Follow us for Latest Update

अध्यात्म की भाषा ।।

        सबसे पहले बात करते हैं प्रवचन, पुस्तक, पुराण इत्यादि की यह सब मनुष्य की भाषा के अंतर्गत आते हैं। इनका निर्माण मनुष्य अपने मस्तिष्क से ब्रह्माण्डीय सत्य को अनुभूत करके करता है। अतः ब्रह्माण्डीय सत्य और भाषा के मध्य मनुष्य का मस्तिष्क निश्चित तौर पर आ जाता है। मनुष्य का मस्तिष्क पाइप लाइन तो है नहीं जो कि कम से कम काफी कुछ मात्रा में ज्यों का त्यों स्वच्छ पानी हमारे घर भी पहुँचा देती है। पाइप लाइन में भी कचरा आ सकता है टूट-फूट हो सकती है, जंग लग सकता है एवं बहुत कुछ घट बढ़ सकता है। दबाव के कारण पानी का प्रवाह बढ़ भी सकता है और घट भी सकता है। कभी पाइप लाइन फट भी सकती है। पाइप लाइन की भी अपनी एक उम्र है फिर मानव मस्तिष्क की क्या बात करना? वह तो आज कल अल्प समय में ही प्रदूषित एवं बूढ़ा हो जाता है। नाना प्रकार से विभिन्न हिस्सों में बंट जाता है।

            आत्मानुशासन लिए हुए मानव मस्तिष्क तो अब दुर्लभ हो गये हैं। चारों तरफ चालाक, कामी, संकुचित एवं लिप्त मस्तिष्कों की भरमार दिखाई दे रही है। ऐसी स्थिति में ब्रह्माण्ड से ग्रहण की गई अनुभूति जब पुस्तकों, प्रवचनों इत्यादि के रूप में प्रकट होती है तो वह अपवित्रतता एवं संकुचितता से युक्त होती है। यह हुई एक स्थिति। इसके बाद जैसे-जैसे कालानुसार यह अनुभूति अन्य मस्तिष्कों से गुजरती हुई आप तक पहुँचती है तो इसका स्वरूप इतना बिगड़ जाता है कि ग्रहण करने योग्य ही नहीं रहती। शब्द पूर्ण नहीं होते। अतः अध्यात्म को शब्दों के माध्यम से ग्रहण तो करना चाहिए परन्तु पूर्णता से आत्मसात करने के लिए और भी कुछ करना होता है अन्यथा अध्यात्म सिर्फ विचारों और बुद्धि तक सीमित होकर रह जायेगा। ज्ञान जरूरी है परन्तु ज्ञान प्राप्ति के लिए शब्द ही काफी नहीं है, पुस्तकें ही काफी नहीं है। अध्यात्म के आगे की स्थिति में शब्दों को खामोश होना पड़ेगा। पुस्तकों को हटाकर एक बार आँखों में आँखें डालकर आँखों की भाषा से पढ़ना पड़ेगा। भाव जगत में प्रविष्ट होना पड़ेगा। स्वयं ब्रह्माण्ड से ग्रहण करने की क्रिया भी सीखनी होगी। हो सकता है कि लेख, पुस्तक लिखने वाला या प्रवचन देने वाला किसी भाव विशेष या आवृत्ति विशेष में गतिमान हो। वह किसी सत्य का अनुसंधान कर रहा हो परन्तु आप उससे सर्वथा अपरिचित हो या उससे भी ऊपर उठ गये हों।
 
