Follow us for Latest Update

सूर्य तत्व ।।

    परम ब्रह्म ने गोचर- अगोचर, द्वैत-अद्वैत जीवों की श्रृंखला के रूप में अपने ही प्रतिबिम्ब तैयार कर दिए हैं। विशेषकर मनुष्य की रचना तो परम ब्रह्म ने ठीक उसी प्रकार की है जिस प्रकार वह स्वयं है। अपने सभी गुणों को उन्होंने मनुष्य में उतार कर रख दिया है। उसने अपनी नियंत्रात्मक, विध्वंसात्मक, सृजनात्मक, यंत्रात्मक, मंत्रात्मक, संचारात्मक इत्यादि इत्यादि सभी शक्तियों को मनुष्य में स्थापित कर दिया है। मनुष्य ही परम ब्रह्म है इसमे कोई भी संदेह नहीं है। उसने मनुष्य को बुद्धि भी दे दी, ज्ञान भी दे दिया, तर्क भी दे दिया और तो और एक से अनेक होने की ब्रह्म विद्या भी दे दी। यह अत्यंत ही दुर्लभ विद्या है। किसी भी वस्तु से मनुष्य संयोग कर सकता है, योग कर सकता है और कुछ भी वह निर्मित कर सकता है। कहीं भी वह गमनशील हो सकता है। जैसा चाहै वैसा वह जब धारण कर सकता है। 

       ईश्वर की प्रत्येक शक्ति को वह आत्मसात करने में सक्षम है। समस्त ब्रह्माण्ड की क्रियाओं, समस्त नक्षत्रों, उल्काओं, चन्द्रमाओं और सूर्य के प्रतिबिम्ब मनुष्य में मौजूद हैं। वो स्वयं में जीता जागता परम ब्रह्म है। मनुष्य परम ब्रह्म क्यों है? मनुष्य परम ब्रह्म इसलिए है क्योंकि उसके अंदर ईश्वर का स्थापत्य है। परम ब्रह्म रहस्य ने मनुष्य जैसी दुर्लभ कृति को निर्मित तो कर दिया पर उसने सोचा कि एक न एक दिन प्रत्येक मनुष्य मुझे ढूढ़ेगा। मेरा पता पाना चाहेगा, वह जानना चाहेगा कि मेरा रचयिता कौन है ? कौन है मेरा परम पिता? प्रत्येक पुत्र अपने पिता का नाम जानना चाहता है। यह उसका सार्वभौमिक अधिकार है। बस यही सोचकर परम ब्रह्म मनुष्य के हृदय कमल में स्थापित हो गये हृदय ही सूर्य है। अब मनुष्य उन्हें ढूंढ़ता है मंदिरों में शक्ति पीठों पर, पूजा घरों में, ब्रह्माण्ड में इत्यादि इत्यादि परन्तु पिछले अरबों वर्षों में कोई भी मनुष्य परमात्मा को बाहर नहीं दृढ़ पाया है। बाहर जब नहीं ढूढ़ पाता है तो वह निराश हो जाता है। कभी-कभी उच्चाटन की क्रिया के कारण कुछ समय के लिए नास्तिक भी बन जाता है परन्तु नास्तिक बनने से कुछ नहीं होगा समस्या का हल तो नहीं निकलेगा। 

