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अनंत ब्रह्मांड ।।

           प्रत्येक शहर के बाहर सुनसान स्थान पर कारागृह बना होता है और इस कारागृह में समाज के लिए जो तत्व खतरनाक होते हैं उन्हें ले जाकर स्थापित कर दिया जाता है एवं चारों तरफ कड़ा पहरा लगा दिया जाता है और प्रतिक्षण इन पर निगरानी रखी जाती है। शहर का मल एवं कचरा भी व्यवस्थित तरीके से शहर से दूर सुनसान जगह पर गड्ढा खोदकर गाड़ दिया जाता है। मैं कहना यह चाह रहा हूँ कि चोर उचक्के भी जीवित हैं, मल भी जीवित है तभी तो यह सब खतरनाक सिद्ध होते हैं। आम जनजीवन के लिए जीवित न होते तो किस बात का खतरा कई मामलों में तो ये आम लोगों से ज्यादा ऊर्जावान होते हैं। नकारात्मक सोच रखने वाला षड्यंत्रकारी लाखों व्यक्तियों पर कभी-कभी भारी पड़ जाता है। इन्हें निरंतर हटाना पड़ता है। एक तरह से यह शून्य की प्राप्ति का अनुसंधान है, यह सब शून्य करने की प्रक्रिया का एक प्रमुख अंग है। जीवन ऐसे ही चलता है। 

         लाखों लोगों का जीवन निर्बाद रूप से चलता रहे उसके लिए परेशानी उत्पन्न करने वाले असत्यगामी को तो शून्य करने की प्रक्रिया अपनानी ही पड़ती है। यह तो हुई भौतिक सोच अध्यात्म में भी अनेकों साधक शून्य प्राप्ति की कोशिश करते हैं। आदि गुरु शंकराचार्य जी ने वेदान्त एवं अद्वैत को परिभाषित किया और बुद्ध ने शून्य की बात की। कालान्तर बौद्ध धर्म और सनात धर्म में भीषण टकराव हुआ। आदि गुरु शंकराचार्य जी से पहले अद्वैतवाद को कोई मुख प्रदान नहीं कर पाया और ठीक इसी प्रकार से बुद्ध के शून्यवाद को भी बौद्ध नहीं समझ पाये। शंकराचार्य जी ने भी यह स्वीकार किया है कि बुद्ध का शून्यवाद कुछ भी नहीं बस अद्वैत का साक्षात्कार था किसी कारणवश या समय की मांग के अनुसार बुद्ध को कहीं कुछ हेर फेर करना पड़ गया और वास्तविक बुद्धत्व अर्थात अद्वैत गलत रूप में महिमा मण्डित हो गया। बुद्ध ने भी कुछ नया नहीं कहा। बुद्ध के ज्ञान प्राप्ति के मार्ग में भी वही रुकावटें आयीं जो अन्यों के मार्ग में आयी थीं। उन्होंने भी कर्मकाण्ड सम्पन्न किये आवश्यकता पड़ने पर उन्होंने भी योग को पकड़ा, तंत्र को पकड़ा, मंत्रों का जप किया, कई महीनों तक अन्न जल त्यागकर जल में खड़े रहकर तपस्या की, वनों में भटके, अनेकों इतर योनियाँ से साक्षात्कार किया। 

