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ॐ कृष्णकायाम्बिकाय विद्महे पार्वती रूपाय धीमहि । तन्नो कालिका प्रचोदयात ॥

           ॐ कृष्णकायाम्बिकाय विद्महे पार्वती रूपाय धीमहि । तन्नो कालिका प्रचोदयात ॥ यही वह मंत्र है जिसके द्वारा भगवती कालिका को अर्घ्य प्रदान कर जगद् गुरु श्रीकृष्ण एवं श्रीविद्योधारक भगवान दत्तात्रेय मंदिरापान के दोष से मुक्त हुए, इसी मंत्र के द्वारा परशुराम जिन्होंने कि अपनी माता का वध किया था मातृ वध के महापाप से मुक्त हुए। राम एवं हनुमान ने जब इस मंत्र से महाकालिका का तर्पण किया तब जाकर वे ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्त हुए, काशी में कालभैरव भी ब्रह्मा के शिरोच्छेदन के कारण ब्रह्म-हत्या के पाप से इसी मंत्र के द्वारा मुक्त हुए, उनके पीछे भी कृत्या लग गई थी। यही वह महामंत्र है जिसे जब बुद्ध ने सिद्ध किया तब उग्रतारा के रूप में भगवती प्रत्यंगिरा का प्राकट्य हुआ और वेद-निंदा के पाप से बुद्ध का बुद्धत्व मुक्त हुआ। इसी महामंत्र को पढ़कर जब स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने कलकत्ता की वेश्याओं की आँखों में शक्तिपात किया तो क्षण भर में ही वेश्यावृत्ति में लीन वेश्याओं के समस्त पाप धुल गये, वे निर्मल हो गईं, उनका हृदय परिवर्तन हो गया एवं रामकृष्ण मिशन के निर्माण की प्रारम्भिक अवस्था में इन पवित्र स्त्रियों ने तन- मन-धन से असीम योगदान दिया। 

           प्रवचनकर्ता कहते हैं माया मल है, मल से ढँका शिव जीव है। कहने से क्या होता है ? कहते रहो। लाओ वह साबुन, वह डिटर्जेंट, वह परम औषधि जो कि मन पर लगे तन पर लगे, आत्मा से चिपटे,मस्तिष्क में घुसे, हृदय पर आरूढ़ मल को धो सके, धब्बों को मिटा सके तब तो कोई बात हैं। हम बदरंग हो रहे हैं, हम धूमिल हो रहे हैं, हम बदबू मार रहे हैं क्योंकि मल में से बदबू आती है खुशबू नहीं, मल सड़ान्ध उत्पन्न करता है अतः हम सड़ रहे हैं, मल गलाता है अत: हम गल रहे हैं। मल हमें अछूत बनाता है, मल हमें तिरस्कृत बनाता है अतः कहने से कुछ नहीं होगा अपितु इस मल का निवारण चाहिए। हे भगवती कालिका तु ही मल का निवारण कर सकती हैं, तू ही मल का भक्षण कर सकती है, तू ही हमें मल-चक्र से बचा सकती है। किसी ने मुझस कहा हमारे लड़के का पूजा में मन नहीं लगता भगवान में उसे विश्वास नहीं है, उसका भगवान पर से विश्वास उठ गया है। मैने कहा तुम कहती हो परन्तु वास्तव में सत्य यह है कि भगवान का तुम्हारे बेटे में मन नहीं लगता, भगवान को तुम्हारे बेटे में विश्वास नहीं रहा, भगवान तुम्हारे बेटे से दूर हो गया है इसलिए वह भोग रहा है, भटक रहा है, दर-दर की ठोकरें खा रहा है। मैंने कहा जब मेरी तुम्हारे बेटे में रुचि नहीं है, मैं उस पर विश्वास नहीं करता, मेरा विश्वास उस पर से उठ गया है तो फिर भगवान तो बहुत दूर की बात है। 

