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धन्याष्टकम् ।।

       आदि गुरु श्री शंकराचार्य जी स्वयं उस गुरु से दीक्षित थे जो कि परमहंस अवस्थाओं को आत्मसात कर चुके थे और उन्होंने अपने स्वयं के जीवन में भी उसी परमहंस अवस्था को आत्मसात कर उस दिव्य और अति दुर्लभ शिव दृष्टि को प्राप्त किया था जिसके द्वारा वे सत्य को नग्न अवस्था में स्थित प्रज्ञ हो निहार सकते थे इसीलिये उनके द्वारा रचित प्रत्येक स्त्रोत भारतवर्ष की धरोहर है। काल आता जाता रहेगा परन्तु उनके द्वारा रचित दिव्य स्त्रोत सदैव शाश्वत् बने रहेंगे। परमहंस वाणी की यही विशेषता है। इस वाणी पर शिव आरूढ़ होते हैं और शिव ही 'सत्यम शिवम् सुन्दरम्' हैं। उनके द्वारा रचित स्त्रोत समग्रता लिये हुये है। एक-एक शब्द गुरु बल से सम्पुट है कहीं भी व्यर्थ का उच्चारण नहीं मिलता है। जब इन दिव्य स्त्रोतों की तरंगे मस्तिष्क को स्पंदित करती हैं तो एक ऐसा दिव्य अनुभव होता है जिसे वर्णित नहीं किया जा सकता। सम्पूर्ण अस्तित्व हिमालय के समान शांत और दिव्य हो उठता है। आदि गुरु श्री शंकराचार्य जी द्वारा रचित धन्याष्टकम् स्त्रोत उनके गुरुबल की श्रेष्ठता को दर्शाता है साथ ही इसके अंदर वह दिव्य शक्ति छिपी हुई है जिसे आत्मसात कर साधक अपने जीवन में परमहंस स्वरूप को उतार सकता है। जैसे-जैसे यह स्त्रोत हृदय के नजदीक पहुँचता जायेगा वैसे-वैसे साधक परमहंस अवस्था की तरफ अग्रसर होता जायेगा। अध्यात्म पथ के जिज्ञासुओं के लिये यह स्त्रोत दिव्य औषधि का कार्य करेगा।

धन्याष्टकम् --

तज्ज्ञानं प्रशमकरं यदिन्द्रियाणां
तज्ज्ञेयं यदुपनिषत्सु निश्चितार्थम् ।
ते धन्या भुवि परमार्थनिश्चितेहाः
शेषास्तु भ्रमनिलये परिभ्रमन्तः ॥ १॥

आदौ विजित्य विषयान्मदमोहराग-
द्वेषादिशत्रुगणमाहृतयोगराज्याः ।
ज्ञात्वा मतं समनुभूयपरात्मविद्या-
कान्तासुखं वनगृहे विचरन्ति धन्याः ॥ २॥

त्यक्त्वा गृहे रतिमधोगतिहेतुभूताम्
आत्मेच्छयोपनिषदर्थरसं पिबन्तः ।
वीतस्पृहा विषयभोगपदे विरक्ता
धन्याश्चरन्ति विजनेषु विरक्तसङ्गाः ॥ ३॥

त्यक्त्वा ममाहमिति बन्धकरे पदे द्वे
मानावमानसदृशाः समदर्शिनश्च ।
कर्तारमन्यमवगम्य तदर्पितानि
कुर्वन्ति कर्मपरिपाकफलानि धन्याः ॥ ४॥

त्यक्त्वईषणात्रयमवेक्षितमोक्षमर्गा
भैक्षामृतेन परिकल्पितदेहयात्राः ।
ज्योतिः परात्परतरं परमात्मसंज्ञं
धन्या द्विजारहसि हृद्यवलोकयन्ति ॥ ५॥

नासन्न सन्न सदसन्न महसन्नचाणु
न स्त्री पुमान्न च नपुंसकमेकबीजम् ।
यैर्ब्रह्म तत्सममुपासितमेकचित्तैः
धन्या विरेजुरित्तरेभवपाशबद्धाः ॥ ६॥

अज्ञानपङ्कपरिमग्नमपेतसारं
दुःखालयं मरणजन्मजरावसक्तम् ।
संसारबन्धनमनित्यमवेक्ष्य धन्या
ज्ञानासिना तदवशीर्य विनिश्चयन्ति ॥ ७॥

शान्तैरनन्यमतिभिर्मधुरस्वभावैः
एकत्वनिश्चितमनोभिरपेतमोहैः ।
साकं वनेषु विजितात्मपदस्वरुपं
तद्वस्तु सम्यगनिशं विमृशन्ति धन्याः ॥ ८॥

                           शिव शासनत: शिव शासनत:

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