        जिस समय बुद्ध को बोधी वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ वे मात्र हड्डी का ढांचा रह गये थे। वे भी संन्यस्थ हुए थे। उन्होंने ही तो धम्म बनाया, शिष्य और अनुयायी बनाये राजा से पूर्ण चैतन्य तक की उनकी यात्रा में उन्होंने भिक्षा भी मांगी आखिरकार बने तो वे भी ब्राह्मण हूबहू वही सब कुछ किया जो सनातन धर्म का प्रत्येक ऋषि-मुनि करता है। कुछ भी नया नहीं किया। अंत में वे समझ गये कि उनका बोधत्व अंतिम सीढ़ी नहीं है एवं इसके आगे और भी जहाँ है। उनका ज्ञान अंतिम ज्ञान नहीं है इसके आगे कुछ और भी है। शंकर भी ये समझे बैठे थे इसलिए उलझे नहीं। अद्वैत का मतलब यही है। शब्दों के माध्यम से बस इतना कह सकते हैं कि आगे और कुछ भी है यह अंत नहीं है। अंत होता ही नहीं है, अब इसे कोई किसी भी तरह से समझ ले। कोई इसे शून्य कह दे, कोई इसे अद्वैत कह दे कोई इसे अनंत कह दे क्या फर्क पड़ता है? असीमितता तो है। शब्द क्या व्याख्या करेंगे अद्वैत की। जब-जब शब्दों के माध्यम से, बुद्धि के माध्यम से, तर्क के माध्यम से या फिर अतिसीमित ज्ञान के माध्यम से इसके आगे कुछ और की व्याख्या की जायेगी केवल सीमितता ही हासिल होगी। केवल नये-नये सिद्धांत ही बनेंगे नये-नये धार्मिक ग्रंथों का ही निर्माण होगा। एक परिपाटी चलेगी और फिर उसमें से उत्पन्न होंगे मूढ़, अज्ञानी, कार्बन कापी करने वाले लम्पट शिष्य। जो सिर्फ सीमितता को लेकर ही एक दूसरे की गर्दन काटेंगे। 

         यह अध्यात्म नहीं है, यह सीमा से परे जाने का मार्ग नहीं है। यह तो थकावट है। हाँ थके हुए मस्तिष्क, शिथिल बुद्धि बस अपने गुरु में अटककर रह जाती है। यही जड़ता की पहचान है। जड़ता से ही अनित्यता का उदय होता है। आदि गुरु शंकराचार्य जी बिहार प्रदेश के भ्रमण पर थे एक जगह यमस्थपुरी दिखाई दी। वहाँ के लोग यम को ही परमब्रह्म मानने लगे थे। यम के समान भैसे पर बैठते, काला रंग पोतते और ऊल- जलूल हरकतें करते। वे सब सीमित हो गये थे। बस यम ही यम और कुछ नहीं। आदि गुरु शंकराचार्य जी ने उनकी बातें ध्यान से सुनी तुरंत यम स्तोत्र की रचना कर उनका आह्वान किया और यम देव को प्रकट कर दिया। उन्होंने उन लोगों को समझाया कि यम देव हैं, एक विशेष लोक के नियंत्रक हैं परन्तु परम ब्रह्म नहीं हैं। उनके ऊपर भी नियंत्रण है। यम की उपासना से तुम ज्यादा से ज्यादा यम लोक तक पहुँच सकते हो पर मोक्ष प्राप्त नहीं होगा। लोगों को बात समझ में आ गयी वे पुनः वैदिक धर्म की तरफ सत हो गये।सारे देश का यही हाल है तब भी था और अब भी है। .

शंकराचार्य जी को कुछ मिले जो कि गणपति को ही परम ब्रह्म मानने लगे थे, कुछ ने तो लक्ष्मी माता को ही सृष्टि का मूल समझ लिया, कुछ सरस्वती को ही सब कुछ समझ बैठे कुछ लोगों के लिए विष्णु के अलावा सब व्यर्थ था। कुछ तो अपने माँ बाप को ही परम परमेश्वर मान बैठे थे। किसी के लिए नरसिंह, किसी के लिए राम, किसी के लिए कृष्ण तो किसी के लिए बुद्ध ही साक्षात् परमब्रह्म थे आदि गुरु शंकराचार्य जी ने सबसे शास्त्रार्थ किया शैवों को बुरी तरह परास्त किया, कापालिकों को तो उनकी भाषा में ही दण्ड दिया। तांत्रिकों को तो शून्य में ही विलीन कर दिया। जाओ अब छुट्टी अनंत ब्रह्माण्ड में तुम्हें विलीन कर दिया जाता है। आदि गुरु शंकराचार्य जी के जीवन का सार ही यही है कि अज्ञान को विलीन कर दो। जो भी नजदीक आये, जो भी मुझसे शास्त्रार्थ करे मुझे तो बस उसके अज्ञान को अनंत ब्रह्मण्ड में विसर्जित कर देना है। जहाँ अज्ञान विसर्जित हुआ वहाँ ज्ञान स्वत: ही प्रकट हो जायेगा।