            भगवान तो मनुष्य को बनाया और उसे कृपा करके इच्छा-स्वातंत्र दिया अतः भगवान मनुष्य के इच्छा स्वातंत्र के प्रति प्रतिबद्ध है। इच्छा भगवान ने ही दी है अतः मनुष्य अपनी इच्छानुसार जीवन जी सकता है जैसी उसकी मर्जी इच्छा-स्वातंत्र को समझना जरूरी है आप चाहो तो चार मंजिला इमारत पर खड़े होकर छलांग लगा सकते हो आपकी इच्छा एवं आपका परिणाम आप चाहो तो चार मंजिला इमारत पर खड़े होकर छलांग लगाने वाले को रोक सकते हो, आप चाहो तो चार मंजिला इमारत भी बना सकते हो जैसी आपकी इच्छा एवं यह श्री प्रत्यंगिरा के लेख का रहस्य बिन्दु है। आप चाहो तो प्रत्यंगिरा की शरण में रह सकते हो और अपनी इच्छा को श्री कालिका इच्छा, श्री त्रिपुरा इच्छा में विलीन कर स्व-इच्छा का त्याग कर परा-इच्छा के अंतर्गत आनंदमय कोष में भी रह सकते हो। तब जीवन द्वंद-विहीन होगा, तब जीवन शत्रु विहीन होगा, तब जीवन भय विहीन होगा तब जीवन असुरक्षा- विहीन होगा क्योंकि आपके साथ महाप्रत्यंगिरा चलेगीं। 

        शिव की कोई इच्छा नहीं है, शिव इच्छा विहीन है इसलिए प्रत्यंगिरा उनके साथ खड़ी रहती हैं। विष्णु भी इच्छा विहीन है इसलिए महामाया के रूप में प्रत्यंगिरा उनके साथ रहती हैं। महाजल प्रलय के समय वट वृक्ष के पत्ते के ऊपर अपने पाँव का अंगूठा चूसते हुए श्री बाल मुकुन्दम मुस्कुरा रहे थे और मार्कण्डेय ने देखा कि पीछे साक्षात् महामाया स्वरूपिणी महा प्रत्यंगिरा खड़ी हुई हैं एवं बाल मुकुन्दम को निर्भयता प्रदान कर रही हैं। चिंता मत कर मैं हूँ न, मैं ही कर्ता मैं ही धर्ता मैं ही मर्ता, मैं ही प्रलय, मैं ही सृष्टि, मैं ही आत्मा, मैं ही परमात्मा, मैं ही दिव्यात्मा, मैं ही पुण्यात्मा, मैं ही सर्वात्मा, मैं ही ब्रह्मात्मा अर्थात जो कुछ हूँ मैं ही हूँ। जो कुछ करूंगी मैं ही करूंगी, मैं ही करवाऊंगी। मैं ही कारण, मैं ही कार्य, मैं ही क्रिया अतः "नमोऽस्तुते नमोऽस्तुति, आदि-बिन्दु नमोऽस्तुते। 

       महाप्रत्यंगिरा सिद्धि के क्या लक्षण हैं? क्यों मैं तुम्हें ज्ञान दे दूं? क्यों मैं तुम्हें माता-पिता, बंधु-बांधव, मित्र, सहयोगी, पुत्र-पुत्री, पत्नी, रिश्तेदार इत्यादि-इत्यादि कह दूं? क्यों मैं तुम्हें पूजूं ? क्यों पुजवाऊं? क्योंकि इन सबमें कृत्य है। कृत्य का तात्पर्य है। कि कर्म कर्म करोगे तो कृत्य होगा, कृत्य करोगे तो कृत्या चलेगी, कृत्या चलेगी तो प्रतिक्रिया होगी, प्रतिक्रिया लौटकर आयेगी एवं लौटकर आयेगी तो अपने साथ बहुत कुछ लेकर आयेगी अतः हमें हिसाब किताब रखना पड़ेगा और इस प्रकार महा संसार चक्र प्रारम्भ हो जायेगा, एक नई सृष्टि की रचना के आप केन्द्र बिन्दु बन जायेंगे।

