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श्री राम ।।


       भगवान श्री नारायण ने जीवों को रामत्व अर्थात ब्रह्माण्डीय मर्यादा के अनुरूप जीवन जीने के लिये सर्वप्रथम चार बार अपने श्री मुख से ऊँ कार रूपी नादब्रह्म महाध्वनि से चार वेदों की रचना की कालान्तर उन्होंने ये चार वेद ब्रह्माजी को सौंप दिये परन्तु असुरों ने इन चार वेदों का ब्रह्मलोक से हरण कर लिया। अपहरण असुरों का सबसे प्रिय कर्म है जो वेद मनुष्यों तक पहुँचने थे, वे असुरों के पास बंधन युक्त हो गये। कालान्तर भगवान शिव को जल प्रलय करना पड़ा और ब्रह्मा जी के पुत्र मनु को जीवों की रक्षा के लिये एक दिव्य नौका का निर्माण करना पड़ा जिससे कि जल प्रलय के दौरान जीवों की सभी प्रजातियाँ सुरक्षित रह पायें परन्तु जल प्रलय की प्रचण्डता इतनी तीव्र थी कि मनु की नौका को बचाने के लिये प्रभु श्री नारायण को मत्स्य अवतार लेना पड़ा। जगत के पालनहार अपने भक्तों की रक्षा के लिए मत्स्य रूप भी धारण कर बैठे। इसे कहते हैं रामत्व, भगवान विष्णु का वह दिव्य कर्म जिससे कि प्राणी आज तक इस धरा पर फलफूल रहा है।

           कालान्तर भगवान विष्णु ने वेद रूपी महाज्ञान जन कल्याण के लिये मनु को प्रदान कर दिया। धीरे-धीरे यही वेद अनेकों दिव्य ऋषि रूपी महा विभूतियों से संस्पर्शित होते हुए अनेकों उपनिषदों, दिव्य पुराणों, ग्रंथों और अद्भुत स्त्रोतों के रूप में प्रकाशवान हुए। जैसे-जैसे आर्यों ने वेदान्त रूपी महाज्ञान को आत्मसात किया उनमें एक से एक दिव्य आभावान विभूतियाँ उत्पन्न होने लगीं परन्तु फिर एक बार अमर्यादित एवं भोगी असुरों ने इस पृथ्वी पर हाहाकार मचाना शुरू कर दिया तब इस सृष्टि में भगवान विष्णु ने त्रेता युग में प्रभु श्री राम के रूप में जन्म लिया। प्रभु श्री राम अपने अंदर समस्त वेदान्त दर्शन समाहित किये हुए हैं, उनके जीवन की प्रत्येक लीला और दिव्य कर्म वेदान्त दर्शन की शाश्वतता और सत्यता का प्रमाणीकरण करते हैं। 

           प्रभु श्री राम की दिव्य प्रेरणा से रचित वाल्मीकि रामायण और तुलसी रामायण का प्रत्येक शब्द महामंत्र है। प्रभु श्री राम के जीवन दर्शन में इस समस्त ब्रह्माण्ड का शाश्वत ज्ञान समाया हुआ है। वे विश्व बीज हैं, वे ब्रह्माण्ड नायक हैं। रामायण यही प्रमाणित करती है कि मनुष्य सर्वप्रथम ब्रह्माण्डीय रचना है इसके पश्चात ही वह राजा, रंक, ऋषि, पुत्र, पत्नी, मित्र, सेवक, गुरु इत्यादि है। इन सब चस्पों से ऊपर उठकर जीव को सर्वप्रथम ब्रह्माण्डीय मर्यादाओं को समझना चाहिये एवं उसी को मानस में रख कर जीवन के निमित्त कर्म सम्पन्न करने चाहिये। शरीर तो राजा को भी त्यागना है ऋषि को भी त्यागना है, असुर को भी त्यागना है। सभी को श्वास-प्रश्वास लेना है। सभी को सामान्य कर्म सम्पन्न करने हैं। 

          एक बार सृष्टि की मर्यादा में रहना सीख गये तो फिर जीवन में कभी भी इस धरती पर मनुष्यों द्वारा निर्मित मानकों, नियमों, तर्कों और मर्यादाओं में तिल-तिल कर जीना नहीं पड़ेगा। मनुष्य अपने जीवन के प्रारम्भ में समस्याओं के अनेकों पुराण बाँचता है। बहू सास से परेशान हो त्रिया पुराण बाँचती है। गुरु शिष्यों की अनंत समस्याओं का पुराण सुनता है। यही सब कुछ तो आजकल हो रहा है। इन सब सांसारिक पुराणों को बाँचने से आज तक भला किसे मधुरता महसूस हुई है। यह सब सांसारिक पुराण सिर्फ समस्याऐं ही बखानते हैं। इनका हल और महा औषधि दवाई की दुकान पर नहीं मिलेगी। जीवन में मानवीय सम्बन्धों की सभी समस्याओं का हल राम चरित मानस में है। 

          जब मनुष्य सब तरफ से थक जाता है, निराश हो जाता है और अपना सारा मानस कलुषित कर बैठता हैं तो उसे राम चरित मानस की याद आती है। प्रभु श्री राम की शरण में ही जीवन निर्मल, अवरोध विहीन और परम गति को प्राप्त करता है वर्ना जीवन रूपी यात्रा में तो इस कलयुग में सभी सम्बन्ध अवरोध, गड्ढे और खाइयाँ ही खोदते हैं। विष्णु का काम तो जीवन रूपी नौका की रक्षा करना ही है। अतः वे प्रभु श्री राम के रूप में इस कलयुग में हमारी जीवन यात्रा को निष्कलंक ही बनाते रहते हैं। प्रचुरता ही जीवन में समरसता और मधुरता लाती है। समरसता और मधुरता ही आनंदमय कोष में जीव को पहुँचाते हैं। महायोगी अभाव, दरिद्रता और न्यूनता के प्रवर्तक नहीं होते। महायोगी की पहचान ही यह है कि उनके आस-पास प्रचुरता, सम्पन्नता, मधुरता और आनंद की उपस्थिति होती है। 
  