          अस्तित्व वैसे तो कभी मिडना नहीं है क्योंकि शून्य होता ही नहीं है। शून्य की परिभाषा होती ही नहीं है। शून्य तो कहीं भी नहीं है बस यही अद्वैत है। अद्वैत की आधी-अधूरी समझ ही शून्य जैसे शब्द का निर्माण करती है। शून्य से क्या तात्पर्य है? किसी ने कहा एक बोतल में से वायु को निकाल दो स्थान शून्य हो जायेगा। ठीक है वायु निकाल दी। तुम्हारी सोच में सिर्फ भौतिक तत्व के हट जाने से ही शून्य निर्मित हो जाता है तो तुम सर्वथा गलत हो। हाँ वायु हट गई परन्तु उसके अंदर एक अद्भुत बल निम्ति हो गया यही बल वैक्युम कहलाता है एवं इसमें इतनी ताकत होती है कि इसे तोड़ने के लिए फिर एक अलग सिद्धांत रचना होगा। तो फिर कहाँ है शून्य? शून्य परिभाषित करके तो बताओ। बस यही समझ शंकराचार्य जी को दिग्विजयी बनाती है। वे समझ गये थे कि अस्तित्व विहीनता नहीं होती। हाँ कुछ समय के लिए अस्तित्व क्षीण पड़ सकता है। जैसे ही सूर्य उदित होता है चंद्रमा और तारागण आँखों से दिखाई नहीं देते परन्तु इसका मतलब यह तो नहीं है कि चन्द्रमा और तारागणों का अस्तित्व शून्य हो गया है। वे भी स्थित रहते हैं। 

            यह है प्रपंच सार, मिथ्या सार इन्द्रिय ज्ञान इसलिए आधा-अधूरा है, इन्द्रिय सोच इसलिए अस्पष्ट है। अंतेन्द्रिय सोच भी पूरी तरह से स्पष्ट नहीं है। अनुभूति इन्द्रिय और अंतेन्द्रिय विषयों पर आधारित है। आत्मानुभूति ही अद्वैत को समझ सकती है। आदि गुरु शंकराचार्य जी ने कहा है कि सूर्य नित्य नहीं है वह भी नश्वर है। चन्द्रमा, ताराग आकाशगंगा इत्यादि यह सब नश्वर है इनमें से एक नित्य नहीं है। इन सबकी भी मृत्यु होगी। अतः सूर्योपासक, चंद्रोपासक, ज्योतिषाचार्य यह कदापि न समझे कि वे परब्रह्म सत्-चित आनंद की उपासना कर रहे हैं। इन उपासनाओं से शक्ति अवश्य प्राप्त होगी। कार्य विशेष अवश्य सम्पन्न होंगे, जीवन में अनुकूलता निश्चित ही आयेगी पर मोक्ष कदापि प्राप्त नहीं होगा। तुम एक विशेष आवृत्ति में गतिमान होकर रह जाओगे, जन्म मरण के चक्र से मुक्त नहीं हो पाओगे।
         