           जो अच्छा काम करता है उसके सबसे ज्यादा शत्रु होते हैं। जितने लोग बुरा काम करते हैं वे अच्छे काम करने वालों के घोर शत्रु हो जाते हैं। जो सेवा करते हैं उनके भी बहुत शत्रु हो जाते हैं, जितने शोषण करने वाले होंगे वे आपके कट्टर शत्रु हो जायेंगे। क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। आप चोर को पकड़ोगे तो समस्त चोर समुदाय आपका शत्रु हो जायेगा, आप उपद्रवियों को मारोगे तो उपद्रवी पूरी ताकत से आपके खिलाफ शत्रुता भजाने लगेंगे, आप पाखण्ड का विरोध करोगे तो जितने पाखण्डी हैं सब आपके शत्रु हो जायेंगे। आप सत्य बोलोगे तो जितने असत्य के साधक हैं वे सब उठ खड़े होंगे। कृष्ण पाण्डवों के साथ खड़े हो गये तो समस्त विश्व दुर्योधन के साथ खड़ा हो गया कृष्ण का शत्रु बनकर, सबने एक स्वर में कहा कि कृष्ण को मार डालो अर्जुन को तो हम मसल देंगे। दूसरा पक्ष भी अस्त्र-शस्त्रों से लैस होता है, तप होता है उनके पास, ज्ञान होता है उनके पास, विज्ञान होता है, उनके पास उनके कुल देवता, उनके शुभ चिंतक, उनकी माताएं, उनके बंधु बांधव, उनके शिष्य, उनकी प्रजा, उनके देवी-देवता इत्यादि पूरी ताकत के साथ, पूरे समर्थन के साथ उनके साथ होते हैं और ऐसी स्थिति में महाप्रत्यंगिरा अनुष्ठानम् करना पड़ता है, महा-कालिका को जगाना पड़ता है। 

          हे महाप्रत्यंगिरा रूपिणी महाकालिका जब आप जागृत होती हैं तो घोर अट्ठाहस करते हुए, नृत्य करते हुए, महामद में चूर होकर युद्ध क्षेत्र को तत्पर होती हैं और आपके अंदर से असंख्य तरह के मुख धारण किए हुए अनेकों प्रत्यंगिराएं निकल पड़ती हैं। किसी का मुख उलूक के समान होता है, किसी का मुख सिंह के समान होता है, किसी का मुख व्याघ्र के समान होता है, किसी का मुख पक्षी के समान होता है, किसी का मुख वाराही के समान होता है, किसी का मुख ऊष्ट हथिनी के समान होता है, किसी का मुख चूहे के समान होता है इत्यादि-इत्यादि ये सबकी सब प्रत्यंगिराएं शत्रुओं के ऊपर टूट पड़ती हैं, उन्हें नोंचती है, उन्हें काटती हैं, उन्हें तोड़ती हैं, उन्हें मरोड़ती हैं, उनका रक्त पी लेती हैं, उनका मांस खा जाती हैं, उन्हें जला देती हैं, उन्हें अपने अट्ठाहस से डरा देती हैं, उन्हें जल में डुबो देती हैं, उन्हें पीटती हैं, उनका अंग-भंग करती हैं, उन्हें चीरती हैं, उन्हें दौड़ाती हैं, उनके टुकड़े-टुकड़े कर देती हैं, उन्हें निगल जाती हैं, उन्हें घेर लेती हैं, उन पर विष वमन करती हैं, उन्हें डस लेती हैं, उन्हें मूर्च्छित कर देती हैं, उन्हें विक्षप्त कर देती हैं, उन्हें हवा में उड़ा देती हैं, उन्हें पंजों में दबा लेती हैं, उनके शरीर में प्रविष्ट हो उन्हें भ्रमित करती हैं, उन्हें मोहित-स्तंभित जृम्भित करती हैं अर्थात जैसे हो सके वैसे उनका सर्वनाश कर देती हैं। उन्हें आंदोलित करती हैं, उन्हें प्रेरित करती हैं, उन्हें बाध्य करती हैं, उन्हें मरने के लिए मजबूर करती हैं, उन्हें क्रोध दिलाती हैं अर्थात उन्हें छोड़ती नहीं हैं अपितु उनका समूल नाश करती हैं। 