           कृष्ण के मुख से गीता उच्चारित हुई। अर्जुन ने उसे 5000 वर्ष पूर्व सुना। इन पाँच हजार वर्षों में आप तक गीता पहुँचते पहुँचते लगभग सौ पीढ़ियों के मस्तिष्कों से सम्प्रेषित हो चुकी हैं। इन सौ पीढ़ियों ने न जाने कितने शब्दों को जोड़ दिया होगा, न जाने कितने महावाक्यों को तोड़ मरोड़ दिया होगा इसकी पूरी-पूरी सम्भावना है। अतः आप तक पहुँची गीता को अगर आप शब्दों के माध्यम से समझते तो मैं समझता हूँ कि आप आधा-अधूरा ही प्राप्त करेंगे। अब सवाल उठता है कि क्या करें? इसके लिए मस्तिष्क को अर्क ग्रहण करने के योग्य बनाना होगा। मस्तिष्क के दरवाजों को पूरी तरह खोलकर रखना होगा। खुले दरवाजों का अपना महत्व है। उनमें से हवा आती जाती रहती है। फिर भी कमरे के अंदर हवा उतनी ही मौजूद रहती है। जितनी कि रहनी चाहिए और वह भी पूर्ण रूप से स्वच्छ एवं निर्मल। यह स्वस्थ एवं श्रेष्ठ मस्तिष्क की पहचान है। अतः ग्रंथों, पुराणों और प्रवचन इत्यादि को ग्रहण करते मस्तिष्क स्वयं ही अर्क को ग्रहण कर लेगा। आप गुलाब के फूल को देखते हैं उसमें खुशबू है, पंखुड़ियों, रंग, आकृति एवं स्पर्श के साथ परन्तु जैसे ही गुलाब के पुष्प का तेल निकाला जाता है पंखुड़ियाँ गायब हो जाती हैं। पुष्प की आकृति और मौजूदगी भी गायब हो जाती है। बचता है तो सिर्फ खुशबूदार अर्क। 

            आध्यात्मिक असभ्यता साधकों की सबसे बड़ी कमी है। इसके लिए गुरु ही सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं। एक बालक जन्म लेता है उसे बोलना भी नहीं आता। शब्द उसके लिए मूल्यहीन होते हैं। भाषा अर्थहीन होती है। उसका मस्तिष्क मात्र भाव के द्वारा ही अपने को व्यक्त करता है एवं दूसरों को भी भावानुसार ही समझता है। जो साधक आध्यात्मिक रूप से असभ्य होते हैं वे सड़ी-गली पुस्तकों के नियमों में उलझकर रह जाते हैं। उनका अध्यात्म केवल शुल्क, न्यौछावर, माला और महिमा मण्डन तक ही सीमित रह जाता है। मैं विगत 12 वर्षों से ऐसे ही असभ्य और मूर्ख साधकों को भटकते देख रहा हूँ। इनके मस्तिष्क इतने कमजोर हो चुके हैं कि यह आँखों के सामने घटित होता हुआ सत्य भी पहचानने से इंकार करते हैं। इनके सामने इनकी जेबें कट जाती हैं और यह देखते रहते हैं। यह सब दुष्परिणाम अध्यात्म को चिकित्सा बना देने के कारण हुआ है। 

तुरंत एक गोली खाओ और सर दर्द गायब इस सिद्धांत पर अध्यात्म नहीं चलेगा। ऐसे सिद्धांत वाले गण्डे ताबीज बांधकर घूमते हैं। मुझे एक महिला मिली उसने कहा कि मैं हनुमान जी के मंदिर में गई और मूर्ति के सामने खड़े होकर उन्हें धौंस देकर बोली तुम मेरे बेटे को ठीक कर दो तभी मैं तुम्हें मानूगीं। खैर बेटा ठीक हो गया किसी प्रकार से परन्तु यह निश्चित है कि हनुमंत कृपा उस पर कभी नहीं बनेगी। कोई भी देव शक्ति किसी भी निम्नगामी मनुष्य की धौंस से नहीं डरती उसे प्रमाणीकरण की भी जरूरत नहीं है। जिस दिन हनुमंत जैसी शक्ति मनुष्यों के अधीन हो जायेगी, मनुष्य की दासी बन जायेगी, उसके इशारे पर नाचेगी उस दिन हनुमान को कोई नहीं पूजेगा लोग आध्यात्मिक रूप से इतने असभ्य और गंवार हैं कि उनका वर्णन नहीं किया जा सकता। 