       परमात्मा हृदय कमल में स्थित हैं अनेकों महापुरुषों ने बस इतने छोटे से रहस्य को आत्मसात कर लिया फिर उनके कदम कहीं नहीं भटके। उनके अंदर का सूर्य जागृत हो गया। आत्मा की आवाज को उन्होंने पहचान लिया। सत्य लोक ही उनका निवास स्थान हो गया। वे सूर्य से अलग नहीं हुए। सूर्य और उनके बीच की दूरी खत्म हो गई। वे स्वयं जीते जागते सूर्य बन गये। जोत से जोत मिल गई। दूसरों को प्रकाशवान करने लगे और स्वयं भी प्रकाशवान हो गये। बस इतनी छोटी सी बात है। अध्यात्म बहुत छोटा है बेवजह खींचतान कर लम्बा कर दिया जाता है। छोटा सा भेदन है परमात्मा तक पहुँचने के लिए। इस भेदन के लिए किसी सुई या छुरी कांटे की आवश्यकता नहीं है। यह भेदन तो वैसे भी हो जाता है जैसे कि परम ब्रह्म, परम आदि देव सूर्य की किरणें समुद्र तट पर पड़े हुए कछुओं के अण्डों का भेदन कर उनमें से नवीन जीवन की रचना कर देते हैं। समुद्री जीव तट निर्जन स्थानों पर अपने अण्डे छोड़कर पुन: समुद्र के जल में चले जाते हैं। सब कुछ परम ब्रह्म के ऊपर डाल देते हैं पूर्ण निष्ठा के साथ, पूर्ण समर्पण के साथ। ऐसी स्थिति में परम ब्रह्म स्वयं ही सब कुछ कर देते हैं। यह बहुत बड़ी बात है। 

          ऐसे भी जीव हैं जो मनुष्य से कई अरब गुना ज्यादा आध्यात्मिक सत्य को पहचानते हैं। वे अपने अण्डे नहीं सेते हैं। परम ब्रह्म सूर्य की रश्मियों पर सवार हो उन जीवों की आने वाली पीढ़ी तक पहुँचते हैं, उन्हें संस्कारित करते हैं, उन्हें भोजन प्रदान करते हैं, उनका विकास करते हैं और उन्हें इतनी जीवन शक्ति दे देते हैं कि वे स्वयं ही खोल फाड़कर चलने-फिरने लगते हैं। जब परमात्मा स्वयं देखभाल कर रहा है तो फिर भौतिक माँ-बाप गौण हो जाते हैं। विश्वामित्र ने भी सत्य को पहचान लिया उनके अंदर भी सूर्य का उदय हुआ। वे स्वयं सूर्य बन गये। गायत्री मंत्र कुछ भी नहीं मात्र सूर्य की उपासना है क्योंकि सूर्य ही सब कुछ देता है। सूर्य प्रत्यक्ष देव हैं प्रतिदिन आप उनके दर्शन कर सकते हैं। आपकी सभी इन्द्रिया सूर्य को महसूस कर सकती हैं। आदि ज्योति हैं वह एवं उन्हीं से सभी ज्योतियां निकली हैं। उन्हीं में सभी ज्योतियां विलीन हो जाती हैं। इस सृष्टि को यंत्र मय रूप से चलाने वाले आदि देव कितने दिव्य हैं इसका वर्णन ही नहीं किया जा सकता। 

        सूर्य का क्या वर्णन करूं सब कुछ प्रत्यक्ष है, सब कुछ सामने दिखाई पड़ रहा है। अनंत वर्षों से सब कुछ वही रच रहे हैं वही मिटा रहे हैं और वही चला रहे हैं। जब सभी कुछ प्रत्यक्ष हैं तो फिर अप्रत्यक्ष कहां बचा प्रत्यक्ष का वर्णन करना निरी मूर्खता के अलावा क्या है? द्वैत और अद्वैत सब कुछ बकवास हैं। सोच एवं विचार धारा सूर्य को आत्मसात किए व्यक्ति के सामने ओछी क्रियायें हैं। चार फुट के आदमी ने साढ़े पांच फुट के आदमी को देखकर कहा अरे यह कितना लम्बा है। सवा छः फुट के आदमी ने साढ़े पांच फुट के आदमी को देखकर कहा इसकी लम्बाई कितनी कम है। साढ़े पाँच फुट के आदमी ने साढ़े पाँच फुट वाले से कहा अरे तुम तो मेरे बराबर हो। अब कौन बकवास कर रहा है इसका निर्णय आप ही करें। मेरे ख्याल से तो सभी सच बोल रहे हैं और उनके ख्याल से सभी बकवास कर रहे हैं। इस ब्रह्माण्ड की किसी भी क्रिया का वर्णन किसी भी घटना का वर्णन अगर मैं कर दूँ तो वह सूर्य तत्व की विवेचना के अंतर्गत ही आ जायेगा। क्यों आ जायेगा? सीधा सा कारण है सूर्य देव सभी जगह मौजूद हैं, सभी जगह वह क्रियाशील हैं, सभी जगह वह प्रसव कर रहें हैं या करवा रहे हैं। 

