नर - नारायण की संप्रदाय - परंपरा से प्राप्त ज्ञान का नाम 'नार 'है ,उस ज्ञान का जो दान करे उसका नाम है नारद।
अथवा नर के हृदय में जो अज्ञानता है उसका जो नाश कर दे उसे, नारद कहते है।
"नरस्य सम्बन्धि अज्ञानं द्युति"
अथवा माता के नार माने नाल नाली जन्म मरण ही गन्दी नाली है,नार या नाली से जो छुड़ा दे उसका नाम नारद है।
नार-- आत्मज्ञान√दा (देना)+क।
'द' अक्षर का अर्थ होता है देना, दिलवाना, प्रदान करना।
'नार' कहते हैं पानी को।
इसी से 'नारायण' और 'नारद' दोनों बने हैं।
नार + अयन = नारायण
नार यानी पानी हो अयन (निवास) जिसका , वही नारायण अर्थात् विष्णु है।
क्षीरसागर में वास करने के कारण विष्णु को नारायण कहा जाता है।
नार + द = नारद
नार को जो प्रदान करे अर्थात् नार में जो किसी मनुष्य को पहुँचा सके , विष्णु से मिलवा सके ,वही नारद है।
कुछ लोग कहते हैं कि नारद मुनि लड़ाई करवाते रहते हैं, इनका काम बस एक दूसरे के खिलाफ भड़काना है, जबकि ये बात एकदम गलत है। नारद जी जिनको भी मिले उन्हें भगवान जरूर मिले हैं,और नारद जी को भगवान का मन कहा गया है।
नारद के जन्म की कथा--
ब्रह्मवैवर्तपुराण में आया है कि नारद जी ब्रह्मा जी के मानस पुत्र हैं,और ब्रह्माजी के कंठ से पैदा हुए हैं।
ब्रह्माजी ने इन्हें उत्पन्न किया और कहा की बेटा जाओ, और जाकर सृष्टि को आगे बढाओ , सृष्टि कार्य में सहयोग करो। लेकिन नारद जी ने साफ -साफ मना कर दिया।
नारद जी सोचते हैं-
ऐसा कौन मूर्ख होगा जो भगवान के नाम रूपी अमृत को छोड़कर विषय नामक विष का भक्षण करेगा?
जब इन्होंने मना किया तो ब्रह्मा जी ने शाप दिया-
तुम अपने पिता की बात को नहीं मानते हो, जाओ मेरे शाप से तुम्हारा ज्ञान नष्ट हो जायेगा और तुम गन्धर्व योनि को प्राप्तकर कामविलास रत स्त्रियों के वशीभूत हो जाओगे।
नारद जी ने विचार किया-
जो बुरे मार्ग पर चले ऐसे कुमार्गी को शाप देना ठीक है लेकिन मुझे अकारण ही शाप दे दिया गया ये गलत है।
फिर भी अपने पिता से नारद जी कहते हैं- इतनी कृपा कीजिए जिन-जिन योनियों में मेरा जन्म हो, वहां भगवान की भक्ति मुझे कभी न छोड़े।
ऐसा आग्रह करके नारद जी ने अपने पिता को भी शाप दे डाला हे पिताजी ! आपने मुझे बिना अपराध के शाप दिया है अत: मैं भी आपको यह शाप देता हूँ कि तीन कल्पों तक लोक में आपकी पूजा नहीं होगी और आपके मन्त्र, स्त्रोत, कवच आदि का लोप हो जायेगा।’
पिता के शाप के कारण ये गंधर्व योनि में पैदा हुए,इनका नाम था उपबर्हण,इन्हें अपने रूप का बड़ा अभिमान था।
एक बार ब्रह्माजी की सभा में सभी देवता और गंधर्व भगवन्नाम का संकीर्तन करने के लिए आए, उपबर्हण (नारदजी) भी अपनी पत्नियों के साथ श्रृंगार भाव से उस सभा में गए। "उपबर्हण" का यह अशिष्ट आचरण देख कर ब्रह्मा कुपित हो गये और उन्होंने उसे ‘शूद्र योनि’ में जन्म लेने का श्राप दे दिया।
महर्षि नारद के पूर्वजन्म की कथा
इनके इस जन्म की कथा का श्रीमद भागवत पुराण में विस्तार से वर्णन है जो इस प्रकार है—
श्री वेदव्यास जी ने वेदों की रचना की फिर उन्होंने एक ही वेद के चार विभाग कर दिये---
1. ऋग्वेद
2. यजुर्वेद
3. सामवेद
4. अथर्ववेद
पुराण लिखे, महाभारत लिखा,इतना सब लिखने के बाद भी इनके हृदय को सन्तोष नहीं हुआ।
उनका मन कुछ खिन्न-सा हो गया,सरस्वती नदी के पवित्र तट पर एकान्त में बैठकर धर्मवेत्ता व्यासजी मन-ही-मन विचार करते हुए इस प्रकार कहने लगे—
मैंने इतना सब लिखा लेकिन मेरा हृदय कुछ अपूर्ण काम-सा जान पड़ता है,जरूर कुछ न कुछ रह गया है तभी देवर्षि नारदजी वहां आ पहुँचे, उन्हें आया देख व्यासजी तुरन्त खड़े हो गये और देवर्षि नारद की विधि पूर्वक पूजा की ।
नारदजी कहते हैं—
व्यास जी! आपने इतना सब कुछ लिख दिया आप संतुष्ट तो हैं न?
