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श्री नरसिंह ।।

         पभु श्री कृष्ण के रूप में श्रीहरि का पूर्णांश अवतार हुआ है। पूर्णांश अवतार का तात्पर्य है कि श्रीहरि अपनी समस्त 64 कलाओं के साथ मनुष्य रूप में उदित हुए और उन्होंने वह प्रत्येक कर्म सम्पन्न किया जो कि एक साधारण मानव अपने जीवनकाल में करता है अर्थात माता के गर्भ से उत्पन्न होना,खेलना, भोजन करना, प्रेम करना, विवाह करना, युद्ध करना, धनोपार्जन करना और अंत में शरीर का त्याग करना इत्यादि-इत्यादि परन्तु इन सब क्रियाओं के बीच प्रभु श्रीकृष्ण ने प्रतिक्षण दिव्य कर्म भी सम्पन्न किए जो कि मानव स्मृति में किसी भी मनुष्य की सोच से भी परे हैं ।
         यही दिव्य कर्म उन्हें लीलाधारी बनाते हैं, उन्हें शर्वेश्वर बनाते हैं। पूर्णांश अवतार श्रीकृष्ण ने असंख्य मानवों से उन्हीं की वाणी में, उन्हीं के क्रियाकलापों अनुसार, उन्हीं के नियम धर्मों के हिसाब से, उन्हीं के चिंतन- बुद्धि के हिसाब से सम्प्रेषण किया। पूर्णांश, पूर्णता के साथ सभी को प्राप्त हुआ इसलिए प्रभु श्रीकृष्ण के रूप में श्रीहरि उपासना संसार में सबसे ज्यादा प्रचलित है। पूर्णांश अवतार की एक विशेषता और है कि इसमें अनंत कल्पों में श्रीहरि के अगणित अवतारों की झलक भी स्पष्ट देखने को मिलती है।
           नरसिंह अवतार सतयुग से पूर्व हुआ एवं यह श्रीहरि के कुछ गिने चुने आदि अवतारों में से एक है इसमें श्रीहरि विशेषांश के साथ अवतरित हुए। उनका यह अवतार क्षणिक था परन्तु प्रचण्डात्मकता अत्यधिक थी। विशेष अवतारों की उपासना विशेष परिस्थितियों में, विशेष कार्यों के लिए नियुक्त विशेष साधकों के द्वारा ही सम्पन्न हो पाती है। नरसिंहोपासना विशेष साधकों का विषय है, सबके लिए नरसिंहोपासना नहीं बनी है अतः यह सर्व और सुलभ भी नहीं है फिर भी परा ज्ञान के क्षेत्र में तंत्राचार्य या तंत्रज्ञ बनने हेतु नरसिंहोपासना अत्यंत आवश्यक है। इसके माध्यम से कठिन से भी कठिन नकारात्मक शक्ति से ग्रसित जातक को, नितांत घोर शत्रुओं के बीच निवास करने वाले जातक को भी एक विशेष सुरक्षा कवच प्राप्त होता है। 
        इस उपासना को गुरुदीक्षा के अभाव में, गुरु सानिध्य के अभाव में, सम्पन्न नहीं करना चाहिए। नरसिंहोपासना दो मार्गों से सम्पन्न होती है सात्विक मार्ग एवं तामसिक मार्ग । वाम मार्ग में यह साधना अत्यंत ही तीक्ष्ण हो जाती है और यह गुरु मुख का विषय है। इसलिए इसका विधि विधान पुस्तकों में प्राप्त नहीं होता। किसी भी प्रकार के अभिचार कर्म यहाँ तक कि महाविद्याओं के द्वारा सम्पन्न अभिचार कर्म से भी नरसिंहोपासना के माध्यम से जातक मुक्त हो सकता है। पूर्ण अभय प्रदान करने वाली यह उपासना वास्तव में दर्शनीय है ।                

लक्ष्मीनरसिंह स्तोत्र
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        लक्ष्मी प्राप्ति के कई विधान हैं छीनकर, झपटकर, बल के द्वारा भी लक्ष्मी प्राप्त की जा सकती है। लक्ष्मी नरसिंह स्तोत्र आदि शंकराचार्य ने अत्यंत ही संकटकालीन समय में रचित किया है, यह तांत्रोक्त स्तोत्र अंतिम विकल्प हैं लक्ष्मी प्राप्ति का । मान लीजिए किसी ने हमारा धन ले लिया एवं वह हमें वापस नहीं कर रहा। कोई जबरन में हमारी सम्पत्ति पर कब्जा जमाकर बैठा है, कोई बल के द्वारा हमें हमारे अधिकार से वंचित कर रहा है, कोई षडयंत्र कर हमारे धन को हड़प बैठा है। उपरोक्त परिस्थितियों में या फिर घोर दरिद्रता के कारण धन के अभाव में जब जीवन पर ही बन आये तब त्वरित लक्ष्मी प्राप्ति हेतु, पुनः खोया हुआ धन प्राप्ति हेतु प्रचण्डता के साथ अन्यायी का ध्यान करते हुए लक्ष्मी नरसिंह स्तोत्र का प्रतिदिन प्रयोग किया जाता है और इसके माध्यम से नरसिंह रूपी महाभैरव को जागृत कर न्याय प्राप्त किया जाता है। नरसिंह रूपी महाभैरव शीघ्रता का प्रतीक हैं, शीघ्र लक्ष्मी प्रदान करते हैं परन्तु प्रयोग अनाहत से करें, हृदय से करें दिमाग से नहीं। सफलता सौ प्रतिशत मिलेगी।