          एक अणु के चारों तरफ परमाणु चक्कर काट रहे हैं। सभी तत्वों की सूक्ष्म आवृत्तियों में नाभि के आस-पास इलेक्ट्रॉन, प्रोटान एक निश्चित लय में गतिशील हैं इन्होंने भी सूर्य से अपने ईर्द-गिर्द अन्य ग्रहों और उपग्रहों को चक्कर कटवाने की विद्या सीख ली है। आणविक विज्ञान, परमाणु विज्ञान, नाभिकीय विखण्डन की लीलायें सब कुछ प्रत्यक्ष रूप से सूर्य में हो रही हैं। प्रतिक्षण करोड़ों अरबों नाभिकीय विखण्डन की क्रियायें सूर्य के तल पर अनंत काल से घटित हो रही हैं। चुम्बकत्व का इतना घोरतम उत्पादन सूर्य के तल पर होता है कि उसके तल से उठने वाली अति भीषणतम ताप ज्वालायें हजारों लाखों मील ऊपर उठती हुई पुनः सूर्य के द्वारा शोषित कर ली जाती हैं। अपनी ऊर्जा के मात्र दसांश से निकलने वाली सूर्य रश्मियाँ अत्यंत ही तीव्र वेग से प्राण शक्ति को इस सौर मण्डल के प्रत्येक कण तक निरंतर पहुँचाती रहती हैं। सूर्य रश्मियां कुछ भी नहीं सिर्फ मार्ग है उन दिव्य यानों का जिन पर सवार होकर प्राण शक्ति अनंत प्रकार के गुणों से युक्त हो प्रत्येक लोक, ग्रह एवं उपग्रह तक पहुँचती रहती है। सूर्य की रश्मियां एक मार्गीय नहीं है जिस मार्ग से प्राण शक्ति सभी तक पहुँचती है उसी मार्ग से पुन: बहुत कुछ वापस भी केन्द्र बिंदु तक पहुँच जाता है। यही है हवन का विधान आहुति डालने की प्रक्रिया । 

         बहुत कुछ सूर्य वापस खींच लेते हैं। वहीं पर हिसाब किताब होता है। देते ही देते जायेंगे तो फिर चल चुका काम। यह तो नकारा और निकम्मी व्यवस्था हुई। ऐसा तो आम जीवन में भी नहीं होता है। प्रबंध संचालन के छात्र अच्छी तरह जानते हैं कि ऊपर से अर्थात् कम्पनी के मालिक की तरफ से अगर मुद्रा या अन्य धन रूपी शक्ति प्राप्त होती है तो उसके बदले कार्यों की एक श्रृंखला से उत्पादित ऊर्जा पर प्रतिक्षण व्यवस्थापक नजर रखता है। वह उत्पादन रूपी व्यवस्था का नियंत्रण करता है। अनुत्पादन की स्थिति में वह व्यक्ति विशेष को हटा भी सकता है समझा भी सकता है सुधार भी सकता है, दण्ड भी दे सकता है। व्यवस्था वहीं सुचारू रूप से चलेगी जहाँ पर उत्पादन ही सबका लक्ष्य होगा अन्यथा व्यवस्था रूपी संस्था के केन्द्र में बैठे व्यक्ति पर ही सबसे प्रथम दोष मढ़ा जायेगा। वही सबसे ज्यादा जिम्मेदार है। उसी के निर्देश पर कर्म रूपी श्रृंखला का संचालन हो रहा था। यही कारण है कि इस ब्रह्माण्ड की प्रत्येक घटना के पीछे सूर्य देव ही दिखलाई पड़ते हैं उन्हीं के इशारों पर सब कुछ क्रियाशील होता है। वे ही कर्मों के संचालन एवं कमांनुसार प्रतिफल देने के लिए प्रतिबद्ध हैं। 