                जिसने भी जीवन में प्रभु श्री राम को आत्मसात किया है उसके समस्त रोग, दरिद्रता अभाव और अज्ञान का स्वतः ही नाश हो गया है। रामत्व को आत्मसात करना ही राम राज्य की स्थापना है। राम राज्य में निवास योगी जन ही कर सकते हैं। भोगियों का अस्तित्व राम राज्य में शून्य होता है। दरिद्रता, उत्पात, अभाव, द्वेष, इत्यादि नकारात्मक प्रवृत्तियाँ वहीं उत्पन्न होती हैं जहाँ पर प्राकृतिक, दैविक और भौतिक संसाधनों का अभाव होता है। निरंतर बहने वाली गंगा के किनारे किसी भी प्राणी को प्यासा नहीं रहना पड़ता सब के सब तृप्त होते हैं, भूमि भी तृप्त होती है, वृक्ष भी तृप्त होते हैं। जो तृप्ति प्रदान करे वही रामत्व है। प्रभु श्री राम की सेवा से मनुष्य स्वयं तो तृप्त होता ही है साथ ही उसके समस्त पितर और आने वाली सात पीढ़ियाँ भी तृप्त हो जाती हैं। यही अद्भुत महिमा है श्री राम भक्ति की प्रभु श्री राम की भक्ति रूपी धारा में ही इस भारत वर्ष में अनंतकाल से अब तक असंख्यों ऋषि, मुनि, तपस्वी, साधक, चिंतक और ज्ञानी ध्यानी उत्पन्न हुये हैं। 
    
      जिस प्रकार एक वायुयान को भूमि पर उतारने के लिये उचित, सर्व सुविधा युक्त, अवरोध विहीन एवं उच्च स्तर की समतल भूमि की आवश्यकता होती है उसी प्रकार अध्यात्म पथ के जिज्ञासुओं को भी ईश तत्व के विभिन्न स्वरूपों से साक्षात्कार करने के लिये अपने मानस को प्रभु श्री राम की दिव्य लीलाओं से सम्पुट राम चरित्र मानस को सर्वप्रथम आत्मसात करना पड़ता है। इसके पश्चात ही अध्यात्म रूपी कल्प वृक्ष अंकुरित होता है। सर्वप्रथम मस्तिष्क की प्रत्येक कोशिका को योगमय होना होगा। ब्रह्माण्डीय मर्यादाओं के अनुकूल क्रियाशील होना पड़ेगा। भोग और लिप्तता की प्रवृत्ति त्यागनी होगी तभी अमृत रूपी अध्यात्म का उदय होगा। प्रभु श्री राम के शरणागत होना ही एकमात्र मार्ग है मुक्ति का यह आदि गुरु शंकराचार्य जी ने स्वयं कहा है अन्यथा विविध प्रपंचों और मायाजाल में उलझकर जन्म-जन्मांतर भटकते ही रहना पड़ेगा।

       रावण से बड़ा भोगी कौन हुआ है। वह भी एक दिन थक गया था भोग कर कर के। अतः प्रभु श्री राम के द्वारा मुक्त होने के लिये उसे भी बड़े यत्र करने पड़े हैं। रावण भी ब्राह्मण से राक्षस बना है। उसका पिता आदि शक्ति भगवती द्वारा शापित है। वह प्रकाण्ड शिव भक्त और ज्ञानी है। उसे भी मालूम था कि उसके पितरों का श्राप ग्रस्त जीवन तभी मुक्त हो पायेगा जब प्रभु श्री राम इस धरा पर आयेंगे। पतित को पावन बनाने वाले प्रभु श्री राम ही हैं। ब्राह्मण से ब्रह्म राक्षस तक की यात्रा रावण और उसके पूर्वजों ने स्वयं की बुद्धि से सम्पन्न की। भोग और विलास की यही नीति है परन्तु प्रभु श्री राम के हाथों मृत्यु प्राप्त कर वह पुनः ब्राह्मण बन गया। ब्राह्मण नहीं बनता तो प्रभु श्री राम अपने प्रिय भ्राता लक्ष्मण को युद्ध के मैदान में पड़े रावण के पास शिक्षा-दीक्षा के लिये नहीं भेजते। प्रभु श्री राम के हाथों राक्षस राज रावण के कुल के सभी पितरों के पाप धुल गये और सब के सब पुनः पावन हो गये।

          यही मर्म है रावण का प्रभु श्री राम अंतरयामी हैं। उनकी मर्मज्ञता अद्वितीय है। वे मर्म समझते हैं, सभी का वास्तव में रावण राम भक्त ही है। मृत्यु से पूर्व उसने भी प्रभु श्री राम को प्रणाम किया है। सत्य तो वह भी जानता था। असंख्य योनियों के उद्धारक प्रभु श्री राम की शरण में ही जीवन है अन्यथा शरीर धारण करना मात्र अभिशतता है रावण के समान ।

