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महावीर स्वामी ।।


महावीर जैन पंथ के चौबीसवें तीर्थंकर (आत्मज्ञानी महापुरुष) है। आज से लगभग ढ़ाई सहस्त्र वर्ष पहले (ईसा से 599 वर्ष पूर्व) में मगध साम्राज्य (वर्तमान बिहार राज्य) के वैशाली गणराज्य के कुण्डलपुर में राजा सिद्धार्थ और रानी त्रिशला की तीसरी संतान के रुप में चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को जन्म हुआ। महावीर बाल्यावस्था नाम वर्धमान था। ऐतिहासिक रूप से महावीर ने प्राचीन भारत में जैन पंथ को पुनर्जीवित और प्रचारित किया, वह गौतम बुद्ध के समकालीन थे। 

तीस वर्ष आयु में महावीर ने संसार से विरक्त होकर परिवार, राज वैभव त्याग दिया और संन्यास धारण किया। महावीर ने गंभीर उपवास, शारीरिक कष्ट सहे, वृक्ष के नीचे ध्यान लगाया और अपने वस्त्र भी त्याग दिए। महावीर स्वामी ने साढ़े बारह वर्ष की कठोर तपस्या के पश्चात 43 वर्ष आयु में केवल्य ज्ञान (अनंत ज्ञान या सर्वज्ञता) प्राप्त किया। महावीर के प्रसिद्ध पंचशील सिद्धांत में सत्य, अपरिग्रह, अस्तेय, अहिंसा, ब्रह्मचर्य सम्मिलित हैं। कल्प सूत्र के अनुसार, महावीर स्वामी के 14000 साधु (पुरुष संन्यासी), 36000 साध्वी (महिला संन्यासी), 159000 श्रावक (गृहस्थ पुरुष अनुयायी) और 318000 श्राविका (गृहस्थ महिला अनुयायी) थे। लगभग 30 वर्षों तक ज्ञान का प्रचार करने के पश्चात महावीर ने 72 वर्ष आयु में दीपावली दिवस को निर्वाण (मोक्ष) प्राप्त किया।

महावीर स्वामी के प्रसिद्ध कथन

अहिंसा परम धर्म है। समस्त प्राणियों (मनुष्य, पशु, पक्षी, जलचर आदि) के प्रति सम्मान अहिंसा है।

जिसकी सहायता से हम सत्य को जान सकते हैं, चंचल मन को नियंत्रित कर सकते हैं और आत्मा को शुद्ध कर सकते हैं, उसे ज्ञान कहते हैं।

वाणी के अनुशासन में असत्य बोलने से बचना और मौन का पालन करना सम्मिलित है।

केवल वह विज्ञान महान और सभी विज्ञानों में सर्वश्रेष्ठ है, जिसका अध्ययन मनुष्य को सभी प्रकार के दुखों से मुक्त करता है।

यदि आपको सुखी रहना है तो सर्वदा स्मरण रखिए भगवान और अपनी मृत्यु।

आत्मा अकेले आती है अकेले चली जाती है, न कोई उसका साथ देता है न कोई उसका मित्र बनता है।

आत्मा अजर है अमर है, वह एक शरीर को छोड़ती है, दूसरे शरीर को धारण करती है, उसका कोई शत्रु, कोई हितेषी नहीं।

आपकी आत्मा से परे कोई भी शत्रु नहीं है। शत्रु आपके भीतर रहते हैं, वो शत्रु हैं क्रोध, अहंकार, लोभ, आसक्ति और घृणा।

जो अपने भीतर की आत्मा को नहीं पहचानता उससे बड़ा अज्ञानी कोई नहीं।

बाहरी त्याग अर्थहीन है यदि आत्मा आंतरिक बंधनों से जकड़ी रहती है।

स्वयं पर विजय प्राप्त करना, लाखों शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने से उत्तम है।

एक जीवित शरीर केवल अंगों और मांस का एकीकरण नहीं है, अपितु यह आत्मा का निवास है जो संभावित रूप से परिपूर्ण धारणा (अनंत दर्शन), परिपूर्ण ज्ञान (अनंत ज्ञान), परिपूर्ण शक्ति (अनंत वीर्य) और परिपूर्ण आनंद (अनंत सुख) है।

एक सत्यवान मनुष्य उतना ही विश्वसनीय है जितनी माँ, उतना ही आदरणीय है जितना गुरु और उतना ही परमप्रिय है जितना ज्ञानी व्यक्ति।

मूल्यवान वस्तुओं की बात दूर है, एक तिनके के लिए भी लालच करना पाप को जन्म देता है। 

जिस प्रकार अग्नि को ईंधन डालकर नहीं बुझाया जा सकता, उसी प्रकार असंतुष्ट व्यक्ति को संसार की समस्त संपत्ति देकर भी संतुष्ट नहीं किया जा सकता।

जितना अधिक आप पाते हैं, उतना अधिक आप चाहते हैं, लाभ के साथ-साथ लालच बढ़ता जाता है। जो अल्प मात्रा स्वर्ण से पूर्ण किया जा सकता है, वह राजकोष से नहीं किया जा सकता।

जन्म का मृत्यु द्वारा, युवावस्था का वृद्धावस्था द्वारा और भाग्य का दुर्भाग्य द्वारा स्वागत किया जाता है। इस प्रकार इस संसार में सब कुछ क्षणिक है।

जिस प्रकार धागे से बंधी (ससुत्र) सुई खो जाने से सुरक्षित है, उसी प्रकार स्व-अध्ययन (ससुत्र) में लगा व्यक्ति खो नहीं सकता है।

जो भय का विचार करता है वह स्वयं को अकेला और असहाय पाता है।

प्रत्येक आत्मा स्वयं में सर्वज्ञ और आनंदमय है। आनंद बाहर से नहीं आता।

मुझे अनुराग और द्वेष, अभिमान और विनय, जिज्ञासा, भय, दुख, भोग और घृणा के बंधन का त्याग करने दें (समता को प्राप्त करने के लिए)।

अज्ञानी कर्म का प्रभाव समाप्त करने के लिए लाखों जन्म लेता है यद्यपि आध्यात्मिक ज्ञान रखने और अनुशासन में रहने वाला व्यक्ति एक क्षण में उसे समाप्त कर देता है।

साहसी हो या कायर दोनों की मृत्यु निश्चित है। जब मृत्यु दोनों के लिए अपरिहार्य है, तो मुस्कराते हुए और धैर्य के साथ मृत्यु का स्वागत क्यों नहीं किया जाना चाहिए?

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