      आध्यात्मिक दृष्टिकोण अत्यंत ही दुर्लभ है। जिसने इसे समझ लिया उसने सामंजस्य बैठा लिया ब्रह्माण्ड से अर्थात् स्वयं से अर्थात् सूर्य से एक भी अपराधी, एक भी कुकर्मी आज तक इस ब्रह्माण्ड में दण्ड से नहीं बच पाया है, एक भी हत्यारा मृत्युदण्ड की सजा से नहीं बच पाया है। जीव के बदले जीव का सिद्धांत ही सूर्य सिद्धांत है। मैं घटिया मानव निर्मित कोर्ट-कचहरी और पुलिस थाना की बात नहीं कर रहा हूँ। यह सब बकवास हैं। यहां बंद होने छूटने से कुछ भी नहीं होता है। मृत्यु के बदले मृत्यु तो निश्चित है। ऐसा न हो तो दूसरे ही क्षण कर्म श्रृंखला आबद्ध हो जायेगी। आप कुकर्मी हो जायेंगे। सत्य लोक का नाश हो जायेगा इस ब्रह्माण्ड में प्रत्येक जगह कुकर्म फैलने लगेगा। ऐसा इसलिए नहीं होता कि सत्य लोक मौजूद है। सूर्य प्रशिक्षण आपको निहार रहे हैं। 

अनंत प्राणी एक दूसरे को मार-काट रहे हैं, एक दूसरे का भक्षण कर रहे हैं, अनंत जीव वेदना भोग रहे हैं, कष्टों में जीवन जी रहे हैं, तड़प सबके अंदर मौजूद है कहीं न कहीं किसी न किसी प्रकार से तड़प तो झेलनी ही पड़ रही है यही है मोक्ष का मार्ग।

          जो-जो किया है उसे काटना ही पड़ेगा। सूर्य देव तप का प्रतीक है जब तक वह आपको पूरी तरह तपा नहीं लेगें, एक-एक करके आपके कर्मों को तपा- तपाकर भस्म नहीं कर देंगे आपके पाप कटेंगे ही नहीं। जब अंत में जाकर सब कुछ तप जायेगा, भुन जायेगा भगवान भाष्कर के प्रचण्ड तप में तब कहीं आप सूर्य राश्मियों के दिव्य यान पर सवार हो सूर्य मण्डल का भेदन करते हुए सत लोक में जाकर प्रतिष्ठित होगें। सौर मण्डल का भेदन इतना आसान नहीं है। कबीर सत्य लोक से आये थे सत्य वाणी बोलते थे पुनः सत्य लोक चले गये। यह हे निर्बीज साधना अर्थात् मोक्ष प्राप्ति की कला गेंहूँ को धीरे-धीरे अग्नि पर तपा दो सब गुण-धर्म चले जायेंगे। सारे पाप नष्ट हो जायेंगे। सारे पुण्य परे हो जायेंगे फिर उस गेहूँ में स्थित प्राण सूर्य देव की रश्मियों पर आरूढ़ हो मुक्त हो चुके होंगे। स्वर्ग लोक से पुनः वापसी सम्भव हैं, नर्क से स्वर्ग की यात्रा की जा सकती है, देवता से मनुष्य रूप में आया जा सकता है, शिवलोक से भी पृथ्वी पर फेंके जा सकते हो, पितृ लोक में रहते हुए शांति के लिए अपने वंशजों की ओर देखना पड़ता है परन्तु सत्यलोक से वापसी सम्भव नहीं है।