श्री राम रक्षा स्तोत्र

           भगवान विष्णु इस चराचर जगत के पालनकर्ता हैं। पालनकर्ता वही हो सकता है जो कि समग्र रूप से रक्षा करने में समर्थ हो। समग्रता के साथ रक्षा की स्थिति उत्पन्न होने पर अध्यात्म का उदय सम्भव है। अध्यात्म का उदय तभी सम्भव है जब सत्य की पहचान करने में जीव सक्षम हो एवं आसुरी शक्तियों के समस्त मायाजालों को भेदते हुए जीवन की सम्पूर्णता प्राप्त हो धर्म की स्थापना भगवान विष्णु का ध्येय है धर्म के मार्ग पर चलकर सत्य से साक्षात्कार सम्भव है। भगवान विष्णु के सभी अवतार कालानुसार जीव मात्र की रक्षा के लिए ही इस धरा पर प्रकट हुए हैं। जीव का जीवन इसीलिए अमूल्य है क्योंकि इसे बचाने के लिए भगवान विष्णु ने बड़े ही यत्न किये हैं अन्यथा आसुरी शक्तियाँ कब की अधर्म की स्थापना कर चुकी होती। जब जब भगवान विष्णु इस पृथ्वी पर अवतरित होते हैं अपने साथ समस्त देव शक्तियों और संमार्ग पर चलने वाली अन्य शक्तियों का भी प्राकट्य करते हैं। इस प्रकार इस धरा पर एक बार पुनः सद्शक्तियाँ एक साथ जन्म लेकर एक अद्भुत विष्णु परिवार की संरचना करते हुए पुनः धर्म की जड़ों को सभी जीवों में गहरे तक उतार देती हैं।

        श्री राम रक्षा स्त्रोत में भगवान विष्णु की अमोघ रक्षा व्यवस्था का ही प्रादुर्भाव है। श्री राम रक्षा स्त्रोत में भगवान विष्णु के सभी अवतारों की शक्ति समाहित है। इस स्त्रोत में माता भगवती की त्रिगुणात्मक शक्ति के रूप में माता सीता उपस्थित हैं तो वहीं भगवान विष्णु की समग्र शक्ति प्रभु श्री राम प्रदर्शित कर रहे हैं। शेषावतार श्री लक्ष्मण जी हैं एवं भरत जी और शत्रुघन के रूप में संतत्व की शक्ति दिखाई पड़ रही है। दशरथ एवं माता कौशल्या के रूप में पितृ शक्ति और मातृ शक्ति का सम्पुट है। रुद्रांश श्री हनुमंत अपने साथ नल नील, अंगद, जामवंत, विभीषण के रूप में रक्षा कवच प्रदान कर रहे हैं। प्रभु श्री राम योगी योगेश्वर का स्वरूप भी दर्शा रहे हैं। योग शक्ति से बढ़कर इस ब्रह्माण्ड में कोई भी सद शक्ति नहीं है। आसुरी शक्तियाँ भोग शक्ति में विश्वास रखती हैं। प्रभु श्री राम स्वयं कह रहे हैं रघुकुल रीत सदा चलि आई। प्राण जाहिं पर वचन न जाई ॥ 

        वे त्यागी हैं, सन्यासी हैं, तपस्वी हैं, ज्ञानी हैं एवं पुरुषों में सर्वोत्तम पुरुषोत्तम हैं। भगवान श्री कृष्ण ने कहा है शस्त्रधारियों में मैं श्री राम हूँ अर्थात प्रभु श्री राम के द्वारा धारण किये गये शस्त्र मात्र सत्य और धर्म की रक्षा के लिए ही हैं। ऋषि-मुनियों और तपस्वियों का जीवन इस पृथ्वी पर अत्यंत ही विकट एवं संघर्षमय होता है। जीवन के प्रारम्भ में वे अत्यधिक ताड़न प्राप्त करते हैं। ताड़न और भी कष्टमय हो जाता है जब वह स्वयं के रक्त सम्बन्धियों या परिवारजनों द्वारा दिया जाता है। इस प्रकार का ताड़न मृत्युतुल्य कष्ट ही प्रदान करता है। वाल्मीकि अपने जीवन के प्रारम्भ में दस्यु थे। वे प्रतिदिन मानव वध भी करते थे तो सिर्फ अपने परिवार के पालन के लिए। एक दिन उन्हें वन में नारद जी मिले उन्होंने दस्यु वाल्मीकि से कहा कि इस प्रकार का पापाचार कर जो तुम भौतिक रूप से प्राप्त कर रहे हो क्या उस पाप को तुम्हारे परिवार जन भी बाँटेंगे। नारद जी की बात सुन दस्यु वाल्मीकि परिवार वालों के पास पहुँचे जिनका पालन पोषण करने के लिए वे दस्यु बने थे उनमें से किसी एक ने भी उनके पापों में भागीदारी से साफ इन्कार कर दिया। 

            बस यहीं से वाल्मीकि का हृदय परिवर्तन हुआ। मृत्युतुल्य व्यथा में डूबे वाल्मीकि को अगर किसी ने तारा तो सिर्फ राम नाम ने वाल्मीकि रामायण की रचना ने उन्हें तारा अर्थात तारा प्रभु श्री राम ने और ताड़ना दी परिवार ने तुलसीदास जी भी प्रताड़ित हुए अपनी पत्नी के कटु वचनों से अपने ससुराल पक्ष से परन्तु तरे वह तुलसी रामायण की रचना करके। विश्वामित्र भी ताड़ित हुए हैं मेनका के द्वारा मेनका के मोह पाश में वे अपना ऋषित्व भी खो बैठे थे परन्तु प्रभु श्री राम के सानिध्य में वे भी बैकुण्ठ धाम के अधिकारी हुए और ब्रह्मऋषि कहलाये। अहिल्या भी प्रताड़ित हुई अपने पति ऋषि गौतम द्वारा अकारण ही शाप ग्रस्त हुई शिला में परिवर्तित हो गई थी। उन्हें भी तारा प्रभु श्री राम ने। 