             एक बात स्पष्ट रूप से समझ ली जाय कि प्रभु श्रीकृष्ण ने अर्जुन का रथ प्रेमवश खींचा हैं और रथ खींचने से पहले अर्जुन ने उनके चरण पकड़कर अश्रु बहाये हैं। प्रभु की परम सत्ता को स्वीकार किया है। श्रीकृष्ण सारथी भी बने हैं तो भी अर्जुन ने उनकी शिष्यता स्वीकार की। वह आज्ञाकारी बना है श्रीकृष्ण का सम्पूर्ण महाभारत के युद्ध में उसने एक आज्ञाकारी शिष्य की भांति, एक सभ्य और एक सुसंस्कृत अध्यात्म पथ के जिज्ञासु की भांति निर्विकार रूप से श्रीकृष्ण की प्रत्येक आज्ञा मानी। रथ पर सवार होने से पहले श्रीकृष्ण ने अर्जुन से अनेकों अनुष्ठान करवाये हैं। खाण्डव वन का दहन करवाया है, घोर तपस्या करवाई है, अर्जुन के दम्भ और अहंकार का मान मर्दन करवाया है। उसे यह भी दिखा दिया है कि वह स्वयं की पत्नी का चीर हरण रोकने में भी सक्षम नहीं है। वहाँ पर भी श्रीकृष्ण ने हाथ लगाया है। श्रीकृष्ण न होते तो लाक्षागृह में अर्जुन जल मरा होता कर्ण के तक्षक अस्त्र द्वारा सिर कट गया होता। 

              भाषा क्या है? भाषा का तात्पर्य केवल मनुष्यों के मुख से निकला स्पंदन ही नहीं है अगर आप भाषा की समग्रता में जायेंगे तो फिर इस ब्रह्माण्ड की प्रत्येक संरचना चाहे वह जड़ हो, चेतन हो या फिर पिण्ड स्वरूप हो प्रत्येक के अंदर भाषा का पूर्ण परिष्कृत स्वरूप विकसित पायेंगे। प्रत्येक तत्व में गुरुत्व है, स्पंदन है, प्रजनन है एवं सम्प्रेषण की अद्भुत क्षमता है। यह एक सार्वभौमिक एवं ब्रह्माण्डीय व्यवस्था के अंतर्गत आता है। तारे भी बात करते हैं उनकी अपनी एक भाषा है। वे भी सम्प्रेषण करते हैं प्रकाश के माध्यम से, तरंगों के माध्यम से एवं सूक्ष्म परा ध्वनि के माध्यम से यही तो ज्योतिष का आधार है। प्रत्येक सम्प्रेषण का मनुष्य, पृथ्वी एवं वातावरण पर प्रभाव निश्चित पड़ता है। ज्योतिष गणना एवं लक्षण विज्ञान में नक्षत्रों की भाषा ही ज्योतिषाचार्य एवं अन्य साधक सूक्ष्मता के साथ ग्रहण करते हैं। सारा ब्रह्माण्ड मंत्रमय है। केवल मनुष्य मंत्रों के अंतर्गत नहीं आता यही वेदान्त पठन मंत्रोचारण एवं अनुष्ठानों, हवन यज्ञ इत्यादि सम्पन्न करने का मूलभूत कारण है। 19 वीं सदी के दशक में कुछ अधकचरे एवं तथाकथित पढ़े लिखे लोगों ने मनुष्य की एक दो पीढ़ी को पशु रूप में ढालने की भरसक कोशिश की है। अपने निकृष्ट विचारों से उन्होंने विशेषकर भारतवर्ष की एक दो पीढ़ियों को मात्र पशु रूपी मनुष्य बनाकर रख दिया है परन्तु इसके विपरीत पाश्चात्य मुल्कों में 24 घण्टे ऋषितुल्य वैज्ञानिकों ने ब्रह्माण्ड की एक-एक नक्षत्रिकाओं को निहारा है। अनेकों अत्याधुनिक राडारों, दूरध्वनि संयंत्रों एवं अन्य सूक्ष्म परा तरंगों और प्रकाश ग्रहण करने वाले विशेष उपकरणों की सहायता से ब्रह्माण्डीय भाषा को जानने की कोशिश की है। ब्रह्माण्ड के एक से एक गूढ़ रहस्यों को पकड़ने में वे सफल हो जाते हैं।