            आदि गुरु शंकराचार्य जी हिन्दू उपासना पद्धति के प्रबल समर्थक थे उन्होंने लक्ष्मी से लेकर विष्णु राम, कृष्ण, गणेश और यम तक पर स्तोत्र लिखे हैं। सभी का आदर किया है, सम्मान दिया है, उनकी शाश्वतता को समझा है। किसी से भी उसके पंथ में चल रही उपासना पद्धति को छोड़ने के लिए नहीं कहा है, उल्टे बुद्ध की विष्णु रूप में पूजा करवाई परन्तु उस परम सत्य की ओर भी इशारा किया जिसके भय से सूर्य तपता है, जिसके स्पंदन से अनंत आकाश गंगायें निर्मित होती हैं, जिसके आदेश से नक्षत्रगण लयमान होते हैं। हाँ उन्होंने लय की बात की है। लय ही अद्वैत है। लयात्मकता ही जीवन है। अरे जब सृष्टि ही नहीं रहेगी, एक दिन आकाश गंगा ही विसर्जित हो जायेगी तो फिर बुद्ध, राम या शंकर क्या कर लेंगे? यही है सत्-चित आनंद परम ब्रह्म की पहचान किसी में मत अटको, किसी की भी आवृत्ति में गतिमान मत होना नहीं तो लिप्त कहलाओगे। उनका शास्त्रार्थ कर्मकाण्डियों से भी हुआ। कर्मकाण्डी कहते हैं कर्म ही सब कुछ है, कर्म के अलावा कुछ भी नहीं है। अच्छे कर्म करोगे तो स्वर्ग मिलेगा, बुरे कर्म करोगे तो नर्क मिलेगा। कर्म बंधन ही सब कुछ है। शंकराचार्य जी ने इसका खण्डन कर दिया। निम्न कोटि का जीव कर्म बंधनों में बाधित हो सकता है, सकाम कर्म करने वाला जीव कर्मआधारित होता है परन्तु ब्रह्म ज्ञानी कर्मों की श्रृंखला से मुक्त होते हैं। निर्लिप्त कर्म सम्पन्न करने वाले किसी लोक की भी कामना न करने वाले, अहं ब्रह्माऽस्मि की लय में बहने वाले कर्म बंधनों से मुक्त होते हैं।कर्म पिण्ड आधारित है, आत्मा आधारित नहीं। आत्मा पूरी तरह से कर्मों से मुक्त है।जो नित्य है परिशुद्ध है उस पर कर्मों का क्या प्रभाव ? .

 कर्मों की भी एक सीमा है। उसके आगे भी जहाँ है यही है अद्वैत। यही है अनंत ब्रह्माण्ड । सिद्धांतों की सीमाएँ हैं वे सीमित हैं। इन्द्रियाँ भी सीमित हैं। पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण एक सीमा तक है, सूर्य का प्रकाश एक सीमा तक विस्तारित होता है उसे हद में रखा गया है, उसे हद में कौन रखता है? उसे मृत्यु कौन प्रदान करता है? मजाल है सूर्य के प्रकाश की कि किसी अन्य आकाश गंगा में दाखिल होकर देख ले। अन्य आकाश गंगाओं में तो इतने बड़े सूर्य हैं कि हमारा सूर्य उनकी चमक के सामने दिखाई ही नहीं देगा। शंकराचार्य जी क्या कहना चाह रहे हैं? वे ग्रंथ लिखने नहीं आये हैं, वे प्रचार-प्रसार करने नहीं आये हैं, वे धर्म की संस्थापना करने नहीं आये हैं, न ही वे अपनी मूर्ति पुजवाने आये हैं यह सब लक्ष्य सीमित मस्तिष्कों की सोच है। सीमितता ही द्वैत का निर्माण करती है अगर हम उन्हें केवल सनातन धर्म से बाँधकर देखते हैं तो फिर एक तथाकथित बुद्ध और महावीर का निर्माण कर रहे हैं। असीमित को सीमित करने की कोशिश कर रहे हैं। कुछ देर बाद वे बस हमारे एक छोटे से पूजाघर की मूर्ति बनकर रह जायेंगे। उनकी मूर्ति पूजन से मोक्ष नहीं प्राप्त होगा।