हनुमंत एवं सुग्रीव भी प्रताड़ित हुए हैं। बालि के हाथों। सुग्रीव ने तो पत्नी और पुत्र भी खो दिये थे। उन्हें भी तारा है प्रभु श्री राम ने। विभीषण भी प्रताड़ित हुए अपने भ्राता रावण के द्वारा और अंत में प्रतिष्ठित हुए प्रभु श्री राम के द्वारा असंख्यों उदाहरण रामचरित मानस में ऐसे वर्णित हैं। प्रभु श्री राम ने तो इस समस्त जग को भव सागर से पार लगाने के लिए अवतरण लिया है। जो भी मनुष्य जीवन में सब तरफ से प्रताड़ित, अपमानित और निराश हो जाता है तब वह समग्रता के साथ पुनर्जीवन पुनः प्रभु श्री राम के चरणों में पाता है। वे अपने भक्तों की सभी प्रकार से रक्षा करते हैं। श्री राम रक्षा स्त्रोत भक्तों की रक्षा करता है दैहिक, दैविक और सांसारिक एवं अन्य प्रकार के सभी ताड़न रूपी कष्टों से। 

            चलिए अब बात करते हैं उस जीव तंत्र की जो कि समुद्र की विशाल जल राशि के अंदर स्थित है। इस जीवन तंत्र की महाव्यवस्था में प्रतिक्षण प्रत्येक जीव असुरक्षा की भावना से भयभीत है। उसके जीवन की समस्त ऊर्जा केवल अन्य जीव से स्वयं के भक्षण को बचाने में नष्ट हो जाती है। जीवन पर्यन्त वह विभिन्न क्रियाकलाप, स्वरूप परिवर्तन एवं अन्य आंतरिक व्यवस्थाओं का निर्माण सिर्फ इसलिए करता रहता है कि वह भक्षण से बच जाये पर कदापि ऐसा नहीं होता। इसका मुख्य कारण जीव के अंदर रामत्व की उपस्थिति शून्य होना है। जो जीव अपने अंदर रामत्व आत्मसात नहीं कर पाता है वह स्वयं ही भोगवादी होता है अर्थात स्वयं के जीवन के लिए दूसरे जीव का भक्षण। ऐसी स्थिति में एक न एक दिन खुद को ही किसी का ग्रास बनना पड़ेगा। निम्नगामी पशुओं में भोग का इतना विकृत स्वरूप देखने को मिलता है। कि वे कभी-कभी स्वयं के द्वारा उत्पन्न शिशु का भी भक्षण कर डालते हैं। 

        आसुरी शक्तियाँ इसी प्रकार की प्रवृत्ति से ग्रसित होती हैं। इस प्रकार के निम्म्रगामी जीवों में अध्यात्म शून्य होता है। मनुष्य योनि 84 लाख योनियों में इसलिए सर्वश्रेष्ठ है कि वह कुछ हद तक रामत्व को ग्रहण कर सकी है अर्थात योग रूपी रामत्व की व्यवस्था तो उसने आत्मसात की है। भोगवादी गुरु या राजा या अन्य पदासीन तथाकथित महापुरुष सवार होते हैं शिष्यों के कंधों पर,वे सवारी बनाते हैं स्वयं से जुड़े व्यक्तियों को, उनका काम होता है नकेल डालना अपनी शरण में आये व्यक्ति पर इसके विपरीत प्रभु श्री राम की सदशक्ति के प्रकाश में सभी आलौकित होते हैं, सभी प्राप्त करते हैं परमानंद हृदय एवं मस्तिष्क में उपस्थित सभी आघात सदा सदा के लिए विलीन हो जाते हैं।

        राम रक्षा स्त्रोत इस जगत को बुधकौशिक ऋषि से प्राप्त हुआ है, बुधकौशिक ऋषि को यह स्वप्र में भगवान शंकर से प्राप्त हुआ था। अनुष्टुप् छन्द में विरचित इस वज्रपरञ्जर स्त्रोत के ऋषि बुधकौशिक हैं, भगवती श्री सीता इसकी शक्ति हैं, भगवान श्री राम इसके देवता हैं तथा श्री हनुमान जी इसके कीलक हैं। इस स्त्रोत में विश्वाधार, विश्वसंरक्षक, पतितपावन, सर्वसमर्थ, पूर्णपुरुषोत्तम भगवान श्री सीताराम का ध्यान करने के उपरान्त अंग-प्रत्यंग की रक्षा करने के लिये उनसे प्रार्थना की गयी है। मर्यादापुरुषोत्तम भगवान श्री राम की वन्दना करने वाले का तथा उनके आश्रित रहने वाले का सर्वत्र और सर्वदा कल्याण ही होता है। लौकिक कष्ट की तो बात ही क्या, रामाश्रयी भक्त को न यमदूत भयभीत कर सकते हैं और न उसे संसार-चक्र में पड़ना पड़ता है। भगवान श्री सीताराम की प्रसन्नता प्राप्ति के लिये इस स्त्रोत का पाठ करना चाहिये।
 
            भगवान श्री सीताराम की शक्ति अनिर्वचनीय तथा अचिन्त्य है। उनकी कृपा से सांसारिक कष्ट, शरीरिक रोग और मानसिक चिन्ताऐं दूर हो सकती हैं। पाठकर्ता की श्रद्धा और भावना के अनुसार न केवल लौकिक, अपितु पारलौकिक और पारमार्थिक लाभ भी श्री रामरक्षा स्त्रोत के पाठ से होता है। इसके सिद्धकर्ता को श्रद्धा विश्वास के साथ भावपूर्वक अर्थ समझते हुए पुन: पुनः पाठ करना चाहिये, जिससे अभीष्ट प्राप्ति शीघ्र हो सके।

