल है गुरु का । यही पुनर्जन्म की कुंजी है। एक शिष्य के दिमाग में से कुछ सांसारिकता का क्षय कर दो उसे अपना पूर्वजन्म याद आ जायेगा। जन्म और पूर्वजन्म के बीच बस एक झीना सा पर्दा है और उसके क्षय होने की देर है । उसी पर्दे के कारण शिष्य भटकता रहता है। इसी पर्दे को हटाना गुरु का कार्य है फिर शिष्य कहीं नहीं जाता, कहीं नहीं भटकता, कहीं लिप्त नहीं होता। साधनाऐं एक जीवन का खेल नहीं हैं। चालीस पचास वर्ष में क्या खाक साधना सिद्ध होगी इसके लिए पूर्वजन्म देखना पड़ता है। अधिकांशतः शिष्य अपने साथ पूर्वजन्म की सिद्धियाँ लाते हैं। गुरु अपनी दृष्टि से समझ लेता है कि पूर्व जन्म में शिष्य किस साधना में पारंगत था बस उसी का पुरश्चरण करा के उस शक्ति को जागृत कर देता है।

         बायें हाथ से काम करने वाला व्यक्ति वाममार्गी ही होगा। वाममार्ग की साधना उसे कुछ ही क्षणों में परिणाम दे देगी। वह जन्मजात वाममार्गी है अनेकों जन्म में उसने वाम मार्ग की ही साधनाऐं सम्पन्न की हैं। अब उसे भला कहाँ दूसरे मार्ग की साधना सम्पन्न करायें। उसे शिव ही अच्छे लगेंगे। उससे विष्णु पूजन सम्पन्न कराना अत्यधिक दुष्कर है। यह पहचान है पूर्व जन्म की कुछ बच्चे उल्टे पैदा होते हैं अर्थात जन्म के समय पैर बाहर निकलता है। इनमें जन्मजात गुण होता है पूर्वाभास का। इनकी कुण्डलिनी शक्ति गर्भ में ही आज्ञा चक्र तक आकर स्वतः ही रुक जाती है अन्य बच्चों में वह मूलाधार में ही सुप्त रहती है। इस प्रकार के बच्चों को पायला कहा जाता है। दस वर्ष से कम उम्र के अगर शुद्धतम, उच्च कोटि के बच्चे मिल जायें तो ये आँखें बंद करने के पश्चात भी कमरे में रखी सब बस्तुओं को देख सकते हैं। पूर्व जन्म को जाने बिना सम्पूर्ण विकास तय नहीं किया जा सकता एवं पुनर्जन्म को भी संशोधित नहीं किया जा सकता।

          जीवन को इस प्रकार से समझ सकते हैं प्रथम पूर्वजन्म अर्थात भूतकाल द्वितीय वर्तमान जन्म तृतीय अर्थात पुनर्जन्म । सर्वप्रथम पूर्व जन्म को समझना है एवं उस जन्म में किए गये कार्यों की व्याख्या करनी है, गलतियों को सुधारना है। यह कार्य वर्तमान युग होगा और इसी के अनुसार पुनर्जन्म प्राप्त होगा। एक शिष्य आलू के अलावा कुछ नहीं खाता, उसे गर्मी अत्यधिक लगती है और ठण्ड से अत्यधिक प्रेम है। एकांतवास उसकी प्रकृति है अर्थात उस शिष्य ने पूर्व जन्म में हिमालय के ठण्डे प्रदेश में साधनाऐं सम्पन्न की हैं इसीलिए गर्मी के प्रति वह संवेदनशील है। एकांत स्थान पर साधनाओं के कारण उसे एकांतवास पसंद है। उच्च शिखरों पर साधना करने वाले अपने साथ आलू या अन्य प्रकार के कंद मूल बोरे में भरकर ले जाते हैं। उसी पर उनका जीवन निर्भर रहता है। एकांतवासी मायावी नहीं होते तथा छलप्रपंच और फरेब से सर्वथा पुरे रहते हैं।
 
    ‌ ‌                  शिव शासनत: शिव शासनत:

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