             सब कुछ इस तरह की गतिविधियों से सत्यानाश हो जायेगा। यही हाल सब धर्मों का हुआ। मस्तिष्क को असीमित रहने दो, मस्तिष्क प्रपंच में न उलझे, व्यक्ति अंदर से संन्यस्थ हो, उसका दिमाग प्रतिक्षण खुला रहे, द्वंदात्मक स्थिति निर्मित न हो, किसी एक भगवान या देवता में अटककर न रह जाये। स्वर्ग और नर्क के चक्कर में गणित न लगाये, पाप और पुण्य के सांख्य योग में न उलझे । कपिल, अगत्स्य, दुर्वासा, व्यास आते जाते रहेंगे। शंकराचार्य भी आये और चले गये बस इतना कह गये कि संन्यास कैसा होता है? यह समझ लो कि जगत एक प्रपंच है, एक छल है, महाशक्ति की माया है इसमें लिप्त मत होना, कहीं मत उलझना, ईश्वर और जीव में दूरी मत करना क्योंकि वेद कहते हैं तत्व मसि! वेद कहते हैं अहं ब्रह्माऽस्मि अर्थात मैं ही ब्रह्म हूँ। अभी आगे की ओर बहुत सी यात्राएँ हैं। जीव के रूप में पृथ्वी का निरीक्षण कर रहा हूँ, किसी अन्य रूप में कहीं और स्थित प्रज्ञ हो निरीक्षण करता रहूँगा। यही है अद्वैत दर्शन। ऐसे मस्तिष्क मिलते कहाँ हैं?

          नाना प्रकार के मानव निर्मित धार्मिक प्रपंचों में उलझ सम्भावनाएँ बड़ी क्षीण हो गई हैं। सम्भावना की बड़ी आवश्यकता है। सम्भावना पर ही मस्तिष्क का खुलापन टिका हुआ है। सम्भावना ही अद्वैत की आत्मानुभूति कराती है कहीं कुछ तो होगा, कहीं न कहीं से रास्ता निकलेगा, कुछ तो अच्छे लोग मिलेंगे, कुछ तो मर्म को समझेंगे ये भाव मनुष्य के अंदर क्यों उठते हैं? एक मरते हुए व्यक्ति के अंदर भी आखिरी क्षण तक, अंतिम श्वास तक कहीं कुछ और की स्थिति बनी रहती है। हर व्यक्ति जीवन के अंतिम क्षण तक निरंतर सुधार और सम्भावना से परिपूर्ण होता है ऐसा क्यों होता है? क्योंकि अद्वैत से ही द्वैत रूपी जीव की जन्म होता है। यही अद्वैत अनंत सम्भावनाओं के रूप में मनमानस एवं मस्तिष्क में प्रतिक्षण दस्तक देता रहता है। अभी कुछ साऋ पहले पोप घबरा गये तुरंत अमेरिका के राष्ट्रपति से बोले स्टैम सैल (मूल कोशिका) के- अनुसंधान पर विराम लगा दो। जब गर्भाशय के अंदर स्त्री और पुरुष के डिम्बों और शुक्राणु का मिलन होता है तब सबसे पहले स्टैम सैल ही बनती है एक खाली स्लेट, एक खाली पन्ना जिस पर कुछ भी नहीं लिखा होता यही कोशिका जब अनुवांशिक रचनाओं के सम्पर्क में आती है तब मस्तिष्क, हाथ पाँव और हृदय इत्यादि का निर्माण प्रारम्भ होता है। एक-एक कर प्रत्येक अनुवांशिक कोड मूल कोशिका के सम्पर्क में आकर उस अंग विशेष प्रकृति विशेष एवं कोशिका विशेष की रचना करते जाते हैं। 

