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साधना की आवश्यकता ।।

          आर्यावर्त, भारतीय उपमहाद्वीप या भारत खण्ड का आज के समय में क्या स्वरूप है? इसकी क्या विशेषता है? क्यों यह धर्मभूमि है? यह सोचने का विषय है। आज के युग में भारतीय उपमहाद्वीप अनेक देशों में विभक्त दिखाई देता है। इस उपमहाद्वीप में आज का भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, अफगानिस्तान और पूर्व के सोवियत गणराज्य का कुछ हिस्सा आता है। इसी भूखण्ड में बर्मा, तिब्बत, श्री लंका इत्यादि देश एवं अन्य छोटे छोटे द्वीप भी मुख्य रूप से आते हैं। अनंत वर्षों से यहाँ का सर्वनियंता मनुष्यों के लिए ईश्वर ही रहा है। यहाँ के लोगों को ईश्वर में अटूट विश्वाश है। चाहे वह कुछ हजार वर्षों में विभिन्न धर्म समूहों में क्यों न बँट गये हों। सनातनी कहते हैं "भगवान की मर्जी, " । इसी प्रकार बौद्ध कहते हैं "बुद्धं शरणम गच्छामि" अर्थात हम तो केवल बुद्ध की शरण में हैं इत्यादि इत्यादि। इसी प्रकार सबके सब अपना जीवन ईश्वर को सौंपे हुए बैठे हैं। यह सब हमें विरासत में मिला है अपने पूर्वजों द्वारा ऊपर वर्णित जीवन शैली सबसे विशिष्ट जीवन शैली है। इससे इस महाद्वीप का प्रत्येक मनुष्य ईश्वर के अत्यधिक निकट है एवं तमाम विषमताओं के चलते हुए भी वह भला है, सरल है, निष्कपट है एवं काफी हद तक मर्यादित है।
 
               आप सोचें एक अरब लोग एक छोटे से भूखण्ड पर जहाँ कि व्यवस्था नाम की कोई चीज नहीं है काफी हद तक मर्यादित हैं। यह बात पूर्ण सत्य है। इसके विपरीत पाश्चात्य देशों में कानून अत्यंत ही सख्त है, जनसंख्या अत्यधिक कम है। फिर भी मर्यादा, आत्मसंयम की नितांत कमी है। आत्म हत्या एवं हत्या अत्यधिक मात्रा में होती है। स्वार्थ प्रत्येक व्यक्ति के सिर चढ़कर बोलता है एवं मानवता शून्य है परन्तु पिछले सौ वर्षों में वैज्ञानिक क्रांति अपने चर्मोत्कर्ष तक पहुँच रही है, सारा विश्व सिमट गया है। आने वाली एक दो पीढ़ियों में वैश्वीकरण अत्यधिक तीव्र होगा। ऐसी स्थिति में स्थूल परिवर्तन अवश्यम्भावी है। आने वाले दस वर्षों में विश्व के सभी मस्तिष्क एक जैसा ही सोचने लगेंगे, संस्कृति की सीमा रेखायें मिट जायेंगी। विशेषकर भारतीय उपमहाद्वीप भौतिकता की तरफ अत्यधिक आकर्षित होगा। ऐसा ही होने वाला है। चक्र शुरू हो गया है। जो भारतीय मस्तिष्क अनंत काल से ईश्वर के प्रति समर्पित रहा है वह अब प्रदूषित हो जायेगा। असंतुलन की स्थिति बनेगी। असंतुलन इसलिए क्योंकि हमारे बीच अध्यात्म है एवं इसकी पूर्ति न होने पर शरीर और मस्तिष्क उचित तरीके से क्रियाशील नहीं हो पायेंगे हम कितना भी भौतिक रूप से हासिल कर लें फिर भी अपने आपको अपूर्ण महसूस करेंगे। यह अत्यंत ही भयानक स्थिति होगी। इसका क्रम शुरू हो गया है। ऐसी स्थिति में क्या किया जाय इसको समझने की कोशिश करनी होगी।