       सत्यलोक में पहुँचने के लिए सूर्य के मध्य से प्राणों को गुजरना पड़ता है। प्राणों में लिङ्ग भेद के गुण तो सूर्य तक पहुँचने से कुछ समय पूर्व तक स्थित रहते हैं इसे कहते हैं आवृत्तियों का खेल आदि गुरु शंकराचार्य जी ने सूर्य भेदन कर लिया है वे सत्यलोक में स्थापित हो चुके हैं। अनेकों संत महात्मा तो स्वर्ग लोक में ही भ्रमण करते रह जाते हैं। कुछ तो इस पृथ्वी के आवरण को भी नहीं भेद पाते हैं यही सड़ते-मरते रहते हैं। अनेकों दुष्ट तांत्रिक तो वृक्षों पर उल्टे लटके रहते हैं। कर्म दण्ड के बड़े भीषण विधान है। तपाना ही सूर्य का कार्य है धीरे-धीरे सप्त शरीर तपते हैं। पंचभूतीय शरीर तो मात्र एक शरीर है। इसको अग्नि को समर्पित कर देने पर भी छः शरीर और बचते हैं। यहीं पर शुरू होती है। गुप्त पापों की गिनती। एक-एक कर हिसाब किताब चुकता किया जाता है। छः शरीर वाले प्रेत योनी पाते हैं दस दस हजार वर्ष इस पृथ्वी के वायुमण्डल में कर्म कष्ट भोगते हैं तब जाकर छ: में से पाँच शरीर पर आते हैं। ऐसा चलता रहता है। इन्हें भी तपस्या करनी पड़ती है। खूब पूजा पाठ, तप, जप इत्यादि करना पड़ता है तब कहीं जाकर इनके एक-एक शरीर कटते हैं। 

       इतना आसान नहीं है सूर्य रश्मियों के दिव्य यानों पर सवार हो सूर्य देव के निकट प्रत्यक्ष पहुँचना । अभी इस संसार में चल रहा घटिया विज्ञान कुछ कुछ इस देश में मौजूद महा विज्ञान को अब समझने लगा हैं एवं उसके सामने नत मस्तक होने लगा है सूर्य देव को विश्व नेत्र की उपाधि से भी परिभाषित किया गया है। उनकी रश्मियों के द्वारा प्रत्येक ब्रह्माण्डीय घटना उन तक पहुँचती रहती है और वहीं पर फिर घटना के अनुसार भाग्य का निर्धारण होता है वहीं पर फल एवं पारितोषिक या दण्ड निर्मित होता है। हम तक तो बस वह पहुँचा दिया जाता है उनके माध्यम से यहाँ पर कुछ भी नहीं होता है यहाँ पर अर्थात् सौर मण्डल में उपस्थित सभी गोचर एवं अदृश्य लोकों में सिर्फ भोगा या फिर कर्म काटे जाते हैं। देवताओं के कर्म बिगड़ते हैं तो उन्हें देव लोक छोड़कर भागना पड़ता है। हमारे सौर मण्डल में अनेकों लोक स्थित है एवं इन सभी लोकों के व्यवस्थापक सूर्य देव ही हैं जो इस रहस्य को समझ लेता है, इसकी सत्यता परख लेता है वह कुमार्ग को तुरंत ही त्याग देता है एवं अपने इस जीवन के साथ-साथ परालौकिक जीवन को भी सुधारने में समर्थ होता है। इसे कहते हैं परम सत्ता के सामने नमन। 

          परम सत्ता को हृदयस्थ करने का विधान एवं एक सामान्य पशु रूपीय जीवन से ब्रह्माण्डीय अस्तित्व में आने की कला फिर ऐसे महापुरुष दो हाथ वालों से नहीं मांगते हैं। वे सीधे सब कुछ परम ब्रह्म, परम प्रत्यक्ष एवं परम विद्यमान सूर्यदेव की शरण में बैठे सब कुछ उन्हीं से प्राप्त करते हैं। सूर्य विज्ञान में दक्ष होने के लिए सूर्य पुत्र बनना होगा। सूर्य ही तुम्हारा गुरु होगा, सूर्य के द्वारा ही तुम्हें सब कुछ प्राप्त करने की कला सीखनी होगी। सूर्य से ही सामन्जस्य बैठाना होगा। चौबीस घण्टे मनुष्यों से सामन्जस्य बैठाते बैठाते आप कहीं के नहीं रहे। बाप- बेटे से सामन्जस्य नहीं बैठा पाया, माँ बेटी से सामंजस्य नहीं बैठा पायी और पति-पत्नी में सामंजस्य होता ही नहीं है इसीलिए परम ब्रह्म सूर्य से सामान्जस्य बैठाना चाहिए। उनसे सामंजस्य बैठ गया तो फिर सारे जग से सामंजस्य अपने आप स्वतः ही बैठ जायेगा। 