            ऋषि क्या है? ज्ञानी कौन है? परम बुद्धि शाली कौन है? प्रज्ञा पुरुष किसे कहते हैं? इस संसार में अधिकांशतः ऐसे मूढ़ मस्तिष्क है जिनकी दृष्टि केवल रोटी, पानी और स्त्री तक ही सीमित होती है परन्तु इसी समाज में ऐसे भी विलक्षण मनुष्य होते हैं जो कि ब्रह्माण्ड के गूढ़ रहस्यों को सूक्ष्मता के साथ ग्रहण करने में सक्षम होते हैं। जो व्यक्ति जितना ज्यादा प्रकृति एवं ब्रह्माण्ड के रहस्यों को समझता जायेगा वह ऋषि तुल्य बनता जायेगा। लोग कहते हैं हम आपके गुरु के साथ पढ़े हैं, आपके गुरु के शहर में रहते हैं। उन्हें जोधपुर में देखते रहे हैं, हम उनको बचपन से जानते हैं, उनसे सम्मेलन में मिले हैं। इन सब हास्यास्पद बातों से वे अपने मन को संतुष्ट करते रहते हैं। अपने तथाकथित अहम को बरकरार रखते हुए नकली दम्भ में जीने की कोशिश करते हैं परन्तु वे इस सत्य को स्वीकार नहीं करते हैं कि कृष्ण भी माता के गर्भ से ही उत्पन्न हुए थे। उन्होंने भी ग्वाल बालों के साथ पशु चराये हैं, गुरुकुल में लकड़ी भी काटी है। इन सब सामान्य कर्मों को सम्पन्न करते हुए भी महापुरुष एवं अवतारी शक्तियाँ प्रतिक्षण ब्रह्माण्डीय सम्पर्क में बनी रहती है।

                ब्रह्माण्डीय भाषा में पारंगतता कृष्ण की चौंसठ कलाओं में से एक महत्वपूर्ण अंग है। वे त्रिकालदर्शी तो क्या अनंतदर्शी हैं। वे समझ गये कि अब ब्रज में रहने का समय समाप्त हुआ तुरंत ब्रज को छोड़ा एवं मथुरा की तरफ प्रस्थान किया। मथुरा में उन्होंने समय और काल की भाषा समझते हुए कंस का वध किया। एक समय के पश्चात् पुनः समय की भाषा समझते हुए द्वारका का निर्माण किया। यही है काल ज्ञान काल की भाषा को समझना। काल से सम्बन्ध स्थापित करना काल के अनुसार कर्मों को सम्पन्न करना। सफल एवं ऋषितुल्य व्यक्तियों को यही पहचान है। प्रज्ञापुरुष तो ब्रह्माण्डीय भाषा में इतने दक्ष होते हैं कि उन्हें अपनी मृत्यु के सही समय और क्षण का भी पता होता है। मेरे गुरु ने भी 3 जुलाई को जब सूर्य उत्तरायण में स्थित था एवं ब्रह्म मुहूर्त में ठीक उसी समय शरीर को त्यागा जिस क्षण शरीर त्यागने से आत्मा सीधे सिद्धाश्रम को ही गमन करती है। इसे कहते हैं मुहूर्त ज्ञान मुहूर्त विद्या। यही प्रज्ञा है।.                    
         यह भी सत्य है कि हमें भोजन की इच्छा हो रही हैं और यह भी सत्य है कि ज्यादा भोजन हम नहीं कर सकते। मूर्ख व्यक्ति या तो ज्यादा भोजन कर लेगा या फिर भोजन नहीं करेगा। वह असंतुलित होता है। वह एक धारा से ज्यादा में अपने मस्तिष्क को क्रियाशील नहीं कर सकता परन्तु प्रज्ञा इन्द्रियों से ऊपर का विषय है। प्रज्ञावान भोजन भी करेगा तो पेट के सामर्थ्य अनुसार ही करेगा। इससे ऊपर उठकर उसमें इतनी शक्ति होती है कि वह जरूरत पड़ने पर पेट को भी आज्ञानुसार क्रियाशील कर देगा। दोनों धाराओं को संतुष्ट करना एवं धाराओं से ऊपर उठकर धारा की भी परवाह न करना व्यक्ति को मनुष्य से ऋषि बनाती है। यही गायत्री रहस्य है। 

