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प्रसाद-बुद्धि ।।

किसी सन्त से पूछा गया कि जिस प्रकार हम अपना चेहरा दर्पण में देख सकते है, उसी प्रकार आत्मज्ञान के होने का उपाय क्या है? सन्त ने कहा कि आत्मज्ञान बुद्धि का विषय है।( सांसारिक बुद्धि का नही, केवल आध्यात्मिक विषयक बुद्धि का ही… ) आध्यात्मिक बुद्धि ही एक प्रकार का दर्पण है, जिसके माध्यम से ही आत्मज्ञान का प्रकाश देखा जा सकता है। 

अब प्रश्न ये है कि इस आध्यात्मिक-बुद्धि के जागरण का उपाय क्या है? किस प्रकार सांसारिक-बुद्धि का परिवर्तन आध्यात्मिक-बुद्धि में हो सकता है? 

सांसारिक बुद्धि => भोग 
आध्यात्मिक बुद्धि => प्रसाद

अर्थात जब भोग को प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है, तब प्रसाद-बुद्धि का जागरण होता है। अर्थात प्रसाद-बुद्धि का आश्रय ही एकमात्र उपाय है, जिससे सांसारिक भोग-बुद्धि का लोप होता है, और आध्यात्मिक-बुद्धि का प्रकाश प्रकट हो सकता है। 

दुर्गा सप्तशती में भी कीलक मंत्र में बहुत ही स्पष्ट है…..
"ददाति प्रतिगृह्णाति नान्यथैषा प्रसीदति ⁠। 
इत्थंरूपेण कीलेन महादेवेन कीलितम् ।।"

[जो साधक एकाग्रचित्त होकर भगवतीकी सेवामें अपना सर्वस्व समर्पित कर देता है और फिर उसे प्रसादरूपसे ग्रहण करता है, उसीपर भगवती प्रसन्न होती हैं; अर्थात प्रसाद-बुद्धि (समर्पण) का आश्रय ग्रहण किये बगैर सारी आध्यात्मिक साधना कीलित ही रहती है, ऐसी व्यवस्था महादेवजी ने स्वंय की है।]

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"जो लोग उपासक और भक्त है, वे सूक्ष्मतर कौशल के सहारे ईशोपनिषद की प्रक्रिया के अनुसार भोग करने पर भी उस भोग में लिप्त नहीं होते । वह उनके लिए प्रसाद ग्रहण मात्र है, उपभोग नहीं। इस प्रकार के भोग के द्वारा भोग-वासना निवृत्त हो जाती है। वह वास्तव में भोग होकर भी भोग का निवर्तक है। इसे वैध भोग कहा गया है। 
भोग्य वस्तु प्रकृति स्वरूप है। जो भोक्ता है, वे परमपुरुष या पुरुषोत्तम है। जीव प्रकृति का भोक्ता नहीं है। 
प्रकृति का भोग्य सम्भार स्वाभाविक स्रोत से निरन्तर परमपुरुष की ओर गतिमान है। अर्थात रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द बाह्य जगत से उठकर देह स्थित नाड़ी अवलम्बन पूर्वक निरन्तर ऊर्ध्वमुख में, सहस्रदल कमल की कलिका स्थित परम पुरुष की ओर प्रवाहित हो रहा है और उनका चरण स्पर्श कर अर्थात उनकी दृष्टि से पवित्रीकृत होकर अधोमुख में अथवा बहिर्मुख में प्रत्यावर्तन कर रहा है। इस ब्रम्हचक्र में निरन्तर आवर्तन हो रहा है।
तटस्थ भूमि पे प्रतिष्ठित जीव आज्ञा चक्र में अवस्थित होकर उक्त अधोमुख संचालित शुद्ध अमृत धारा का पान करते हुए कृतार्थ हो रहा है। जीव जब तक उर्ध्वमुखी होकर उस धारा को ग्रहण करने में समर्थ नहीं होता, तब तक उक्त प्रसाद रूपी धारा उसके भोग में नहीं आता। 
साधारणतः जीव अधोदृष्टि सम्पन्न होता है। प्रकृति की उर्ध्वमुखी आनन्दधारा को वह मध्यस्थान से पहले अपहरण करता है। अर्थात भोक्ता बनकर परमेश्वर की भोग्यवस्तु को परमेश्वर को अर्पित होने से पहले स्वंय ही उपभोग करने में प्रवृत्त होता है। इस चौर्य प्रवृत्ति के कारण जीव निरन्तर बद्ध होकर रह जाता है। फलस्वरूप जीव जिस भोग्यवस्तु को प्राप्त करता है, वह अशुद्ध रह जाती है। अशुद्ध भोग्य के भोग को उपभोग कहा जाता है, भोग नहीं कहा जाता । अगर जीव लोभ-दृष्टि एवं तृष्णा को त्यागकर अनासक्त रूप में उर्ध्वनेत्र से एक मात्र परम पुरुष की ओर लक्ष्य निबद्ध रख सके , तो भोग्य वस्तु न चाहने पर भी परमेश्वर से प्रत्यावर्त आनन्दधारा वह स्वतः प्राप्त कर सकता है। यही प्रसाद ग्रहण है।.

या देवी सर्वभूतेषु बुद्धिरूपेण संस्थिता ⁠। 
नमस्तस्यै ⁠।⁠।⁠ नमस्तस्यै ⁠।⁠।⁠ नमस्तस्यै नमो नमः

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