             आध्यात्मिक गुरुओं को पुन: चिंतन करना होगा। इस प्रकार की स्थितियाँ पूर्व में निर्मित हुई है परन्तु सांख्य योग की दृष्टि से वे ज्यादा गम्भीर नहीं थीं। अब जब जीवन अभी तक हमने ईश्वर की मर्जी से चलाया है, प्रत्येक गलत कर्म करने से पहले ईश्वर से डरे हैं तब ईश्वर ने भी हमें प्रचुरता से नवाजा है। अनंत प्रकार का पशुधन, उर्वरक भूमि, प्रचुर मात्रा में खनिज, अनेकों दिव्य नदियाँ, उत्तम जलवायु, उत्तम कृषि भूमि इत्यादि- इत्यादि हमें ईश्वर ने उपहार स्वरूप प्रदान किया है। ईश्वर भक्ति के दिव्य प्रसाद होते हैं परन्तु पिछले दो सौ वर्षों से हम अधकचरा हो गये हैं। धोबी का गधा न घर का न घाट का यही हमारी स्थिति है। 1947 में भारत खण्ड के विभाजन से पहले हम अफगानिस्तान से लेकर पाकिस्तान, वर्तमान का भारत, नेपाल इत्यादि मिलाकर मात्र पच्चीस करोड़ के आसपास थे। चलिए अब आदि गुरु शंकराचार्य जी के जमाने में चलें। उनका जन्म ई० से लगभग छठवीं शताब्दी पूर्व हुआ था अर्थात आज से छब्बीस सौ वर्ष पहले उस समय आर्यावर्त की जनसंख्या क्या रही होगी? मुश्किल से पचास लाख मात्र । मध्यभारत में उज्जयिनी, उत्तर भारत में काशी, दक्षिण में रामेश्वरम और पश्चिम में कामाख्या एवं पूर्व में श्री नगर जो उन्हीं के द्वारा बसाया गया है दिखाई पड़ता है। न दिल्ली थी, न बम्बई, न ढाका, न लाहौर इत्यादि इत्यादि। पचास लाख की जनसंख्या में मुश्किल से दो लाख लोग सनातनी होंगे और पचास हजार बौद्ध। बाकी सब वनवासी या अन्य पिछड़े वर्ग। एक अकेले शंकराचार्य जी ने इन सबको अद्वैत की महत्ता समझा दी। अपने ही काल में उन्होंने चार मठ बना दिये अर्थात चार शंकराचार्यों की गद्दी नियुक्त कर दी। वास्तव में पाँच गद्दियाँ थीं। एक मठ मध्यप्रदेश में पचमढ़ी नामक स्थान पर था जहाँ से चारों मठों का संचालन होता था। 

पंचमठ से ही पचमढ़ी बना है। अपने जीवन काल में ही उन्होंने एक से पाँच कर दिये अर्थात लगभग दस लाख व्यक्तियों पर एक शंकराचार्य। यह स्थिति है छब्बीस सौ वर्ष पूर्व परन्तु अब स्थितियाँ बदल गयीं हैं, काल बदल गया है, जनसंख्या बढ़ गई है, इतना विशाल जनसमूह और उस पर भी पाश्चात्य संस्कृति का आक्रमण कैसे चार शंकराचार्य सम्हालेंगे। आदि गुरुजी की बात छोड़िये वे तो सारा जीवन सब कुछ त्यागकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमण ही करते रहे। भोजन मिला तो ठीक, सवारी मिली तो ठीक, वस्त्र मिले तो ठीक । वे तो सारी जिन्दगी भिक्षा मांगते रहे । जब शहर बनाने के लिए जंगल काटने पड़ते हैं, कृषि के लिए ज्यादा भूमि की जरूरत पड़ रही है, नदियों का पानी भी कम पड़ रहा है, अरबों हाथों के लिए कार्य भी कम पड़ रहे हैं तो फिर ऐसी स्थिति में क्या चार शंकराचार्य कम नहीं हैं अगर आज की स्थिति में आदि गुरु शंकराचार्य जी जैसे प्रकाण्ड और अद्भुत चार शंकर स्वरूप हो जायें तो भी कम पड़ेंगे।

