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ह्र्दयाकाश रहस्य ।।

        ह्रदय शब्द से कौन सी वस्तु समझ में आती है, इसे प्रत्येक साधक को जान लेना आवश्यक है।कारण,ज्ञान,भक्ति आदि सभी मार्गों में ह्रदय के संम्बन्ध में एक स्पष्ट धारणा न रहने पर साधना-मार्ग में अग्रसर नहीं हुआ जा सकता। प्राचीन काल में वैदिक ऋषिगण देहर-विद्या नामक इस ह्रदय-विज्ञान का अनुशीलन करते थे।ह्रदय जो कि आकाश स्वरूप है, वे देहरआकाश है, इस शब्द के जरिये वे लोग इंगित कर गये हैं। यही अंतर आकाश का नामान्तर है। बाहिर जैसा विशाल अपरिच्छिन आकाश दिखाई देता है, वोही दृष्टि अंतर्मुखी होने पर भीतर भी विशाल अनन्त आकाश का स्फुरण होता रहता है। यही आकाश हृदय के नाम से परिचित है। इस ह्रदय- आकाश में ईष्ट का स्फुरण होता रहता है। जितने दिनों तक चित शुद्ध नहीं होता, उतने दिनों तक अन्तराकाश तमसछन्न रहता है। चित्तशुद्धि के साथ-साथ अंधकार दूर होजाता है एवं स्वच्छ प्रकाश रूप में अंतर्दृष्टि के सामने हृदय आकाश उदभासित होता है। इस के बाद स्वच्छ आकाश में ज्योति का आविर्भाव ही ज्ञान की सूचना देता है। भाहरी आकाश में जिस प्रकार सूर्य उदय होता है, अन्तराकाश में भी उसी प्रकार देवतरूपी सूर्य का आविर्भाव होता है। उस आलोक से तब आकाश आलोकित हो जाता है।
उपनिषदों में इस ह्र्दयकाश को ही पुण्डरीक अथवा कमल कहा गया है। जब तक यह कमल प्रस्फुटित नहीं होता तब तक अंतःकरण अंधकार से तमसाछन रहता है। जिसे ईष्ट देवता का आविर्भाव कहा जाता है, वस्तुतः वोही भावों का विकास है। भावों के विकास के साथ-साथ कमल उन्मीलन होता है, अर्थात ह्र्दयकाश आलौकित होता है। ये ह्र्दयरूपी आकाश अथवा पदम् ही इष्ट देवता का अर्थात भगवान का आसन है। गीता के अट्ठारवे अध्याय में कहा गया है---- 
"ईश्वरः सर्वभूतानां हृदेशरार्जुनतिष्ठिति । 
भ्रामयन सर्वभूतानि यंत्रारुढ़ानणी मायया"।

            - इससे समझ में आ जाता है कि सभी के ह्र्दय में अर्थात अन्तर्यामी पुरूष रूप में परमात्मा विराजमान हैं। वे उस शून्य आसन में अधिष्ठित रहते हुए अपनी अचिन्त्य मायाशक्ति द्वारा देह का निरन्तर संचालन कर रहे हैं। देह की प्रव्रत्ति एवं निवर्ती के मूल में ह्र्दयस्थित पुरुषोत्तम की प्रेरणा के बिना अन्य कोई कारण मौजूद नहीं है। अहंकार में आविष्ट जीव अपने अनेक ज्ञान ओर क्रियाओं पर अभिमान करता है। जानने एवं करने का कर्ता स्वयं को समझता है। किंतु वास्तव में यह उसका अभिमान मात्र है। वास्तविकता ये है कि वह ना जानता है ओर ना कर्ता है। 
वे दृष्टा मात्र है। यह ज्ञान और क्रिया शक्ति की लीला मात्र है। यह शक्ति माया रूपणी- जिनका आश्रय एवम अधिष्ठाता उसके ह्र्दयस्थित अन्तर्यामी पुरुष हैं। इस सिद्धांत को स्पष्ट रूप से समझ लेने पर जीव कर्म-बन्धन से मुक्ति प्राप्त कर सकता है।

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