              गायत्री मंत्र में 24 तत्वों की एक दिव्य संतुलनात्मक संरचना है। 24 दैव शक्तियाँ गायत्री मंत्र में गुथी हुई हैं। गायत्री शक्ति इन 24 देव शक्तियों को संतुलित भी करती है एवं इनसे ऊपर उठकर इन्हें नियंत्रित भी करती है। वह आदि मातृ स्वरूपा है। जीवन में सफल होने के लिए 80 प्रतिशत कर्म का क्षेत्र है। यह व्यक्ति विशेष के हाथ में होता है। 15 प्रतिशत भाग्य का क्षेत्र है। यह उसे पूर्व जन्मकृत कर्मों के अनुसार प्राप्त होता है। इसमें गुरु का दखल अवश्यम्भावी है। वह हाथों की लकीरों चित्रकारी करने में सक्षम है। इसके अलावा 5 प्रतिशत कुछ और भी है। यह रहस्यात्मक दैव शक्तियों का खेल है। इसके लिए दीक्षायें, अनुष्ठान, गुरुकृपा, गुरु सानिध्य इत्यादि अत्यधिक आवश्यक है। यह साधना पक्ष है। 

           जीवन बस इसी त्रिगुणात्मक व्यवस्था का संतुलन है। जिसमें यह व्यवस्था श्रेष्ठ होगी, सक्रिय होगी, चैतन्य होगी वही महापुरुष बनेगा, वही श्रेष्ठ योगीजन बनेगा, वही सफलता प्राप्त करेगा। पूर्णता उसे ही प्राप्त होगी। यही गायत्री का संदेश है। मैंने अपने जीवन में कर्मवादियों के सिद्धांत भी देखे हैं। अगर कर्म से ही सब कुछ हो जाये तो फिर मजदूर सबसे वैभवशाली होना चाहिए इसके अलावा घोर भाग्यवादी भी देखे हैं जो कि लाटरी न लगने पर आत्महत्या कर लेते हैं। तीसरे साधनात्मक लोगों को भी देखा है। साधनात्मक लोगों में अधिकांशत: सबसे ज्यादा असंतुष्ट, भ्रमित एवं निकम्मे होते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि ऊपर वर्णित त्रिगुणात्मक संतुलन के बिना जीवन कुछ भी नहीं है अगर आधा अधूरा जीवन जीना है तो फिर एकांगी मार्ग अपना लो। पाश्चात्य देशों को सशरीर अंतरिक्ष में भ्रमण करना था, अन्य ग्रहों पर यान भेजने थे, अन्य ग्रहों पर स्थापित

 होने की उनमें तीव्र लालसा है इसीलिए उन्होंने दूरदृष्टि विकसित की प्रतिक्षण ब्रह्माण्ड की नब्ज परखी। उसी अनुसार अपने यंत्रों का निर्माण किया आप देखिए हर दूसरे दिन उनकी ब्रह्माण्ड के बारे में विचारधारा बदल जाती है। सीधा सा कारण है वे प्रतिक्षण ब्रह्माण्ड में झांकते रहते हैं। हर क्षण अपने यंत्रों की मदद से सुदूर ग्रहों पर जीवन के लक्षण खोजते रहते हैं और खोज भी लिया है। बहुत ही चालाक और बुद्धिमान लोग हैं। आपको कुछ भी नहीं बतायेंगे। उनके सम्पर्क तो आप से 20 साल पहले ही ब्रह्माण्ड में रहने वाले अनेक जीवों से हो चुके हैं। पूरा का पूरा एक विभाग अमेरिका में क्रियाशील है जो है कि अन्य ब्रह्माण्डीय जीवों के निरंतर सम्पर्क में रहता है। दूरदृष्टि एवं परा दृष्टि धक आवश्यक है। 