व्यासजी कहते हैं—
इतना सब लिखने के बाद भी मुझे संतोष नही हो रहा है। मेरा हृदय सन्तुष्ट नहीं है। पता नहीं, इसका क्या कारण है। आपका ज्ञान अगाध है।
आप कृपा करके इसका कारण बताइये?
नारदजी ने कहा—
व्यासजी! मेरी ऐसी मान्यता है कि जिससे भगवान संतुष्ट नहीं होते, वह शास्त्र या ज्ञान अधूरा है,आपने धर्म का वर्णन किया, अर्थ का वर्णन किया।
लेकिन भगवान श्रीकृष्ण की महिमा का वैसा निरूपण नहीं किया जैसा आपको करना चाहिए था,आप भगवान की लीलाओं का वर्णन कीजिये,आप ऐसे ग्रन्थ का निर्माण कीजिये जो भक्ति, ज्ञान और वैरागय से परिपूर्ण हो।
मैं आपको अपने पूर्वजन्म का वर्तान्त सुनाता हूँ--
पिछले कल्प में अपने पूर्वजीवन में मैं वेदवादी ब्राह्मणों की दासी का लड़का था। एक बार कुछ संत चातुर्मास करने हमारे गाँव में आये,वे प्रतिदिन सत्संग करते थे और मेरी माँ मुझे उस सत्संग में साथ ले जाती थी। एक दिन सत्संग के बाद विशाल भंडारे का आयोजन हुआ।
मेरी माँ उस भंडारे में बर्तन मांज रही थी,और मैं वहां पर खेल रहा था तभी कुछ संत आये और बोले बेटा! तेरी माँ कितनी संत देवी है तू भी कुछ सेवा कर,मैं छोटा सा पांच वर्ष का बालक था। मुझे संतों ने कहा की जब संत भोजन कर लें तब तू झूठी पत्तलों को बाहर फेंक कर आ जा।
मैं संतों की सेवा में लग गया और मुझे पत्तल फेंकते-फेंकते सुबह से शाम हो गई लेकिन किसी ने मुझे भोजन के लिए नही पूछा। मुझे बहुत भूख लगी थी मैंने एक बरतनों में लगा हुआ संत का झूठा प्रसाद खा लिया। आपको क्या बताऊं की मेरे इस प्रसाद को खाने से आत्मा तृप्त हो गई।
इससे मेरे सारे पाप धुल गये, इस प्रकार उनकी सेवा करते-करते मेरा हृदय शुद्ध हो गया और वे लोग जैसा भजन-पूजन करते थे, उसी में मेरी भी रुचि हो गयी,और मुझे ऐसा करते हुए एक संत ने अपने पास बुलाया, और खाने के लिए भोजन दिया।
जब उनका चातुर्मास पूरा हुआ और वो जाने लगे तो उन्होंने मुझे एक मन्त्र दिया।
जिसे वासुदेव गायत्री मन्त्र कहा जाता है--
"ॐ नमो भगवते तुभ्यं वासुदेवाय धीमहि।
प्रद्युम्नायानिरुद्धाय नमः सङ्कर्षणाय च॥"
‘प्रभो! आप भगवान श्रीवासुदेव को नमस्कार है,हम आपका ध्यान करते हैं। प्रद्युम्न, अनिरुद्ध और संकर्षण को भी नमस्कार है’।
मैं दिन रात इस मन्त्र का जप करता और भगवान का ध्यान करता रहता था, लेकिन मेरी माँ मुझे ध्यान नहीं करने देती थी। जब भी मैं ध्यान में बैठ जाता था तो कभी मुझे कहती की बेटा, तेरे दोस्त तुझे खेलने के लिए बुला रहे हैं, कभी कहती दूध पी लो, कभी कहती भोजन कर लो, उसने अपने को मेरे स्नेहपाश से जकड़ रखा था।