         भाग्य दरवाजे पर आकर नाचेगा। लोग खुद ब खुद चरण स्पर्श करेंगे। सिद्धियाँ आप से मिलने के लिए कतार बद्ध होंगी। बिडम्बना यह है कि आप मनुष्य द्वारा निर्मित घड़ी के अलार्म से सामंजस्य बिठा रहे हैं। आपके शरीर की प्रत्येक कोशिका में लगी जैविक घड़ियाँ आपने बंद करके रख दी हैं। ये जैविक घड़ियां ही कुण्डलिनी शक्ति का अंश है। सब की सब पूर्व निर्धारित तरीके से भरी हुई हैं। ये सब भगवान भाष्कर के द्वारा समय-समय पर पुनः सक्रिय की जाती हैं। इन जैविक घड़ियों के अलार्म को आप सुनते ही नहीं है। इन्हें आपने देखना बंद कर दिया है इसीलिए अचानक नस फट जाती है, एक दिन अचानक किडनी खराब हो जाती है, अचानक दिल धड़कना बंद हो जाता है। मनुष्य को जीवन में बहुत कुछ करने की आवश्यकता नहीं है उसे तो बस बैठकर पुत्र रूप में ग्रहण करने की आवश्यकता है। 

           सूर्य की किरणें केवल ताप ही नहीं लाती हैं, वे तो अमृत भी लाती हैं, ज्ञान भी लाती हैं, सिद्धियाँ भी लाती हैं, मनोकामना एवं वरदान भी लाती हैं, जो कुछ आयेगा सब कुछ सूर्य लोक से ही आयेगा उन्हें चूसना एवं ग्रहण करना आना चाहिए। वेदान्त की सूक्ष्म 'आवृत्तियां कहां से आयीं? वे सब सूर्य लोक से ही आयीं हैं। वहीं पर ज्ञान रूपी तत्व तपता है, उसकी सारी अशुद्धियाँ ठीक उसी प्रकार नष्ट हो जाती हैं जैसे कि सोने को तपाने से उसमें मिले अशुद्ध तत्व नष्ट हो जाते हैं और फिर वहीं विशुद्ध ज्ञान सूर्य रश्मियों के द्वारा इस ब्रह्माण्ड में प्रक्षेपित कर दिया जाता है। कालान्तर योग्य ऋषि-मुनि इन्हीं विशुद्ध ज्ञान रूपी आवृत्तियों को अपने अंदर प्रतिबिम्बित कर ठीक उसी प्रकार वेद विज्ञान की रचना कर देते हैं जैसे कि समुद्र में मौजूद अशुद्ध जल सूर्य की रश्मियों के द्वारा ऊपर खींचकर पुनः अमृत रूपी जल में परिवर्तित कर उसे वर्षा के रूप में इस पृथ्वी पर बिखेर दिया जाता है। 

     वायु के पीछे भी सूर्य की शक्ति है। ध्वनि, अग्नि, कम्पन इत्यादि के पीछे भी सूर्य देव ही छिपे हुए हैं। सूर्य देव के अनंत स्वरूप हैं। पाश्चात्य वैज्ञानिक उन्हें सिफ अग्नि पिण्ड मानते हैं उनके यहाँ सूर्य देव दुर्लभ है जिस दिन निकलते हैं उस दिन वे सब अति प्रसन्न हो जाते हैं। एक छोटा सा प्रयोग बताता हूँ आप किसी नास्तिक, मोटी बुद्धि के मनुष्य को दस मिनिट तक सूर्य के प्रत्यक्ष खड़ा कर दीजिए एवं उसके शरीर का तापमान ले लीजिए। मोटी बुद्धि के मनुष्य का तापमान 2 से 3 डिग्री बड जायेगा। उसे पुनः सामान्य होने में भी आधा घण्टा लग जायेगा दूसरी तरफ अगर आप किसी सूर्य उपासक को 10 मिनट तक धूप में खड़ा कर देंगे तो वह उन 10 मिनटों में अपने हाथो में लिए हुए पुष्प, फल, नैवेद्य इत्यादि से आधे घण्टे तक पूर्ण हृदय के साथ मंत्रों से सूर्य की उपासना कर लेगा। सूर्य उपासक का शरीर प्रकाशवान हो उठेगा, उसके अनेकों विकार कट चुके होंगे एवं उसका आभामण्डल दिव्य तेज से अभिमण्डित दिखाई देगा। सूर्य उपासक के शरीर का तापमान आधे घण्टे पश्चात् भी बढ़ना तो दूर सामान्य से भी ज्यादा शीतल दिखलाई पड़ेगा। इसे कहते हैं सूर्य की प्रत्यक्ष चेतना के दर्शन। 