            हमारे ऋषि मुनियों की यही देन है। वे लक्षण शास्त्र में अत्यंत निपुण थे । व्यक्ति को देखकर उसके सात जन्म बता देते हैं। प्रकृति में हस्तक्षेप एवं अनुकूलता गुरु अध्यात्म अर्थात गायत्री की भाषा के द्वारा ही करते हैं। स्थान परिवर्तन, नाम परिवर्तन सम्बन्ध परिवर्तन इत्यादि इसी ज्ञान के अंतर्गत आता है। जैसे ही अध्यात्म की उच्च श्रेणी में व्यक्ति पहुँचता है गुरु उसका नाम तुरंत परिवर्तित कर देता है। इस प्रकार नवीन जीवन की शुरुआत हो जाती है, कभी-कभी तो जीवित व्यक्ति के अनेकों गूढ़ क्रिया कर्म सम्पन्न करने पड़ते हैं। जिससे कि पितृ दोषों का निवारण हो सके। नकारात्मक शक्तियों का केन्द्र बिन्दु बने व्यक्ति को स्थान परिवर्तन करा के पुनः स्थापित किया जाता है। जगह, भवन इत्यादि अनेकों बार विपरीत प्रतिफल स्थिति लिए होते हैं। प्रत्येक जगह पर विशेष चुम्बकीय बल, नक्षत्र बल इत्यादि क्रियाशील होते हैं। प्रकाश की भी स्थिति भिन्न होती है जिसके कारण व्यक्ति की सर्वोन्नति में नाना प्रकार की वाधाऐं पड़ती हैं। व्यक्ति रोग ग्रसित हो जाता है, जीवन कष्टप्रद एवं दुष्कर हो जाता है। ऐसी स्थिति में स्थान परिवर्तन अवश्यम्भावी है। अतः अपने मस्तिष्क को केवल - मनुष्य की भाषाओं तक सीमित नहीं रखिए। कुण्डलिनी जागरण की यही पहचान है। 

               व्यक्ति झूठ बोलता है एवं इतना ज्यादा नकाब और बनावट लिए हुए होता है कि आसानी से उसका वास्तविक स्वरूप एवं वास्तविक लक्ष्य स्थूल दृष्टि से समझ पाना अत्यंत ही दुष्कर होता है। कुछ व्यक्ति तो इतने धूर्त और मक्कार होते हैं कि पुलिस भी उनसे सच नहीं उगलवा सकती। यही तो सबसे बड़ी समस्या है अंदर कुछ और बाहर कुछ ऐसे लाखों शिष्य मैंने देखे हैं जो कि सामने गुरु चरणों पर लोटेंगे और बाहर निकलते ही गुरु को अपशब्द बोलने में भी नहीं चूकेंगे। कुख्यात व्यक्तियों को समझने के लिए उनके आभामण्डल को देखना पड़ेगा। आभामण्डल कभी भी झूठ नहीं बोलता। उनके पास से आने वाली गंध को सूंघना पड़ेगा, उसकी संरचना समझनी पड़ेगी कि व्यक्ति कितना विषैला है। आँखें बंद करके एकाग्रता से, चुपके से, निर्विकार होकर उसके शब्दों को सुनना पड़ेगा जिससे कि समझ में आ सके कि व्यक्ति कहाँ से बोल रहा है। उसकी वाणी हृदय से आ रही है या फिर उसके मस्तिष्क में स्थित किसी षडयंत्रकारी केन्द्र से स्त्रावित हो रही हैं। यही भाषा विज्ञान है। यही गायत्री विज्ञान है। 