लक्ष्मीनरसिंह स्तोत्र

श्रीमत् पयॊनिधिनिकॆतन चक्रपाणॆ भॊगीन्द्रभॊगमणिरञ्जितपुण्यमूर्तॆ ।
 यॊगीश शाश्वत शरण्य भवाब्धिपॊत लक्ष्मीनृसिंह मम दॆहि करावलम्बम् ॥ १ ॥
 
 ब्रह्मॆन्द्ररुद्रमरुदर्ककिरीटकॊटि- सङ्घट्टिताङ्घ्रिकमलामलकान्तिकान्त ।
 लक्ष्मीलसत्कुच्सरॊरुहराजहंस लक्ष्मीनृसिंह मम दॆहि करावलम्बम् ॥ २ ॥
 
 संसारघॊरगहनॆ चरतॊ मुरारॆ मारॊग्रभीकरमृगप्रवरार्दितस्य ।
 आर्तस्यमत्सरनिदाघनिपीडितस्य लक्ष्मीनृसिंह मम दॆहि करावलम्बम् ॥ ३ ॥
 
 संसारकूपमतिघॊरमगाधमूलम् संप्राप्य दुःखशतसर्पसमाकुलस्य ।
 दीनस्य दॆव कृपणापदमागतस्य लक्ष्मीनृसिंह मम दॆहि करावलम्बम् ॥ ४ ॥
 
 संसारसागरविशालकरालकाल- नक्रग्रहग्रसननिग्रह विग्रहस्य ।
 व्यग्रस्य रागरसनॊर्मिनिपीडितस्य लक्ष्मीनृसिंह मम दॆहि करावलम्बम् ॥ ५ ॥
 
 संसारवृक्षमघबीजमनन्तकर्म- शाखाशतं करणपत्रमनङ्गपुष्पम् ।
 आरुह्यदुःखफलितं पततॊ दयालॊ लक्ष्मीनृसिंह मम दॆहि करावलम्बम् ॥ ६ ॥
 
 संसारसर्पघनवक्त्रभयॊग्रतीव्र- दंष्ट्राकरालविषदग्द्धविनष्टमूर्तॆः ।
 नागारिवाहन सुधाब्धिनिवास शौरॆ लक्ष्मीनृसिंह मम दॆहि करावलम्बम् ॥ ७ ॥
 
 संसारदावदहनातुरभीकरॊरु- ज्वालावलीभिरतिदग्धतनूरुहस्य ।
त्वत्पादपद्मसरसीशरणागतस्य लक्ष्मीनृसिंह मम दॆहि करावलम्बम् ॥ ८ ॥
 
 संसारजालपतितस्य जगन्निवास सर्वॆन्द्रियार्थबडिशार्थझषॊपमस्य ।
 प्रॊत्खण्डितप्रचुरतालुकमस्तकस्य लक्ष्मीनृसिंह मम दॆहि करावलम्बम् ॥ ९ ॥
 
 संसारभीकरकरीन्द्रकराभिघात- निष्पिष्टमर्म वपुषः सकलार्तिनाश ।
 प्राणप्रयाणभवभीतिसमाकुलस्य लक्ष्मीनृसिंह मम दॆहि करावलम्बम् ॥ १० ॥
 
 अन्धस्य मॆ हृतविवॆकमहाधनस्य चॊरैः प्रभॊ बलिभिरिन्द्रियनामधॆयैः ।
 मॊहांधकारकुहरॆ विनिपातितस्य लक्ष्मीनृसिंह मम दॆहि करावलम्बम् ॥ ११ ॥
 
 लक्ष्मीपतॆ कमलनाभ सुरॆश विष्णॊ वैकुण्ठ कृष्ण मधुसूदन पुष्कराक्ष ।
 ब्रह्मण्य कॆशव जनार्दन वासुदॆव दॆवॆश दॆहि कृपणस्य करावलम्बम् ॥ १२ ॥
 
 यन्माययॊजितवपुः प्रचुरप्रवाह- मग्नार्थमत्र निवहॊरुकरावलम्बम् ।
 लक्ष्मीनृसिंहचरणाब्जमधुव्रतॆन स्तॊत्रं कृतं सुखकरं भुवि शंकरॆण ॥ १३ ॥

।। इति श्रीमच्छङ्कराचार्यकृतं श्रीलक्ष्मीनृसिंहस्तोत्रं सम्पूर्णम्।। 

                   शिव शासनत: शिव शासनत:

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