 विनियोग
   ॐ अस्य श्री रामरक्षास्त्रोतमंत्रस्य बुधकौशिक ऋषिः श्री सीतारामचन्द्रो देवता अनुष्टुप छन्दः सीता शक्तिः श्रीमान् हनुमान् कीलकं श्री रामचन्द्रप्रीत्यर्थे रामरक्षास्त्रोतजपे विनियोगः ।

ध्यान
ध्यायेदाजानुबाहुं धृतशरधनुषं बद्धपद्मासनस्थं पीतं वासो वसानं नवकमलदलस्पर्धिनेत्रं प्रसन्नम्।
वामाङ्कारूढसीतामुखकमलमिललोचनं नीरदाभं नानालङ्कारदीप्तं दधतमुरजटामण्डलं रामचन्द्रम् ॥

अथ श्री रामरक्षा स्तोत्रम्

चरितं रघुनाथस्य शतकोटिप्रविस्तरम् । 
एकै कमक्षरं पुंसां महापातक नाशनम् ॥ 

ध्यात्वा नीलोत्पलश्यामं रामं राजीवलोचनम् । जानकीलक्ष्मणोपेतं जटामुकुटमण्डितम् ॥

 सासितूणधनुर्बाणपाणिं, नक्तंचरान्तकम् । 
स्वलीलया जगत्त्रातुमाविर्भूतमजं विभुम् ।। 

रामरक्षां पठेत्प्राज्ञः पापघ्नीं सर्वकामदाम् । 
शिरो मे राघवः पातु भालं दशरथात्मजः ॥ 

कौशल्येयो दृशौ पातु विश्वामित्रप्रियः श्रुती । 
घ्राणं पातु मखत्राता मुखं सौमित्रिवत्सलः ।। 

जिह्वां विद्यानिधिः पातु कण्ठं भरतवन्दितः । 
स्कन्धौ दिव्यायुधः पातु भुजौ भग्नेशकार्मुकः ॥ 

करौ सीतापतिः पातु हृदयं जामदग्न्यजित् । 
मध्यं पातु खरध्वंसी नाभिं जाम्बवदाश्रयः ॥ 

सुग्रीवेश: कटी पातु सक्थिनी हनुमत्प्रभुः । 
ऊरू रघूत्तमः पातु रक्षःकुलविनाशकृत् ॥ 

जानुनी सेतुकृत्पातु जङ्घे दशमुखान्तकः । 
पादौ विभीषणश्रीदः पातु रामोऽखिलं वपुः॥ 

एतां रामबलोपेतां रक्षां यः सुकृती पठेत् । 
स चिरायुः सुखी पुत्री विजयी विनयी भवेत्॥

 पातालभूतलव्यो मचारिणश्छद्मचारिणः । 
न द्रष्टमपि शक्तास्ते रक्षितं रामनामभिः॥ 

रामेति रामभद्रेति रामचन्द्रेति वा स्मरन् । 
नरो न लिप्यते पापैर्भुक्तिं मुक्तिं च विन्दति॥ 

जगज्जैत्रैक मन्त्रेण रामनामाभिरक्षितम् । 
यः कण्ठे धारयेत्तस्य करस्थाः सर्वसिद्धयः॥

 वज्रपञ्जरनामेदं यो रामकवचं स्मरेत् । 
आव्याहताज्ञः सर्वत्र लभते जयमङ्गलम्॥ 

आदिष्टवान्यथा स्वप्ने रामरक्षामिमां हरः। 
तथा लिखितवान्प्रातः प्रबुद्धो बुधकौशिकः॥ 

आरामः कल्पवृक्षाणां विरामः सकलापदाम्। अभिरामस्त्रिलोकानां रामः श्रीमान्स नः प्रभुः॥ 

तरुणौ रूपसम्पन्नौ सुकुमारौ महाबलौ। पुण्डरीकविशालाक्षौ चीरकृष्णाजिनाम्बरौ॥

फलमूलाशिनौ दान्तौ तापसौ ब्रह्मचारिणौ। 
पुत्रौ दशरथस्यैतौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ॥ 

शरण्यौ सर्वसत्वानां श्रेष्ठौ सर्वधनुष्मताम्। रक्षःकुलनिहन्तारौ त्रायेतां नो रघूत्तमौ॥

 आत्तसज्जधनुषाविषुस्पृशावक्षयाशुगनिषङ्गसङ्गिनौ । रक्षणाय मम रामलक्ष्मणावग्रतः पथि सदैव गच्छताम्॥

 सन्नद्धः कवची खड्गी चापबाणधरो युवा । गच्छन्मनोरथान्नश्च रामः पातु सलक्ष्मणः ॥ 

रामो दाशरथिः शूरो लक्ष्मणानुचरो बली। काकुत्स्थः पुरुषः पूर्णः कौशल्येयो रघूत्तमः ॥ 

वेदान्तवेद्यो यज्ञेशः पुराणपुरुषोत्तमः । 
जानकीवल्लभः श्रीमानप्रमेयपराक्रमः ॥ 

इत्येतानि जपन्नित्यं मद्भक्तः श्रद्धयान्वितः । 
अश्वमेधाधिकं पुण्यं सम्प्रात्नोति न संशयः ॥

 रामं दूर्वादलश्यामं पद्माक्षं पीतवाससम् । 
स्तुवन्ति नामभिर्दिव्यैर्न ते संसारिणो नराः ॥ 