           सत्य को समझना ही ब्रहा विद्या है। जो गायत्री का साधक होगा वह दो मिनिट में सारे नकाब, सारे पर्दे और सारी बनावट भेदते हुए सामने वाले की नग्न एवं वास्तविक तस्वीर देख लेगा नहीं तो फिर निश्चित ही षडयंत्रों का शिकार होगा। जिसमें यह ताकत होगी वह शिकारी का भी शिकार करेगा। खुद शिकार करेगा, खुद शिकार नहीं बनेगा। शिकारी को स्वयं के जाल में ही उलझा देगा। सीधी सी बात है इस पृथ्वी पर यह दिक्कत नहीं है कि आपका मस्तिष्क शक्तिशाली है या नहीं। आपको आपके समय में क्रियाशील मस्तिष्कों को समझना पड़ेगा। उलट गायत्री भी होती है। तंत्र शास्त्र में उलट गायत्री भी होती है। यह कला मारण, मोहन, उच्चाटन एवं कीलन में काम आती है। इसका विस्तृत वर्णन कभी में करूंगा। यह अत्यधिक ही गूढ़ विद्या है। सवाल यह है कि दुष्ट व्यक्ति भी अत्यधिक साधनात्मक होते हैं। रावण से लेकर दुर्योधन तक सबके सब तीक्ष्ण साधक थे। इनकी साधनाऐं दुर्लभ एवं विकट थीं। ये सब अनुसंधानकर्ता, वैज्ञानिक, तत्वज्ञ, काल ज्ञानी इत्यादि थे। हिटलर अपने साथ तांत्रिकों एवं ज्योतिषियों की फौज फटाका लेकर चलता था। उसके सबसे विश्वसनीय तांत्रिक साथी का नाम था हिमलर। यह तथ्य द्वितीय विश्व युद्ध के इतिहास का एक प्रामाणिक अंश है। प्रत्येक जर्मन आक्रमण से पहले समय, काल, मुहूर्त इत्यादि का विशेष ध्यान रखा जाता था। जैसे ही व्यक्ति के पास मानसिक, वैचारिक एवं मस्तिष्कीय क्षमता का विकास होता है वह दूसरे मनुष्यों पर अधिकार जमाने की चेष्टा करता है बस यहीं पर कर्म के सिद्धांत पर चलने वाले मार खा जाते हैं।

जो ज्यादा ध्यान करेगा, अनुष्ठान करेगा, पूजन करेगा,तांत्रोक्त क्रियाएँ सम्पन्न करेगा वह उतना ही ज्यादा शक्ति अपने अंदर समेट लेगा। इस प्रकार अनेकों मनुष्य चलते फिरते शक्ति केन्द्र बन जाते हैं। बस इसी कारणवश ये अपने चुम्बकत्व के द्वारा घर परिवार, पड़ोसी, नाते, रिश्तेदार एवं अन्य सम्बन्धित मनुष्यों को परेशानी, अस्थिरता एवं विपरीत परिस्थितियों में डाल देते हैं। मस्तिष्क के खेल निराले हैं। अधिकांशतः व्यक्ति तथाकथित प्रगतिशील विचारधारा के कारण पतन की और अग्रसर हो जाते हैं, न तो इनका कोई गुरु होता है, न ही ये कवचित होते हैं बस परेशान होकर इधर-उधर भागते रहते हैं और अंत में जब पास आते हैं तो बुरी तरह से टूटे-फूटे एवं विक्षिप्त होते हैं। यही है कहानी इस समाज की। अतः आपको भी अपने मस्तिष्क को शक्तिशाली करना होगा। मस्तिष्क में आयी टूटनों को पुनः व्यवस्थित करने के लिए अनुष्ठान कराने होंगे, खुद भी एक व्यवस्थित साधनात्मक जीवन जीना होगा। 

           केवल पचास हजार का शौचालय बना लेने से काम नहीं चलेगा। बीस लाख का मकान बना लेने से काम नहीं चलेगा। जरूरी नहीं है कि बीस हजार के बिस्तर पर सुख की नींद आ जाये। सुन्दर पत्नी के होते हुए भी आप सुखी गृहस्थ हों आपको अपना पूजन कक्ष भी व्यवस्थित करना होगा, उसे शक्ति केन्द्र में परिवर्तित करना होगा, अपनी सात्विक शक्ति को बढ़ाना होगा। सब पक्षों पर पैसा खर्च आप लोग करते हैं परन्तु सारी कन्जूसी पूजन कक्ष के प्रति करते हैं। वहाँ पर गंगा जल भी उपलब्ध नहीं होता है। 99 प्रतिशत लोग तो पूजा कक्ष बनवाते ही नहीं है। सारे कक्ष घर के बढ़ाते जाते हैं परन्तु पूजा कक्ष को सिकोड़ते जाते हैं। ठीक है फिर भगवान को क्यों दोष देते हो। आजकल प्रथा चली है हाजिरी लगाने की। भारत सरकार के कार्यालयों में सुबह हाजिरी लगाने के बाद कर्मचारी से लेकर अफसरों ने इति श्री करने की परम्परा अपना ली। देखते ही देखते सरकारी उपक्रम बंद होने लगे, नई नियुक्तियाँ बंद हो गयीं और अब सरकार ने खीजकर सब कुछ प्राइवेट हाथों में देने का निर्णय कर लिया। इसे कहते हैं कर्तव्य के प्रति अन्याय। इतनी बड़ी सरकार खीज गई, घबरा गई, तनख्वाह देने के लिए पैसे भी नहीं बचे। जिस डाल पर बैठे हैं उसे ही काटना शुरू कर दिया लोगों ने। यह काहिलता का प्रतीक है। न्याय तो करना ही चाहिए। 

