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दिव्य दर्पणम् ।।

         क्या धर्म को समाप्त हो जाना चाहिए? क्या अध्यात्म रूपी कामधेनु को शिव लोक में पुनः प्रस्थान कर जाना चाहिए? क्या इस पृथ्वी के मनुष्य धर्म एवं अध्यात्म के योग्य हैं ? ब्रह्मा निर्मित जीव को क्या वास्तव में अध्यात्म की जरुरत है ? यह प्रश्न मेरे मन में बार-बार घुमड़ता है क्योंकि मैंने अपने जीवन में अध्यात्म रूपी कामधेनु का सिवाय शोषण के कुछ भी नहीं देखा है। कभी-कभी मैं भगवती त्रिपुर सुन्दरी से प्रार्थना कर उठता कि अध्यात्म का विलोप कर दीजिए इस संसार से। इतना शोषण, इतना दोहन, इतनी ठगी, इतनी लूटपाट, इतनी कृत्रिमता, इतना पाखंड, इतना व्याभिचार समस्त संसार में अध्यात्म के नाम पर है जितना कि कहीं और नहीं। ऐसा क्यों? बार-बार मेरा मन व्यथित होता है। अन्य क्षेत्रों में हो तो चल जायेगा परन्तु कम से कम हमें भगवान शिव द्वारा प्रदत्त इस दिव्य कामधेनु को तो छोड़ देना चाहिए। मेरा मन दहल उठता है कि क्या करूं? क्या न करूं? जब दूरदर्शन पर सज संवरकर, बन ठनकर, माथे पर नकली चंद्रमा लगाकर बैठे पाखंडियों को देखता हूँ, नकली ज्योतिषियों को देखता हूँ, नकली तांत्रिकों को देखता हूँ, महाव्याभिचारी संतों और प्रवचनकर्ताओं को देखता हूँ। क्या कहूं? तीर्थों के भी यही हाल हैं। नर्क के दर्शन करने हों तो तीर्थ स्थल पर जाओ। मठाधीशों को देखता हूँ, मुझे शर्म आती है । 

           यह सब क्या है ? इन सब मार्गों पर चलकर किसे मोक्ष प्राप्त होगा? कौन स्वयं को समझेगा, कौन आत्म दर्शन करेगा। भीड़ जुटा लेने से प्रचार-प्रसार कर लेने से क्या निर्गुण परब्रह्म की प्राप्ति हो जायेगी ? क्या आपका हृदय आपको माफ करेगा? क्या जरुरत है धर्म की ? हे भगवती त्रिपुर सुन्दरी या तो अध्यात्म को स्वास्थ्य प्रदान करो या फिर इसका लोप कर दो मेरा मन बार-बार कहता है। मैं देख रहा हूँ अध्यात्म की नृशंस हत्या होते हुए, अध्यात्म को मरते हुए, अध्यात्म को अंतिम श्वासें लेते हुए। ऐसा मत समझिये कि सिर्फ यह भारत वर्ष की कहानी है अपितु यह एक वैश्विक स्थिति है। भारत वर्ष में तो अभी भी अध्यात्म बाकी है एवं प्रत्येक काल में वास्तविक अध्यात्मविद होते ही हैं क्योंकि भारत वर्ष भगवान शंकराचार्य की जन्मभूमि एवं कर्मभूमि है। पाश्चात्य देशों में, अफ्रीकी महाद्वीप में तो स्थितियाँ बद से भी बदतर हैं। जितनी इजराइल की आबादी है उससे कहीं ज्यादा हमारे देश में तथाकथित साधु-संत, ज्योतिषी, तांत्रिक-मांत्रिक पंडित इत्यादि हैं अब यह आपकी दिव्यता, यह आपके ऊपर भगवती त्रिपुर सुन्दरी की कृपा है कि आपको वास्तविक सद्गुरु प्राप्त हो जाये, सर्वज्ञ प्राप्त हो जाये।