रामं लक्ष्मणपूर्वजं रघुवरं सीतापतिं सुन्दरं काकुत्स्थं करुणार्णवं गुणनिधिं विप्रप्रियं धार्मिकम् । 
राजेन्दं सत्यसन्धं दशरथतनयं श्यामलं शान्तमूर्ति वन्दे लोकाभिरामं रघुकुलतिलकं राघवं रावणारिम् ॥ 

रामाय रामभद्राय रामचन्द्राय वेधसे । 
रघुनाथाय नाथाय सीतायाः पतये नमः ॥ 

श्री राम राम रघुनन्दन राम राम श्री राम राम भरताग्रज राम राम । 
श्री राम राम रणकर्कश राम राम श्री राम राम शरणं भव राम राम ॥ 

श्री रामचन्द्रचरणौ मनसा स्मरामि श्री रामचन्द्रचरणौ वचसा गृणामि । 
श्री रामचन्द्रचरणौ शिरसा नमामि श्री रामचन्द्रचरणौ शरणं प्रपद्ये ॥ 

माता रामो मत्पिता रामचन्द्र: स्वामी रामो मत्सखा सर्वस्वं मे रामचन्दो रामचन्द्रः । 
दयालु नन्यं जाने नैव जाने न जाने ।। 

दक्षिणे लक्ष्मणो यस्य वामे च जनकात्मजा ।
 पुरतो मारुतिर्यस्य तं वन्दे रघुनन्दनम् ॥ 

लोकाभिरामं रणरङ्गधीरं राजीवनेत्र रघुवंशनाथम् । कारुण्यरूपं करुणाकरं तं श्री रामचन्द्रं शरणं प्रपद्ये ।।

 मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां   
वरिष्ठम् । 
वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्री रामदूतं शरणं प्रपद्ये ॥ 

 कूजन्तं रामरामेति मधुरं मधुराक्षरम् । 
आरुह्य कविताशाखां वन्दे वाल्मीकिकोकिलम् ॥

 आपदामपहर्तारं दातारं सर्वसम्पदाम् । 
लोकाभिरामं श्री रामं भूयो भूयो नामाम्यहम् ॥ 

भर्जनं भवबीजानामर्जनं सुखसम्पदाम् । 
तर्जनं यमदूतानां रामरामेति गर्जनम् ॥ 

रामो राजमणिः सदा विजयते रामं रमेशं भजे रामेणाभिहता निशाचरचमू रामाय तस्मै नमः । 
रामान्नास्ति परायणं परतरं रामस्य दासोऽहं रामे चित्तलयः सदा भवतु मे भो राम मामुद्धर ॥ 

राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे। 
सहस्त्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने ॥ 

इति श्री बुधकोशिकमुनिविरचितं श्री रामरक्षास्त्रोतं सम्पूर्णम् ।


इस रामरक्षास्तोत्र-मंत्र के बुधकौशिक ऋषि हैं। सीता और रामचन्द्र देवता हैं, अनुष्टुप् छन्द है, सीता शक्ति हैं श्रीमान् हनुमान जी कीलक हैं तथा श्री रामचन्द्र जी की प्रसन्नता के लिये रामरक्षास्तोत्र के जप में विनियोग किया जाता है।

ध्यान-
 जो धनुष-बाण धारण किये हुए हैं, बद्धपद्मासन से विराजमान हैं, पीताम्बर पहने हुए हैं, जिनके प्रसन्न नयन नूतन कमलदल से स्पर्धा करते तथा वामभाग में विराजमान श्री सीता जी के मुखकमल से मिले हुए हैं उन आजानुबाहु, मेघश्याम, नाना प्रकार के अलङ्ककारों से विभूषित तथा विशाल जटाजूटधारी श्री रामचन्द्र जी का ध्यान करें।

श्री रघुनाथ जी का चरित्र सौ करोड़ विस्तार वाला है और उसका एक-एक अक्षर भी मनुष्यों के महान पापों को नष्ट करने वाला है।
जो नीलकमल दल के समान श्यामवर्ण, कमलनयन, जटाओं के मुकुट से सुशोभित, हाथों में खड्ग, तूणीर, धनुष और बाण धारण करने वाले, राक्षसों के संहारकारी तथा संसार की रक्षा के लिये अपनी लीला से ही अवतीर्ण हुए हैं, उन अजन्मा और सर्वव्यापक भगवान राम का जानकी और लक्ष्मण जी के सहित स्मरण कर प्रज्ञा पुरुष इस सर्वकामप्रदा और पापविनाशिनी रामरक्षा का पाठ करें। मेरे सिर की राघव और ललाट की दशरथात्मज रक्षा करें। कौसल्यानन्दन नेत्रों की रक्षा करें, विश्वामित्रप्रिय कानों को सुरक्षित रखें तथा यज्ञरक्षक घ्राण की और सौमित्रिवत्सल मुख की रक्षा करें।

मेरी जिह्वा की विद्यानिधि, कण्ठ की भरतवन्दित, कन्धों की दिव्यायुध और भुजाओं की भग्रेशकार्मुक (महादेव जी का धनुष तोड़ने वाले) रक्षा करें।

हाथों की सीतापति, हृदय की जामदग्न्यजित् (परशुराम जी को जीतने वाले), मध्यभाग की खरध्वंसी (खर नाम के राक्षस का नाश करने वाले) और नाभि की जाम्बवदाश्रय (जामवंत के आश्रयस्वरूप) रक्षा करें।