     अनंत दूरी पर स्थित होने की स्थिति में भी उनकी चेतना हमारे विचारों के अनुसार प्रतिफल दे देती है। उनके पाँव नहीं हैं फिर भी वे प्रतिक्षण सौर मण्डल के एक कोने से दूसरे कोने तक गमन करते हैं। उनके हाथ नहीं हैं फिर भी वे सौर मण्डल के प्रत्येक कण को बांधकर रखते हैं। उनकी आँखें नहीं है फिर भी वे प्रतिक्षण प्रत्येक कण को निहारते रहते हैं। उनका मुख नहीं है फिर भी वे अनंत मुखों का भरण पोषण करते रहते हैं। अनंत मुखों से कम्पन्न उत्पन्न करते रहते हैं। वे स्वयं अनंत महापुरुषो के मुखों से वेद वाणी उच्चारित करवा देते हैं। वे आदि देव हैं। वे प्रथम पुरुष हैं। रूप क्या है? मनुष्य जीव या किसी पिण्ड की अमानत नहीं है रूप। रूप तो सूर्य प्रदान करते हैं। दिन में वृक्ष के पत्ते तक दिखाई पड़ते हैं, रंग भी आप देख सकते हैं। संध्या को आप वृक्ष की आकृति देखते हैं रंग एवं पत्ते विलीन हो जाते हैं। रात्रि में कुछ भी दिखाई नहीं देता। रात्रि में वृक्ष भेद ही असम्भव हो जाता है। कहाँ गया रूप? सूर्य ने दिया, सूर्य ने खींच लिया। जिस जीव या पिण्ड ने सूर्य की रश्मियों में से जिस रंग को अवशोषित नहीं किया बस वही उसका रंग हो गया। रंगों का निर्माण व्यक्तिगत विषय है ही नहीं। ध्वनि का स्पंदन व्यक्तिगत विषय है ही नहीं।

        प्राणों का आना-जाना जीव विशेष का विषय है ही नहीं यह सब विषय सूर्य देव के द्वारा ही संचालित होते हैं। एक बात ध्यान रखिए जो जन्म का कारक है वही मृत्यु का कारक होगा, वही पालन का कारक भी होगा। कारक एक ही होता है जन्म, मृत्यु और पोषण तीन अवस्थायें हैं। जन्म है तो पोषण है। और पोषण है तो मृत्यु भी है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश इन तीनों की समग्र शक्ति इस सौर मण्डल पर परम ब्रह्म सूर्य की प्रचण्डता के कारण ही संचालित होगी। सूर्य की किरणें ही जन्म देंगी बीज को, वही पोषण प्रदान करेंगी वृक्ष को, वृक्ष उन्हीं के द्वारा भोजन का निर्माण करेंगे ऐवं भोजन की श्रृंखला का प्रादुर्भाव करेंगे। जीव के अंदर मांस और मज्जा का विकास भी इसी प्रकार होता है और रक्त का विकास भी इसी प्रकार होता है। सूर्याग्नि ही अग्नि को प्रकट करती है। उसी से प्रत्येक कोशिका का जीवन निर्धारित होता है। एक निश्चित समय पश्चात् विखण्डन की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। इसे आप मृत्यु कह सकते हैं।