        मैंने आदि शंकराचार्य जी को भगवान कहा है। वे साक्षात् भगवान हैं क्योंकि वे इस पृथ्वी पर नाचने गाने, खाने-पहनने, विवाह करने, संतानोत्पत्ति में लिप्त होने, माया मोह में पड़ने, पढ़ने-लिखने, ज्ञान प्राप्त करने इत्यादि के लिए नहीं आये हैं अपितु वे कुछ वर्षों के लिए इस पृथ्वी पर उदित हुए। कहीं कोई शक नहीं, कहीं कोई संशय नहीं, कहीं कोई समय की बर्बादी नहीं, कहीं कोई व्यर्थता नहीं बस स्पष्ट लक्ष्य एक वर्ष की आयु में पूर्ण विकसित हो गये, तीन वर्ष की आयु में समस्त वेद कंठस्थ कर लिए, आठ वर्ष की आयु में संन्यास ले लिया, 16 वर्ष की आयु तक ब्रह्मसूत्र रच लिए, 32 वर्ष की आयु तक साक्षात् शरभेश्वर बन गये एवं श्री शरभ तंत्रम् में निपुण हो गये। श्री शरभ का तात्पर्य क्या ? सर्वप्रथम विष्णु ने नरसिंह अवतार के रूप में हिरण्यकशिपु की अंतड़ियाँ निकाल लीं एवं उसकी अंतड़ियों को अपने गले में लपेट लिया माला के समान और उसके हृदय को अपने नखों से मसल दिया। दूसरी स्थिति में श्री शरभ ने नरसिंह को अपनी जंघा पर लिटाया और उसकी अंतड़ियाँ निकाल लीं एवं गले में लपेट लीं। अंतड़ियों का महत्व समझो। हिरण्यकशिपु घोर नास्तिक था, मनुष्य गर्राता क्यों है? मनुष्य गर्राता इसलिए है क्योंकि उसका पेट भरा हुआ होता है। जब अंतड़ियाँ भोजन से भरी हुई होती हैं तो जीव गर्राता है, नरसिंह भी गर्रा रहे थे अतः श्री शरभ ने उनकी अंतड़ियाँ निकाल लीं। अंतड़ियाँ अर्थात उदर अर्थात विष्णु का निवास स्थान। श्रीविष्णु यथा स्थिति बनाये रखते हैं जब तक पेट भरा रहेगा, जब तक जीव में खाने एवं पचाने की क्षमता रहेगी तब तक वह जीवित रहता है। 

          ठीक इसी प्रकार भगवान शंकराचार्य ने 32 वर्ष की उम्र में साक्षात् श्री शरभ बन जैन, बौद्ध, वैष्णव,तथाकथित कौल मार्गियों, भैरव-वादियों, पाशुपत्यों,नास्तिकों, दार्शनिकों, कर्मवादियों द्वैत वादियों इत्यादि के मूर्खता, लम्पटता एवं कलुषितता भरे हुए,शोषण करने वाले, पथ भ्रष्ट करने वाले,भटकाने वाले, उलझाने वाले सिद्धांतों एवं दर्शनों की अंतड़ियाँ निकाल लीं। इस प्रकार सबके सब शक्ति विहीन हो गये और एक बार फिर वेदांत का परम ब्रह्माण्डीय .