            गायत्री न्याय की भाषा बोलती हैं। न्याय अपने कर्म के प्रति अपने देश के प्रति, स्वयं के प्रति आप स्वयं के शरीर से अन्याय कीजिए उसकी भाषा समझना बंद कर दीजिए बस थोड़े ही दिनों में रोग ग्रस्त हो जायेंगे। शरीर भी बार-बार मूक भाषा में संदेश देगा। आप उसे अनसुना कर दें तो रोग ग्रस्त तो होंगे। मेरे गुरु ने कहा था कि मृत्यु भी अचानक नहीं आती है। अचानक कुछ भी नहीं होता है। अचानक शब्द जड़ता का प्रतीक है। सोये हुए व्यक्ति का प्रतीक है। गुरु एक नजर में समझ जाता है कि अनिष्ठ होने वाला है तुरंत ही महामृत्युंजय अनुष्ठान शुरू कर देता है। भाषा को समझना, गूढ़ संकेतों का विवेचन करना गुरु का प्रमुख कार्य है। हाजिरी की इस प्रथा से ईश्वर भी हाजिरी लगाने लगता है। मंदिर के सामने से निकल जाओ। बाहर से ही हाजिरी लगा लो तो ईश्वर भी हाजिरी लगा देगा उसे क्या पड़ी है, तुम्हारे जैसे बहुत घूमते हैं, गुरु भी हाजिरी लगा देगा। जैसा शिष्य होगा वैसा ही गुरु उसके साथ व्यवहार करेगा। एक जैन मुनि से मैं मिला। जैन मुनि अत्यंत ही साधनात्मक होते हैं। कठोर तप उनकी जीवन शैली होती है, उन्हें प्रकृति की भाषा का इतना ज्ञान था कि एक जगह उन्होंने लकड़ी मारी तुरंत ही उस गाँव में वहाँ से पानी का स्त्रोत फूट पड़ा। उनके साथ चल रहे सभी अनुयायियों ने उस स्थान से पानी ग्रहण किया। जिस स्त्रोत को वर्षों से गाँव वाले नहीं खोज पाये थे उसे मुनि महाराज ने एक क्षण में खोज लिया। आप भी भाषा विद् बने। 

                  जंगलों एवं वनों में विचरने वाले साधु संत जंगलों से बात करते हैं। दुर्लभ एवं दिव्य वन औषधियों से सम्प्रेषण करते हैं। कुछ ही क्षण में अमृतकारी औषधियों एवं जड़ी बूटियों के द्वारा कायाकल्प कर लेते हैं। यह उनका ज्ञान है। यह उनकी दृष्टि है। अब गधे के सामने घास डालों या गेंहूँ के पौधे उसे क्या फर्क पड़ता है। वह तो खेत भी घास समझकर चर जायेगा। यही तो विडम्बना है। सारी समस्या की जड़ है। गायत्री शक्ति को कम से कम अपने अंदर गायत्री मंत्र के द्वारा, गायत्री यंत्र के द्वारा, गायत्री यज्ञ के द्वारा गायत्री दीक्षा के द्वारा आत्मसात करने की कोशिश करें। जीवन का प्रत्येक आयाम सर्वोन्मुखी उन्नति की ओर अग्रसर होगा और पूर्णता प्राप्ति का मार्ग आपके लिए खुलेगा। यही इस लेख में मेरा मर्म है। सबका मंगल हो यही आकांक्षा है और कुछ नहीं।
                         शिव शासनत: शिव शासनत:

0 comments:

Post a Comment