            अध्यात्म मनुष्य की प्रारम्भिक आवश्यकता है। अतः ऐसी स्थिति में इस देश को बचाने के लिए हजारों की संख्या में प्रकाण्ड, विद्वान, सिद्ध, त्यागी, निर्लिप्त और विशुद्ध आध्यात्मिक व्यक्तित्वों को उठना ही होगा। यही सांख्य योग है। संख्या का मुकाबला संख्या से है अन्यथा भीड़ तंत्र अध्यात्म पर हावी हो जायेगा और हो भी रहा है। असली माल नहीं मिलेगा तो जनता नकली माल से काम चलायेगी। असली दूध के अकाल में शहर के लोग पाउडर से बना दूध हैं। क्या करें बेचारे? उनकी कोई गलती नहीं है गलती तो पदासीन महानुभावों की है। मैं अध्यात्म को केवल ईश्वर की मर्जी नहीं मानता हूँ। बुद्धि, प्रबंधन, सकारात्मक सोच इत्यादि ईश्वर के द्वारा मनुष्य को इसीलिए प्रदान किये गये हैं कि ईश्वर को मालूम है कि आने वाले समय में युग किस प्रकार का आयेगा। इस युग में केवल ईश्वर की मर्जी से जीवन नहीं चलेगा। ईश्वर की मर्जी से अगर जीवन चलाओगे तो फिर संसाधनों का अकाल, पानी का हवा का अकाल, वर्षा का अकाल, भूमि का अकाल देखना ही पड़ेगा। नारकीय जीवन में आध्यात्मिक साधना कैसे सम्पन्न होगी भला यह कोई बताये। जब प्रशासनिक पद कई गुना बढ़ गये हैं, अनेकों मंत्री हैं, अनेकों मुख्यमंत्री हैं इत्यादि इत्यादि तो फिर अध्यात्म के पद क्यों नहीं बढ़ते गृहस्थों की संख्या इतनी ज्यादा है तो फिर गृहस्थों को भी शंकराचार्य चाहिए होगा। प्रभु श्री कृष्ण ने द्वापर यही संदेश दिया। वे गृहस्थ बनकर रहे हैं। उनके संदेश को आप समझे या न समझे यह अलग बात है। साधनायें तो करनी पड़ेगी, आंतरिक शक्ति का उदय करना ही पड़ेगा, गुरुबल तो प्राप्त करना ही पड़ेगा अन्यथा भीड़ में खोकर रह जाओगे । 

           इस गलाकाट प्रतिस्पर्धा के माहौल में, संसाधनों के अभाव में, चारों तरफ से दबाव और तनाव की स्थिति में अध्यात्म का बल ही नैया पार लगायेगा अन्यथा टूट जाओगे, विकृत हो जाइएगा, पागल हो जाओगे, कहीं के नहीं रहोगे । साधनाऐं तभी सम्पन्न हो सकती हैं जब श्रेष्ठ गुरु हो, श्रेष्ठ साधक हो, उचित माहौल हो । सभी काल में सब साधनाऐं उचित नहीं होती हैं। इस काल में श्री सिद्धि या श्री साधना अत्यधिक आवश्यक है। मनुष्यों की समस्त समस्याऐं इसके द्वारा निवारण की जा सकती हैं। शत्रु भय आज के युग में अत्यधिक है अतः महाकाली साधना भी प्रत्येक साधक के लिए आवश्यक है। प्रदूषण के वातावरण में चारों में तरफ सब कुछ प्रदूषित है। अनेकों अदृश्य रसायन रक्त में मिलते जा रहे हैं जिसके कारण शरीर की शक्ति घटती जा रही है। ऐसी स्थिति में योग साधना प्रत्येक व्यक्ति के लिए नितांत आवश्यक हैं। बीमार व्यक्ति आध्यात्मिक साधना कर ही नहीं सकता। साधना निरन्तरता का क्रम है। प्रतिक्षण सलाह, मार्गदर्शन और गुरु कृपा की आवश्यकता है। साधना ही जीवन है। संतुलन ही साधना है। इन्द्रियों को तो साधना पड़ेगा। युग बदल गया, काल बदल गया, ऋतु चक्र बदल गये परन्तु मनुष्य का शरीर नहीं बदला है इसीलिए अपने शरीर को ध्यान में रखते हुए साधनाऐं कीजिए। मस्तिष्क को साधिये, मानस को साधिए, ज्ञान को साधिए, विज्ञान को साधिए, ब्रह्म को साधिए, शिव को साधिए और अंत में मृत्यु को साधिए । जिस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण महाभारत के युद्ध में अर्जुन के रथ के आगे लगे घोड़ों को साध रहे हैं, कौरवों को साध रहे हैं, अर्जुन को साध रहे हैं, यही नहीं समस्त ब्रह्माण्ड को साध रहे हैं। साधना ही गीता रहस्य है।
    
                      शिव शासनत: शिव शासनत:

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