सिद्धांत लहरा उठा।इन सब ब्रह्माण्डीय सिद्धांत लहरा उठा। इन सब तथाकथित धर्मों का हृदय तो वास्तव में वेदांत से भरा हुआ था चाहे बुद्ध हों, महावीर, चर्वाक या राधाकृष्ण के उपासक ये सबके सब वास्तव में तो जो कुछ बने वे वेदांत के सिद्धांतों के कारण ही बने। इन्होंने वेदों में से चुराया, कुछ किराये के लेखक,आचार्य, दार्शनिक इत्यादि रखकर वेदों एवं उपनिषदों के ज्ञान को अपनी स्वार्थ सिद्धता के लिए थोड़ा बहुत हेर-फेर करके अपने अनुरूप ढाला और दूसरी तरफ वेदांत की ही आलोचना करने लगे इसलिए इनकी अंतड़ियाँ निकालना जरुरी हो गया। क्या है तुम्हारा सिद्धांत ? क्या है तुम्हारा दर्शन ? कौन है तुम्हारा तीर्थंकर ? क्या कहना चाहते हो? कहाँ पहुँचाओगे तुम अपने अनुयायियों को? आओ बैठो बैठकर तय कर लेते हैं कितनी आध्यात्मिक शक्ति है तुममे आओ देख लेते हैं, कितने तुम सिद्ध हो आओ बैठकर तय कर लेते हैं। भगवान शंकराचार्य ने सभी द्वैत वादियों से कह दिया आओ मैदान में फैसला कर लेते हैं अगर तुम जीत गये तो मैं तुम्हारा धर्म स्वीकार कर लूंगा अन्यथा नाटक बंद कर दो, बहुत हुआ नाटक ।

          गया में बौद्ध बड़ी शान से भगवान शंकराचार्य से वाद विवाद करने पहुँचे परन्तु थोड़ी देर में हार गये और शंकराचार्य के चरणों में लोट गये बोले प्रभु आप सर्वज्ञ हैं परन्तु हम इनका क्या करें? यह रहा भगवान बुद्ध का विग्रह इसे हमने पूजा है, इसकी हमने आती उतारी है, इसे हमने फूल माला पहनाई है अतः इसका सम्मान कीजिए अब ये आप की कृपा पर निर्भर हैं। यही हाल जैनाचार्यों एवं उनके विग्रहों का हुआ, यही हाल कृष्ण के विग्रह का हुआ, यही हाल गणेश के विग्रह का हुआ, यही हाल यम के विग्रह का हुआ, यही हाल विष्णु के विग्रह का हुआ, यही हाल कर्म के सिद्धांत का हुआ। भगवान शंकराचार्य ने कहा पूजो बुद्ध को, पूजो महावीर को, पूजो यम को, पूजो महासरस्वती को, पूजो लक्ष्मी माता को इन्हें पूजने में कोई बुराई नहीं है मैं किसी का विरोधी नहीं, मैं मूर्ति भंजक नहीं, मैं किसी सिद्धांत के अस्तित्व पर प्रश्न नहीं उठा रहा हूँ, मैं धार्मिक उन्मादी नहीं हूँ, मैं किसी की आस्था पर ठेस नहीं पहुँचा रहा हूँ अपितु मैं तो सत्य कह रहा ।

            इनकी उपासना से तुम्हें सिद्धि मिल सकती है, इनकी उपासना से तुम्हारे सांसारिक लक्ष्य पूरे हो सकते हैं, इनकी उपासना से तुम्हारे कार्य भी बन सकते हैं परन्तु यह परब्रह्म परमेश्वर नहीं हैं, ये निर्गुण एवं निराकार नहीं हैं, ये मोक्ष नहीं दे सकते हैं, ये जन्म एवं मृत्यु के बंधन से तुम्हें मुक्त नहीं कर सकते। हाँ तुम्हें रास्ता बतला सकते हैं, तुम्हारी सहायता कर सकते हैं परन्तु इन्हें परब्रह्म परमेश्वर मत कहो, ये परम सत्ता नहीं हैं। इन सबका उदय कर्म के अंतर्गत हुआ है, एक निश्चित कार्य को सम्पन्न करने के लिए हुआ है अतः ये सब काल के अधीन हैं और कालान्तर ये सब काल कवलित हो जायेंगे। स्वयं गया में जो कि उस समय बौद्धों का तीर्थ था भगवान शंकराचार्य ने बुद्ध को विष्णु अवतार घोषित किया एवं उनकी वैदिक विधि से पूजा अर्चना प्रारम्भ करवाई। बौद्धों को यह सत्य बताया कि स्वयं बुद्ध ने अपने जीवन में वेदांत का ही सहारा लिया, समय एवं परिस्थितिनुसार वेदांत के मार्ग में आयी अशुद्धियों की तरफ लोगों का ध्यान इंगित किया परन्तु कोई नई बात नहीं कही। आदि शंकराचार्य ने एक ही बात कही कि ब्रह्माण्ड का समस्त ज्ञान वेदों में निहित है, वेदों से परे कुछ नहीं है। बताओ किसने क्या नया खोजा? क्या नया सिद्धांत गढ़ा? क्या नवीन मार्ग बनाया ? दिखाओ अपने मार्ग को। कोई नहीं दिखा सका, आचार्य ने तुरंत अपने शंख पर ओंकारनाद करते हुए समस्त मतावलम्बियों का पुनः शुद्धिकरण कर दिया और उन्हें वैदिक परम्परा में ले आये। 