कमर की सुग्रीवेश (सुग्रीव के स्वामी), सक्थियों की हनुमत्प्रभु और ऊरुओं की राक्षस लविनाशक रघुश्रेष्ठ रक्षा करें। 
जानुओं की सेतुकृत, जंघाओं की दशमुखान्तक (रावण) को मारने वाले), चरणों की विभीषणश्रीद (विभीषण को ऐश्वर्य प्रदान करने वाले) और सम्पूर्ण शरीर की श्री राम रक्षा करें।

जो पुण्यवान पुरुष रामबल से सम्पन्न इस रक्षा का पाठ करता है वह दीर्घायु, सुखी, पुत्रवान, विजयी और विनयसम्पन्न हो जाता है।

जो जीव पाताल, पृथ्वी अथवा आकाश में विचरते हैं और जो छद्मवेश में घूमते रहते हैं वे राम नामों से सुरक्षित पुरुष को देख भी नहीं सकते।

राम, रामभद्र, रामचन्द्र इन नामों का स्मरण करने से मनुष्य पापों से लिप्त नहीं होता तथा भोग और मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
जो पुरुष जगत को विजय करने वाले एकमात्र मंत्र राम नाम से सुरक्षित इस स्तोत्र को कण्ठ में धारण करता है (अर्थात इसे कण्ठस्थ कर लेता है) सम्पूर्ण सिद्धियाँ उसके हस्तगत हो जाती हैं।

जो मनुष्य वज्रपञ्जर नामक इस रामकवच का स्मरण करता है उसकी आज्ञा का कहीं उल्लंघन नहीं होता और उसे सर्वत्र जय और मंगल की प्राप्ति होती है।

श्री शंकर ने रात्रि के समय स्वप्न में इस रामरक्षा का जिस प्रकार आदेश दिया था उसी प्रकार प्रातःकाल जागने पर, बुधकौशिक ने इसे लिख दिया।

जो मानो कल्पवृक्षों के बगीचे हैं तथा समस्त आपत्तियों का अंत करने वाले हैं, जो तीनों लोकों में परम सुन्दर हैं वे श्रीमान राम हमारे प्रभु हैं।

जो तरुण अवस्थावाले, रूपवान, सुकुमार, महाबली, कमल के समान विशाल नेत्रवाले, चीरवस्त्र और कृष्णमृगचर्मधारी, फल-मूल आहार करने वाले, संयमी, तपस्वी, ब्रह्मचारी, सम्पूर्ण जीवों को शरण देने वाले समस्त धनुर्धारियों में श्रेष्ठ और राक्षसकुल का नाश करने वाले हैं वे रघुश्रेष्ठ दशरथकुमार राम और लक्ष्मण दोनों भाई हमारी रक्षा करें।

जिन्होंने सन्धान किया हुआ धनुष ले रखा है, जो बाण का स्पर्श कर रहे हैं तथा अक्षय बाणों से युक्त तूणीर लिये हुए हैं वे राम और लक्ष्मण मेरी रक्षा करने के लिये मार्ग में सदा ही मेरे आगे चलें।

सर्वदा उद्यत, कवचधारी, हाथ में खड्ग लिये, धनुष बाण धारण किये तथा युवा अवस्थाकाल ले भगवान राम लक्ष्मण जी के सहित आगे-आगे चलकर हमारे मनोरथों की रक्षा करें।

भगवान का कथन है कि राम, दाशरथि, शूर, लक्ष्मणनुचर, बली, काकुत्स्थ, पुरुष, पूर्ण, कौसल्येय, रघूत्तम, वेदान्तवेद्य, यज्ञेश, पुरुषोत्तम, जानकीवल्लभ, श्रीमान और अप्रमेयपराक्रम इन नामों का नित्यप्रति श्रद्धापूर्वक जप करने से मेरा भक्त अश्वमेघ यज्ञ से भी अधिक फल प्राप्त करता है इसमें कोई सन्देह नहीं।

जो लोग दूर्वादल के समान श्यामवर्ण, कमलनयन, पीताम्बरधारी, भगवान राम का इन दिव्य नामों से स्तवन करते हैं वे संसारचक्र में नहीं पड़ते।

लक्ष्मण जी के पूर्वज, रघुकुल में श्रेष्ठ, सीताजी के स्वामी, अति सुन्दर, ककुत्स्थकुलनन्दन, करुणासागर,


 गुणनिधान, ब्राह्मणभक्त, परम धार्मिक, राजराजेश्वर, सत्यनिष्ठ, दशरथपुत्र, श्याम और शान्तमूर्ति, सम्पूर्ण लोकों में सुन्दर रघुकुलतिलक, राघव और रावणारि भगवान राम की मैं वन्दना करता हूँ।

राम,रामभद्र,रामचन्द्र,विधातृस्वरूप,रघुनाथ प्रभु सीतापति को नमस्कार है।

हे रघुनन्दन श्री राम! हे भरताग्रज भगवान राम! हे रणधीर प्रभु राम ! आप मेरे आश्रय होइये ।

मैं श्री रामचन्द्र जी के चरणों का मन से स्मरण करता हूँ,श्री रामचन्द्र के चरणों का वाणी से कीर्तन करता हूँ,श्री रामचन्द्र के चरणों को सिर झुकाकर प्रणाम करता हूँ तथा श्री रामचन्द्र के चरणों की शरण लेता हूँ

राम मेरी माता हैं,राम मेरे पिता हॅ,राम स्वामी हैं और राम ही मेरे सखा हैं। दयामय रामचन्द्र ही मेरे सर्वस्व हैं, उनके सिवा और किसी को मैं नहीं जानता बिलकुल नहीं जानता।

जिनकी दायीं ओर लक्ष्मण जी,बायीं ओर जानकी जी और सामने हनुमान जी विराजमान हैं उन रघुनाथजी की मैं वन्दना करता हूँ।