             भगवती की आँखें चढ़ गईं, दोनों नेत्र रक्त के समान लाल हो गये और वे शिव से बोली कि अब दो ही चीजें होगी, अब दो ही बातें होंगी या तो दक्ष के यज्ञ का ध्वंस होगा या वह आपके चरण पकड़कर क्षमा मांगेगा, आपके शरणागत होगा तीसरा कुछ नहीं होगा और इस प्रकार ब्रह्माण्ड में प्रथम बार शिव ने महा प्रत्यंगिरा का अविष्कार देखा, महाप्रत्यंगिरा का घोष देखा, महाप्रत्यंगिरा का महानाद सुना। शिव घबरा गये महा प्रत्यंगिरा के इस महाविकराल रूप को देखकर। मैं नहीं लौटूगी-मैं नहीं लौटूंगी-मैं नहीं लौटूगी बार-बार आदि महा - प्रत्यंगिरा उच्च स्वर में घोष कर रही थीं । 

महाप्रत्यंगिरा महासंकल्प,महा-क्रिया-शक्ति, महाइच्छा शक्ति और महा-ज्ञान-शक्ति का अद्भुत सम्मिश्रण है कोई समझा नहीं सकता, कोई मना नहीं सकता, कोई रोक नहीं सकता, कोई कुछ नहीं कर सकता जो होना है सो होगा अतः इस प्रकार स्थिति शिव के काबू में भी नहीं रहती। बेकाबू, बेआबरु, बेपरवाह, बेधड़क यही हैं श्री महाप्रत्यंगिरा के लक्षण। 

            हे महाप्रत्यंगिरे तू बैखौफ है और अपने जातक को भी बेखौफ करती हैं। बेखौफ, बेकाबू, बेपरवाह के असीम सौन्दर्य को देख शिव बेलगाम हो इधर-उधर भागने लगे। बेलगाम शिव को भागते देख दसों दिशाओं में महाप्रत्यंगिरा ने लगाम लगा दी दस महाविद्याओं के रूप में । शिव को बेलगाम नहीं होने देतीं महाप्रत्यंगिरा, जो बेलगाम शिव पर लगाम लगा दे पशुओं की तरह वही हैं शिव-पशुधारिणी, शिव-पशु- पाशिनी अर्थात शिव जिसका पशु है, जिसके पाश में शिव-रूपी पशु पाश-युक्त है। पहले शिव को पाश-युक्त किया फिर चल पड़ी महाप्रत्यंगिरा दक्ष और उसके अनुयायियों को लगाम लगाने हेतु । जैसे ही भगवती योगाग्नि में आहूत हुई तीन मुखों वाली पूरी तरह नग्न श्री शत्रुध्वंसकारिणीं का प्राकट्य हो गया और बैठ गईं वे दक्ष के राज्य में दक्ष के कुल देवताओं, दक्ष के देवी-देवता, दक्ष के ऋषि-मुनि, दक्ष के मित्र, दक्ष के पिता ब्रह्मा, दक्ष की पत्नियाँ, बंधु-बांधव इत्यादि सब कुछ ध्वंस हो गये। भृगु ने कृत्या चलाई, हवन- कुण्ड से कृत्या-पुरुष उत्पन्न किए। क्या हुआ? हे कालिके, हे भद्रकालिके, हे महाप्रत्यंगिरे कृत्या का उत्पत्ति केन्द्र यज्ञ कुण्ड ही ध्वस्त हो गया। कृत्या उत्पन्न करने वाला भृगु दांत तुड़वा बैठा, कृत्या-पुरुषों का भक्षण प्रत्यंगिराएं कर गई।