        भगवान शंकराचार्य अपने साथ एक विलक्षण शंख रखते थे जिसमें से कि ओंकारनाद प्रस्फुटित होता था, जहाँ भी वे जाते सर्वप्रथम ओंकारनाद करके उस जगह का शुद्धिकरण कर देते। सर्वज्ञता इस शब्द को हमें समझना होगा। सर्वज्ञता अत्यंत ही विलक्षण है, सर्वज्ञता के अभाव में ही आधे-अधूरे सिद्धांतों से मस्तिष्क लिप्त होता है। सर्वज्ञता का तात्पर्य है माया के आवरण से सर्वथा मुक्त, जब आँखों में सर्वज्ञता आ जाती है तो चाहे कितने भी घने मेघ क्यों न हों हम उन्हें भेदकर सूर्य के दर्शन कर लेते हैं। चाहे कितनी भी घोर अंधेरी रात क्यों न हो हम दूरस्थ वस्तु को देख लेते हैं। जो सर्वज्ञ होता है वह अपने अंदर ईश्वर के प्रतिबिम्ब को कभी भी, कहीं भी, किसी भी स्थिति में प्रदर्शित करने में सक्षम होता है। वह परब्रह्म परमेश्वर का दर्पण बन जाता है जिसमें उसका प्रतिबिम्ब स्पष्ट रूप से आप देख सकते हो। सर्वज्ञता एक ऐसा दिव्य दर्पण है जो कि सामने वाले का प्रतिबिम्ब मात्र नहीं दिखाता अपितु उसके वास्तविक स्वरूप को प्रदर्शित करता है।.

एक साधारण दर्पण केवल बिम्ब का प्रतिबिम्ब दिखाता है अगर एक वृद्ध बाल काले करके, चेहरे पर सौन्दर्य प्रसाधन लगाकर, कुछ स्वांग करके, कुछ बाजीगरी करके, कुछ ढँककर, किसी विशेष स्थिति में खड़े होकर दर्पण में देखता है तो वह युवा लग सकता है परन्तु जिसने सर्वज्ञता प्राप्त कर ली उसकी आँखों का दर्पण उस वृद्ध के रंगे हुए बालों, उसके सौन्दर्य प्रसाधन इत्यादि को भेदकर उसकी वृद्धता के दर्शन कर लेगा। वह पहचान जायेगा कि तुम वृद्ध हो, तुम जर्जर हो, तुम क्षय को प्राप्त हो चुके हो, तुम मृत्यु धर्मा हो, तुम युवा नहीं हो, तुम जाने वाले हो, तुम्हारी वास्तविकता छिपी नहीं है। यही शंकराचार्य ने किया उन्होंने पृथ्वी पर उगे कृत्रिम धर्मों की वृद्धता पहचान ली, कृष्कायता पहचान ली, शक्तिहीनता पहचान ली। 