        सब जगह ताप की विभिन्न स्थितियाँ ही स्वरूपों का निर्धारण करेंगी। एक ताप पर समुद्र है तो ताप की दूसरी स्थिति पर वर्षा के बादल एवं तीसरी स्थिति पर वर्षा। ऐसे ही अनंत तापस स्थितियों में प्राण शक्ति विभिन्न स्वरूप लेकर सूर्य रश्मियों के द्वारा विभिन्न शक्तियों का पान करती रहती है। चन्द्रमा पर पड़ती सूर्य रश्मियाँ देवताओं के लिए अमृत का उत्पादन करती है। प्रत्येक ग्रह पर दिन है हर प्रकार से दूसरे ग्रह की अपेक्षा पूरी तरह भिन्न कहीं-कहीं लगातार छः महीने तक दिन है तो कहीं तीन घण्टे का ही दिन होता है। कहीं एक घण्टे का दिन है तो 23 घण्टे की रात्रि कुछ ग्रहों पर तो दस-दस वर्ष के दिन होते हैं इसीलिए उन पर प्राणों द्वारा ग्रहण किये गये शरीर भी अत्यंत ही विलक्षण हैं। सप्त शरीरों की वहाँ पर आवश्यकता ही नहीं है। उन पिण्डों की आवश्यकता ही कुछ और है। उन्हें कुछ अलग प्रकार का ताप चाहिए। वहाँ पर स्थित प्राण शक्तियों की कुछ अलग ही आवश्यकता है। यह सब योग मार्ग से समझा जा सकता है। 

        सौर मण्डल में अनेकों प्रकार के जीवन है। सौ वर्षों में विज्ञान सब कुछ समझ जायेगा। विज्ञान स्थूल दृष्टि का परिचायक है। स्थूल दृष्टि का भी विकास किया जायेगा और होना भी चाहिए। इससे अनंत मस्तिष्क सत्य के प्रति प्रतिबद्ध होंगे। दो व्यक्ति जा रहे थे एक व्यक्ति के हाथ में डण्डा था। दूसरे व्यक्ति ने पूछा पृथ्वी का केन्द्र बिन्दु कहाँ है उसने तुरंत ही अपना डण्डा भूमि पर गाड़ दिया बोला यही है पृथ्वी का केन्द्र | दूसरे को अविश्वास हुआ प्रथम व्यक्ति ने कहा अगर तुझे विश्वास नहीं है तो नाप ले इस डण्डे की सीध में चलना शुरू कर धूम फिरकर यहीं वापस आ जायेगा । व्यक्ति तत्व ज्ञानी था उसे मालुम था कि दुनिया गोल है दूसरा जहाँ से चलेंगे वहीं वापस आ जाओगे। अब गोल वस्तु का केन्द्र बिन्दु तो हर जगह है इसलिए जहाँ पालथी मारकर ध्यानस्थ हो गये वहीं परमात्मा, वहीं सूर्य देव जहाँ हवन कुण्ड बन गया आप आहुतियाँ डालने लग गये वहीं से परमात्मा स्वीकार करने लगेगा बेवजह भटकने से क्या होगा? सर्वव्याप्त, सर्वज्ञ, सर्व समर्थ, सर्व नियंत्रात्मक भगवान भास्कर बस यही समझा रहे हैं। 

          आप भी कुछ मत करो बस प्रतिदिन प्रातः काल या किसी भी समय भगवान भास्कर को मात्र एक लोटा जल उनकी तरफ मुख करके पूर्ण हृदय के साथ समर्पित करते हुए नीचे लिखे गायत्री मंत्र को 11 बार पढ़ लो । 
ॐ भूर्भुवः स्व तत्सवितुर्व रेण्यम भर्गो देवस्य धीमहि धियो योनः प्रचोदयात् ॥

सब कुछ ठीक ठाक हो जायेगा, सब कुछ व्यवस्थित हो जायेगा। अव्यवस्था से व्यवस्था तक बढ़ने का उपाय बहुत ही छोटा है। सभी आर्य ऋषि प्रातःकाल नदी या जलाशय में स्नान करने के पश्चात् अपनी अंजुली में जल भरकर सूर्य को अर्पित करते चले आ रहे हैं एवं सब कुछ आत्मसात करते चले आ रहे हैं। अनार्य से आर्य बनने का बस इतना सा ही छोटा विधान है।
                           शिव शासनत: शिव शासनत:

0 comments:

Post a Comment