एक दिन की बात है, मेरी माँ गौ दुहने के लिये रात के समय घर से बाहर निकली, रास्ते में उसके पैर से साँप छू गया, उसने उस बेचारी को डस लिया,उस साँप का क्या दोष, काल की ऐसी ही प्रेरणा थी, मैंने समझा, भक्तों का मंगल चाहने वाले भगवान का यह भी एक अनुग्रह ही है।
इसके बाद मैं उत्तर दिशा की ओर चल पड़ा,फिर मैं एक वन में गया वहां पीपल के नीचे आसन लगाकर मैं बैठ गया,और उन संत-महात्माओं द्वारा दिए हुए मन्त्र का जप करने लगा।
भगवान के चरण - कमलों का ध्यान करते ही भगवत-प्राप्ति की उत्कट लालसा से मेरे नेत्रों में आँसू छलछला आये और हृदय में धीरे-धीरे भगवान प्रकट हो गये।
फिर कुछ समय बाद भगवान की आकाशवाणी हुई कि –
‘खेद है कि इस जन्म में तुम मेरा दर्शन नहीं कर सकोगे। जिनकी वासनाएँ पूर्णतया शान्त नहीं हो गयीं हैं, उन अधकचरे योगियों को मेरा दर्शन अत्यन्त दुर्लभ है, लेकिन अगले जन्म में तुम्हें मेरे दर्शन जरूर होंगे,और अब मैं भगवान की भक्ति और कृपा के कारण नारद हूँ।
मैं भगवान की कृपा से वैकुण्ठादि में और तीनों लोकों में बाहर और भीतर बिना रोक-टोक विचरण किया करता हूँ,मेरे जीवन का व्रत भगवद्भजन अखण्ड रूप से चलता रहता है ।
मुझे भगवान ने एक वीणा दी है,जिसमे मैं सिर्फ भगवान की लीलाओं का गुणगान करता हूँ--
"देवदत्तामिमां वीणां स्वरब्रह्मविभूषिताम्।
मूर्च्छयित्वा हरिकथां गायमानश्चराम्यहम्॥"
भगवान की दी हुई इस स्वर ब्रह्म से विभूषित वीणा पर तान छेड़कर मैं उनकी लीलाओं का गान करता हुआ सारे संसार में विचरता हूँ,जब मैं उनकी लीलाओं का गान करने लगता हूँ, तब वे प्रभु,जिनके चरण कमल समस्त तीर्थों के उद्गम स्थान हैं और जिनका यशोगान मुझे बहुत ही प्रिय लगता है, बुलाये हुए की भाँति तुरन्त मेरे हृदय में आकर दर्शन दे देते हैं।
जिन लोगों का चित्त निरन्तर विषय भोगों की कामना से आतुर हो रहा है, उनके लिये भगवान की लीलाओं का कीर्तन संसार सागर से पार जाने का जहाज है, यह मेरा अपना अनुभव है।
व्यासजी! आप निष्पाप हैं, आपने मुझसे जो कुछ पूछा था, वह सब अपने जन्म और साधना का रहस्य तथा आपकी आत्मतुष्टि का उपाय मैंने बतला दिया,आप श्रीमद भागवत ग्रन्थ का निर्माण कीजिये, इस प्रकार नारद जी ने अपना पुर्जन्म सुनाया और व्यास जी का असंतोष दूर किया।
व्यास जी ने श्रीमदभागवत पुराण का निर्माण किया।
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