         हे भगवती त्रिपुर सुन्दरी नित्या केवल इस जगत में आप ही हैं बाकी सब स्वांग है। स्वांग एवं वास्तविकता में बहुत फर्क है। अब आज के किसी अभिनेता को अगर शंकराचार्य के जीवन का अभिनय करने के लिए कह दिया जाय तो वह चलचित्र के पर्दे पर भगवान शंकराचार्य का इतना सटीक अभिनय कर देगा कि शिवलोक में बैठे शिव भी शरमा जायेंगे। अभिनय की कला हे भगवती त्रिपुर सुन्दरी आपने ही जीवों को प्रदान की है। हे भगवती तेरे चरण से 360 कलायें निकलती हैं जिनमें से मात्र 5 ही निवृत्ति कला हैं अर्थात निवृत्त करती हैं, मोक्ष मार्ग की तरफ जातक को अग्रसर करती हैं बाकी बची 355 कलाएं तो भोग मार्ग की हैं और उन्हीं में से एक कला अभिनय की भी है। अभिनय भी भोग का माध्यम है परन्तु अभिनेता, अभिनेता है वह शंकराचार्य नहीं है। वह तो कुछ भोग के लिए शंकराचार्य का स्वांग कर रहा है। हमें यह समझना होगा कि जितने भी कृत्रिम धर्म है वे सबके सब अभिनय कला से युक्त हैं, अभिनय कर रहे हैं मोक्ष प्रदान करने का परन्तु स्वयं मुक्त नहीं हैं वे क्या मोक्ष देंगे? किसे परब्रह्म चाहिए? यह सोचने का विषय है। 

        आवश्यकता अविष्कार की जननी है यह बात शंकराचार्य जी ने भी समझाई। अब धर्म क्षेत्र में द्वैत इतना अधिक क्यों बढ़ गया? क्योंकि लोगों को द्वैत चाहिए। लोगों को द्वैत क्यों चाहिए? यह भगवती त्रिपुर सुन्दरी की इच्छा है। यह समस्त ब्रह्माण्ड भगवती त्रिपुर सुन्दरी का माया प्रपंच है, वे ही माया प्रपंच की संचालिका हैं यह बात हमें समझनी होगी। अब सभी मोक्ष की तरफ अग्रसर हो जायेंगे तो भगवती त्रिपुर सुन्दरी का माया प्रपंच कैसे चलेगा? अतः सृष्टि चलाने के लिए तो माया प्रपंच आवश्यक है जैसी भगवती त्रिपुर सुन्दरी की इच्छा। वे सगुण परब्रह्म हैं, ह्रीं उनका मंत्र है। दूसरी तरफ निर्गुण, निराकार, निष्प्रपंच, निष्कलंक आद्य हैं और यह भी सत्य है कि वे नित्य हैं। आचार्य शंकर एक तरफ तो परम शिवोपासक हैं, संन्यासी हैं, हाथ में चंद्रमौलिश्वर लेकर चलते हैं। तो दूसरी तरफ भगवान शंकराचार्य भगवती त्रिपुर सुन्दरी के परम आराधक हैं। उनके द्वारा स्थापित सभी मठों में आज भी श्रीयंत्र की तांत्रोक्त पूजा अवश्यम्भावी है। एक तरफ वे निर्वाण षट्कम लिखते हैं तो दूसरी तरफ सौन्दर्य लहरी का गान कर रहे हैं। भगवती त्रिपुर सुन्दरी के एक-एक अंग का वर्णन कर रहे हैं, उनके सौन्दर्य में डूबे हुए हैं। स्वयं भगवती त्रिपुर सुन्दरी ने उन्हें प्रकट होकर स्तन पान कराया है यही द्वंद है। निर्गुण ब्रह्म भी चाहिए एवं भगवती त्रिपुर सुन्दरी भी चाहिए। सगुण एवं निर्गुण के इसी खेल में बस जीव उलझ जाता है। सर्वज्ञता इसी में है कि भगवती त्रिपुर सुन्दरी की आराधना के द्वारा जीव और शिव के बीच पड़े तीन आवरण रूपी मल अर्थात पर्दों को हटाया जाय और निर्गुण परम ब्रह्म के दर्शन किए जायें। निर्गुण परब्रह्म तक पहुँचने के लिए सगुण परब्रह्म के रास्ते से ही जाना होगा। .
                          शिव शासनत: शिव शासनत:

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