           शिव ने कहा था अपनी पीछे की जटा को तोड़कर कि जाओ, प्रत्यंगिराओं सबको खा जाना, जो मिले उसे खा जाना अत: प्रत्यंगिरायें हवन सामग्री खा गईं, हवन की अग्नि पी गईं, पूजा पाठ में बैठे ऋषियों को खा गईं, उनके अस्त्र-शस्त्रों को खा गई, उनकी पुस्तकों और किताबों को खा गईं, विष्णु का सुदर्शन चक्र कुन्द हो गया । हे प्रत्यंगिराओं आप ब्रह्माण्ड की परम प्रतिरोधक क्षमता हो एण्टी-बॉडीज हो अर्थात विरोध का प्रतिरोध। जिसमें जतनी प्रतिरोधक क्षमता होगी वही महामानव कहलायेगा, महापुरुष कहलायेगा। प्रत्यंगिरा अनुष्ठानम्, प्रत्यंगिरा साधना अति दिव्यतम प्रतिरोधक क्षमता देती है। सीधा लेट जा साधक, कहाँ पड़ा है किताबी ज्ञान के चक्कर में? एक ऊन का कंबल बिछा, सारे कपड़े उतारकर फेंक दे अपने शरीर से, दरवाजा बंद कर ले एवं मुर्दे की भांति दक्षिण की तरफ सिर करके लेट जा और शुरु कर महाषोढान्यास। सर्वप्रथम अपने पांव के नाखून से लेकर शिखा तक क्रीं क्रीं मंत्र का जाप करते हुए उस मंत्र को अपनी प्राण शक्ति के द्वारा सम्पूर्ण शरीर पर स्थापित करता जा। गुदा में भी क्रीं स्थापित कर, गोपनीय भाग पर भी क्रीं स्थापित कर। आँख, नाक, मुख, कान पर भी क्रीं स्थापित कर, सभी चक्रों पर क्रीं स्थापित कर, हृदय में भी क्रीं स्थापित कर, कण्ठ में भी क्रीं इत्यादि-इत्यादि बीस मिनट तक शरीर के सूक्ष्मातीत, आंतरिक, बाह्य अंगों में क्रीं स्थापित कर ले। रोम-रोम में क्रीं स्थापित कर, अणु-अणु में क्रीं स्थापित कर, रक्त की प्रत्येक बूंद में क्रीं स्थापित कर । 

        यह गुरु मुख से प्राप्त ज्ञान है अतः ऐसा कर के 6 महीने हो जा सम्पूर्ण कालिकामय, सम्पूर्ण प्रत्यंगिरा मय। क्रीं को खा, क्रीं को सुन, क्रीं को पी, क्रीं को स्पर्श कर, क्रीं को देख, क्रीं क्रीं चिल्ला तब देख कैसे खड़ी नहीं होती प्रत्यंगिरा तेरे साथ। इस महाषोढान्यास के फलस्वरूप अगर हाथ कटेगा तो बिना औषधि के जुड़ जायेगा, रोग कहाँ बचेंगे तेरे शरीर में क्रीं रूपी परम औषधि, परम प्रतिरोधक क्षमता सबको लात मारकर बाहर फेंक देगी। मस्तिष्क में जितना कचरा है क्रीं खा जायेगी और तेरे व्यक्तित्व में वो चमक, वो नशा, वो सौन्दर्य, वो यौवन, वो सम्मोहन विकसित हो जायेगा कि कोई कल्पना भी नहीं कर सकता। तू परम मदिरामय हो जायेगा, सिर से पांव तक मदिरा रस की जीवित जागृत मूर्ति बन जायेगा। कोई तेरी आँखों में देखेगा तो कह उठेगा कितना नशा है इन आँखों में मैं मदहोश हुआ जा रहा हूँ, कोई तेरी तस्वीर देखेगा तो उसका मस्तिष्क तेरे मद में मदान्ध हो जायेगा और वो तेरा हो जायेगा, तू जिसे छू देगा वह तेरे मद में मतवाला हो जायेगा। तू जहाँ बैठ जायेगा वह स्थान मदयुक्त हो जायेगा।
                                       