         वैज्ञानिकों ने मूल कोशिका भ्रूण निर्माण से पहले प्राप्त कर ली और प्रयोग शाला में विशेष अनुवांशिक संरचना से मिलन करा प्रयोगशाला में ही अंग विशेष का निर्माण शुरू कर दिया अर्थात त्वचा सूत्र को मूल कोशिका से मिलाकर त्वचा निर्मित कर ली। यह है अद्वैत से प्राप्ति। यह है अद्भुत अद्वैत की पुष्टि। मूल कोशिका प्रदान कर रही है, जैसा चाहो वैसा प्रदान कर रही है। जब जीव के अंदर मौजूद है तो फिर अनंत ब्रह्माण्ड में इसका क्या स्वरूप होगा? यह सोचने का विषय है। यही है सत चित आनंद की एक झलकी। इसी प्रकार मूल शक्ति अर्थात मूल ब्रह्म से अनंत आकाश गंगाएँ, अनंत सूर्य, अनंत ब्रह्माण्डों की रचना हो रही है। सब वहीं से शक्ति प्राप्त कर रहे हैं। वह अजर-अमर है, वह नित्य है बाकी सब अनित्य और नश्वर गुरु भी शिष्य में सम्भावना देखता है। अपने घर के नीचे मैं कितना भी गहरा कुँआ खोदूं अगर खनिज तेल नहीं है तो नहीं मिलेगा। सोना नहीं है तो फिर घर के नीचे गड्ढा खोदने से क्या फायदा? कम से कम इतनी अति संवेदनशीलता तो होनी ही चाहिए। .

संवेदनशीलता होगी तो गुरु समझ जायेगा कि इस शिष्य के साथ कुछ समय व्यतीत करने से एक निश्चित आकृति विकसित होगी अन्यथा स कुछ व्यर्थ है।

         सम्भावना तो तलाशी ही जाती है। साधक भी सम्भावना तलाशता है, साधक को भी सम्भावना लगे तो पीछे नहीं हटना चाहिए तभी आकार ग्रहण कर पाओगे। गुरु भी उन्हीं शिष्यों को पसंद करता है जो कि खाली स्लेट हों, जिन पर कुछ लिखा जा सके, जिन्हें कि गढ़ा जा सके। बहुत ज्यादा ज्ञानी, तर्क कुतर्क से भरे हुए, गणितज्ञ व्यक्तियों के साथ सम्भावनाएँ न्यून हो जाती हैं क्योंकि वे द्वैत का पुतला बन चुके होते हैं। जब एक पन्ना पूरी तरह से भर गया है तो फिर उसमें दूसरा क्या लिखें? बेहतर होगा नया पन्ना ढूंढा जाय नहीं तो सब कुछ उल्टा पुल्टा हो जायेगा। अनंतता को समझाने के लिए एक उदाहरण देता हूँ। आचार्य शंकर श्रृंगेरि मठ में निवास कर रहे थे तभी उनके सामने एक गिरि नामक ब्राह्मण युवक मोक्ष प्राप्ति के उद्देश्य से आया। वह पढ़ा लिखा नहीं था। वेद, उपनिषद, भाष्य, ग्रंथ इत्यादि में शून्य था अर्थात खाली पन्ना फिर भी मूल शक्ति मजबूत थी मोक्ष चाहता था, शिष्य बनना चाहता था। उसमें गुरु भक्ति थी, आज्ञाकारी था, कम बोलने वाला एवं सत्यवादी भी था। शंकर ने उसे अपना शिष्य बना लिया। 