जो सम्पूर्ण लोकों में सुन्दर,रणक्रीड़ा में धीर, कमलनयन, रघुवंशनायक, करुणामूर्ति और करुणा के भण्डार हैं उन श्री रामचन्द्र जी की मैं शरण लेता हूँ। जिनकी मन के समान गति और वायु के समान वेग है, जो परम जितेन्द्रिय और बुद्धिमानों में श्रेष्ठ हैं उन पवननन्दन वानराग्रगण्य श्री रामदूत की मैं शरण लेता हूँ।

कवितामयी डाली पर बैठकर मधुर अक्षरों वाले राम- राम इस मधुर नाम को कूंजते हुए वाल्मीकि रूप कोकिल की मैं वन्दना करता हूँ।

आपत्तियों को हरने वाले तथा सब प्रकार की सम्पत्ति प्रदान करने वाले लोकाभिराम भगवान राम को बारंबार नमस्कार करता हूँ।

राम राम ऐसा घोष करना सम्पूर्ण संसार बीजों को भून डालने वाला, समस्त सुख-सम्पत्ति प्राप्ति कराने वाला तथा यमदूतों को भयभीत करने वाला है।

राजाओं में श्रेष्ठ श्री राम जी सदा विजय को प्राप्त होते हैं। मैं लक्ष्मीपति भगवान राम का भजन करता हूँ जिन रामचन्द्रजी ने सम्पूर्ण राक्षससेना का ध्वंस कर दिया था, मैं उनको प्रणाम करता हूँ। राम से बड़ा और कोई भी आश्रय नहीं है। मैं उन रामचन्द्रजी का दास हूँ। मेरा चित्तसदा राम में ही लीन रहे; हे राम! आप मेरा उद्धार कीजिए।

श्री महादेव जी पार्वती जी से कहते हैं- हे सुमुखि रामनाम विष्णु सहस्त्रनाम के तुल्य है। मैं सर्वदा राम, राम,राम इस प्रकार मनोरम राम-नाम में ही रमण करता हूँ।

सिद्ध करने की विधि 

श्री रामरक्षा स्त्रोत का प्रयोग करने से पूर्व इसे सिद्ध कर लेना चाहिये अन्यथा पूर्ण फल की प्राप्ति में शंका रहती है। इस स्त्रोत को सिद्ध करने की संक्षिप्त विधि इस प्रकार है इसे सिद्ध करने का समय नवरात्रि है। नवरात्रि साल में मुख्य रूप से दो बार आती है किन्तु चैत्र मास में श्री रामनवमी पर पूर्ण होने वाली नवरात्रि अधिक उपयुक्त है। चैत्र मास या अश्विन मास के शुक्ल पक्ष के नवरात्रि में नौ दिनों (अर्थात प्रतिपदा से नवमी तिथि ) तक प्रतिदिन ब्रह्म मुहूर्त में स्नानादि तथा नित्यकर्म से निवृत्त होकर, शुद्ध वस्त्र धारण कर,कुश के आसन पर सुखासन में पूर्वाभिमुख या उत्तराभिमुख होकर बैठे। सामने भगवान राम का दरबार चित्र या भगवान श्री सीताराम जी का चित्र अथवा श्री हनुमान जी का चित्र होना चाहिये। चन्दन पुष्पादि से पूजन करके इस महान फलदायी स्तोत्र को सिद्ध करने के लिये इसका ग्यारह बार पाठ नियमित रूप से प्रतिदिन करना चाहिये। पाठ के समय अखण्ड प्रज्वलित दीपक तथा धूप रखना चाहिए।

       भगवान श्री सीताराम की कृपाशक्ति के प्रति आपकी जितनी अखण्ड निष्ठा श्रृद्धा होगी, उतना ही फल प्राप्त होगा। नवमी के दिन यथा शक्ति ब्राह्मण भोजन भी करवा देना चाहिए। यह स्त्रोत नवरात्रि में सिद्ध किया जाय तो सर्वोत्तम, अन्यथा भारतीय पंचाङ्ग के अनुसार किसी भी मास के शुक्लपक्ष के प्रथम नौ दिनों में अर्थात् प्रतिपदा से नवमी तिथि तक उपर्युक्त प्रकार से नियमित पाठ करके इस स्त्रोत को सिद्ध किया जा सकता है। यह स्त्रोत श्री हनुमान जी के द्वारा कीलित है इस उत्कीलन के सम्बन्ध में मैं तो केवल यह कह सकता हूँ कि इसका उत्कीलन श्री हनुमान जी की कृपा से होता है। अतः सिद्ध करते समय या प्रयोग करते समय श्री हनुमान जी का संरक्षण एवं उनकी कृपा प्राप्त करने के लिये प्रारम्भ में और समापन पर श्री हनुमान जी का ध्यान, कृपाहेतु प्रार्थना प्रणामादि श्रद्धा एवं भक्तिपूर्वक करते रहना चाहिये। इससे हनुमान जी साधक को संरक्षण एवं सिद्धि देते हैं। 

        वास्तव में तो उत्कीलन का रहस्य यह है कि हनुमान जी के संरक्षण में उनके समान ही भक्ति एवं श्रद्धा से पाठ तथा प्रयोग करना चाहिये ।चाहिये । सिद्ध कर लेने के बाद एक पाठ नित्य कर लेना चाहिये । इसे सिद्ध करने से पूर्व इसे कण्ठाग्र कर लेना भी आवश्यक है। 
यथा यः कण्ठे धारयेत्तस्य करस्था: सर्वसिद्धयः।
सभी प्रकार के मनोरथ पूर्ण करने में यह स्त्रोत समर्थ है ।

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