सबको मद चाहिए, सबको महामदिरा चाहिए अतः पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, देवगण, ऋषि-गण इत्यादि सभी तेरे महाकालिका रूपी मद को प्राप्त करने के लिए लालायित हो उठेंगे और बदले में जो चाहो खो देने को तैयार होंगे एवं यहीं हैं सोम रहस्यम् । आज वैज्ञानिक सोम की खोज कर रहे हैं, उस दिव्य औषधि को खोज रहे हैं जिससे कि सोम रस बनाया जा सके। प्राचीन काल में सोमलता के अभाव में यज्ञाहुति पूर्ण नहीं मानी जाती थी क्योंकि देवताओं को चाहे अन्न की आहुति दो, घी की आहुति दो, गुड़ की आहुति दो या मांस- रुधिर इत्यादि की आहुति दो उन्हें सबसे ज्यादा प्रसन्न सोमाहुति ही करती है। इन्द्र तो सोमरस का दीवाना है, सोमपान करने के लिए तो इन्द्र यज्ञ में अवश्य आता है। सोम की तलाश मनुष्यों को ही नहीं है अपितु सूर्य-चंद्र इत्यादि नौ ग्रहों से लेकर ऋषि-मुनि, देवता, असुर, यक्ष, किन्नर, अप्सरा सभी सोम रस के दीवाने हैं और सोम की मल्लिका हैं श्री श्री महाकालिका, श्री श्री महाप्रत्यंगिरा। वे नित्य सोम रस का पान करती रहती हैं, उन्हें ही सोम हस्तगत है, काली का खप्पर सदैव सोमरस से भरा रहता है। जब हे कालिका आप अपने भक्त पर कृपावान होती हो तो उसे सोम रस प्रदान करती हो जिसे वह छककर वही महामानव कहलायेगा, महापुरुष कहलायेगा। 

     हे दीर्घ-स्तना तेरे अति सुगठित विशाल स्तनों से सोमरस ही उत्सर्जित होता है तुम प्रत्यंगिरा बन सभी दिशाओं से शिव को कवचित किए रहती हो इस प्रकार शिव जन्म-मृत्यु, काल-अकाल, लोक-लोकादि, कर्म, कृत्य-अकृत्य, धर्म अधर्म इत्यादि सभी स्थितियों के चक्रों से सर्वथा अनभिज्ञ रहते हैं तब जाकर वह हे महाबिन्दु-निवासिनी तेरे परम सोम-बिन्दु में परम विलास को प्राप्त होते हैं। सोमानंदाय नमो नमः, सोम-रूपिण्यै नमो नमः, सोम प्रियायै नमो नमः, सोम दात्री नमो नमः । शिव+सोम= शिवोऽहम् । बेखौफ, बेलगाम, बेनाम, बेकाम, बेचिंता, बेध्यान, बेज्ञान, बेयोग, बेरोग, बेभोग प्रदान करता है सोम । मस्तिष्क को नशा मुक्त करता है, मस्तिष्क को स्वतंत्र करता है, मस्तिष्क को प्रवृत्ति-विहीन करता है, मस्तिष्क को लिंग विहीन करता है, मस्तिष्क को अस्तित्व विहीन करता है सोम। क्या कहूं? इसके बारे में। देखो विष्णु को लोग कहते हैं कि वह महामाया के आगोश में है परन्तु मैं कहता हूँ कि कालिका ने उसे सोम रस में डुबो दिया है, वह सोम पान करके लेटे हुए है। हे कालिका तू सर्व रक्षिणी है, हे निद्रा की देवी जब हम प्रगाढ़ निद्रा में होते हैं तब हम सब कुछ भूल जाते हैं प्रतिदिन करोड़ों मनुष्य, असंख्य देवी देवता, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे सभी सोते हैं परन्तु इस अद्भुत निद्रावस्था में कौन हमारी रक्षा करता है ? वह सिर्फ आप ही हैं प्रत्यंगिरा जो निद्रा में भी हमारी रक्षा करती है अन्यथा चारों तरफ गोचर, अगोचर, छदम शत्रुओं की भरमार है फिर भी आप हमारी निद्रा को सफल बनाती हैं, हमारी रक्षा करती हैं। 99 प्रतिशत मृत्यु जागृत अवस्था में होती है, जागृत हिरण को सिंह खाता है न कि सोते हुए हिरण को । शिकार और शिकारी दोनों जागृत अवस्था में होते हैं। मृत्यु से पूर्व जिसकी मृत्यु होने वाली होती है वह जग जाता है, उसकी समस्त इन्द्रियाँ एक बार पुनः भले ही कुछ क्षणों के लिए जागृत हो जायें पर जागृत हो जाती हैं। प्रत्यंगिरा सभी के साथ चलती हैं, सभी में प्रतिरोध करने की कुछ न कुछ मात्रा में नै:सर्गिक शक्ति होती है।
 
                         शिव शासनत: शिव शासनत:

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