            कैसा विकट संयोजन एक तरफ मण्डन मिश्र अर्थात सुरेश्वराचार्य दूसरी तरफ पदमपाद एवं अनेकों धुरंधर विद्वान, तर्कशास्त्री, प्रकाण्ड पण्डित एवं तेजस्वी ब्रह्मचारी शिष्य थे तो दूसरी तरफ निरक्षर गिरि कोई भी शिष्य उससे बात नहीं करता। क्या बात करते उससे? उसका काम शंकर की सेवा, पाँव दबाना, कपड़े धोना एवं हमेशा उनके साथ चलना ही था। जब भी आचार्य प्रवचन देते वह बड़े ध्यान से सुनता। गुरु सेवा ही उसका मूल लक्ष्य था। एक बार की बात है वह तुंग भद्रा नदी पर गुरुजी के कपड़े धोने गया था। संध्या का समय था आचार्य प्रवचन देने वाले थे सभी शिष्य मण्डली उनके सामने आकर बैठ गई पर आचार्य ने प्रवचन प्रारम्भ नहीं किया। उन्होंने पूछा गिरि कहाँ है? उसे आ जाने दो फिर मैं बोलना प्रारम्भ करूंगा। काफी देर हो गई अंत में पदमपाद बोले हे गुरुदेव जिसका हम इंतजार कर रहे हैं उसकी बुद्धि तो इस दीवार के समान है वह क्या समझेगा? शास्त्र के मर्म को तुरंत शंकराचार्य जी ने आँखें बंद की और समाधिस्थ हो गये। एक घण्टे तक सब कुछ शून्य कर दिया, अनंत ब्रह्माण्ड में स्वयं को फेंक दिया और प्रारम्भ किया क्रिया योग । आचार्य ने अपनी प्रबल आध्यात्मिक शक्ति से एक घण्टे के भीतर ही गिरि के अंतर्मन में 14 विद्याएँ, चार वेद, छ: वेदांग (शिक्षा, कल्प, निरुत, छंद, ज्योतिष, व्याकरण) पुरण, न्याय, मीमांसा, धर्मशास्त्र इत्यादि को समाहित करके रख दिया। नदी तट पर कपड़ा धो रहा गिरि अचानक तंद्रा में चला गया और जैसे ही तंद्रा खुली गिरि के मुख से छन्द फूटने लगे। शिष्यगण निरक्षर गिरि के मुख से अद्भुत से वाणी सुन आवाक रह गये। उन सभी का अभिमानी सिर झुक गया। पदमपाद तो लज्जावश आचार्य शंकर के चरणों में गिर पड़े। बाद में यही गिरि तोटकाचार्य के रूप में प्रतिष्ठित हुए और आचार्य शंकर द्वारा स्थापित चार मठों में से एक मठ के मठाधीश बने। यह है अनंत सम्भावना।

           गुरु शक्तिशाली था, असम्भव को सम्भव में बदलने की शक्ति थी और शिष्य भी सम्भावनाओं से परिपूर्ण था तो फिर जन्म तो सुनिश्चित था। गुरु क्या करता है? बस शिष्य को सबल, समर्थ और ज्ञानवान बना देता है फिर आदेश देकर उसे संसार के भव सागर में उतार देता है सम्भावना देखता है इसीलिए वह ऐसा करता है। गुरु हमेशा अनंत सम्भावनाओं में जीते हैं। उनके मस्तिष्क कुन्द नहीं होते, वे लकीर के फकीर नहीं बनते, बनाते और बिगाड़ते रहते हैं। कल जिसे बनाया अगर वह उचित प्रतीत नहीं हुआ तो दूसरे ही क्षण उसे मिटा भी देंगे । कुछ नया और गढ़ देंगे। यही है अद्वैत द्वैत आते जाते रहेंगे अद्वैत स्थिर रहेगा, नित्य रहेगा निर्विकार रहेगा। यही भाव मोक्ष प्राप्ति की प्रबल सम्भावनाओं को स्वरूप प्रदान करेंगे। संन्यास धर्म सबसे विलक्षण एवं दुर्लभ प्राप्ति है। संन्यस्थ जीवन अत्यंत ही बिरला है। संन्यास ही मोक्ष प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करता है। आदि गुरु शंकराचार्य जी संन्यस्थ हैं। संन्यासी का मार्ग अनंत है, संन्यासी ही अद्वैत को अनुभूत कर सकता है। आत्मसात कर सकता है। संन्यासी के लिए समस्त ब्रह्माण्ड घर है। वह किसी सीमा, मान्यता, लोकाचार या समाज से बंधा हुआ नहीं है। वह स्वच्छंद है। आत्मानुशासित है। उसका मस्तिष्क खुला हुआ है, उसका मन स्थिर है वह स्थित प्रज्ञ है। बस अद्वैत को शब्दों में बाँधने की कोशिश बंद करता हूँ। अनंत ब्रह्माण्ड को शब्द के माध्यम से व्यक्त नहीं किया जा सकता अतः यह लेख निश्चित ही आधा-अधुरा एवं त्रुटिपूर्ण होगा इसके लिए क्षमा प्रार्थी हूँ। .

                           शिव शासनत: शिव शासनत:

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